नारद पर चिट्ठे पढ़ता रहा, सुपरमार्केट नहीं गया. घर में खाने की ढेर सारी चीज़ें थीं, नहीं था तो बस आटा. पत्नी का पारा चढ़ गया, शाम तक हँसती-मुस्कुराती बीवी डिनर के वक़्त तवे की तरह गर्म थीं. ऐलान किया, "मैं चावल नहीं खाऊँगी,तुम आटा क्यों नहीं लाए? आज तो तुम्हारी छुट्टी थी, दिन भर क्या करते रहे..."
एक खाते-पीते घर में वैसा ही दृश्य पैदा हुआ (सिर्फ़ कुछ मिनट के लिए) जैसा झोंपड़पट्टी में रहने वाले एक बेरोज़गार या अर्धबेरोज़गार बेवड़े के घर हर रात होता है. लगा कि अभाव और सदभाव का कितना व्युत्क्रमानुपाती (हिंदी माध्यम से भौतिकी पढ़ने वाले जानते हैं इसका अर्थ,यानी ठीक विपरीत उसी अनुपात में ) संबंध है.
दिल्ली, मुंबई और बंगलौर जैसे शहरों में पानी-बिजली और फ्लश-संडास से लैस अपार्टमेंटों में रहने वाले लोग हर रोज़ पड़ोस के झुग्गीवालों की 'असभ्यता' के सैकड़ों उदाहरण देखते हैं जो उन्हें इस बात का एहसास दिलाता रहता है कि वे कितने सभ्य, शिक्षित, सुसंस्कृत, भद्र, सुशील, संस्कारवान, उदार...आदि हैं.
भ्रमित अनामदास की आदत है ज़रा ग़ौर से देखने की जिससे उसका भ्रम और गहराता ही है. हमेशा लगता है कि सच वह नहीं है जो ज़्यादा दिखता है,वह भी सच है जो हमें नहीं दिखता, हम देखना- मानना नहीं चाहते.
अपार्टमेंट वाले जब एसी थ्री-टियर की क़ीमत पर उड़ान भरने के लिए एयरपोर्ट पहुँचते हैं तो एयर ढक्कन की अव्यवस्था में उनकी सारी भद्रता हवा हो जाती है. एयरपोर्ट पर वही नज़ारा होता है जो म्युनसिपालिटी के बंबे पर होता है. म्युनसिपालिटी के एक नल से एक हज़ार लोगों के लिए पानी की पतली धार सिर्फ़ दो घंटे के लिए आती है और ऐसे में सिर्फ़ दो-चार लोगों के बीच खटपट होती है जो आश्चर्यजनक रूप से असाधारण बात है.
अभी फ़रवरी महीने में संगम पर लाखों लोग जुटे थे, लगभग सभी अपनी गठरी-मोटरी में चूड़ा, सत्तू, चबेना, लाई-मूड़ी लेकर आए थे. ज़्यादातर लोग ऐसे थे जिन पर सभ्य, शिक्षित, सुसंस्कृत, भद्र, सुशील, संस्कारवान, उदार...आदि होने के आरोप नहीं लगाए जा सकते. अब कल्पना कीजिए कि इतनी ही बड़ी तादाद में अपार्टमेंट में रहने, कार में घूमने और मोटी पगार पाने वाले एक नदी के किनारे कीचड़ से लथपथ उबड़खाबड़ तट पर जमा हों तो वहाँ का नज़ारा क्या होगा? ओह शिट...आउच...हाउ मेनी पीपुल... ओह इट्स सफ़ोकेटिंग...डिस्गस्टिंग...
दरअसल,सुविधा में रहने वाले लोग इतने सुविधाग्रस्त हो जाते हैं कि ज़रा सी असुविधा उन्हें बुरी तरह बेचैन कर देती है, सुविधा शायद निकोटिन और क़ैफ़ीन से भी ज़्यादा एडिक्टिव है. इसके विपरीत अभाव एडिक्टिव नहीं बल्कि सेडेटिव (शामक) है. लोग कहते हैं कि अभाव में रहने वालों को उसकी आदत पड़ जाती है लेकिन ऐसा नहीं है, अभाव में व्यक्ति प्रत्यन करके अपनी आवश्यकताओं को स्थगित करने की तक़लीफ़ सहना सीखता है, कभी हँसकर,कभी गाकर, कभी भगवत- भजन करके... वह प्रयास करके ऐसा बनता है ताकि उसे कम तक़लीफ़ हो. सुविधाग्रस्त आदमी को कोशिश नहीं करनी पड़ती आदत डालने की, सुविधा बेचारे को फ़ौरन ही दबोच लेती है, उसे पता तक नहीं चलता.
