स्थानः षष्ठ 'घ' की कक्षा
वर्षः 1980
समयः प्रात: 9.30
अवसरः नामांकन के बाद पहला दिन
गुरू-शिष्य संवाद
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सरः नाम बोले रे सब अपना-अपना
छात्र एकः अकट राय
सरः पिताजी का नाम?
छात्रः सुराज राय
सरः तुम रे? (दूसरे से)
दूसरा छात्रः विकट राय
सरः बाप का नाम?
दूसरा छात्र- रामराज राय
सर--वाह-वाह, अकट-विकट, सुराज-रामराज, ऐं, भाई है का?
पहला छात्र- हाँ सर जी, चचेरा भाई है
सर--पिताजी का करते हैं
पहला छात्र--दुहते हैं
सर--(दूसरे वाले से) और तुम्हारे?
दूसरा छात्र- जी, चराते हैं
" अउर पानी कउन मिलाता है....हैं हैं हैं हैं... क्लास खुलते ही अहीर से पाला पड़ा... हा हा हा, " क्लास-टीचर चौबे सर तोंद छलका-छलका कर हँसे, उनके साथ हम भी हँसे. सिर्फ़ वो दो लड़के नहीं हँसे जो छठी क्लास में पहली बार अपने ख़ानदान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
हमारा राजकीय उच्च माध्यमिक बालक विद्यालय विविधताओं से भरा था, सिर्फ़ दुहने-चराने वाले ही नहीं, सवर्ण सरकारी बाबुओं से लेकर इज़्ज़तदार विधवाओं तक के बच्चे वहाँ पढ़ते थे. हमारा स्कूल भविष्य के भारत की सच्ची झाँकी प्रस्तुत करता था. इंडिया उस वक़्त भी था लेकिन उसके अस्तित्व का कोई ठोस आभास हमें नहीं था.
सेंट नाम वाले पास के स्कूलों में भी बच्चे पढ़ते थे जिनके लिए उनके माँ-बाप मोटी फ़ीस भरते थे. हम ये नहीं जानते थे कि उन्हें क्या-क्या आता है लेकिन हम बहुत अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें क्या-क्या नहीं आता. मसलन, मार-पीट करने, पेड़ पर चढ़ने, तालाब से मछलियाँ पकड़ने, कीचड़ में फुटबॉल खेलने, ट्रक से उतरती बोरियों में से मूंगफली और इमली निकालने, उल्लू बनाने, गालियाँ बकने और क्लास से भागकर फ़िल्म देखने में हमारी उनसे कोई होड़ नहीं थी, वे क़ाबिलेरहम थे.
इन क़ाबिलेरहम बच्चों ने अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए हमें बताया था कि उनके स्कूल में प्रार्थना नहीं, बल्कि प्रेयर होती है. आसमानी कमीज़ और नीले हाफ पैंट वाले मेरे आधे सहपाठी कभी प्रार्थना के समय पर स्कूल ही नहीं आए, जो आए उनमें से अनेक जन-गण-मन की धुन पर सिर्फ़ होंठ हिलाते थे मगर आवाज़ नहीं निकलती थी, ढेर सारे ऐसे भी थे जो जन-गण-मन की धुन पर 'जानेमन जानेमन '... गाते.
जानेमन गाने की वजह पड़ोस की हरियाली थी, आधे से ज़्यादा लड़के सावन के अंधे बने घूमते थे क्योंकि उन्हें बालिका विद्यालय की हरी-हरी पोशाक के सिवा कुछ नज़र नहीं आता. बालक विद्यालय के होनहार पूरे वक़्त रामानारायण कन्या पाठशाला के बारे में बातें करते. कुछ निर्द्वंद्व थे और कुछ के भीतर गहरे द्वंद्व थे, दो ही श्रेणियाँ थीं. कुछ की बहनें वहाँ पढ़ती थीं और कुछ की नहीं. वैसे स्कूल आने-जाने के लिए ज़्यादातर लड़के 'हरियाली वाला रास्ता' ही चुनते थे.
हमारा स्कूल सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत के ठीक विपरीत था. अंदर आने का रास्ता एक ही था लेकिन वहाँ से निकलने के रास्ते अनेक थे. घर की तरफ़, बाज़ार की तरफ़, अप्सरा टॉकीज़ की तरफ़, कन्या पाठशाला की तरफ़.... हर ओर जाने के शॉर्टकट स्कूल की बाउंड्रीवाल में मौजूद थे जिनका भरपूर लाभ सभी उठाते थे.
