22 जून, 2007

मुहल्ले, क़स्बे और महानगर में भटकता अनामदास

अचानक वो सब अच्छा लगने लगा है जो पीछे छूट गया, मैंने कुछ भी रौंदा नहीं मगर पीछे छूट गई चीज़ों को न उठा पाने का अफ़सोस सालता है. रेला आगे जा रहा है जहाँ छूट गई चीज़ को पलटकर उठाना मुमकिन नहीं है.

मैंने नहीं उठाया इसीलिए सब रौंदे गए, हाथ से गिरे गली, मुहल्ले, आँगन, कुएँ, आम-अमरूद, गिल्ली डंडे, लट्टू, पतंग, कंचे... वक़्त के क़दमों तले. अपराध बोध है जो जाता ही नहीं.

नॉस्टेलजिया एक रोमैंटिक चीज़ हुआ करती थी, आजकल स्क्रित्ज़ोफिनिया की तरह एक मनोविकार है, कम से कम बुढ़ा रहे आदमी का प्रलाप तो ज़रूर.

क़स्बे में निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार पैदा होकर पहले भारत और उसके बाद दुनिया के महानगरों को देखने वाले चालीस के करीब पहुँच रहे आदमी की त्रासदी बड़ी विचित्र है, न बताते बनती है, न छिपाते. वह पूरी तरह वस्तुहारा है, न इधर का न उधर का. उसकी प्यास कहीं नहीं बुझती, उसकी बेचैनी कभी नहीं मिटती.

सैटेलाइट टीवी के सैकड़ों चैनल मिलकर घुर्र-घुर्र करने वाले आकाशवाणी जैसा सुकून नहीं दे रहे, महँगे से महँगे रेस्तराँ नंदू की कचौड़ी-जिलेबी का सुख नहीं दे रहे, फ्रिज की आइसकोल्ड बियर से वह तरावट नहीं मिल रही जो सौंफ या बेल के शर्बत से मिलती थी...

गर्मी की दुपहरी में दाल-भात-सब्ज़ी के ऊपर से आम खाकर सफ़ेद गंजी-पजामा पहनकर छह नंबर पर पंखा चलाकर डेढ़ घंटे सोने का स्वर्गतुल्य सुख अब कहाँ है. उसके लिए वही घर चाहिए, अपने पेड़ का आम चाहिए और शायद वही उम्र चाहिए...और किसी तरह की नौकरी कतई नहीं चाहिए.

घर था, फ्लैट नहीं, आँगन था, बालकनी नहीं, मालती, हेना, गुलाब सब पसरे थे, आँगन में आम-अमरूद तो थे ही ओल (सूरन,जिमीकंद) न जाने कैसे अपने-आप ज़मीन के नीचे आ बैठता था. नालियों में छछूंदर रेंगते थे, दीवारों पर काई जमती थी, पूरी बारिश भुए रेंगते थे जो धूप निकलने पर भूरी-धूसर-काली तितलियाँ बनकर उड़ने लगते थे, चार-पाँच तरह के मेढ़क, पाँच-सात तरह के फतिंगे, दस-बीस तरह के कीड़े सब अपने-अपने चक्र के अनुरूप दर्शन देते. जिसे आजकल इकॉलॉजी कहा जाता है वह सब हमारे घर में था.

बारिश की बूंदे पूरी रात छप्पर से स्विस घड़ी की तरह सेंकेंड-दर-सेकेंड गिरती थीं, मुंडेर पर बिल्लियाँ और चौराहे पर कुत्ते लड़ते थे, चौकी के नीचे चूहे दौड़ लगाते थे और मोड़ पर शराबी एक-दूसरे को पहले गालियाँ देते और बाद मे गले मिलते थे. सुबह हम गन्ना चूसते थे, दोपहर में झेंगरी (हरा चना) और शाम को फुचका (गोलगप्पा). लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकता जिसमें शामिल थी अधगिरी छप्पर पर उगी तुरई की तरकारी.

