बॉलीवुड से सीख लेने की सलाह गुस्ताख़ी नहीं, इज़्ज़तअफ़ज़ाई है क्योंकि कथित समाचार चैनलों की होड़ मुक्ता आर्ट्स, नाडियाडवाला या अब्बास-मस्तान एंड कंपनी से नहीं बल्कि छोटे पर्दे पर चाँदी काटने वाली कंपनी बालाजी टेलीफ़िल्म्स से है.
कथित समाचार चैनलों के कर्ताधर्ता अनेक बार रिकॉर्ड पर कह चुके हैं कि "हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं." डेविड धवन और सुभाष घई इससे अलग क्या कहते हैं?
समाचार चैनलों के आला अफ़सर बार-बार 'कथित' के प्रयोग पर नाराज़ हो सकते हैं लेकिन वे तब तक कथित ही रहेंगे जब तक वे सचमुच समाचार नहीं दिखाते. समाचार-विचार दिखाने का काम फ़िलहाल दूरदर्शन के सिवा हिंदी में कहीं नहीं हो रहा है. मगर वहाँ समाचार और विचार दोनों सरकारी हैं क्योंकि उन्हें एकता कपूर की नहीं, प्रियरंजन दासमुंशी की चिंता है.
व्यावसायिक दबाव की बात तो जायज़ है, घर से पैसा लगाकर कौन समाचार दिखाएगा? पत्रकारों को तनख़्वाह देनी है, मालिक को फ़ायदा चाहिए, ओबी वैन, स्टूडियो और दिल्ली-नोएडा में अच्छी जगह पर दफ़्तर के अपने ख़र्चे हैं... लेकिन जीबी रोड-सोनागाछी-कमाटीपुरा की व्यावसायिकता और पत्रकारिता की व्यावसायिकता का कुछ तो अंतर हो? हिंदी में अभी ये अंतर नहीं दिख रहा है, अपवादों को छोड़कर.
बहरहाल, मुक़ाबला कथित समाचार चैनल के रिपोर्टरों और 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' वाले राम या तुलसी के बीच है. इस मुक़ाबले को जीतने के लिए ज़रूरी है कि याद्दाश्त खो जाए, पुनर्जन्म हो जाए और नागिन पिछले जन्म का बदला ले...कम से कम अपराध-साज़िश या रंजिश तो ज़रूर हो.
दरअसल, भारत का दुर्भाग्य है कि दो बहुत बड़ी घटनाएँ लगभग एकसाथ हुईं, भारत का बाज़ारीकरण और भारतीय टीवी चैनलों का बाज़ारूकरण. निजी समाचार टीवी चैनलों का दौर थोड़ा पहले या कुछ बाद शुरू होता तो स्थिति संभवतः अलग होती. जिस टीवी जैसे सशक्त माध्यम से बदलते समाज पर सार्थक टिप्पणी की अपेक्षा हो सकती थी वही बाज़ार के ताल पर सबसे ज़्यादा नाच रहा है. ख़ैर, रास्ता बाज़ार से बहुत दूर जाकर नहीं, उसी के बीच से निकलेगा.
टीवी टुडे और बालाजी फ़िल्म्स की कमाई के आँकड़ों का अंतर देख लीजिए तो आपको इस बेचैनी की वजह समझ में आ जाएगी. भारत में कथित समाचार चैनलों की सारी आपाधापी की वजह यही है कि वे अपने हर कार्यक्रम के प्रायोजकों की सूची में उतने ही नाम चाहते हैं जितने सास बहू वाले सीरियलों में होते हैं. देश में कुछ गिने-चुने कलाकर हैं जो कबड्डी-कबड्डी से चार गुना तेज़ गति से बोल सकते हैं इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं...
पैसे देने वाले हिंदुस्तान लीवर, कोलगेट-पामोलिव से लेकर बरनाला सरिया जैसे ये नाम यूँ ही नहीं आते, उन्हें इस बात का आश्वासन नहीं चाहिए कि कार्यक्रम अच्छा है, वे जानना चाहते हैं कि इस कार्यक्रम को कितने लोग देख रहे हैं यानी टीआरपी कितनी है. यहीं आकर टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार बॉलीवुड प्रोड्यूसर की भूमिका अख़्तियार कर लेते हैं.
इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें और अस्सी के दशक के बॉलीवुड को देखें तो माहौल वही था जो आज टीवी का है. तब जितेंद्र का हिम्मतवाला चल रहा था आज उनकी बेटी के 'क' वाले सड़ियल चल रहे हैं. सिनेमा के धंधे में बड़ा बदलाव जो आया है उसकी एक वजह मल्टीप्लेक्स थिएटर हैं जहाँ लोग अधिक पैसे देकर भी अपनी पसंद की 'मक़बूल', 'नीली छतरी वाली लड़की' और 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' जैसी छोटे बजट की कुछ समझदारी वाली फ़िल्में देखते हैं.
डेविड धवन, धर्मेश दर्शन, गुड्डू धनोआ, हैरी बावेजा टाइप लोगों के नेतृत्व में चलने वाले अक़ल से पूरी तरह पैदल बॉलीवुड के भीतर भी जगह बनी है 'डोर,' 'खोसला का घोंसला' और 'इक़बाल' जैसी ढेर सारी फ़िल्मों के लिए. बॉलीवुड ने जुडवाँ, प्लास्टिक सर्जरी, हमशक्ल, खोई याद्दाश्त वगैरह के जितने फार्मूलों को भरपूर इस्तेमाल के बाद फेंक दिया उन सबको शरण मिली टीवी सीरियलों और थोड़े अलग अंदाज़ में कथित न्यूज़ चैनलों पर. अक्लमंद लोगों के इस पेशे में सचमुच के समाचार के लिए जगह कैसे और कब निकलेगी यही लाख टके का सवाल है.
टीवी की दुनिया में एक बड़ा बदलाव आ रहा है, महानगरों के ज़्यादातर अपार्टमेंटों में टाटा-स्काई और डिशटीवी ने अपनी पैठ बना ली है. उनके सेट टॉप बॉक्स से मिलने वाले आँकड़े चंद शहरों के कुछ घरों में लगे टीआरपी रेटिंग के बक्सों से अधिक विश्वसनीय हैं. यही नहीं, जिस किसी ने पैसे ख़र्च करके अपने घर में डिजिटल क्वालिटी में टीवी देखने के लिए डिशटीवी या स्काई लगवाया है उसकी क्रयक्षमता भी अधिक है. वह दिन दूर नहीं है जब टीआरपी विज्ञापन देने वालों के लिए कोई भरोसेमंद पैमाना नहीं रह जाएगा क्योंकि उसका आधार तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा है.
मैं मानने को तैयार नहीं हूँ कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई और बंगलौर जैसे शहरों के पढ़े-लिखे और भारी जेब वाले लोग नाग-नागिन या किसी चमत्कार को देखकर रोज़-रोज़ चकित होना चाहते हैं, उनकी ज़्यादा दिलचस्पी मध्यवर्ग से उच्चवर्ग में दाख़िल होने में है. भूत-प्रेत या अंधविश्वास के दूसरे कार्यक्रमों से उनका स्टेटस नहीं सुधरेगा बल्कि उनकी रुचि उन चैनलों में ज़्यादा होगी जो बीबीसी, ब्लूमबर्ग और डिस्कवरी के टक्कर की सामग्री देकर समझदारी के मामले में उन्हें ग्लोबल स्तर पर ले जा सकें.
टीवी के कथित समाचार चैनलों का बाज़ार इतना सीधा-सपाट बहुत दिन तक नहीं रहने वाला है जैसा अभी है. जल्दी ही समाचार चैनलों को संपन्न उपभोक्ता यानी शहरी मध्यवर्ग की असली रुचि का अंदाज़ा टीआरपी से परे जाकर होगा, उसी दिन यह सूरत बदलने लगेगी. शायद लाइफ़स्टाइल, लेटनाइट पार्टी, फ़ैशन और बुटिक की कवरेज़ अब से कई गुना ज़्यादा बढ़ जाएगी लेकिन भूत-प्रेत बेरोज़गार हो जाएँगे.
