दुनिया भर में हिंदी अकेली बड़ी भाषा है जिसकी सेवा अधिक हो रही है और प्रयोग कम. हिंदी न हुई, मरती हुई गाय है जिसकी सेवा करने के लिए लोग गौशाला में जुट गए हैं और गली-गली चंदा माँग रहे हैं.
जिसने भी हिंदी की सेवा की बात की वो मेरी नज़रों से गिर गया. मैं हिंदी में काम करता हूँ, अधिक से अधिक करना चाहता हूँ, मेरी रोज़ी-रोटी हिंदी से चलती है, मेरा मानना है कि बहुत सारे लोगों के मन की भाषा हिंदी है लेकिन उसके प्रयोग की ज़रूरत है, उसकी सेवा की नहीं. सेवा की बात वही कर रहे हैं जिनकी नज़र हिंदी पर नहीं, मेवा पर है.
न्यूयॉर्क कुछ गए, कुछ नहीं गए, ज़्यादातर बुलाए नहीं गए लेकिन सेवा सब एक-दूसरे से अधिक कर रहे हैं. आगे भी करेंगे जिसने भी कहा वह हिंदी की सेवा कर रहा है, साफ़ समझ लीजिए कि उसे हिंदी नहीं आती, अँगरेज़ी तो क़तई नहीं आती और उसका इरादा भी दोनों में से किसी भाषा को सीखने या तमीज़ से बरतने का नहीं है.
हिंदी की सेवा सत्यनारायण कथा की तरह है जिसमें सत्यनारायण की कथा के अलावा सब कुछ है, उसका महात्म्य है लेकिन कथा नहीं है. महात्म्य है तथाकथित पंडितों, आलोचकों, विद्वानों, साहित्यकारों का. जिसकी वजह से मैंने हिंदी में पहली बार ईमेल लिखा उसका क्या, जिसकी वजह से मैं हिंदी में ब्लॉग लिख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ उसका क्या...जिनकी वजह से हिंदी में टीवी के चैनल और वेबसाइटें चल रही हैं उनका क्या... उन्हें परवाह भी नहीं है. वे अपना काम कर रहे हैं, पैसे कमा रहे हैं, बाज़ार पर उनकी नज़र है, उन्हें सरकारी ख़र्चे पर न्यूयॉर्क जाने की नहीं पड़ी है.
मैं हिंदीवाला हूँ और उसे आसान बनाने वालों का आभारी. मैं हिंदी में काम करता हूँ क्योंकि वह मेरी अपनी भाषा है और मुझे खूब अच्छी तरह आती है, मुझे अँगरेज़ी भी ठीक-ठाक आती है लेकिन वह मेरे मन की भाषा नहीं है, वह ज़रूरत की भाषा है इसलिए पर्याप्त ज्ञान के बावजूद उसमें लय नहीं है, लचक नहीं है, धार नहीं है. अँगरेज़ी में अगर मैं वही असर पैदा कर सकता जो हिंदी में कर लेता हूँ तो मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ जो हिंदी में लिखता, मैं कोई हिंदी सेवक नहीं हूँ. हिंदी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है, मैं हिंदी में सोचता हूँ इसलिए हिंदी में ही अपने आपको बेहतर व्यक्त कर सकता हूँ, बाक़ी सब अनुवाद है.
जिस तरह मैं हिंदी की सेवा नहीं कर रहा हूँ, उसी तरह बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लाखों-लाख लोग नहीं कर रहे हैं, उन्हीं के दम से हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ छप और बिक रही हैं, राजभाषा विभाग या विदेश मंत्रालय की कृपा से वे परे हैं इसलिए जीवित और सार्थक हैं वरना उनका भी अहर्ता, उपरोक्त, कदाचित, कदापि, यथोचित, निर्दिष्ट, तथापि, अधोहस्ताक्षरी वाला हाल हो चुका होता.