हमारा अपने समाज में घुलना-मिलना और उससे जीवन जीने का ढंग सीखना हमारे कई शिक्षकों को नहीं भाता था. लंचब्रेक के बाद बड़ी तादाद में आसमानी कमीज़ और नीली हाफ़पैंटें अलग-अलग शॉर्टकटों से निकलकर शहर में तैरने लगती थीं. इसे रोकने की नाकाम कोशिश में हमारे कुछ विध्नसंतोषी शिक्षकों ने लंच के बाद भी हाज़िरी का प्रावधान शुरू किया, जो ग़ायब पाया गया उसे जुर्माने के तौर पर अठन्नी भरनी पड़ेगी.
डार्विन के सिद्धांत को सच साबित करते हुए लड़के हमेशा मास्टरों से एक क़दम आगे चलते. जिन्होंने नून शो की योजना बनाई होती वे सुबह की हाज़िरी के बाद ही क्लास रूम का रुख़ करते या वहाँ बैठकर भी चुप रहते. कई बार ऐसा होता कि क्लास में चालीस लड़के हैं और टीचर ने सिर्फ़ तीस नामों के आगे निशान लगाया, फिर गिनती की और झल्लाकर बोले, " यस सर बोलने में नानी मरती है?" लड़कों ने मन ही मन कहा, "अठन्नी लगती है."
दूसरा परिणाम ये हुआ कि लंच के बाद की हाज़िरी के समय कई लड़के बेहतरीन मिमिकरी आर्टिस्ट बन जाते और मास्साब निशान तीस नामों के आगे लगा देते. जब गिनती करते तो पता चलता कि दोस्ती का फ़र्ज़ निभाने लिए फ़र्ज़ी हाज़िरी यानी प्रॉक्सी हो रही है, आख़िर सबको अपनी अठन्नी बचानी थी. मगर कई बार किसी दोस्त की अठन्नी बचाने के लिए बेंत खानी पड़ती लेकिन वह लेन-देन का सौदा था.
लेन में सर का सोंटा तो देन में फिलिम की कहानी. "एक ग़रीब लड़का बना है जीतेंद्र और अमीर लड़की है रेखा"....टाइप कहानी सुनकर हमारे कई साथी बेंत की मार को सार्थक मान लेते. तीन सिनेमाघर स्कूल से सौ क़दम की दूरी पर थे, लंच के बाद भागकर फिलिम देखने का फ़ायदा ये था कि ठीक स्कूल की छुट्टी के समय बेचारा बच्चा थका-हारा घर पहुँच जाता.
स्कूल से भागकर फिलिम देखने के अलावा कई ऐसे काम राजकीय बालक उच्च विद्यालय के बालकों ने किए हैं जिनसे पता चलता है कि वे अपने वक़्त से आगे चल रहे थे. इसकी बड़ी रेंज थी, नज़र बचाकर सिगरेट पीने, टेक्स्टबुक के बीच में फँसाकर पीली किताब पढ़ने से लेकर चक्कू-कट्टा लेकर आने तक. अपने गिजर-गुर्दे के हिसाब जितना बन पड़ा उतना मैंने किया, लेकिन मैं किसी मामले में ऐसा नहीं रहा कि कोई मुझ पर ग़ौर करे, न पढ़ने में और न ही इन एक्स्ट्रा करिकुलर कामों में.
हाँ गवाह ज़रूर रहा बहुत सारे दिलचस्प वाक़यों का, जिन्हें कलमबंद करने की सलाहियत उन्हें अंज़ाम देने वालों में नहीं रही इसलिए यह भार मेरे कंधों पर आ पड़ा. एक छोटी सी मिसाल, प्रिसिंपल सर के कमरे में बम का ज़ोरदार धमाका, मास्टरों की मीटिंग के दौरान.
वाक़या कुछ यूँ है कि बम विस्फोट के दो दिन पहले हमारे मार्गदर्शक अज्जू भइया की कारसेवा प्रिसिंपल सर ने अपने कर कमलों से की थी क्योंकि वे नौवीं की गणित की क्लास में ट्रांजिस्टर सुनकर क्रिकेट के स्कोर का हिसाब लगाते पकड़े गए थे. अज्जू भइया अपना खोया हुआ आत्मसम्मान और गौरव पाना चाहते थे और प्रेरणा शायद उन्हें भगत सिंह से मिली थी. लेकिन उन्होंने भगत सिंह की तरह बम फोड़ने के बाद आत्मसमर्पण करने की जगह स्क्रिप्ट में थोड़ा बदलाव किया.
