पंजाब में भड़के हुए सिखों की भीड़ एक पंथ को 27 तारीख़ तक बंद करा देना चाहती है. मानो वह कोई पंथ नहीं, गली के नुक्कड़ पर चलने वाली चाय की दुकान है.
लोकतंत्र में इससे शर्मनाक कोई बात नहीं हो सकती कि एक धर्म के मानने वाले कहें कि दूसरे अपना धर्म मानना बंद कर दें. इसके बाद उस राज्य के मुख्यमंत्री कहते हैं कि 'डेरा सच्चा सौदा' के लोगों को माफ़ी माँगनी चाहिए.
'डेरा सच्चा सौदा' ने भी वही किया है जो हुसैन, चंद्रमोहन और दूसरे लोगों ने किया है यानी भावनाओं को आहत किया है. लोगों को शरबत पिलाकर या कोई ख़ास पोशाक पहनकर बाबा गुरमीत रामरहीम सिंह ने सही किया या ग़लत यहाँ वह मुद्दा ही नहीं है, जैसे कि पहले के सारे मामलों में भी नहीं था.
यहाँ मुद्दा ये है कि जिसके पास ताक़त है, सत्ता की ताक़त, जनसंख्या की ताक़त, उग्रता की ताक़त...वही तय करेगा कि दूसरे क्या बोलें, क्या खाएँ, क्या पिएँ और क्या करें.
फ्रांस में स्कूलों में पगड़ी पहनने पर रोक लगा दी गई है, वहाँ ताक़त नहीं है तो सारी बहादुरी गुम हो गई है, सरकार से अनुमति लेकर लाइन लगाकर शराफ़त से सारे विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं जहाँ आबादी अधिक है वहाँ तलवारें खनक रही हैं.
यह बात सिखों की नहीं है, सबकी है. हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई इस मामले में सब भाई-भाई हैं. पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं लेकिन क्या वे कश्मीर या गोवा में ऐसी ही धौंस में रहना पसंद करेंगे जहाँ वे अल्पसंख्यक हैं.
यहाँ थोड़ा सामान्यीकरण हो रहा है, किसी भी धर्म के सभी लोग एक तरह से नहीं सोचते लेकिन मुखर उग्र अभिव्यक्ति ही सामने आती है इसलिए यहाँ उसी की बात हो रही है.
गुजरात के मोदी समर्थक एक हिंदू दोस्त लंदन आए और अँगरेज़ों के नस्लवादी रवैए की जमकर आलोचना की लेकिन यहाँ उनके सारे तर्क नए थे जो गुजरात में उनके काम नहीं आते.
धर्म और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते अगर दोनों तरफ़ से बराबर की सहिष्णुता न हो. यहाँ दोनों ओर से सीमाएँ टूटती दिख रही हैं. भारतीय जटिलता की परंपरा का निर्वाह यहाँ भी हो रहा है क्योंकि कई बार यही पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि धर्म कौन चला रहा है और लोकतंत्र कौन.
अकाली दल या भाजपा के मुख्यमंत्री होते हैं राज्यों की जनता के नहीं, कांग्रेसी हवा का रुख़ देखकर किधर भी जा सकते हैं, कोई किसी से कम नहीं है. उदाहरण अंतहीन हैं.
नेताओं से सबने उम्मीद छोड़ दी है लेकिन जनता भी नाउम्मीद कर रही है. अकालियों और भाजपाइयों को तो अपनी राजनीति चमकानी है लेकिन भीड़ में जो तलवार-त्रिशूल चमकाते हैं वो तो नेता नहीं हैं, किसी भी स्तर पर असहिष्णुता को बढ़ावा देने के ख़तरे से जो आगाह नहीं हैं वे ही सच्चे देशद्रोही हैं.