यह गया वक़्त है जो लौटकर आ नहीं सकता. क़स्बे तो कुओं को पाट चुके हैं, आम-अमरूदों को काट चुके हैं, वे उन लड़कों की तरह हैं जो जवान होने की जल्दी में उगने से पहले ही दाढ़ी बनाने लगते हैं. मैं जिस क़स्बे को याद करके आँखें गीली करता हूँ आज का गाँव वहाँ आ पहुँचा होगा.

मैं सोचता हूँ मेरे पिता कितने निर्द्वंद्व थे कि ख़ानदानी घर है, बच्चे यहीं रहेंगे, सब कुछ ऐसा ही रहेगा आम-अमरूद, आँगन-कुआँ...जैसा उनकी जवानी में था लेकिन कुछ भी नहीं रहा. मैं सोचकर डरता हूँ और दावे से नहीं कह सकता कि मेरा बेटा चाँद पर नहीं रहेगा.

ऐसे में कोई खवनई की बात करे, कोई आकाशवाणी ट्यून करे, कोई कोंहडौरी की याद दिलाए, कोई पेटकुनिए लेटने की मुद्रा बताए, कोई बिल्लू के बचपन का ज़िक्र छेड़ दे, कोई घर में पहली बार रखे गए दर्शनीय फ्रिज की तस्वीर पेश करे, कोई दरंभगा के माटसाब की तस्वीर खींचे, कोई बनारस के क़िस्से छेड़े दे (कई और हैं...) तो ऐसा लगता है कि किसी ने ज़ख़्मों पर नरम फाहा रख दिया हो.

हम बदलते वक़्त के शरणार्थी हैं. कश्मीरी पंडित से चिनार और गुश्ताबा की बात दिल्ली में करो या न्यूयॉर्क में, आहें भरने के अलावा उसके पास चारा क्या है. वह कश्मीर नहीं लौट सकता, हम भी प्री-ग्लोबलाइज़ेशन दौर में नहीं जा सकते, बस आहें भर सकते हैं.

एक नया भरम है, आभासी दुनिया में अपने जैसे लोगों की खोज में भटक सकते हैं. ऐसे लोग जिनका अतीत हो, जो उन्हें याद हो, और भविष्य के सुनहरे सपनों से उनकी मेमरी चिप फुल न हो गई हो. उनसे गले मिल लें, हँस लें, रो लें, झूठ-मूठ ही एक बार फिर उस दौर को जी लें.

20 जून, 2007

जो न हो सका उसकी तलाश है मुझे

आभासी लोक में विचर रहे दो जीवों ( प्र1 प्र2) ने सवाल सामने रखा कि कोई यहाँ क्यों आया, क्या चाहता है. ठीक वैसे ही जैसे लोग पूछते हैं--'आपके जीवन का उद्देश्य क्या है?'

जवाब तो नहीं है, बस एक सवाल है, अरे भाई जब पैदा होने का उद्देश्य नहीं था, मरने का कोई उद्देश्य नहीं है तो वक़्फ़े का उद्देश्य क्यों होना चाहिए? अगर होगा तो वही जाने जिसने हमारी इच्छा के बिना हमें बनाया और हमारी इच्छा के बग़ैर मार डालेगा.

कुछ लोग दावा करते हैं कि उन्हें उनके जीवन का उद्देश्य मिल गया है--देशसेवा, गौसेवा, जनसेवा, हिंदीसेवा से लेकर कारसेवा और अब नेटसेवा तक. मुझे कोई उद्देश्य नहीं मिला है, जिस तरह जीता हूँ उसे उद्देश्य कहने का हौसला मुझमें नहीं है.


मुझे जीवन का उद्देश्य तो नहीं पता लेकिन जिसे आभासी दुनिया कहा जाता है वहाँ मैंने स्वेच्छा से जन्म लिया. स्वयंभू हूँ, हर्मोफ़र्डाइट हूँ--एककोशीय जीव, जो ख़ुद से टूटकर बना है.

आभासी दुनिया का उल्टा क्या हो सकता है, सोचता रहा मगर कोई ठीक शब्द नहीं मिला-स्पर्शी दुनिया? जीवन इहलोक है तो आप जिसे आभासी दुनिया कह रहे हैं वह शायद उहलोक. आभासी दुनिया में उतरने का सादा सा लेकिन बहुत बड़ा सा आकर्षण है, इहलोक में रहते हुए उहलोक में विचरण करना.