अज्जू भइया ने आत्मसमर्पण पहले किया. प्रिसिंपल सर के कमरे में बाअदब गए, क्लास में कमेंटरी सुनने के लिए माफ़ी माँगी. देवी सरस्वती की मूर्ति को झुककर प्रणाम किया, सर के पैर छुए और बाहर आ गए. कोई सात मिनट बाद प्रिसिंपल सर के ऊँची सीलिंग वाले विशाल कमरे में ज़ोरदार धमाका हुआ, ऐन उसी वक़्त जब वे बाकी टीचरों को समझा रहे थे कि उनकी कारसेवा की बदौलत एक बिगड़ैल लड़का सुधर गया. मैं गवाह हूँ कि अज्जू भइया 'सरस्वती वंदना' के बहाने जलती हुई अगरबत्ती के आख़िरी सिरे पर बाज़ार में उपलब्ध सबसे बड़ा 'आलू बम' रख आए थे.
ऐसा नहीं था कि हमारा स्कूल अज्जू भइया जैसे स्वाधीनता के सेनानियों का गढ़ था, दीपू भइया जैसे भी थे जो बोर्ड परीक्षा में स्टेट भर में थर्ड आए थे. हम आधा तीतर आधा बटेर होकर रह गए क्योंकि दोनों को हमने प्रेरणास्रोत बना लिया इसलिए कहीं के नहीं रहे, अनामदास बन गए.
अज्जू भइया की अब शादी हो गई है तीन बच्चे हैं. उनके रोबदाब का इतना सिला मिला कि कचहरी चौक पर उनकी चाय की दुकान है जिसका किराया नहीं देना पड़ता और दीपू भइया आईएएस बनना चाहते थे लेकिन एलायड सर्विस में रेलवे में हैं.
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21 टिप्पणियां:
आपकी यादों में मज़ा आ रहा है मित्र.. इसे आगे बढ़ाते रहिये..
बहुत बढिया लिखा.हृदयस्पर्शी. मजा आ गया. एक गहरी त्रासदी की कहानी.
यह पढ़ना बहुत-बहुत अच्छा लगा.
फलाने ने खूब दुहा है! ढेकाने सारी ज़िंदगी चरते रहे हैं! कैसा लालित्य- कैसी अनोखी दुनिया की अभिव्यक्ति बुनते हैं ये.
बतौर हीरो अनिल कपूर की एक फ़िल्म आई थी 'कहां कहां से गुज़र गया'. आप भी बतौर हीरो कहीं-कहीं से खूब गुज़रते रहे..!
अनुमान है कि यह दूसरी किश्त है और बीच में कुछ मुझसे नहीं छूटा। पढ़ते-पढ़ते सोच रहा था कि अगरबत्ती वाले टाइम बम का उदाहरण टीप दूँगा।इस टाइम बम का हमने पेटेण्ट नहीं कराया था!
बहुत बढिया लिखा है..हमे भी स्कूल का समय याद आ गया।
भाग्यवान हैं आप कि इतने रोचक अनुभवों से दो चार हुये । उन्हे पठने के लिए एक दिन कि प्रतीक्षा भी खलती है।
प्रीति
भाई अनामदास जी
वाकई बहुत दिलचस्प और उतना ही प्रेरक प्रसंग है आपका. नई पीढी को आपसे प्रेरणा लेनी चाहिए. लेकिन ये समझिए कि अकेले आप ही महान रहे हैं. खास तौर से जन-गण-मन वाले मामले में. हम लोग पूरे बीए भर इस गान की पैरोडी गाते रहे. और कोई मजाक में नहीं, बल्कि गुरुदेव के प्रति अपनी श्रध्दा के वशीभूत होकर. लीजिए उसकी चांद पंक्तियाँ आपको पढ देता हूँ :
जन गण मन नालायक धरिहे
भारत भागल जाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
द्राविण उत्कल बंगा
होता रहता इन प्रांतों में
निशि दिन दंगा .......
भोजपुरी आप जानते ही हैं. मतलब समझ लीजिएगा. अभी इतने से काम चला लीजिए, बाकी चाहिएगा तो बाद में भेज देंगे.