हर सरकारी दफ़्तर में मौजूद राजभाषा अधिकारी का काम ही है हिंदी को ऐसा बना देना ताकि अँगरेज़ी में काम करते रहने को जायज़ ठहराया जा सके. आपने कभी सोचा है कि आपको ब्लॉग लिखने में, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने में कोई दिक्क़त नहीं होती तो सरकारी काम करने वालों को क्यों समस्या आती है. सिर्फ़ इसलिए कि हिंदी में काम नहीं हो रहा है, उसकी सेवा हो रही है.
हिंदी का भला किसी के किए हो सकता है इससे ज़्यादा दंभ और मूर्खता की बात कोई और नहीं हो सकती. हिंदी का भला भी उसी तरह होगा जिस तरह अँगरेज़ी, स्पैनिश या किसी और बड़ी भाषा का हुआ है. सेवा करके नहीं बल्कि उसे बोलने-लिखने-पढ़ने की वजहें पैदा करके. इतना बड़ा सम्मेलन हो रहा है, किसी महान हिंदी सेवी की समझ में मामूली बात नहीं अँट रही कि हिंदी के बिना भारत में हर कॉर्पोरेट हाउस का काम चल रहा है जो चीन में नहीं चलता. भारत में हिंदी के बिना शान से काम चलता है और हिंदी वाले शर्मसार हैं, कल्पना कीजिए कि भारत जैसे बड़े बाज़ार में पैठ बनाने के लिए हिंदी आवश्यक होती तो स्थिति क्या होती.
भारत में जितनी हिंदी बची है वही बचा हुआ भारत है, बाक़ी इंडिया है. इंडिया में हिंदी के बिना मज़े में काम चलता है बल्कि वहाँ हिंदी डाउनमार्केट है, सिर्फ़ ड्राइवर, चपरासी, सब्ज़ीवाले और नौकरों से बोली जाने वाली भाषा है जो भारत से आते हैं. महानगरों में वही लोग हिंदी वाले हैं जिनके संस्कार क़स्बाई हैं, जो पैदाइशी या दूसरी पीढ़ी के शहरी हैं उनके लिए हिंदी एक गंवारू, डिफ़िकल्ट या यूज़लेस भाषा है, कम से कम ऐसी भाषा तो नहीं है जिसमें लिखा जाए और पढ़ा जाए, ठीक है टीवी पर चल सकता है.
जो भाषा अपनी ज़मीन पर तिरस्कृत है उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का पोला अभियान चलाने वाले अगर यही कार्यक्रम कर्नाटक या असम कर लेते तो शायद ज़्यादा सार्थकता होती, लेकिन सेवा का मेवा कैसे मिलता, न्यूयॉर्क गए बिना?
हिंदी का जो भी प्रचार-प्रसार हुआ है वह किसी हिंदी सेवक की कृपा या साधना से नहीं हुआ है, वह हुआ है सिर्फ़ बाज़ार की ताक़त की वजह से. मुंबई का सिनेमा हो या देश का हिंदी टीवी उसने हिंदी का प्रसार किया. 14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध करने वालों या न्यूयॉर्क में हिंदी का जश्न मनाने वालों से न पहले कभी हुआ है, न आगे कभी होगा. हिंदी चैनलों की भाषा बहस का मुद्दा हो सकती है, हिंदी सेवकों की भूमिका पर वक़्त ज़ाया करने का कोई तुक नहीं है.
सीधी सी बात है जिसे मानने में लोग बहुत देर लगा रहे हैं, जब तक हिंदी जानने, बोलने और लिखने की वजह से लोगों का जीवन बेहतर नहीं होगा तब हिंदी का यही हाल रहेगा. हिंदीवाला समृद्ध होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित होगी वरना उसकी दरिद्रता की गुदड़ी पहने उसकी भाषा घूमती रहेगी. एक छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी के टीवी समाचार चैनल चले, पत्रकारों के लिए महीने के लाख रूपए की तनख्वाह आम हो गई, हिंदी का मीडिया मार्केट रातोरात अपमार्केट हो गया. अँगरेज़ी में सोचने वाले, आह-उह के बदले आउच करने वाले फटाफट सीखने लगे कि नो कॉन्फिडेंस मोशन को अविश्वास प्रस्ताव कहा जाता है....कू को तख़्तापलट कहते हैं और इमरजेंसी मतलब आपातकाल... वीर संघवी गुलाबी हिंदी बोलने लगे.