असली समस्या लेकिन तब भी बनी रहेगी. भारत के 10 करोड़ महानगरीय, शिक्षित, अपव्ययी और उच्चाभिलाषी लोगों की ज़रूरत शायद जल्दी परिभाषित हो जाए लेकिन बाक़ी के 90 करोड़ देहाती-क़स्बाई लोगों की समस्याओं को ख़बरों में लाने के बदले उन्हें तरह-तरह के टोटकों से बहलाने की ठगविद्या चलती रहेगी. इससे बड़ी मिथ्या कोई नहीं हो सकती कि क़स्बों-गाँवों में रहने वाले लोग जड़बुद्धि हैं जो समाचार में सिर्फ़ सस्ती सनसनी खोजते हैं. भूलिए मत कि नीमच, दमोह, खुर्जा से लेकर गुमला-दुमका तक में लोग ख़रीदकर अख़बार और पत्रिकाएँ पढ़ते हैं.
"कान, लोकार्नो और वेनिस जैसे फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में कोई नहीं पूछता, ऑस्कर नहीं मिलता तो क्या हुआ, हम अपने बाज़ार में मस्त हैं, हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं."... ऐसा मेनस्ट्रीम बॉलीवुडीय रवैया जिन टीवी न्यूज़ चैनलों का रहेगा उनको लेकर यही बहस जारी रहेगी. मगर कई और लोग प्रणय रॉय-राजदीप सरदेसाई की भी तरह होंगे जो समाचारों-विचारों और मुद्दों की बात करेंगे जैसा कि किसी भी सभ्य-सुसंस्कृत देश में होता है.
शायद बहस का अगला दौर इस पर केंद्रित होगा कि क्या सिर्फ़ शहर के पढ़े-लिखे समृद्ध लोगों के बाज़ार को मुख्यधारा माना जाए या फिर अधिसंख्य देहाती, हिंदीभाषी और निर्धन लोगों को. दोनों की अपनी जगह रहेगी, अपनी ताक़त और समस्याएँ भी बनी रहेंगी. ऐसा मानना मेरे लिए असंभव है कि देश के सारे लोग वाक़ई वही देखकर ख़ुश हैं जो उन्हें परोसा जा रहा है. भारत में टीवी समाचारों के बाज़ार में अभी बहुत बदलाव बाक़ी है.
26 जुलाई, 2007
कथित न्यूज़ चैनल बॉलीवुड से कुछ सीखें
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12 टिप्पणियां:
आप तो उम्मीद जगा रहे हैं। सिनेमा और टीवी में एक बडा अँतर है कि न्युज चैनल चलाने के लिये बहुत साधन चाहिए और दैनिक स्तर पर चाहिय़े। फिल्म बनाने की तरह नहीं है कि चार लोग मिले,पैसे जुटाये और फिल्म पुरी हो गयी। वैसे आपका विश्लेशण बहुत संतुलित है।
अच्छा विश्लेषण किया है।
टी वी कौन और कब देखता है?
1. उच्च वर्ग के लोग बहुत कम देखते हैं। उनके नौकर चाकर देखते हैं। फिर सास बहु के कार्यक्रम बिल्कुल सही हैं।
2.मध्य वर्ग में सारे दिन घर बैठी गृहिणियाँ देखती हैं। उन्हे भी यह बाहर जाकर करी जाने वाली नुक्ताचीनी से बेहतर लगता है।
3. जिनके घर टी वी चैनल न्यूस चैनल पर ट्यून्ड होता है...उनके लिये वह बैकग्राउन्ड नाय्स से ज्यादा कुछ नहीं।
4.निम्न वर्ग के लोग दिन भर के काम के बाद कोई स्वप्निल दुनिया में जाना चाहते हैं। जिसके लिये आज कल की बालीवुड़ का रवैया सही है।
अब बात उन लोगों की जिनकी आप कर रहे हैं। भारत का यह हिस्सा बहुत समझदार हो चुका है। सही राय के लिये यह टी वी चैनल नही जाता।सोर्स से इनफौर्मेशन और कंप्यूटर पर तलाश।
अधिसंख्य देहाती, हिंदीभाषी और निर्धन लोग....हाँ इन्हे मुख्यदारा समझना चाहिये। शायद इनसे सही बात सही तरीके से कहने पर भारत के विकास को सही दिशा मिल सकती है।
किन्तु आमदनी इतनी आसानी से नहीं।
आगे और सोचने को मजबूर करता है आपका यह लेख।
बहुत सही!!
