28 अप्रैल, 2007

शब्दों की शवयात्रा और हिंदी चिट्ठाकारिता

कहते हैं--शब्द ब्रह्म है. मेरे लिए तो रोज़ी-रोटी,लोटा-लंगोटी है शब्द. शब्द मर रहे हैं, मैं चिंतित हूँ. मैं चाहता हूँ आप भी हों. शब्द कोई आज नहीं मर रहे, हमेशा से मरते और जन्मते रहे हैं शब्द. मौत दुख की वजह हो सकती है, चिंता की नहीं. चिंता महामारी की होती है, यह महामारी ही तो है. मुझे एक विचित्र सा डर है कि जिन शब्दों की मदद से मैं अपनी बात कहता हूँ अगर एक-एक करके वे सब मर गए तो मैं क्या लिखूँगा, कौन समझेगा. वैसे ही नई पीढ़ी के लोगों को मेरी हिंदी कभी अबूझ, कभी अटपटी लगती है.

भाषा वही जीवित रहती है जो वक़्त के साथ बहती-बदलती रहती है लेकिन यहाँ तो बदलाव भाषा की कोशिकाओं में वायरस बनकर बैठ गया है जो हर रोज़ उसके शब्दों को कुतरता जाता है. वक़्त के साथ भाषा बदले, कोई ग़म नहीं, ग़म तो वक़्त की रफ़्तार और उसकी अंधाधुंध मार को लेकर है. शब्द हमेशा से बेकार होते रहे हैं और मरते रहे हैं. जिस 'तार' के आने पर लोग उसे पढ़ने से पहले ही अशुभ की आशंका में रोने लगते थे उसका आज क्या अर्थ रह गया है?

ईमेल और एसटीडी जैसे शब्दों के हिंदी में आने के बाद यह 'तार' शब्द की स्वाभाविक मृत्यु है, मरे हुए शब्दों पर विलाप करने का कोई लाभ नहीं है लेकिन शब्दों की हत्या पर भी उज्र न होना ख़तरनाक बात है.

भाषा सिर्फ़ माध्यम नहीं है, भाषा साबुत विचार है. शब्द भावना का वाहक नहीं, पूरी भावना है.

पहले दो छोटे संस्मरण उसके बाद बाक़ी बातें...

पहला--इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर मेरी जामातलाशी (घर की तलाशी को ख़ानातलाशी कहते हैं, अगर आप भूले न हों तो माफ़ कर दीजिएगा) हो रही थी, सिपाही जी का हाथ मेरी कमर के पास उभरी हुई चीज़ पर टिक गया, मैंने कहा, "बटुआ है." सिपाही जी ने तलाशी रोक दी, हतप्रभ रह गए, उनका चेहरा खिल गया, बोले, "आप तो हिंदी बोल रहे हैं, भैलेट..पर्स सुनते-सुनते बटुआ तो भूल ही गया था."
दूसरा--1980 के दशक के आख़िरी बरसों में कलकत्ता गया, अंडरग्राउंड रेल...मेट्रो रेल की बड़ी धूम थी, भारत का पहला मेट्रो. एस्पलैनेड पर खड़ा था, एक देसी आवाज़ आई--"भइया, 'पतालगाड़ी' देखल जाई पहिले."

एक समृद्ध परंपरा की देन है 'पतालगाड़ी' जो एक सहज प्रत्युत्पन्नमति (प्रेजेंस ऑफ़ माइंड) है, उसी गौरवशाली भाषिक परंपरा के वारिस शब्दों को कुपोषण की मौत मरते देखना ह्रदयविदारक है.

पहले बिचड़ा बोया जाता है, फिर धान की रोपनी होती है, फ़सल पकने पर दाने निकलते हैं, दानों को चावल कहा जाता है, उन्हें खौलते पानी में डाला जाता है जिसे अदहन कहते हैं, जब दाने पक जाते हैं तो भात कहा जाता है. बहरहाल, हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए चावल की खेती होती है और हमारी थाली में भी चावल ही होता है.

शब्द बताते हैं कि वे जिनके मुँह से निकल रहे हैं वह कौन है. धान और भात कहने से ज़ाहिर होता है कि आप शायद खेत-खलिहान के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं जो 'मेट्रोसेक्सुअल' व्यक्ति के लिए अशोभनीय बात है. सिर्फ़ दो-तीन पीढ़ी पहले शहरी हुए लोग गाँव और क़स्बे की धूल-मिट्टी का एक-एक दाग़ जल्द से जल्द पोंछ देना चाहते हैं. महानगरीय व्यक्ति बनने की शुरूआत हमेशा उन शब्दों की हत्या से होती है जो आपके क़स्बाई होने की चुगली करते हैं.

अगर आप मुंबईकर या डेल्हाइट नहीं हैं तो यह शर्म की बात है, मज़ेदार बात ये है कि पुराने मुंबईकर और पुरानी दिल्लीवाले दोनों ही अपने रंग-ढंग, बोल-बचन, खान-पान में पूरे देहाती हैं. अजीब कमाल है कि हर बिहारी दिल्लीवाला बन जाना चाहता है लेकिन पुरानी दिल्लीवाला नहीं.

शायद थोड़ा विषयांतर हो गया. बहरहाल, भाषा के रूप में हिंदुस्तानी की कोंपले निकल ही रही थीं कि भारत विभाजन और उसके बाद की राजनीति ने उसका गला घोंट दिया, हिंदी को सरकारी कामकाज के लायक़ बनाने के नाम पर राजभाषा विभाग ने एक-से-एक नाक़ाबिले इस्तेमाल शब्द दिए, ये शब्द सिर्फ़ फ़ाइलों में ज़िंदा हैं और उनकी कोई चिंता मुझे नहीं है लेकिन ऐसे हज़ारों शब्द हैं जिन्हें तिलांजलि भी नहीं दी गई, सिर्फ़ बिसरा दिया गया है. हिंदुस्तानी से हिंदी बनने के बाद हमारी भाषा पर अब जो मार पड़ रही है वह है ग्लोबलाइजेशन की.

टेलीविज़न, टेलीफ़ोन, ट्रेन, रेडियो, इंटरनेट, कंप्यूटर जैसे नाम और उनसे जु़ड़ी शब्दावली का इस्तेमाल जायज़ है. विद्युत कंचगोलक (बल्ब), लौह पथगामिनी (रेल), धूम्रदंडिका (सिगरेट) जैसे प्रयोग तो हास्यास्पद हैं लेकिन फलों के रस की जगह उनका जूस पीना, मुर्ग़ी को काटकर उसे चिकेन बनाकर खा जाना सहज है. ऐसा इसलिए है क्योंकि भाषा का हमारा मूल स्रोत अँगरेज़ी है, हमारे शब्द ही नहीं उन्हें पिरोने का तरीक़ा तक, सब कुछ ट्रांसलेटेड है. शब्द मैनहटन से चलकर मुंबई पहुँच जाते हैं लेकिन मथुरा से दिल्ली नहीं पहुँच पाते. मैनहटन वाले शब्दों का हमेशा स्वागत और मथुरा वालों का तिरस्कार, इसने हमारी भाषा को नीरस, थोथा और बदशक़्ल बना दिया है.