मैं वह सब कुछ चाहता हूँ जो इहलोक में नहीं मिल पाया, इहलोक में नौकरी है तो उहलोक में आज़ादी, इहलोक में सीमाएँ हैं तो उहलोक में स्वच्छंदता. उहलोक में जीने का आनंद उठाने के लिए सबसे ज़रूरी था नाम, काम, दाम आदि का त्याग इसलिए अनामदास का चोला पहना और निकल लिए ऐसा जीवन जीने जिसकी सीमाएँ नहीं मालूम, इहलोक वाले बंदे की सब सीमाएँ समय रहते मालूम हो गईं इसलिए चाकरी खोजी और लग गए नून तेल लकड़ी में.

जो उहलोक वाला था हमेशा से कसमसाता था, एक और जीवन जीने के लिए. उसके लिए एक और जन्म तक इंतज़ार करना पड़ता और इस जन्म को इतने बोरिंग तरीक़े से गुज़ारना पड़ता कि अगले जन्म में भी मनुष्य बनना नसीब हो. तभी अचानक 'सेंकेड लाइफ़' जैसा आइडिया आया, हमने कहा जो कुछ तनख़्वाह देने वाले ने नहीं ख़रीदा है वह उहलोक वाले के नाम. अनामदास गरियाता है कि साले ने कुछ नहीं दिया, एक-सवा घंटा देता है हफ़्ते में एकाध बार एहसान करके...

क्या-क्या बिक गया है ठीक-ठीक नहीं पता, क्या-क्या बचा है, नहीं मालूम. शायद यही पता लगाने की कोशिश है आभासी दुनिया की मटरगश्ती. जब तक यही पता न हो कि खींसे में क्या है तब कैसे पता चलेगा कि झोले में क्या आएगा. आभासी दुनिया में कई जीव भटकते हैं अपनी तरह के, दूसरी तरह के भी, वही बता पाएँगे कि मेरे पास कुछ खरा है या बाउंस होने वाला चेक लिए घूम रहा हूँ.

बात ये है कि इहलोक में रहते हुए उहलोक की रेकी कर रहे हैं, देख रहे हैं कि अगर इधर से निकलकर उधर गए तो कोई आसन-पाटी मिलेगी या लतिया दिए जाएँगे.

हर आदमी के अंदर कई-कई जीव रहते हैं, अभी तक दो का सस्ता-मद्दा इंतज़ाम हो पाया है, बाक़ियों को टरका दिया गया है.

समानांतर जीवन जीने की इस युक्ति से मुझे सचमुच निर्मल आनंद मिल रहा है लेकिन कई लोग हैं जो लगातार धमकाते रहते हैं कि पोल खोल देंगे. जो भाई इहलोक वाले को किसी भी तरह से जानते हैं उनसे अनुरोध है कि उहलोक वाले के असमय अवसान के पाप का भागी न बनें.

उहलोक में क्योंकर विचरण हो रहा है यह बताने की कोशिश की है, आगे सोचकर बताता हूँ कि धूप-छाँव, शहर-गाँव, ध्वनि-प्रतिध्वनि, आलाप-विलाप-प्रलाप क्या सुनना चाहता हूँ, क्या सुनकर मन खुश होता है और क्यों... फूड फॉर थॉट के लिए आप दोनों का आभार...

18 जून, 2007

नारद के सभी ईस्वामियों के समर्थन में

शीतल छाँव है, कलियाँ खिली हैं, खुशियाँ बिखरी हैं, भ्रमर गुंजन कर रहे हैं, गीत-संगीत का माहौल है, सब कुशल-मंगल है, शांति-शांति है, छेड़छाड़ थोड़ी-सी है जैसे शादियों में गालियाँ गाई जाती हैं. समधी मिलन जैसा समाँ है, सब एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं. अहा! कितना सुंदर आयोजन है, आप धन्य हैं, अरे आप भी धन्य हैं.