असहिष्णुता सिर्फ़ धर्म के मामले में नहीं है. जाति-भाषा-क्षेत्र-प्रांत सबको लेकर असहिष्णुता है. महाराष्ट्र हो या असम, मु्द्दा एक ही है कि बिहार-उत्तर प्रदेश से रोज़ी कमाने आए लोगों को कैसे भगाया जाए. मराठी हों या असमिया कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मूल बात है कि वे बहुसंख्यक हैं और उन्हें पता है कि लोकतंत्र के इस भारतीय संस्करण में उन्हीं की चलेगी.
बात यहीं ख़त्म नहीं होती, अब तो लोगों की साहित्यिक भावनाएँ भी आहत होने लगी हैं. नामवर सिंह ने पंत जी के अधिकांश साहित्य को कूड़ा बता दिया है इस पर राजनीति शास्त्र के एक अध्यापक की साहित्यिक भावनाएँ आहत हो गई हैं और उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है. इसके पहले शिल्पा के चुंबन की वजह से रोमांटिक भावनाएँ आहत हुई थीं.
बहस यह है ही नहीं कि पंत जी का साहित्य कूड़ा था या नहीं, बहस तो ये है कि अगर नामवर सिंह को ऐसा लगता है तो इसमें अदालत का क्या काम है. बात सिर्फ़ ये है कि किसी को थोड़ा परेशान करके नाम भी हो जाएगा और साहित्य-संस्कृति-धर्म के रक्षक भी बन जाएँगे, इससे आसान सौदा क्या हो सकता है.
दूसरी ओर, जज साहब साहित्य-चित्रकला-चुंबन सबके ज्ञाता हैं. उनके पास ढेर सारी फ़ुर्सत है, सिर्फ़ डेढ़ करोड़ मुक़दमे पेंडिंग हैं, सिर्फ़ कुछ लाख लोग हैं जो लौकी या मुर्गी चुराने के जुर्म में 20 साल से जेल में बंद हैं. उनकी बारी जब आएगी तब आएगी, लेकिन उससे पहले धर्म-संस्कृति-साहित्य को नष्ट-भ्रष्ट होने से बचाना ज़रूरी है. सीधे शब्दों में अदालतें ऐसे मुक़दमे शुरू करके असहिष्णुता को न्याय पर तरजीह दे रही हैं.
हर तरह की असहिष्णुता बाक़ी देश की तरह नारद पर भी दिखती है, विचारहीनता से उपजी असहिष्णुता और वैचारिक प्रतिबद्धता के थोथे अहंकार से पैदा हुई असहिष्णुता भी. ब्लॉग लिखने वाले आम नागरिकों से ज़्यादा समझदारी दिखाएँगे, यह उम्मीद कुछ ज़्यादा तो नहीं.
21 मई, 2007
भाइयों यह असहिष्णुता सही नहीं जाती
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13 टिप्पणियां:
बढ़िया लिखा है। इस असहिष्णुता को कैसे कम किया जाए?
भाई अनामदास जी, बिल्कुल सच्ची बात बड़े सधे हुए अंदाज में कह गए आप। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ। परंतु यह बदला कैसे जा सकता है। मैंने भी अनेक अवसरों पर अनुभव किया है कि जिस प्रकार हिंसा अथवा घृणा को मूल में रख कर पिछले दस - पन्द्रह वर्षों में आन्दोलन हुए हैं उससे सारा सोशल फैब्रिक ही उधड़ सा गया लगता है। हम इकट्ठा होना सीख गए हैं लेकिन नकारात्मक बातों पर। ज़रा बताइये पानी की समस्या दूर भगाने के लिए, सड़कों को ठीक करवाने के लिए, सरकारी मशीनरी की आयलिंग के लिए या ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए हम कभी सड़कों पर नहीं उतरे पर ऊट पटांग, मूर्खतापूर्ण विवादों को हम चक्का जाम कर के सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं अभी उत्तर की तलाश में हूँ, मन में आशा है कि अगला विद्रोह किसी सकारात्मक चीज़ के लिए हो।
यदि आपके मन में भी कोई समाधान हो तो अवश्य कहिएगा।
देखिए, कंप्यूटर में सिर ढुकाये रखने का नुकसान.. हमें 'डेरा सच्चा सौदा' विवाद की कोई भनक तक नहीं!.. अभी थोड़ी देर पहले तक हम आम के रसीलेपन में मगन थे.. मगर इस देश में ये सब सचमुच अद्भुत ही हो रहा है! मुर्गी और लौकी चुराने की सज़ा काट रहे अब बेहतर हो, भूल ही जाएं कि उनके न्याय को कभी फ़ुरसत बनेगी. ज्ञाता जज़ लोग तो अब यही सब नए-नए फ़ाइल बनाते चलें.. और बेहतर हो, अनामदास जी, आप भी सावधान रहें, आपके लिखे से पता नहीं किसके सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक किन-किन भावनाओं को कहां-कहां ठेस लग रही हो!