अगर आपको कार्रवाई, विरोध, प्रदर्शन, चिंता, ताज़ा समाचार, संकट, समस्या, आरोप, बैठक...जैसे कोई 200 शब्द आते हैं तो आप मीडिया में नौकरी कर सकते हैं और अगर आप 'खुलासा करने', 'साफ़ करने', 'जलवा बिखेरने', 'आड़े हाथों लेने', 'ठंडे बस्ते में डालने' जैसे जुमलों के इस्तेमाल में माहिर हैं तब तो आप बहुत आगे जाएँगे.

हिंदी टीवी चैनलों की सफलता के बाद हिंदी भाषा की कमाई खाने वाले लोगों को लगा कि हिंदी के दिन सुधरने वाले हैं, दिन हिंदीवालों के सुधर गए लेकिन हिंदी की गत बन गई. ऐसी हिंदी लिखने-बोलने की कोशिश हुई जो 'हर किसी' की समझ में आ जाए, इस 'हर किसी' के अज्ञान की कोई सीमा ही नहीं है, अंधा कुआँ है. उसकी सहूलियत के लिए उन सभी शब्दों को प्रतिबंधित कर दिया गया जो ज़रा भी कठिन लगे. ऐसी जेनेरिक भाषा बन गई है जिसमें धड़कते हुए शब्द नहीं हैं. इस 'हर किसी' को कॉकलेट, मॉकटेल की जितनी वेराइटीज़ बता दीजिए उसे सब याद हो जाएँगी लेकिन अगर आपने धान की खेती और पछुआ हवा की बात की तो वह आपको डाउनमार्केट मानकर आपका साथ छोड़ देगा.

ऐसे माहौल में हिंदी चिट्ठाकारिता एक उम्मीद की किरण बनकर आई है, देशज शब्दों और क्षेत्रीय रंग से सँवरी सुंदर हिंदी, जो अपनी हिंदी लगती है. किसी पर कोई व्यावसायिक दबाव नहीं है कि वह एक कटी-छँटी भाषा लिखे, 'हर किसी' के समझने के लिए हर ब्लॉग नहीं है, जिसे समझना होगा वह शब्द कोश की मदद ले लेगा. मुझ पर हिंदी चिट्ठाकारिता का नशा इसलिए चढ़ा है लगभग हर रोज़ मेरे अंदर सो चुके किसी न किसी शब्द को कोई हिलाकर जगा देता है. न जाने कितने दशक बाद प्रत्यक्षा जी ने अपनी कविता के ज़रिए याद दिलाया 'पेटकुनिए' एक सुंदर शब्द है पेट के बल लेटने के लिए.

नई भाषा सीखते समय जैसे लोग संकल्प लेते हैं कि हर रोज़ पाँच नए शब्द सीखेंगे, उसी तरह शायद हमें हर रोज़ पाँच भूले हुए शब्दों को याद करने की ज़रूरत है जो अभी कोमा में हैं और उन्हें बचाया जा सकता है.

23 अप्रैल, 2007

हिंदुत्व ख़तरनाक है, हिंदू होना नहीं

आप मुझ पर गड़े मुर्दे उखाड़ने का आरोप लगा सकते हैं लेकिन मुद्दे को छेड़ना ज़रूरी लग रहा है क्योंकि एक भटकी हुई बहस अधूरी रह गई है.

अब तक हुई सारी बहस में तीन बुनियादी ग़लतफ़हमियाँ रही हैं, पहला तो ये कि हिंदु और हिंदुत्व एक ही बात है. दूसरा, हिंदू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता में तुलना करने की कोशिश. इसे बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. तीसरा, इस पूरी बहस का धार्मिक भावनाओं से कोई संबंध नहीं है क्योंकि यह सिर्फ़ एक राजनीतिक मुद्दा है.

हिंदू होना हज़ारों साल से अनवरत चली आ रही सांस्कृतिक परंपरा का वारिस होना है जबकि हिंदुत्व उसके राजनीतिक इस्तेमाल की एक नासमझ कोशिश है. अगर कोई हिंदुत्व को कोस रहा है तो वह सांप्रदायिकता के रथ पर सवार सत्तालोलुप यात्राओं को कोस रहा है, न कि हिंदुओं को. हिंदू धर्म का सच्चा हितैषी वह नहीं हो सकता जो अपने धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल को अपने हित में चलाया जा रहा धर्मसम्मत राजसूय यज्ञ समझता हो. भारत में ऐसे करोड़ों हिंदू हैं जिन्हें सत्ता की राजनीति में अपनी आस्था को घसीटे जाने पर गंभीर आपत्ति है.

क्या कौव्वे को काला कहने से पहले भैंस, हाथी से लेकर दुनिया के हर काले जानवर का नाम लेना ज़रूरी है? जितनी आपत्तियाँ मैंने मुहल्लेवालों के लेखन पर पढीं उन सबमें एक बात ज़रूर थी कि केवल हिंदुओं को गाली दी जा रही है, मुसलमानों को क्यों नहीं? जो ग़लत है वह ग़लत है, उसे ग़लत कहने के लिए दूसरों के काले कारनामों की सूची पेश करने की बाध्यता ठीक नहीं है. सबके ग़लत होने से सब सही नहीं हो जाएँगे, जैसा कि भ्रष्टाचार के मामले में कुछ हद तक हो भी गया है.

हिंदुत्व की आलोचना सुनना कुछ भाइयों को कड़वा लग रहा है, वे कल्पना करें कि मुहल्ले के चिट्ठाकार मुसलमान होते तो क्या होता? अब तक दुनिया का पहला साइबर सांप्रदायिक दंगा शायद भड़क चुका होता. अब ज़रा सोचिए, आप हिंदुओं से कह रहे हैं मुसलमानों की सांप्रदायिकता के बारे में क्यों नहीं लिखते? किसी की नीयत पर कोई संदेह नहीं कर रहा हूँ लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि संवेदनशील रिश्तों में ऐसी आलोचना आप अपने लोगों से ही सुन सकते हैं दुसरों से तो क़तई नहीं. हिंदुओं के भीतर से सांप्रदायिकता पर गंभीर एतराज़ उठ रहे हैं तो उसका स्वागत करिए, मुसलमानों की तरफ़ से इस मुद्दे को उठाने की ज़िम्मेदारी मुसलमानों पर छोड़ दीजिए. अपने समाज को वही ठीक कर सकते हैं, बाहर से कोई नहीं कर सकता.

बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता और अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता में अधिक ख़तरनाक क्या है इसका जवाब बड़ा सीधा-सादा है. मुझे हवा का रुख़ पता है लेकिन सच के लिए उसके ख़िलाफ़ जाने का जोखिम उठाना होगा. जो सांप्रदायिक नहीं हैं उन्हें मेरी बातों का बुरा मानने की ज़रूरत नहीं है, और जो सांप्रदायिक हैं उनके बुरा मानने की परवाह भी क्यों की जाए. बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता निश्चित तौर पर ज़्यादा ख़तरनाक है. तादाद की ताक़त को किसी हाल में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लोकतंत्र में तो और भी नहीं. ज़रा सोचिए, संख्याबल की वजह से बहुसंख्यक समुदाय का सत्ता के ढाँचे पर नियंत्रण होना लाजिमी है, अगर वह सांप्रदायिकता की राह पर चले तो अल्पसंख्यकों के पास क्या विकल्प रह जाएँगे? लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों के हाथ में सत्ता की सांकेतिक हिस्सेदारी आ सकती है, वास्तविक सत्ता नहीं.

हिंदुत्व के सहारे सत्ता पाने की कोशिश में लगे लोग दूसरों पर तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं जो ज़्यादातर मौक़ों पर सही भी होता है. सच है कि मुसलमानों का वोट पाने के लिए हर तरह के सांप्रदायिक हथकंडे आज़ाद भारत में लगातार इस्तेमाल किए जा रहे हैं जिनकी भरपूर निंदा की जानी चाहिए. तुष्टिकरण की राजनीति सरासर ग़लत है, सच्चे अर्थों में अल्पसंख्यकों का पुष्टिकरण होना चाहिए, उन्हें उतना ही सबल और सुदृढ़ बनाया जाना चाहिए जितना कि कोई और है, इस पर किसी को क्यों एतराज़ होना चाहिए. तुष्टिकरण इसलिए घृणित है क्योंकि वह अल्पसंख्यकों के ज़ख़्मों को भुनाने की राजनीति है जबकि हिंदुत्व नफ़रत और असुरक्षा फैलाने की राजनीति है.

पाकिस्तान या बांग्लादेश में इस्लाम की राजनीति उतनी ही ख़तरनाक है जितनी भारत में हिंदुत्व की राजनीति क्योंकि वहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं. इसे हिंदू-मुसलमान के संदर्भ में न देखकर सिर्फ़ अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के परिप्रेक्ष्य में देखिए. बांग्लादेश की नामी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने जब लज्जा में एक बांग्लादेशी हिंदू के उत्पीड़न की तस्वीर पेश की तो उसे भारत की हिंदुत्ववादी बिरादरी ने हाथों-हाथ लिया, एक हिंदुत्ववादी पत्रिका ने तो पूरा उपन्यास ही छाप दिया, इस टिप्पणी के साथ कि देखिए मुसलमान हिंदुओं पर कितना अत्याचार कर रहे हैं. यह नासमझी है, गुजरात के दंगों को जो पाकिस्तानी 'हिंदुओं के अत्याचार' के रूप में पेश करते हैं वह भी उतने ही नासमझ हैं. बहुसंख्यकों की सांप्रदायिक राजनीति के ख़तरे के रूप में ही लज्जा या गुजरात को समझा जाना चाहिए.

आप जहाँ कहीं भी बहुसंख्यक या मज़बूत हैं वहाँ अपनी ज़िम्मेदारी को समझिए, यह बात मुहल्ले से लेकर पूरे देश पर लागू होती. हो सकता है आप देश में अल्पसंख्यक हों लेकिन अपनी बस्ती में बहुसंख्यक, ऐसे में अपनी बस्ती में घिरे एक अल्पसंख्यक परिवार के डर को हिंदू या मुसलमान का डर न समझिए, वह एक अल्पसंख्यक का डर है. एक व्यक्ति अलग-अलग जगहों पर एक साथ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक हो सकता है. मिसाल के तौर कश्मीर का हिंदू पूरे देश के हिसाब से बहुसंख्यक है और राज्य में अल्पसंख्यक, कश्मीर के मुसलमानों की सांप्रदायिक राजनीति को उस सख़्ती से फटकारा जाना चाहिए जिस तरह बाक़ी भारत में हिंदुओं की सांप्रदायिक राजनीति को. जब आप कश्मीर के हिंदुओं के मामले में नरम रुख़ की उम्मीद करते हैं तो बाक़ी देश के मुसलमानों के बारे में क्यों नहीं?

जो अल्पसंख्यक नहीं हैं वे अल्पसंख्यक होने का दर्द आसानी से नहीं समझ सकते. मैं भारतीय सवर्ण हिंदू हूँ, अपने देश में जहाँ कहीं गया बहुसंख्यक ही रहा. ब्रिटेन आने के बाद पता चला कि अल्पसंख्यक होने की असुरक्षा क्या और कैसी होती है. पूरी सभ्य और लोकतांत्रिक दुनिया में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का आश्वासन दिलाने वाली व्यवस्थाएँ हैं जिसे कोई ग़लत नहीं मानता. सत्ता तक पहुँचने का सबसे आसाना शॉर्टकट है बहुसंख्यकों को असुरक्षित बताने की राजनीति, पूरी सभ्य दुनिया में इस शॉर्टकट की निंदा होती है.

ब्रिटेन में एक पार्टी है जो अपने-आपको गोरे ब्रितानी लोगों के हितों की रक्षक बताती है, उसका नाम है ब्रिटिश नेशनल पार्टी (बीएनपी). ब्रितानी मीडिया ने उसे सांप्रदायिक बताते हुए उसका पूरी तरह से बहिष्कार किया हुआ. ईसाइयों के देश में धर्म के नाम पर बने सैकड़ों हिंदू-मुस्लिम-सिख संगठन चल रहे हैं, इसी तरह ब्लैक सोशल वर्कर एसोसिएशन, ब्लैक जर्नलिस्ट एसोसिएशन भी हैं लेकिन व्हाइट इंग्लिश या ब्रिटिश संगठन कहीं नहीं है. उसकी एकदम साफ़ वजह है कि जिनकी तादाद 80 प्रतिशत से अधिक है उन्हें धर्म या नस्ल के आधार पर संगठित होने की क्या ज़रूरत हैं, उनके असुरक्षित होने का कोई तर्क ही नहीं है. अल्पसंख्यकों की असुरक्षा की भावना को समझना और उसका सम्मान करना किसी समाज के उदार और सभ्य होने की निशानी है और इसके ठीक विपरीत है बहुसंख्यकों में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा देना.

सांप्रदायिकता की सबसे दिलचस्प बात ये है कि जो लोग बाहर से एक दूसरे के दुश्मन दिखाई देते हैं वे ही अपने भाषणों और नारों से एक-दूसरे की विषवेल में खाद-पानी देते हैं. यही वजह है कि एक तरफ़ से सांप्रदायिकता बढ़ने पर दूसरी तरफ़ से भी अपने-आप बढ़ती है, ऐसे में यह बहस बेमानी हो जाती है कि शुरूआत किसने की, ज़्यादा या कम सांप्रदायिक कौन है. हर सूरत में सांप्रदायिकता एक ख़तरनाक राजनीतिक हथियार है जिसके इस्तेमाल पर शोर मचाना हर उस व्यक्ति का कर्तव्य है जो इंसान के चैन से जीने के हक़ का हिमायती है.