आज के टीवी कार्यक्रम अपने दर्शकों की समझ का सम्मान नहीं करते अत: उन्हें सिर्फ़ मूर्ख ही देखेंगे!
इसका मतलब ये भी है की एक बडा दर्शकवर्ग मूर्ख है और जो जंक परोसा जा रहा है उसे चटखारे ले कर खा रहा है.
कुछ समझदार लोग ढेर सारे मूर्ख लोगों को कचरा परोस कर चांदी काट रहे हैं!
अनामदास जी ,
आज दिल्लीविश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में जनसंचार जैसे विषयों को पढाते हुए सारी बातचीत को घूमफिरकर इन्हीं मुद्दों पर आना पडता है ! आज हमारे समाचार चैनल्स में बढता नाटकीकरण व्यावसायीकरण -एकता कपूरीय शैली को कॉपी करता है ! यहां जनसंचार से जुडे नैतिक पक्ष,सैद्दांतिक पक्ष की कॉलेज विद्यार्थियों के साथ चर्चा बहुत चुनौती का काम हो जाती है!इस मुद्दे को भी कभी उठाएं!
अच्छी विचारपूर्ण चर्चा !
वर्तमान के साथ साथ भविष्य का भी बेहतरीन विश्लेषण। शुक्रिया
अरे तो भाई! ये जो छोटा पर्दा है ये बडे परदे का छोटा भाई ही तो है न!
वैसे साढ़े और संतुलित विश्लेषण के लिए बधाई.
बहुत खूब अनामदासजी। अच्छा-सटीक विश्लेषण। पर टीवी वालों को बिना गरियाए छोड़ दिया। आजकल हरकोई इसका मौका छोड़ना नहीं चाहता। जायज़ भी है। गांव-देहात-शहर में जब से मदारी गायब हुआ है ये जिम्मेदारी न्यूज़चैनलों न संभाल ली है। डमरू बजा-बज़ा के दिन भर नाग-नागिन, बंदर-बंदरिया और न जाने क्या क्या दिखाते रहेंगे। कभी-कभी तो बड़ा ताज्जुब होता है कि इन खबरों को लिखने वाले, पढ़ने वाले और रचने वाले वही पत्रकार हैं जो हिन्दी प्रिंट माध्यम से गए थे ? अपन तो बच कर आ गए भैय्या।
धन्यवाद, अजित भाई. मैंने जानबूझकर गरियाने में एनर्जी ख़र्च करने के बदले बेहतरी की गुंजाइश देखने की कोशिश की है. कथित न्यूज़ चैनल को इतना गरियाया जा चुका है कि अब उनके लिए कोई नई और मौलिक गाली ढूँढना भी मुश्किल काम है.
आपने जो लिखा उससे उम्मीद की एक किरण तो दिखी है पर डिशटीवी और टाटा स्काई के उस हद तक प्रसार में अभी वक्त लगेगा।औऱ जबतक हम उस स्तर तक नही पहुंचते तबतक हमारे लिए नर्क है।जबरदस्त लिखा है......अगले आलेख का इंतजार रहेगा..................
अनामदास जी, हफ्ते भर से कहां हो? यहां सावन बीता जा रहा है,वहां गर्मी से परेशान अंग्रेजिनों की संगत में फंसकर सोने से ही फुरसत नहीं मिल रही आपको?
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