मैं कहीं भी, किसी भी प्रकार से असहमत होने का कोई बिन्दु नहीं खोज पा रहा हूं.
"मोहे न नारि नारि कै रूपा" की तर्ज पर ईर्ष्या हो रही है कि यह पोस्ट हमने क्यों नहीं लिखी?
...यहाँ मुद्दा ये है कि जिसके पास ताक़त है, सत्ता की ताक़त, जनसंख्या की ताक़त, उग्रता की ताक़त...वही तय करेगा कि दूसरे क्या बोलें, क्या खाएँ, क्या पिएँ और क्या करें.
इसपर एक बात बनती है. यहां अल्पसंख्यकता की भी ताकत है. थोक अल्पसंख्यकता अपना कार्ड खेलती है. मुसलमान/कलाकार/पर्यावरण वादियों की गोल बन्दी/सॉफ्ट नक्सली समर्थक - ये सब कार्ड खेलते हैं. सच्चा सौदा में भी अगर दलित/ओबीसी कार्ड है तो वह भी खेला जायेगा.
बहुत अच्छे मित्र .. पर ज़रा सँभल के.. कौन कब आहत हो जाय आजकल कुछ पता नहीं चलता.. अब जैसे कल आलोक पुराणिक का व्यंग्य पढ़ते पढ़ते मेरी ही ऐतिहासिक भावनएं आहत हो गईं.. फिर क्या था मैंने दे दिया उनको अल्टीमेट्म ..बस एकै बार में चेत गये..मान गये कि जमाना खराब है.. उनको भी तो पता है कि जैसा आपने बताया कि जज लोग आजकल न्याय का असली मर्म जान गये हैं..कि भौतिक जगत के अन्याय का फ़ैसला तो होता रहेगा.. पहले हृदय की चोटों का फ़ैसला हो जाय..
बस हमको कोई इतना भर समझा दे कि हृदय की चोट की जवाबी सजा भौतिक चोट से क्यों..? .. दो कड़्वी बात कह देने से काम न चलेगा क्या.. नामवरजी ने पंत जी को कूड़ा कहा.. आप नामवरजी को कूड़ादान कह दीजिये.. क्या वह काफ़ी ना होगा.. तो फिर इस अपराध के लिये उन्हे क्या सजा दी जानी चाहिये ?.. नामवरजी को बोलने से बैन कर देना कैसी सजा रहेगी.. लेकिन वो भी जीवट के आदमी है.. तो ज़बान ही काट डालिये उनकी. मेरा तो खयाल है कि पंत को भी बैन कर देना चाहिये ताकि उनको किसी को उनको कूड़ा कहने का मौका न मिले..या फिर हम निराला को भी बैन कर सकते हैं.. ताकि निराला के उजले प्रकाश में कोई पंत को कूड़ा न कह सके..
मेरे क्रांतिकारी दिमग में इस प्रेरक प्रसंग से एक नए समाज की सुनहरी तस्वीर उमड़ती चली आ रही है.. मैं बैठ कर उसे निहारता हूँ.. आप लोग देखिये क्या करना है नामवर जैसों का..