18 अप्रैल, 2007

स्टार न्यूज़ पर हमला लोकतंत्र पर हमला नहीं

स्टार न्यूज़ के दफ़्तर पर हमला एक निंदनीय आपराधिक कृत्य है. इसमें कोई शक नहीं कि यह गुंडों का हमला है, इसके लिए हमलावरों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए. बड़े-बड़े संपादक कह रहे हैं कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है, लोकतंत्र पर हमला है. वे भी जानते हैं कि वे एक रस्मी बयान दे रहे हैं जो कैमरा और माइक सामने आने पर देना होता है.

प्रसारण के लिए मेरा बयान भी कुछ ऐसा ही होगा लेकिन यह सोचने का एक मौक़ा भी है, अगर कोई सोचना चाहे. मुझे पता है कि हिंदू राष्ट्र सेना वाले ठोकशाही में विश्वास रखते हैं इसलिए उनसे सोचने की उम्मीद करना बेकार है लेकिन जो लोकशाही की बात कर रहे हैं उनसे सोचने की उम्मीद करना वाजिब है. हमलावरों पर लानत भेजने का काम तफ़स्लीन हो चुका है, दो दिन रुकने के बाद लिख रहा हूँ ताकि जले पर नमक छिड़कने का आरोप न लगे.

हमला तो हमला है, हर सूरत में बुरा है लेकिन भारत में शब्द इतने बेमानी हो गए हैं कि वांछित प्रभाव के लिए किसी बडी़ चीज़ पर हमला बताना ज़रूरी होता है क्योंकि हमले तो रोज़ होते रहते हैं. नोट लेकर सवाल पूछने वालों, सरकारी आवास को किराए पर उठाने वालों और बंदूक के बल पर जीतकर दिल्ली आने वालों पर जब हमला हुआ तो वह लोकतंत्र के मंदिर पर हमला था. डोनेशन लेकर दाख़िला देने वाले स्कूल में हमला विद्या के मंदिर पर हमला, ग़रीबों के मामले छोड़कर पहले माफ़िया या हीरोइनों की फ़रियाद सुनने वाली अदालत में गोलीबारी न्याय के मंदिर पर हमला... संसद, स्कूल या अदालत पर हमला कहने से वज़न पैदा नहीं होता. हमने बात में वज़न पैदा करने के चक्कर में हर बात को हल्का बना दिया है.

बहरहाल, स्टार न्यूज़ ही नहीं, भारत के किसी व्यावसायिक टीवी चैनल पर किसी भी बहाने से हमला हो सकता है, कभी भी हो सकता है, कोई सिरफ़िरा, गुमनाम उपद्रवी गुट कर सकता है लेकिन वह बाज़ार पर हमला होगा, एक दुकान पर हमला होगा.

व्यावसायिक समाचार चैनलों के जो चार-पाँच प्रमुख संपादक हैं सभी ने सोमवार को एक ही बात कही--यह लोकतंत्र पर हमला है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. इन चारों-पाँचों वरिष्ठ पत्रकारों के अनेक पुराने इंटरव्यू रिकॉर्ड पर हैं, कई इंटरव्यू मिल जाएँगे जिनमें नाग-नागिन, पुनर्जन्म, माफ़िया, बलात्कार, सनसनी, काल-कपाल, भूत पिशाच...के कार्यक्रम बड़ी लगन से दिखाने को परम कर्तव्य बताया गया है. समाचार के साथ व्यभिचार के आरोप पर सफ़ाई में सबने एक ही मासूम तर्क दिया है, "हम तो वही दिखाते हैं जो लोग देखना चाहते हैं." यह बहुत अच्छा तर्क है लेकिन यह एक दुकानदार का तर्क है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के ध्वजवाहक का नहीं.

व्यवसाय होने में कोई बुराई क़तई नहीं है, टीवी चैनलों का जो कारोबारी मॉडल है उसमें उनका लोकप्रिय होना ज़रूरी है. सत्तर-अस्सी के दशक में भी सारे अख़बार व्यावसायिक थे जो बिक्री और विज्ञापन के बूते चलते थे लेकिन उनकी व्यावसायिकता धूमिल के शब्दों में 'रामनामी बेचने' वाली व्यावसायिकता थी, दूसरी वाली नहीं.

लोकतंत्र को एक चौपाया व्यवस्था माना गया है जिसमें चौथी टाँग आज़ाद है कि वो कब वज़न उठाए और कब तीनों पालिकाओं से कहे कि तुम संभालो हमें तो लोकतंत्र में लोकरुचि का खयाल रखना है.

सिर्फ़ इस हमले की बात नहीं कर रहा, इस तरह की किसी भी वारदात को लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कहना 'फिसल पड़े तो हरगंगे' कहने वाली बात है. यह एक टिटिहरी के बयान से ज़्यादा नहीं है जिसे लगता है कि लोकतंत्र का आसमान उसकी ही टाँगों पर टिका है.

जिस घटनाक्रम के प्रसारण के बाद यह हमला हुआ वैसी घटनाओं का हर रोज़ सभी टीवी चैनलों पर निरंतर प्रसारण हो रहा है लेकिन हमले रोज़ नहीं होते. ऐसे किसी कार्यक्रम के प्रसारण के बाद चैनलों के आक़ा ये नहीं देखते कि उनकी रिपोर्टिंग से लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी मज़बूत या कमज़ोर हुई. टीआरपी ठीक है मतलब लोगों ने पसंद किया जो लोगों की पसंद है वही लोकतंत्र है. अब लोगों की पसंद के कार्यक्रम दिखाने वालों पर हमला लोकतंत्र पर ही तो हमला है. कौन न मर जाए इस सादगी पर.

मीडिया लोकतंत्र की चौथी टाँग है या सहस्त्रबाहु बाज़ार का मुँह ? या फिर बाज़ार ही असल में इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की चौथी टाँग है और मीडिया उसकी रणभेरी? इन सवालों पर फ़ैसला होता तो अच्छा था, लेकिन आप भी जानते हैं और मैं भी, ऐसा नहीं होगा. हमलावर तो उन वानरों की तरह हैं जो सत्ता के केंद्र नॉर्थ ब्लॉक-साउथ ब्लॉक में कभी-कभी उत्पात मचाते हैं और उन्हें खदेड़ने के लिए वेतनभोगी लंगूर तैनात कर दिए जाते हैं.

16 अप्रैल, 2007

जात-पात ख़त्म,सांप्रदायिकता ख़त्म होने को है

उत्तर प्रदेश में जात-पात की राजनीति ख़त्म हो चुकी है. बहुजन समाज पार्टी ने जब से सतीश मिश्र जी (पता नहीं सरजूपारी हैं या कानकुबुज) को प्रवक्ता बनाया तब से मेरा विश्वास पक्का हो गया कि संपूर्ण क्रांति अब जाकर संपूर्ण हुई है. काश यह सुखद समय देखने के लिए 'जाति तोड़ो' वाले जेपी जीवित होते!!

अन्य पिछड़ी जातियों को सामाजिक न्याय दिलाने वाली पार्टी ने पहले सभी पिछड़ों का दुख दूर किया और उसके बाद बेचारे ठाकुर कुल के राजा भैया की फ़रियाद भी सुनी.