दिन भर के थके-हारे योद्धा यहाँ कहानियों, कविताओं और चुटकुलों के चंदोवे में विश्राम करते हैं. भोमियो, जावा, ड्रीमवीवर, विस्टा जैसे-जैसे अग्रगामी पात्र हैं जो पूरी दुनिया के दुख-दर्द मिटाकर आनंदवर्षा कर रहे हैं. पूरी दुनिया एक दूसरे से जुड़ी है, जो नहीं जुड़े हैं वे चूहड़े हैं, पहले भी थे आगे भी रहेंगे.

हम इस हरी-हरी वसुंधरा की स्वस्थ-समृद्ध संतानें हैं, हमने अपना भाग्य अपनी मेहनत से रचा है, जो नीचे से कराहते हैं उनकी बात करने के लिए नेता लोग हैं, टुटपुंजिए पत्रकार हैं.

यह हमारी दुनिया है, हमने बनाई है, यहाँ हमारी प्रगति की ललक है, यहाँ हमारी समझ की चमक है, यहाँ हमारी शक्ति की दमक है, हमारे पास इसका पासवर्ड है. यहाँ उन लोगों की बात क्यों करते हो जो किसी कैम्प-वैम्प में अपनी करनी का फल भोग रहे हैं.

हवाई बातों के पवनपुत्र हमारी इस अ-शोक वाटिका में उत्पात मचाने आ गए हैं, हँसते-खेलते सरल परिवार में गरल लेकर 'विषराज' आ गए हैं, लेकिन सुन लो अब कलियामर्दन के लिए बाल-गोपाल तैयार हैं. अधरों पर मीठी-मीठी वंशी है लेकिन सुदर्शन चक्र को न भूलो, वह भी है हमारे पास.

प्रगति हो रही है, शेयर बाज़ार आसमान छू रहा है, अमरीका-यूरोप लोहा मान रहे हैं, जीडीपी उठान पर है...यह सब आपके दलित-गलित, वामपंथी-दामपंथी विचारों की वजह से नहीं हो रहा है, यह हमारी प्रतिभा है, योग्यता है...विचारों से न कुछ हुआ है, न होगा, ज़रूरत है मेहनत, लगन और सबसे बढ़कर बहसबाज़ी में समय बर्बाद न करने की.

पसीना बहाकर, सॉफ्टवेयर उड़ाकर, लिंक लगाकर, रातों की नींद गँवाकर...हमने एक कुनबा बनाया जिसमें सब समानधर्मा लोग थे, सबको विश्वास था कि--लेकर हाथों में हाथ, हम चलेंगे साथ-साथ, हम होंगे कामयाब एक दिन...सबसे बड़ी पंगत-संगत-रंगत अपनी होगी, सब लोग एक क़तार में बैठकर भंडारा खाएँगे और जयकारे लगाएँगे.

हमने सपनों की कोमल दुनिया बसाई थी लेकिन यहाँ भी रुखे-सूखे-भूखे लोगों की बात करने वाले आ धमके. अकाल पीड़ित-बाढ़ पीड़ित और तो और दंगा पीड़ितों की बात करने वाले आ पहुँचे. इसके कहते हैं रंग में भंग करना.

जो गुजर चुका है वह गुजरात इनके लिए गुजरता ही नहीं है...चलता ही जा रहा है. गांधी के राज्य को जिस मोदी ने गौरव दिलाया उसे ये लोग रौरव बता रहे हैं, हद होती है नासमझी की. यहाँ आने से पहले तक इन्हें कोई पूछता न था और अब रंग देखिए कि एक बदज़बान आदमी की ज़बान काटे जाने पर छोड़कर जाने की धमकियाँ दे रहे हैं. जहाँ नौकरी करते हो वहाँ दो न ये धमकी, अगर हिम्मत है तो...