यार तुम्हारा व्यंग बहूत भाता है हमे. तुमरी कलम पर काफ़ी मजबूत पकड़ है. इसी तरह से बढिया चिट्टा लिखते रहा करो.
तारेश सिंह चौहान
दीपू भैया और अज्जू भैया तो अपनी नियति से बंध गये मगर मेरे अनाम भैया अपना यह अंदाज आपने अब तक कौन-सी पोटली में बांध रखा था। बेहद खूबसूरत चित्रण... खासकर अज्जू भैया की सरस्वती वंदना के जरिये उनकी अतुलनीय प्रतिभा के दर्शन हुये उससे मन विभोर हो उठा। इस श्रृंखला को कृपया जारी रखे।
चिट्ठाजगत के पसंदीदा लेखकों के मेरे व्यक्तिगत चार्ट बस्टर में रवीश, अनुप शुक्ला, समर, देबू दा, प्रमोद भाई आदि के साथ आपकी कांटे की टक्कर चल रही है। बधाई !
"कुछ विध्नसंतोषी शिक्षकों ने लंच के बाद भी हाज़िरी का प्रावधान शुरू किया, जो ग़ायब पाया गया उसे जुर्माने के तौर पर अठन्नी भरनी पड़ेगी."
हा हा, ठीक यही हालत हमारे स्कूल में भी हुई थी, जबकि हमारा स्कूल तब रायपुर के हिन्दी मीडियम स्कूलों मे टापम टाप माना जाता था।
मजा आ पढ़कर!!
इन दिनो में लौटना कितना अच्छा लगता है ना!!
जारी रखें!!
शुक्रिया!
यह स्कूल-पुराण तो मोहित करने वाला है। गज़ब!
हालांकि अपन भी उसी परिवेश, उसी भाषा, उसी माटी में, उसी तरह के स्कूल में, उसी तरह की सोहबत में, उसी तरह के मास्टरों से पढे और बढ़े हैं, पर उन यादों को इस अनोखे अंदाज में समेट पानाअपने बूते की बात नहीं। सो, आपके लेखन के माध्यम से ही अपने बचपन में फिर से झांक रहे हैं। बहुत मजा आ रहा है।
आनन्द आ गया. थोड़ा देर से आये मगर मजा पूरा उठाये, वाह!! जारी रहें....सब जोड़ पा रहे हैं अपने आपको कहीं न कहीं.......
टिप्पणी
वाह मज़ा आ गया .खुशनसीब है आप जो इतने दिलचस्प अनुभवों का संसार है.आप के पास.हमारे साथ बाटने में कंजूसी मत किजियागा .जारी रखें .
बचपन की बगिया से खट्टटी मीठी अमिया,निबोलियां चुनते रहिये। मजा आ रहा है। अगरबत्ती बम तो हमने भी फोडे़ थे, ब्लैक बोर्ड के पीछे रख कर अलबत्ता ज़माना कॉलेज का था
१९८१-८२ का । इस मायने में आप ज्यादा प्रतिभाशाली थे कि स्कूल में ही गदर कर डाला।
वैसे अनामदास आप बम के चक्कर में नहीं ब्लाग के चक्कर में बने हैं। गलत कहा ?
देर से पढ़ा अनामदास जी। अद्भुत है।
मज़ा आ रहा है बचपन की इन यादॊ को कलमबन्द करना आसान तो नहीं है... ऐसा लग रहा है जैसे अभी अभी की बात हो .... आपका अनुभव तो मस्त है. हम आगे भी पढने को बेताब हैं.
Itni acche lekhan ke liye badhai. Main bhi lagbhag usi parivesh me parha-likha hoon , so thora apne bachpan ki smiritiyan taji hi gayee. how to write in devnagri . please help.
regards
pravin
आपके कहानी से लगता है कि आपने पटना में पढ़ाई की है। अगर मैं गलत नहीं हूं तो आप या तो पटना कालेजियट स्कूल या फिर राम मोहन राय में पढ़ते होंगे। लेख की तारीफ़ करने के लिए अपने को शब्दों से गरीब महसूस कर रहा हूं।
भई वाह! मजा आ गया। जो कमी शायद हमारे बचपन में रह गई थी आपकी बातों ने उनका भी मजा दे दिया। आप वाकई कमाल हैं।
राकेश मल्हन
malhanrakesh@gmail.com
i have also spent such type of life. when i read your story, i was remembering my school days. really its a very nice story.
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