दलितों की पार्टी के प्रवक्ता मिश्र जी हैं, दूसरी ओर 'अन्य पिछड़ों' के कर्ताधर्ता वही हैं जो सूर्यवंशम वाले अमिताभ जी के घर के कार्य-प्रयोजन की देखरेख भी करते हैं, जाति से ठाकुर हैं लेकिन सामाजिक न्याय के मामले में लोहिया जी के शिष्य रहे मुलायम जी के गुरू हैं.

निराला जी के चतुरी चमार को गाँधी जी अच्छे लगते थे क्योंकि वे उसे हरि का जन कहते थे लेकिन मान्यवर ने उसके बेटे को बताया कि गाँधी बरगलाता था, तुझे ये लोग दलते हैं, तू दलित है, वह बेचारा झंडा लेकर निकल पड़ा, उसे लगा वह जैसे सचमुच हाथी पर सवार हो गया है.

उसके भाई-बंद को कभी टिकट नहीं मिला था, मान्यवर ने मुसलमानों को टिकट का ज़्यादा हक़दार पाया, दलितों ने सोचा हम न सही, मुसले ही मूसल लेकर पंडितों के सीने पर मूंग दलें, दले जाने का कुछ तो बदला सधे, डंपी हो या डंगरमल क्या फ़र्क़ पड़ता है.

कु.बहन.सु.एड जी आईं तो उन्हें दिखा कि अगर पंडितों को साथ कर लिया तो हर साल अंबेडकर पार्क में धूम-धाम से नीले रंग का केक काटा जा सकता है. पूरे राज्य के पार्कों में बच्चों को अंबेडकर जी अपनी तर्जनी से इशारा करके हाथी दिखा सकते हैं.

चतुरी का बेटा फिर देखता रह गया. मिसिर जी परबकता हो गए, पुश्तों से जिनके जूते सीता था उन्हें मारने के लिए बड़े अरमान से 'जूते चार' रखे थे लेकिन ये क्या हो गया, जो बहन जी कान में फुसफुसाता हो उसे जूता कैसे मारा जाए?

जादो, कुर्मी, कोइरी सब मान रहे थे कि मोलायम जी के राज में उन्हें ब्राह्मणों-ठाकुरों आदि से कोई ख़तरा नहीं, वे अब पूरी तरह संतुष्ट हैं कि सारे ठाकुर मुलायम हो गए हैं क्योंकि मुलायम जी ठाकुर अमर सिंह की बात नहीं टालते.

अब आप अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए कि उत्तर प्रदेश में जात-पात की राजनीति कहाँ है? तिलक, तराजू और तलवार ही नहीं, लबनी, खुरपी और चाक सब खुश हैं और घुलमिल रहे हैं, एक-दूसरे की पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं.

अब देखिए ये सब वही पार्टियाँ हैं जिन पर जातिवादी राजनीति करने का आरोप लगता था, अब सांप्रदायिकता की राजनीति करने का आरोप झेलने वाली भाजपा इससे कुछ तो सबक़ सीखेगी.

रज्जू भइया गए, लखनऊ वाले रज्जू भैया (राजनाथ सिंह) आजकल अशोक रोड पर विराजमान हैं, उनमें दूरदृष्टि की कमी नहीं है, वे भी शाहनवाज़ हुसैन और मुख़्तार अब्बास नक़वी से आगे देखेंगे. दस परसेंट सवर्ण और बारह परसेंट मुसलमान आ गए तो सांप्रदायिकता अपने आप दूर हो जाएगी. मंदिर बाद में बनवा लेंगे ऐसी क्या हड़बड़ी है.

इस बार न सही, अगले विधानसभा चुनाव तक इसी तरह सांप्रदायिकता भी ख़त्म हो सकती है, सीडी बनवाने का खर्चा भी बचेगा. हर मस्जिद के वज़ूख़ाने में कमल खिलेगा.

13 अप्रैल, 2007

हिंदू होने पर गर्व करना क्यों ग़लत है?

हिंदू होने पर गर्व करना ग़लत है. ठीक उसी तरह जैसे अमीर बाप का बेटा होने पर गर्व करना.

सीधा मतलब ये है कि जो आपका निर्णय नहीं है उस पर न तो आपको गर्व करने का अधिकार है और न ही उसके लिए आपको हीन माना जाना चाहिए. हिंदू होने के लिए आपने क्या किया है? आपके पुरखे मुसलमान, ईसाई, जैन या बौद्ध नहीं बने. इस पर आप क्यों इतराएँ? यह बात हर धर्म, जाति, वर्ग, देश के लोगों पर लागू होती है.

अगर आपने पैदा होने से पहले एक फॉर्म भरकर कहा होता तो मुझे फलाँ देश में, फलाँ धर्म में, फलाँ जाति में, फलाँ परिवार में पैदा होना है... तो शायद आपके गर्व करने की बात कुछ समझ में आती. एक जैविक घटना और एक संयोग पर गर्व करना कैसे ठीक हो सकता है?

जब आप अनचाहे किसी जाति, धर्म और देश का हिस्सा बन जाते हैं तो उसके सही-ग़लत अभियानों में काम आने के लिए, उससे आपको जोड़े रखने के लिए गर्व की घुट्टी पिलाई जाती है, पूरी दुनिया में ऐसा ही होता है. विवेक का तकाज़ा है कि आप इस राजनीति को समझें उसके परे देख सकें.

इसी गर्व के रास्ते गोरों ने बेहतरीन नस्ल बनने का सफ़र तय किया, एक घटिया अमरीकी के आगे एक बेहतरीन सोमालियाई हीन हो गया. यहीं से जातिवाद, क्षेत्रवाद, नस्लवाद और राष्ट्रवाद की अवधारणाएँ पैदा हुईं. गर्व की पतली गली से ही जातीय श्रेष्ठता, विद्वेष, हिंसा और युद्ध तक के रास्ते खुलते हैं.

भारत प्राचीन सभ्यता का केंद्र है, ज्ञान-विज्ञान-दर्शन,वेद-पुराण सब यहाँ रचे गए हैं. ये सब बातें बिल्कुल दुरुस्त है. मगर यह गर्व करने की बात नहीं है, समझने-गहने-सराहने की बात है, उसकी पूर्णता में. भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया लेकिन सुमेरियन, असरीयन,चीनी, ग्रीक और मिस्री सभ्यताओं से बहुत कुछ लिया भी.

पाँच हज़ार साल की सभ्यता में सब कुछ गर्व करने लायक़ हो यह मानने की बात नहीं. धर्मवीर भारती का एक लेख पढ़ा था बचपन में धर्मयुग में, जो आज तक नहीं भूला. शब्दशः तो याद नहीं लेकिन भावार्थ ये है--यह वही सभ्यता है जो पौधों के प्रति भी इतनी संवेदनशील है कि शाम को पत्ते तोड़ने से मना करती है, यही वह सभ्यता है जो ज़िंदा औरत को आग में झोंक देती है. भारतीय सभ्यता न तो हीन है और न ही महान, वह विराट ज़रूर है.

