मेरे स्कूल का नाम ही पर्याप्त प्रेरणादायी था--राजकीय उच्च माध्यमिक बालक विद्यालय. सरकारी स्कूल होने की वजह से फ़ीस का कोई सवाल नहीं था, सबके लिए शिक्षा सुलभ थी. भारत में 'सुलभ' शब्द के साथ जैसी छवि उभरती है वैसा ही हमारा विद्यालय था.
वह जीवन की सच्ची पाठशाला थी, कोई किताबी स्कूल नहीं था. आदर्श, नीति, नियम आदि बनाए थे बेचारे मास्टरों ने, लेकिन बच्चे सीखते थे कई एकड़ फैले मैदान में चलने वाले प्रैक्टिकल क्लासों में.
प्रैक्टिकल के टीचरों में मुख्य थे 'संजै भइया' जिनका बड़ा सम्मान था, स्कूल के कैम्पस के बाहर भी उनकी धाक बताई जाती थी. उनके चलने में गजब का बांकपन था और उनके चक्कू चलाने के फ़न के बारे कई तरह के क़िस्से मशहूर थे लेकिन निष्पक्ष सूत्रों से उनकी पुष्टि नहीं हो सकी थी, वे अक्सर स्कूल के परिसर में छींटदार कमीज़ पहनकर आते थे और नौंवी-दसवीं के कुछ महत्वाकांक्षी लड़के उनके चारों तरफ़ मँडराने लगते थे.
बरगद के पेड़ के नीचे उनकी क्लास लगती थी, लड़के दौड़-दौड़कर पान-सिगरेट लाते थे संजै भइया के लिए. संजै भइया बोली बचन से ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं लगते थे लेकिन उनका स्टाइल अनुकरणीय था. यह शायद उनकी ज्ञानपिपासा ही थी जो नौकरी की उम्र में भी उन्हें स्कूल के परिसर में खींच लाती थी. लड़के अक्सर उनके कान में फुसफुसाते कि आज मनोजवा चक्कू खोंस के आया है या आज पंकजवा कट्टा लाया है, संजै भइया धीरे से मुस्कुराते.
लंचटाइम में प्यार से दो लप्पड़ लगाके लड़के का निशस्त्रीकरण कर देते, उनके पास ज़खीरा जमा होता जाता, क्या पता आगे बेच देते थे या सिर्फ़ परोपकारवश लड़कों को बिगड़ने से बचाने के लिए ऐसा करते थे. वे अक्सर उसी तोड़े हुए बाउंड्रीवाल से स्कूल में दाख़िल होते थे जहाँ से ढेर सारे लड़के लंच के बाद फिलिम देखने भाग जाते थे. हमारा स्कूल प्रधान डाकघर, तीन सिनेमाघरों, टेलीफ़ोन एक्सचेंज, मेन रोड, कोतवाली थाने और मारवाड़ी मुहल्ले से घिरा था, यह एक निहायत दिलचस्प सराउंडिंग थी.
प्रैक्टिकल की दूसरी टीचर थीं 'लंगड़ी मैडम'. उनकी क्लास में बच्चे दूर से ही और अंदाज़े से शामिल होते थे, ये वाली मैडम रंग-बिरंगी साड़ी पहनती थीं, पान खाती थीं और पूरे स्कूल परिसर में प्रिसिंपल से भी ज्यादा रोब से घूमती थीं. स्कूल के मैदान के झाड़ी वाले कोने उन्हें ख़ास पसंद थे, वे अक्सर या तो तड़के दिखाई देती थीं या देर शाम को. मॉर्निंग क्लास के लिए जाते समय हमें पता होता था उनकी नाइट क्लास खत्म हो गई है, वे स्कूल के हैंडपंप पर हाथ-मुँह धोती थीं और उनका छात्र हरी घास पर, पेड़ के नीचे खर्राटे ले रहा होता.
स्कूल के कुछ अध्यापकों ने उनके अनधिकृत पाठ्यक्रम को स्कूल से बाहर ऱखने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हो सका. इसलिए कि वे अक्सर कोतवाली वाली दीवार की तरफ़ से सुबह स्कूल के हैंडपंप की तरफ़ जाती देखी जाती थीं, जैसे संजै भइया सिनेमाहाल वाली साइड से आते थे. संस्कृत के हमारे अति संस्कारवान अध्यापक श्रीनारायण मिश्र के सरकारी आवास के पास ही लंगड़ी मैडम का एकड़ों में फैला फार्महाउस था.