असहिष्णुता का मूल कारण क्या है?
जो दिखता है वो शायद नहीं है....जो दिख रहा है सिर्फ बिमारी का लक्षण है....कारण ढूँढे बिना इलाज नामुमकिन है।
सही कह रहे हैं आप ! भाई हमारी भावनाएँ कुछ अधिक ही नाजुक हो गई हैं , बहुत जल्दी आहत हो जाती हैं । जज के पास जाने से बेहतर होगा हम किसी डॉक्टर से इनका इलाज
करवाएँ ।
घुघूती बासूती
"'डेरा सच्चा सौदा' ने भी वही किया है जो हुसैन, चंद्रमोहन और दूसरे लोगों ने किया है यानी भावनाओं को आहत किया है. लोगों को शरबत पिलाकर या कोई ख़ास पोशाक पहनकर बाबा गुरमीत रामरहीम सिंह ने सही किया या ग़लत यहाँ वह मुद्दा ही नहीं है, जैसे कि पहले के सारे मामलों में भी नहीं था."
सब जानते है कि भारत में इन्ही कारणों से दंगे फ्साद हो जाते है तो क्या ऎसी घट्नाए ना हो इस के लिए शुरू होते ही रोकना गलत है? आप अपने रास्ते चल रहे हैं तो ठीक है ।इस से किसी का कोई विरोध नही।लेकिन किसी भी रूप में दूसरे धर्म से छॆड़ छाड़ क्या सही है?
बात सिर्फ़ ये है कि किसी को थोड़ा परेशान करके नाम भी हो जाएगा और साहित्य-संस्कृति-धर्म के रक्षक भी बन जाएँगे, इससे आसान सौदा क्या हो सकता है।
बिल्कुल सही लिखा है आजकल लोग कुछ भी कर सकते है। आजकल तो हर मसले के लिए लोग कोर्ट ही चले जाते है।
बहुत दिनो से पढ रही हूँ सरदार आपस मे
लड़ रहे है ऐसा नही कि सिक्खों मे ही एसा हो रहा है,...हमारे देश की ये आज विशेषता नजर आने लगी है आपस में ही लड़ते रहना,...क्या हुआ अगर आतंकवादीयो ने यहाँ डेरा जमाया...पडौसी मुल्क अगर आक्रमण भी कर दे तो क्या हुआ...आज हम सब भारतीय है कि भावना सिर्फ़ किसी खास मौके पर याद आती है जैसे की स्वतंत्रता दिवस मनाया जाये या किसी विदेशी का भारत में आगमन हो उसके स्वागत में गीत गाया जाये...हम सब भारतिय है...
भाई अनामदास जी आज पहली बार आपके चिट्ठे पर टिप्पणी कर रही हूँ कंही भावुकता में किसी को ठेस पहुचँ जाये तो क्षमा प्रार्थी हूँ...मगर ये सच है आपस में लड़ते रहना ही आज मेरे भारत की महानता बन गई है क्या यह आज का गुंडाराज तो नही...
सुनीता चोटिया(शानू)
आपके ब्लौग का रंग अब टैक्सी जैसा लगने लगा है।
यह सिर्फ उपमा है...असहिष्णुता नहीं... :))
आपकी बातें खारी खरी हैं व्यक्तिगत स्तर पर यह असहिष्णुता गायब रहती है लेकिन "व्यक्ति" जेसे ही "भीड़" बनता है, असहिष्णु हो जाता है
इस कष्टदायक विसंगति का कोई निदान भी नजर नहीं आता । भावोत्तेजित भीड़ भी उपदेश नहीं सुनती । वह तो अपनी आग के लिए घी ही तलाशती है । यह "भीड़" जिन्दगी के तमाम पहलुआंे को ढंके हुए है । आपकी बातें मन को मथती हैं । वाकई में आपसे असहमत होना मुमकिन नहीं ।
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