सुविधाग्रस्त लोगों को तक़लीफ़ ज़्यादा होती है मगर इसकी वजह सिर्फ़ सुविधा की आदत नहीं है. जैसा गौतम बुद्ध ने कहा है--संसार में दुख है और सभी दुखों के मूल में तृष्णा है. तृष्णा की आग तृष्णा की पूर्ति से नहीं बुझती बल्कि भड़कती है. जैसे-जैसे व्यक्ति सुविधासंपन्न होता जाता है उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है क्योंकि वह काफ़ी हद तक अक्सर पूरी भी होती रहती है. इसी के बरअक्स अभाव में व्यक्ति इच्छाओं को मारता जाता है और इच्छाएँ भी मानो समझने लगती हैं कि उन्हें पूरा नहीं किया जा सकता इसलिए वे शांत ही रहती हैं. आपने इलाज के अभाव में मरते हुए व्यक्ति के रिश्तेदार को यह कहते नहीं सुना कि मजबूर हैं इससे बेहतर इलाज नहीं करा सकते, उसके चेहरे पर दुख तो होता है लेकिन बेचैनी नहीं होती. सुविधाग्रस्त व्यक्ति की बेचैनी बेहतरीन स्कूल के बाहर बच्चों के एडमिशन के मौसम में देखी जा सकती है जो सरकारी अस्पताल के बाहर नहीं दिखती.
सुविधाग्रस्त व्यक्ति शुरूआत से अपनी इच्छाएँ बढ़ाता जाता है और अपने निरंतर दुखी होने का इंतज़ाम करता जाता है, जीवन में उसका बहुत कुछ दाँव पर लगा होता है, अँगरेज़ी में जिसे 'हाइ स्टेक' कहते हैं जबकि अभाव में जी रहे व्यक्ति के पास न ज़्यादा खोने की आशंका होती है न ज़्यादा पाने की संभावना.
अब आपके सामने दो विकल्प हैं--अभाव में जीने के दुख उठाएँ या सुविधा में जीने के. पहला विकल्प आसान है उसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ता, भारत में अभावयुक्त जीवन सहज प्राप्य है लेकिन मेरे-आपके जैसे लोगों की दोहरी ट्रेजडी है--पहले जी-जान से चीज़ों के पीछे भागना और कुल मिलाकर
अभाव में जीवन जीने वाले व्यक्ति से कहीं ज़्यादा बेचैन रहना.
बहरहाल, दुख तो उठाना ही होगा, जैसा कबीर कह गए हैं--
देह धरन के दुख हैं,सब काहू को होए
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोए
इससे बचने का उपाय बताना चाहें तो बताइएगा, बीच के रास्ते की बात साथी करते हैं लेकिन बीच का रास्ता इस किनारे से थोड़ा कम दूर या थोड़ा ज़्यादा दूर होता है, सड़क तो एक ही है, जो जा रही है एक ही दिशा में.
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5 टिप्पणियां:
सही है, सरकार..
यूं तो बात बेहद गंभीर है। सही भी है-लेकिन कहने के अंदाज़ में व्यंग्य भी है- लिहाजा पढ़ने में मज़ा आया।
बहुत ही अच्छा लगा चीजों और हालात को देखने का एक अलग नजरिया।
अभाव एवं सदभाव के बीच के व्युत्क्रमानुपाती संबंध और अभावग्रस्त एवं सुविधाग्रस्त जीवन की एक जैसी नियति के मद्देनज़र विकल्प चुनने के अंतर्द्वंद्व का चित्रण आपने बखूबी किया है। यही तो संसार प्रपंच है, जिससे हर जीव को गुजरना पड़ता है।
बहुत बढ़िया लेखन...
चचा ग़ालिब कह गए हैं-
फ़िक्रे दुनिया में सर खपाता हूं
मैं कहां और ये बवाल कहां
....वो शबो-रोज़ो माहो-साल कहां....
शुक्रिया अच्छे आलेख के लिए
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