जब तक पैसे नहीं थे तब तक हिंदी वर्नाकुलर था, अब मेनस्ट्रीम है. लेकिन यह सिर्फ़ मीडिया में हुआ है, इसे और क्षेत्रों में जो कर दिखाएगा वही हिंदी की सेवा भी करेगा और मेवा भी खाएगा. बाक़ी सब बकबक है या कोरी लालच, ज़्यादा ध्यान मत दीजिए.
16 जुलाई, 2007
हिंदी की सेवा मत करिए, प्लीज़
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27 टिप्पणियां:
आप तो इतना अच्छा लिखते है!
बहुत खूब। हिंदी हमारे मन की भाषा है, व्यक्तित्व का हिस्सा है।
बह्त शानदार लेख और शायद बिलकुल सही समय पर,आया है,मै आपकी बात से सहमत हू,इंडिया वाले हिंदी मे लिख कर ज्यादा समय हमे यह एहसास दिलाने मे ही लगाते है कि वह सेवा कर रहे है,और यह उन्होने बडा भारी उपकार किया है,पता नही कहा से इन काले अग्रेजो को यह गलतफ़हमी हो गई है कि उनकी वजह से हिंदी है.और चंदा लेकर सेवा का जिक्र ऐसा ही है,जैसे मुर्गे की टाग खाते हुये,अहिंसा पर भाषण देना..?
हमेशा की तरह अनामदास का जबरदस्त आख्यान. असहमत होने की गुंजाइश ही नही!
क्या बात है- सारी सच्चाई खोलकर- दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया आपने! ज़रा किसी को पता करना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र और दुनिया में हिंदी का ढोलक बजवाने की चाह रखनेवाले न्यूऑर्क पहुंचे इन महानुभावों में कितनों को एक पेज़ तक सही हिंदी लिखने की तमीज़ है?
मैं आपके पूरे लेख से सहमत हूं बस एक बात और जोडना चाहता हूं की मैं मितुल पटेल जैसे लोगों को हिंदी का बेहतर समझता हूं जिन्होंने हिंदी विकिपीडियाओं पर ढेरों लेख पहुंचाएं. विशाल पाहूजा जैसों को बेहतर मानता हूं जिन्होंने ओपन सोर्स कोड का हिंदीकरण कर के जन-जन तक पहूंचाया और पहूंचा रहे हैं. कई लोग ये नाम पहली बार पढ रहे होंगे क्योंकी इन सेवकों की चिल्ल-पों के चलते वे और उन जैसे कई नेपथ्य में ही रहते आए हैं और रहेंगे लेकिन हम जैसे उन्हें अपना हीरो मानते हैं और मानते रहेंगे. हिंदी से हर कोई मेवे के लिये नही जुडा कुछ हैं जो बस जुडे हैं गहरे जुडे हैं अनकंडीशनल और वे ही सच्चे हिंदीप्रेमी हैं.
मेरा स्लाम स्वीकारें
सत्य वचन महाराज
देखें बाजार की ताकत के असर से हम हिंदी ब्लॉगिंग में हिंदी की कितनी ,कैसी और कब तक "सेवा "करते हैं !
इतना बड़ा सम्मेलन हो रहा है, किसी महान हिंदी सेवी की समझ में मामूली बात नहीं अँट रही कि हिंदी के बिना भारत में हर कॉर्पोरेट हाउस का काम चल रहा है जो चीन में नहीं चलता.
बहुत ख़ूब. यही सच है. अव्वल तो जितने हिन्दीसेवी हैं, उनमें कोई चाहता भी नहीं कि हिंदी का प्रयोग बढ़े.
सही बात सही तरीके से सही समय में
हिन्दी जी सच्ची तसवीर पेश करता आलेख.