तीसरे मास्टर 'तीन पत्ती वाले सर' थे. वे सुविधा, मौसम और माहौल के मुताबिक़ कभी स्कूल के अंदर और कभी ऐन बाहर अपनी क्लास लगाते थे. वे कभी कैरम के तीन स्ट्राइकरों में से दो पर स्टिकर चिपका कर या फिर कभी ताश के पत्तों से प्रशिक्षण देते थे. वे बहुत तेज़ी से पत्ती या स्ट्राइकर घुमाते थे, ताश या स्ट्राइकर को इज़्ज़त बख़्शने के लिए वे लाल रूमाल जरूर बिछाते थे. शुरू में कोतवाली के तोंदवाले प्राणियों ने हमारे इस शिक्षक के साथ अपमानजनक बर्ताव किया लेकिन बाद में क्लास निर्बाध रूप से चलने लगी, प्राथमिक शिक्षा के महत्व को समझते हुए उनका सम्मान शुरू हो गया था.
इनके अलावा हमारे कुछ 'विजिटिंग प्रैक्टिकल टीचर' थे जो स्कूल की टूटी दीवार के पार कोतवाली में आते थे, हम दीवार में बनी फाँक से होकर ज्ञान अर्जन के लिए कभी-कभी उनके पास चले जाते थे. इनकी क्लास की दिलचस्प बात ये थी कि इसमें आप मर्ज़ी से आते और जाते थे, टीचर का कोई कंट्रोल नहीं था. इनमें से एक सर ने मुझे बताया था कि "बेटा, किसी से डरना मत, डरने वाले को सब डराते हैं. अगर नहीं डरोगे तो काम सही करो या ग़लत, सब ठीक रहेगा." ये सीख मैं कभी नहीं भूल पाया, न ही कभी ग़लत साबित हुई.
मेरे जीवन में जो कुछ छोटे-मोटे अपराध बोध हैं उनमें से एक ऐसे ही शिक्षक के साथ किए विश्वासघात को लेकर है. अच्छा बच्चा बनने के दबाव में किसी बड़े अपराध बोध की लज़्ज़त अपने हिस्से में नहीं आई. हुआ यूँ कि हम दो साथी दीवार फाँद कर नए 'विजिटिंग प्रैक्टिकल टीचर' से मिलने की उत्सुकता में अंदर गए. थानेदार साहब के मुंशी जी हमेशा की तरह बुड़बुड़ाए थे, "पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस.. फेन आ गया इस्कुलिया छौंडा सब..." थोड़ी इधर-उधर की बातचीत के बाद रात भर हुई सेवा के परिणामस्वरूप चेहरे पर आई सूजन की जगह नरमी लाते हुए उन्होंने पाँच का नोट दिया, "बेटा, एक पैकेट नंबरटेन ला दो." हमने एक बेबस आदमी के पैसे से पहले फ़िल्म देखी जिसका नाम था 'कालिया' और मूंगफली खाई. बताइए अपराध बोध होना चाहिए कि नहीं?
जैसा कि बेहतरीन शिक्षण संस्थानों में होता है, सीनियर छात्र भी जूनियर छात्रों को पढ़ाते हैं. ऐसे कई प्रैक्टिकल टीचर भी थे, अजै भइया, विजै भइया और दिप्पु भइया इनमें प्रमुख थे. इन्हीं के एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी की क्लासों में अनेकानेक बालकों ने अपनी पहली सिगरेट पी, पहली पीली किताब पढ़ी और पहली बार हरे रंग के सलवार सूट वाली बालिका विद्यालय की लड़कियों को चिट्ठी पकड़ाई.
ये तो बात हुई हमारे अवैतनिक प्रैक्टिकल टीचरों की, वेतनभोगी पूर्णकालिक सैद्धांतिक टीचरों की चर्चा अगले अंक में. अगर आप पढ़ना चाहें तो कुछ सहपाठियों के बारे में उसके बाद...
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16 टिप्पणियां:
अच्छा शब्द चित्र है ..जारी रहे ..प्रतीक्षा है..