हम रात-दिन एक करते हैं, गैजेट्स, सॉफ़्टवेयर्स, एप्लिकेशंस के बारे में पढ़ते हैं ताकि देश का विकास हो, हिंदी फले-फूले...और लोग हैं कि चले आते हैं दो चार उलजलूल वाद-प्रतिवाद-संवाद-चर्चा-परिचर्चा वाली किताबें पढ़कर वही घिसापिटा राग लिए... लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक और साम्राज्यवाद का रोना लेकर, एक ही सॉफ्टवेयर है जिसका पिछले दो जेनरेशन से कोई अपग्रेड नहीं आया है.

राजनीति से हमारा क्या लेना-देना, हम तो शांतिप्रिय-प्रतिभाशाली लोग हैं जो देश, भाषा, संस्कृति और सबसे बढ़कर इंटरनेट क्रांति में योगदान दे रहे हैं. हाय! क्या वक़्त आ गया है, हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ कर रही है, एक बार कोड का एक कैरेक्टर बदल दिया तो जीवन भर एरर में गुज़रेगा.

(इसे कृपया व्यंग्य न समझें, यह पिछले कुछ दिनों में नारद पर लिखे गए सच्चे पोस्टों और टिप्पणियों पर आधारित है. यह एक शांतिप्रिय कुनबे का घोषणापत्र है इसे उसी तरह देखने में सबकी भलाई निहित है. नारद के सभी इलेक्ट्रॉनिक स्वामियों को सादर समर्पित. )

17 जून, 2007

नारद पर ज़बानदराज़ी चल सकती है ज़बानतराशी नहीं

मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब एक ग़लती को दूसरी बड़ी ग़लती से ठीक करने की कोशिश की जाती है.

जिस वाद-विवाद की वजह से बात यहाँ तक पहुँची उसकी क्रमबद्ध 'आपराधिक जाँच' (क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन) का कोई मतलब नहीं है क्योंकि मुद्दा अब वह नहीं रह गया है.

नारद के प्रबंधकों ने जो 'कड़ी कार्रवाई' की और उसके बाद जिस हर्षोल्लास के साथ उसका स्वागत किया गया उससे एक लकीर खिंच गई है. अब हर किसी पर यह बताने का दबाव-सा बन गया है कि वह लकीर के किस तरफ़ है.

ऐसी लकीरें हमेशा वही खींचते हैं जिनकी चर्चा-बहस-संवाद की परंपरा में कोई आस्था नहीं है, यह परंपरा सिर्फ़ लोकतांत्रिक नहीं बल्कि 'आर्गुमेंटेटिव इंडियन' वाली भारतीय परंपरा है. ख़ैर, जाने दीजिए...अनेक विवादों के संदर्भ में यह बात-बात कई बार कही जा चुकी है.

बहकता-चहकता पोस्ट 'शाबास नारद' आया जिसमें गिरिराज जोशी ने रणभेरी बजाते हुए कहा, "नारद से ऐसे सभी चिट्ठों को निकाल फैंको जो इसका विरोध करते हैं..."

इस हिसाब से मैं निकाले जाने का पात्र बन चुका हूँ. मैंने अपनी पात्रता का प्रमाणपत्र फ़ौरन ही गिरिराज जी को भेज दिया था. मुझे लगा कि अब चुप रहना ग़लत होगा, मैंने लिखा-- "आपके विचारों का विरोध न करना और उसे ग़लत न कहना अधर्म होगा, पाप होगा."

लकीर खींचने वाले साहब वही कर गुज़रे जो श्रीमान बुश ने किया था, "या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे ख़िलाफ़"..

मुझे बताना पड़ा कि मैं लकीर के दूसरी तरफ़ हूँ, उनकी तरफ़ नहीं. इसका ये मतलब क़तई नहीं है कि मैं ओसामा के साथ था, लेकिन लकीर खींचकर आपने मुझे दूसरी तरफ़ धकिया दिया है.

मुझे अगर बदज़बानी करने वाले और ज़बान काटने का फ़रमान सुनाने वाले में से एक को चुनना ही पड़ेगा तो मैं राजा के ख़िलाफ़ हूँ.