मैं उसी विराट भारतीय सभ्यता का हिस्सा हूँ, हिंदू हूँ (गंगू भी), सिर्फ़ हिंदू घर में पैदा नहीं हुआ बल्कि पूजा-पाठ, संस्कार, कर्मकांड के बारे में भी थोड़ा-बहुत जानता हूँ, अनेक मंत्र याद हैं, हनुमान चालीसा कंठस्थ है. हिंदू की परिभाषा की दिलचस्प चर्चा में फिर किसी दिन पडूँगा लेकिन आज सिर्फ़ इतना कहना है कि हिंदु होने पर गर्व नहीं है क्योंकि यह गर्व करने की बात ही नहीं है.

हिंदू होना एक संयोग है जिसे सार्थक और सुखद बनाया जा सकता है, धर्म-सभ्यता-संस्कृति-समाज को समझकर और अच्छाइयों-बुराइयों दोनों से सीखकर. गर्व करके आप उसे ठीक से समझने का रास्ता बंद कर रहे हैं.

हिंदू होने का सुख यही है कि कोई शर्त नहीं है, गर्व करने की शर्त है शर्मिंदा होना.

12 अप्रैल, 2007

अनामदास की मूविंग इमेज

पुरानी डायरी से ज़्यादा रूमानी शायद ही कोई और चीज़ होती है, उसे पलटते हुए एक अजीब-सा रोमांच होता है. डायरी के पन्ने उन पगडंडियों की तरह होते हैं जिनसे हम गुज़रे हैं, डायरी के पन्ने हमेशा MPEG फॉर्मेट में होते हैं, मूविंग इमेज अक्सर बहुत मूविंग होते हैं.हीरो साइकिल की एक पुरानी डायरी है, पन्ने ज़र्द हो चुके हैं, हर पन्ने पर एक सूक्ति छपी है. 14-16 दिसंबर 1989 के पन्ने पर अठारह वर्ष के नवअंकुरित कवि ने कुछ लिखा है जिसकी कविताई सिर्फ़ दो-तीन बरस में मुरझा गई. नारद जी ख़ासे साहित्य प्रेमी हैं, तक़रीबन आधे पोस्ट कविता-कहानी के हैं जिससे हौसला बहुत बढ़ा है. 36 वर्ष के अनामदास को 18 वर्ष के एक कवि को इंट्रोड्यूस करने की अनुमति दीजिए.

बुढ़ा रहे अनामदास ने जवान हो रहे कवि की रचना में अपनी तरफ़ से कोई संशोधन नहीं किया है.

एक

अभी नहीं लिख सकता
कभी नहीं लिख सकता

वही नहीं लिख सकता
सही नहीं लिख सकता

उसकी नहीं लिख सकता
अपनी नहीं लिख सकता

कथनी नहीं लिख सकता
करनी नहीं लिख सकता

यहीं नहीं लिख सकता
कहीं नहीं लिख सकता

यूँ नहीं लिख सकता
क्यों नहीं लिख सकता

दो

करोड़ों सफ़ों में लिखा है
अरबों हर्फ़ों में लिखा है

सैकड़ों ज़बानों में लिखा है
वेद पुराणों में लिखा है

सब तो पहले से लिखा है
सदियों-सदियों से लिखा है

किताबों में सच लिखा है
उनमें झूठ भी लिखा है

सब ज्ञान-विज्ञान लिखा है
अंधकार-अज्ञान लिखा है

तीन

लोग फिर भी लिख रहे हैं
शब्द फिर भी बिक रहे है

जज सज़ा लिख रहे हैं
मुजरिम ख़ता लिख रहे हैं

सब अपना लिख रहे हैं
हम सपना लिख रहे हैं

बार-बार वही अक्षर उग रहे हैं
लफ़्ज़ों के ज़ख्म दुख रहे हैं

दुख सुख रंजोग़म लिख रहे हैं
दावा ये नया हम लिख रहे हैं

लोग पंसद का फ़िकरा लिख रहे हैं
हम अपने क़ुरान की इकरा लिख रहे हैं

सबके पास अपनी सूक्ति है
अपनी बस लिखने में मुक्ति है

अनाम 'हरामियों' और 'कायरों' के बचाव में

बहुत मज़ा आ रहा है. प्रमोद जी अनामों को 'हरामी' बता रहे हैं (बाप का नाम पूछने का कोई और मतलब तो नहीं?), पोतड़े लेकर उनके पीछे भाग रहे हैं. कमल जी शरीफ़ आदमी की तरह उन्हें कायर के खिताब से नवाज़ रहे हैं.

मैं अनामदास हूँ, हजारी प्रसाद द्विवेदी वाला अनामदास जो आधुनिक युग में पोथे की जगह चिट्ठे लिखता है, रात के अंधेरे में पत्थर फेंककर भाग जाने वाला अनाम नहीं जिनसे कुछ चिट्ठाकार साथी परेशान हैं.

बहरहाल, अनाम वानर इधर-उधर उत्पात मचा रहे हैं, कुछ ब्लॉगर साथी "मारो-भगाओ-बचाओ" की गुहार लगा रहे हैं. ऐसी अफ़रा-तफ़री की हालत में कम ही होते हैं जो सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखते हैं, पहले पहलू से तो सब वाक़िफ़ हैं जिसके लिए प्रमोद जी, कमल जी और कई दूसरे साथी धन्यवाद के पात्र हैं.

अनामदास तो आदतन दूसरा पहलू देखते हैं, नामवर होते तो शायद ऐसा नहीं कर पाते. दूसरा पहलू देखने वाले लोग कई बार नामवर हो जाते हैं लेकिन फिर वे वही देखने लगते हैं जो दूसरे देखना और दिखाना चाहते हैं. अनामदास इसलिए अनाम नहीं हैं कि किसी को गाली देकर भाग जाने में सुविधा हो बल्कि इसलिए कि शब्दों की दुनिया में ऐसा समानांतर जीवन जिया जा सके जो पापी पेट या नाम के भूखे दिमाग़ के लिए जीने वालों को सहज प्राप्य नहीं है.

अनामों के बचाव में कुछ बातें कहनी हैं जो अनाम नहीं कह सकते, कहना होता तो कह चुके होते अब तक, जितनी गालियाँ पड़ी हैं बेचारों को. एक बात साफ़-साफ़ कह देना ज़रूरी है कि मैं काफ़ी हद तक कमल जी और प्रमोद जी से सहमत हूँ, मेरे इस पोस्ट का मतलब क़तई नहीं है कि अनाम लोग बिना पोतड़े के घूमें और जहाँ जी करे पवित्तर कर दें. लेकिन जो स्वनामधन्य हैं वे अनामों को बेभाव की सुनाएँ ये भी ठीक नहीं है. अनाम को अपराधी या पापी की श्रेणी में रखना थोड़ा अतिवादी रवैया लगता है.

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आतंकवादियों का समर्थक और पर्यावरणवादियों को विकास का विरोधी कहा जाना आम बात है, कुछ ऐसा ही ख़तरा अनामदास उठा रहे हैं, यह सोचकर कि व्यापक हिंदी ब्लॉग जगत का शायद कुछ हित इसमें छिपा हो....