आपके अनुभव मजेदार हैं। ये प्रैक्टिकल क्लास जारी रखें।
इतनी विविध शिक्षा हुई है आप की.. मालूम न था..
भई वाह..
इसे जारी रखा जाय..
फ़टाफ़ट लिखिये न आगे की कहानी ,हम तैयार बैठे हैं पढने के लिये ।
वाह भाई अनामदास । नेकी और पूछ-पूछ ? शिद्दत से इन्तज़ार रहेगा।
ओहो, ऐसे मार्मिक अनुभवों से गुज़रकर ही आपका व्यक्तित्व ऐसा प्रखर और ओजस्वी हुआ हे? और क्या-क्या हुआ है? वैसे थाना में नोट का प्रसाद पा क्यों रहे थे! पतनशील कल्पनाशीलता के बावजूद बुद्धि बात पकड़ नहीं पाई. मगर देखिए, श्रद्धा का प्रसाद पाकर आप 'कालिया' देखने घुसे, हम संजीव कुमार वाली 'मन-मंदिर' के लिए घुसे थे, लेकिन अंदर मन मंदिर में मोर नहीं नाचा, कोई टंटा हो गया.. नतीजे में थुलथुल देहवाला टिकट चेकर टॉर्च बारे कान पकड़े बाहर ले गया. चोट और अपमान से ज्यादा बीच फ़िल्म में उठा लिये जाने की तक़लीफ़ हुई थी.. बहुत दिनों तक स्कूल से भागकर टिकट चेकर महाराज को थूरने की योजना बनाते रहे.. ओह, कितना दुख हुआ था? आह, मगर, आपको भी तो दुख हुआ!
जरुर पढ़ना चाहेंगे उन सब के बारे मे जिनका योगदान आप को आप बनाने मे रहा!!
शुक्रिया
बढ़िया संस्मरण...
लंगड़ी मैडम का करीकुलम थोड़ा क्लीयर नहीं हो पाया। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक ही क्लास में पूरा कोर्स पढ़ा देती रही हों? लगता है यह क्लास आप हमेशा ही बंक करते रहे...बहुत नाइंसाफी है।
दिलचस्प है आपके स्कूली दिनों की यह दास्तान। इसे जारी रखिए। दूसरे साथी भी अपने भूले-बिसरे बचपन के दिनों की याद ताज़ा करें। अच्छा लगेगा, सबको।
मजेदार संस्मरण..जारी रहें...
वाह आपने मुझे प्रेरित किया.
आपके संस्मरण सुनकर हमें आज के बच्चों पर तरस आता है ! वाह क्या मौज थी आपकी -दीवारों से परे गांधियन शैली में प्रकृति और यथार्थ की गोद में अनुभव से शिक्षा ! ऎसी सच्ची विकेन्द्रीकृत शिक्षा काश हमने भी पाई होती !और लिखें और हमें जलाऎ !
एक बात और ! लगता है आपने बोधिसत्व जी की टिप्पणी वाली सलाह मान ली है ! वाकई ब्लॉग को निजी अनुभव की निजी थाती बनाना ज्यादा ठीक है ! बहुत गंभीर शैली में सैद्दांतिक बातें और वह भी बिना आत्मीयता के स्पर्श के- ब्लॉग पर जमती नहीं ! पसंद आया आज आपका लिखा और टिप्पणी के लिए भी दिमाग पर जोर डालकर बराबर भार पैदा करने की कवायद से भी बाल बाल बचे!
भाई ज़रा जल्दी-जल्दी लिखिए. मजा आ रहा है. इंतज़ार रहेगा.
अहा!स्कूल जीवन भी क्या है .
हमरे पहले विद्यालय का नाम रहा जूनियर बेसिक पाठशाला, ग्राम पंचायत - ढिकियापुर,कंचौसी . अपना टाट खुदै साथ लेकर जाते थे . बरसात में पानिऔ बाहर उलीचते थे जो स्कूल में जमा हो जाता था . कलम-बुत्तका लेकर जाते थे औ पट्टी घुट्टते थे . औरौ बहुतेरे अच्छे-बुरे काम करते थे .
आपकी गाथा सुन लैं तब अपनी सुनाबे करेंगे .
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