ये हुई न खरी-खरी।
लेख निस्सन्देह बढिया है लेकिन यह बात समझ से परे है कि हिन्दी के मामले में हम लोग दूसरों से उम्मीद क्यों कर रहे हैं । जिसे जो करना हो करे, हम अपना काम लगातार ईमानदारी से करते रहें । हिन्दी किसी की मोहताज नहीं । बस, इतना ध्यान रखते रहें कि यह अकादमिक या प्रशासनिक भाषा न बन जाए ।
कम्प्यूटर हमारे समय का सर्वाधिक प्रभावी औजार बन गया है । आने वाले दिनों में ब्लागिंग की बहार आने वाली है । इसके बारे में अधिकाधिक लोगों को बताएं, उन्हें इससे जोडें और इसे अधिक आसान तथा लोकप्रिय बनाने की कोशिश करें । कोई क्या हिन्दी की सेवा करेगा ? इसे किसी की सेवा की जरूरत नहीं है । यह हम सबको ताकत देती है । गुस्सा मत कीजिए । हम में से प्रत्येक, अकेला ही जानिब-ए-मंजिल चलते रहें । काफिला तो बन कर ही रहेगा ।
शानदार.
बिल्कुल सही कहा है आपने।
जो भाषा अपनी ज़मीन पर तिरस्कृत है उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का पोला अभियान चलाने वाले अगर यही कार्यक्रम कर्नाटक या असम कर लेते तो शायद ज़्यादा सार्थकता होती, लेकिन सेवा का मेवा कैसे मिलता, न्यूयॉर्क गए बिना?
आपके लेख की तारीफ किए बिना नहीं रहा जा सकता। आपसे सहमत होऊं या नहीं लेकिन आपने अपनी बातों को बहुत ही सशक्त तरीके से रखा है।
वैसे आपकी अधिकतर बातों से सहमत हूँ।
आलोक पुराणिक जी से उधार लिया हुआ साधुवाद... शानधारम...
इस बेहतरीन आख्यान पर हमारा भी सलाम और साधुवाद (ये वाला बिना उधार लिया :)).
वाह भाई, क्या बात है!
आपने अपने लेख में आडम्बरी हिन्दी सेवकों को सही में वेनकाव किया है। मेरा भी यही अनुभव रहा है कि हिन्दी की रोटी खाने वाले एवं तथाकथित हिन्दी सेवकों, अंग्रेजीदा नौकरशाहों और नेताओं ने हिन्दी को जितना नुकशान किया है,शायद अन्य किसी ने नहीं। फिर भी हम हिन्दी प्रेमियों को अपने देश के विभिन्न कार्यों में अपनी प्यारी एवं गरिमामयी भाषा को अपना हक दिलाने में पूर्णसमर्पित रहना चाहिए। हिन्दी को रोजी-रोटी ,विज्ञान,न्यायालयों, कार्यालयों आदि से जोङने का संकल्पित एवं सृजनात्मक सच्चा
अभियान में जुटे रहना है।
भोला भगत, न्यू जर्सी , अमेरिका
18-07-07
bahut acche..
बहुत ही अच्छा और शानदार ।
लेखक को मेरा नमस्ते ।
बात तो आपने बिल्कुल खरी कही है अनामदास जी.
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क्षमा करें प्रभु,
आज एक जगह से दूसरे..फिर तीसरे जगह से सही लिंक पकड़ कर यहाँ तक आया हूँ, बल्कि कहें कि यहाँ पर पैदा हुआ हूँ । निःसंदेह आलेख अकाट्य है । मुझे इस पाठशाला में नित्य प्रति आना ही होगा !
देर से पढा लेकिन आप से पूरी तरह से सहमत हूँ .....
बहुत देर से पढा आपका, लेख। लिन्क भी मिला तो एक ऐसे चिठ्ठे पर जिसका जिक्र ना हि किया जाये तो बेहतर है। आपका कहना सही है। यही सेवा कर कर के इन लोगो ने संस्कृत का वध कर दिया। इश्वर बचाये ऐसे की हिन्दी सेवा करने वाले कारसेवकों से।
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