अनाम लोगों के संदेश को नाम वालों के मुक़ाबले ज़रा ज़्यादा ग़ौर से सुनना चाहिए क्योंकि उसमें संदेश प्रमुख होता है न कि उसे भेजने वाला. गुप्त मतदान के महत्व को लोकतंत्र में रहने के कारण आप अच्छी तरह समझते हैं. अनाम लोग अक्सर जनभावनाओं के प्रतिनिधि होते हैं, टीवी पर जो आदमी कहता है कि 'महँगाई बहुत बढ़ गई है' वह अनाम ही होता है. गुप्त टिप्पणी करने वाले को एक आम मतदाता समझने में क्या कष्ट है?

जो सैकड़ों लोकगीत गाए जाते हैं उनका कोई कवि-गीतकार-शायर नहीं होता, कई बार जनमानस की भावनाओं को सुरों से अनाम लोग सजाते हैं.

एक ऐसा व्यक्ति जो किसी भी कारण से (कायरता और हरामीपना सहित) सनाम सामने नहीं आना चाहता उसकी तर्कसंगत बात को यूँ ही नकार देना महज तकनीकी आधार पर मामला खारिज करने जैसा है.

अनाम और अज्ञात का डर वहाँ होना चाहिए जहाँ कुछ लोभ-लाभ की बात हो यहाँ तो सब मौज कर रहे हैं, फिर उनसे घबराना कैसा?

मेरे ख़याल में किसी पर कायर, हरामी, उत्पाती, ग़ैर-ज़िम्मेदार जैसी बिल्ला चिपकाने के बदले उनका तर्कसंगत प्रतिकार करना एक बेहतर उपाय है (अगर आपको लगता है कि उनकी बात में कुछ दम है. अगर नहीं तो सीधे कूड़दान में डालिए.) हालाँकि ऐसे बिल्लों के ख़तरे से आगह होने की वजह से ही बंदे अनाम रहने में ख़ैर समझते हैं शायद.

बहस का मज़ा तर्क की धार में है, विशेषणों के प्रहार में नहीं.

मुझे ब्लॉग लिखते हुए ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ है लेकिन काफ़ी समय से पढ़ रहा हूँ, कई बार कुछ-कुछ इसराइली क़िस्म की संवेदनशीलता ब्लॉगर दिखाते हैं. रोड़ा(अनाम टिप्पणी) फेंककर भागने वाले बच्चे पर ग़ुस्से में भरकर पूरा टैंक (पोस्ट) चढ़ा देना सराहनीय नहीं है.

पुनश्चः ये अनामदास के निजी विचार हैं. जिन अनाम टिप्पणियों ने चिट्ठाकार साथियों को क्षुब्ध किया है उनके गुण-दोष पर विचार किए बिना उनकी सीमित सार्थकता को सामने लाने की एक कोशिश यहाँ की गई है. अगर आप अनाम टिप्पणियाँ करना चाहें तो आपका स्वागत है, गालियाँ देंगे तो फेंक दूँगा, बहस करेंगे तो यथासंभव जवाब तलाश करूँगा.

04 अप्रैल, 2007

सुविधा की फाँस और अभाव की आज़ादी?

नारद पर चिट्ठे पढ़ता रहा, सुपरमार्केट नहीं गया. घर में खाने की ढेर सारी चीज़ें थीं, नहीं था तो बस आटा. पत्नी का पारा चढ़ गया, शाम तक हँसती-मुस्कुराती बीवी डिनर के वक़्त तवे की तरह गर्म थीं. ऐलान किया, "मैं चावल नहीं खाऊँगी,तुम आटा क्यों नहीं लाए? आज तो तुम्हारी छुट्टी थी, दिन भर क्या करते रहे..."

एक खाते-पीते घर में वैसा ही दृश्य पैदा हुआ (सिर्फ़ कुछ मिनट के लिए) जैसा झोंपड़पट्टी में रहने वाले एक बेरोज़गार या अर्धबेरोज़गार बेवड़े के घर हर रात होता है. लगा कि अभाव और सदभाव का कितना व्युत्क्रमानुपाती (हिंदी माध्यम से भौतिकी पढ़ने वाले जानते हैं इसका अर्थ,यानी ठीक विपरीत उसी अनुपात में ) संबंध है.

दिल्ली, मुंबई और बंगलौर जैसे शहरों में पानी-बिजली और फ्लश-संडास से लैस अपार्टमेंटों में रहने वाले लोग हर रोज़ पड़ोस के झुग्गीवालों की 'असभ्यता' के सैकड़ों उदाहरण देखते हैं जो उन्हें इस बात का एहसास दिलाता रहता है कि वे कितने सभ्य, शिक्षित, सुसंस्कृत, भद्र, सुशील, संस्कारवान, उदार...आदि हैं.

भ्रमित अनामदास की आदत है ज़रा ग़ौर से देखने की जिससे उसका भ्रम और गहराता ही है. हमेशा लगता है कि सच वह नहीं है जो ज़्यादा दिखता है,वह भी सच है जो हमें नहीं दिखता, हम देखना- मानना नहीं चाहते.

अपार्टमेंट वाले जब एसी थ्री-टियर की क़ीमत पर उड़ान भरने के लिए एयरपोर्ट पहुँचते हैं तो एयर ढक्कन की अव्यवस्था में उनकी सारी भद्रता हवा हो जाती है. एयरपोर्ट पर वही नज़ारा होता है जो म्युनसिपालिटी के बंबे पर होता है. म्युनसिपालिटी के एक नल से एक हज़ार लोगों के लिए पानी की पतली धार सिर्फ़ दो घंटे के लिए आती है और ऐसे में सिर्फ़ दो-चार लोगों के बीच खटपट होती है जो आश्चर्यजनक रूप से असाधारण बात है.

अभी फ़रवरी महीने में संगम पर लाखों लोग जुटे थे, लगभग सभी अपनी गठरी-मोटरी में चूड़ा, सत्तू, चबेना, लाई-मूड़ी लेकर आए थे. ज़्यादातर लोग ऐसे थे जिन पर सभ्य, शिक्षित, सुसंस्कृत, भद्र, सुशील, संस्कारवान, उदार...आदि होने के आरोप नहीं लगाए जा सकते. अब कल्पना कीजिए कि इतनी ही बड़ी तादाद में अपार्टमेंट में रहने, कार में घूमने और मोटी पगार पाने वाले एक नदी के किनारे कीचड़ से लथपथ उबड़खाबड़ तट पर जमा हों तो वहाँ का नज़ारा क्या होगा? ओह शिट...आउच...हाउ मेनी पीपुल... ओह इट्स सफ़ोकेटिंग...डिस्गस्टिंग...

दरअसल,सुविधा में रहने वाले लोग इतने सुविधाग्रस्त हो जाते हैं कि ज़रा सी असुविधा उन्हें बुरी तरह बेचैन कर देती है, सुविधा शायद निकोटिन और क़ैफ़ीन से भी ज़्यादा एडिक्टिव है. इसके विपरीत अभाव एडिक्टिव नहीं बल्कि सेडेटिव (शामक) है. लोग कहते हैं कि अभाव में रहने वालों को उसकी आदत पड़ जाती है लेकिन ऐसा नहीं है, अभाव में व्यक्ति प्रत्यन करके अपनी आवश्यकताओं को स्थगित करने की तक़लीफ़ सहना सीखता है, कभी हँसकर,कभी गाकर, कभी भगवत- भजन करके... वह प्रयास करके ऐसा बनता है ताकि उसे कम तक़लीफ़ हो. सुविधाग्रस्त आदमी को कोशिश नहीं करनी पड़ती आदत डालने की, सुविधा बेचारे को फ़ौरन ही दबोच लेती है, उसे पता तक नहीं चलता.

सुविधाग्रस्त लोगों को तक़लीफ़ ज़्यादा होती है मगर इसकी वजह सिर्फ़ सुविधा की आदत नहीं है. जैसा गौतम बुद्ध ने कहा है--संसार में दुख है और सभी दुखों के मूल में तृष्णा है. तृष्णा की आग तृष्णा की पूर्ति से नहीं बुझती बल्कि भड़कती है. जैसे-जैसे व्यक्ति सुविधासंपन्न होता जाता है उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है क्योंकि वह काफ़ी हद तक अक्सर पूरी भी होती रहती है. इसी के बरअक्स अभाव में व्यक्ति इच्छाओं को मारता जाता है और इच्छाएँ भी मानो समझने लगती हैं कि उन्हें पूरा नहीं किया जा सकता इसलिए वे शांत ही रहती हैं. आपने इलाज के अभाव में मरते हुए व्यक्ति के रिश्तेदार को यह कहते नहीं सुना कि मजबूर हैं इससे बेहतर इलाज नहीं करा सकते, उसके चेहरे पर दुख तो होता है लेकिन बेचैनी नहीं होती. सुविधाग्रस्त व्यक्ति की बेचैनी बेहतरीन स्कूल के बाहर बच्चों के एडमिशन के मौसम में देखी जा सकती है जो सरकारी अस्पताल के बाहर नहीं दिखती.

सुविधाग्रस्त व्यक्ति शुरूआत से अपनी इच्छाएँ बढ़ाता जाता है और अपने निरंतर दुखी होने का इंतज़ाम करता जाता है, जीवन में उसका बहुत कुछ दाँव पर लगा होता है, अँगरेज़ी में जिसे 'हाइ स्टेक' कहते हैं जबकि अभाव में जी रहे व्यक्ति के पास न ज़्यादा खोने की आशंका होती है न ज़्यादा पाने की संभावना.

अब आपके सामने दो विकल्प हैं--अभाव में जीने के दुख उठाएँ या सुविधा में जीने के. पहला विकल्प आसान है उसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ता, भारत में अभावयुक्त जीवन सहज प्राप्य है लेकिन मेरे-आपके जैसे लोगों की दोहरी ट्रेजडी है--पहले जी-जान से चीज़ों के पीछे भागना और कुल मिलाकर
अभाव में जीवन जीने वाले व्यक्ति से कहीं ज़्यादा बेचैन रहना.

बहरहाल, दुख तो उठाना ही होगा, जैसा कबीर कह गए हैं--

देह धरन के दुख हैं,सब काहू को होए
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोए

इससे बचने का उपाय बताना चाहें तो बताइएगा, बीच के रास्ते की बात साथी करते हैं लेकिन बीच का रास्ता इस किनारे से थोड़ा कम दूर या थोड़ा ज़्यादा दूर होता है, सड़क तो एक ही है, जो जा रही है एक ही दिशा में.

02 अप्रैल, 2007

'दलालों के शहर' दिल्ली के नाम कुछ क़सीदे

दो दशक पहले कुछ कविताएँ लिखी थीं जो कई तथाकथित प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 'नवांकुर', 'नई पौध' और 'कोंपल' जैसे स्तंभों के तहत छपीं भी लेकिन जल्द ही समझ में आया कि मैं ऐसी कोई बात नहीं कह रहा जिसे लोग पढ़ना या सुनना चाहेंगे. दिलचस्प बात है कि कविता सहज ही फूटती है (कुछ लोग फूटते ही दूसरों पर फेंकने लगते हैं, कुछ उसमें से मोती चुनते हैं और कुछ कचरा समझकर किनारे हटा देते हैं.) मैं शायद तीसरी श्रेणी में आता हूँ, मेरे भीतर जो कविता फूटती है वह मुझे थोड़ी कमतर नस्ल की लगती है... बहरहाल, गद्य शायद सुविचारित ज़्यादा होता है, हालाँकि शिल्प का महत्व दोनों विधाओं में एक जैसा है. शायद यही वजह है कि ज़्यादातर भाषाओं में खंडकाव्य और महाकाव्य पहले रचे गए, कहानी और उपन्यास बाद में.

ओफ़, यही समस्या है मेरी, मुद्दे पर ज़रा देर से आता हूँ. इतना लिख मारा पर दिल्ली शब्द तो कहीं आया ही नहीं जिसे पढ़कर आप अंदर दाख़िल हुए हैं. मैं कुछ अरसा पहले दिल्ली में था. एक ट्रैफ़िक जाम में बुरा फँसा, डेढ़ घंटे तक. क्या करता...यूँ ही नोटपैड पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता रहा और रास्ता खुलने का इंतज़ार करता रहा. कोई 20 बरस बाद कुछ कवितानुमा चीज़ें अचानक नमूदार हुईं, शायद पहले भी होती रही हैं लेकिन मैंने उन्हें नोट नहीं किया था. इस बार किया. सब राजधानी दिल्ली के बारे में हैं, दिल्लीवालों किसी बात का बुरा न मानना, मैंने भी कई बरस दिल्ली में गुज़ारे हैं. दिल्ली के एहसान हैं मुझ पर. दिल्ली की शान में क़सीदे ग़ालिब और मीर ने बहुत पढ़े हैं, अपने वालों के लिए माफ़ी चाहता हूँ. वैसे ग़ालिब और मीर होते तो न जाने आज वाली दिल्ली पर क्या कुछ कहते.

एक

ये दलालों का शहर है
सब कहते हैं, ख़ुद दलाल भी
बात में वज़न है
क्योंकि जो कह रहा है
वो बाइज़्ज़त शहरी है.

दो

साँप-सीढ़ी का खेल है
समझदार पूँछ से चढ़ते हैं
कुछेक सीढ़ियाँ उतरते हैं.

तीन

नए लोग
नई गाड़ियाँ
दोनों भागते हैं
अलग-अलग रास्ते.

चार

कहीं से आए थे
यहीं आना था
सबको कहीं पहुँचना है
कुछ फ्लाईओवर पर हैं
ज़्यादातर लाल बत्ती पर.

पाँच

दूर-दूर से आते हैं
हुनर सारे आते हैं
जीने का ढंग
यहीं सिखाया जाता है
तसल्लीबख़्श.

छह

'ब्रैड' पकौड़ा
बैण का ....
'फ्रिज की लगी पैप्सी'
'चैस्ट' क्लिनिक
'बैस्ट' है अपनी दिल्ली.