दुखद बात ये है कि नारद को अपने सक्रिय सहयोग से चलाने वाले भाई श्री संजय जी बेंगाणी को गिरिराज जोशी की पोस्ट का मतलब समझ में नहीं आया, उनकी प्रतिक्रिया थी-- "क्या लय में लिखा है, खुब. मुझे तो लगा था आज नारद केवल गालियाँ ही खाने वाला है. शाबास."

संजय जी और अन्य कई चिट्ठाकार दोस्त इस बात से परेशान रहते हैं कि सांप्रदायिकता, हिंदू-मुसलमान, आरक्षण, दलित आदि विषयों पर चर्चा करके कुछ लोग चिट्ठाकारों में फूट डाल रहे हैं. संजय जी की नज़र उस दरार पर नहीं गई जो गिरिराज जी और कुछ अन्य साथियों ने डाली है.

महाशक्ति जी की शक्तिशाली टिप्पणियाँ भी कम विचारणीय नहीं हैं जिनमें 'मक्‍कार पत्रकारों', 'हिन्‍दू‍ विरोधी तालीबानी लेखों', 'दीमकों' और 'विषराजों' का फन कुचलने के साथ-साथ 'मुहल्‍ले को भी सर्वाजनिक रूप से निष्‍क‍ासित एवं बहिष्‍कृत' करने की अनुशंसा की गई है.

अंत में एक निर्णायक उदघोष--"आज समय आ गया है कि इन सॉंपों की पूरी नस्‍ल को कुचल दिया जाना चाहिए." वाक़ई बहुत ज़हर है.

इस पर भी बेंगाणी जी की 'बहुत खुब' वाली टिप्पणी दर्ज है, ढेर सारे साथी हैं जिन्होंने महाशक्ति जी के विचारपरक लेखन का करतल ध्वनि से स्वागत किया है.

विचार, सरोकार, हिंदुत्व, इस्लाम, न्याय, उदारता, लोकतंत्र, सांप्रदायिकता, आरक्षण, गुजरात, मोदी... जैसे कुल दस-पंद्रह शब्द हैं जिनका ज़िक्र आते ही कुछ दोस्तों को सचमुच तकलीफ़ होने लगती है. ये शब्द मुझे भी बहुत तकलीफ़ देते हैं इसलिए उन पर चर्चा ज़रूरी लगती है वह चाहे मुहल्ले वाले अविनाश करें या समाजवादी जन परिषद वाले अफ़लातून जी.

बेंगाणी जी को गालियाँ देने वाले राहुल के कृत्य के ख़िलाफ़ कोई निंदा प्रस्ताव लाया जाता तो अफ़लातून, धुरविरोधी, मसिजीवी, अभय तिवारी, प्रमोद सिंह जैसे अनेक लोग उसका समर्थन करते जो आज नारद के फ़ैसले के विरोध में खड़े हैं. सीधी सी वजह है कि आपने लकीर खींच दी है.

'कड़ी कार्रवाई' और उसके बाद के जश्न में गाए गए विजयगान और प्रयाणगीत से स्पष्ट हो गया है कि अब भीष्म और द्रोण भी तटस्थ नहीं हो सकते, उन्हें बताना होगा कि वे किधर हैं.

यह पोस्ट व्यक्तियों के विरोध या समर्थन में नहीं बल्कि प्रवृत्तियों के बारे में है. विचारहीनता और असहिष्णुता भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है जिसका सम्मान करते हुए इससे ज़्यादा कुछ लिखना ठीक नहीं होगा.

14 जून, 2007

मन का काम, मन ही जाने

अपने मन का काम, इससे बढ़कर कोई और माँग आप ख़ुद से नहीं कर सकते.

अपने मन का काम वही होता है जो आप इस समय नहीं कर रहे या करने की स्थिति में नहीं हैं. इससे ज़्यादा रूमानी ख़याल कोई और होता भी नहीं.

जब तक मौत की आहट सुनाई न देने लगे ज़्यादातर लोग ऐसे ही ख़यालों में जीते हैं, कुछ लोग पक्की कोशिश करते हैं और कुछ लोग कसमसा कर रह जाते हैं. अपना अभी तय होना है कि किस खाँचे में फिट होंगे.

अपनी नज़र में सफल आदमी वही है जो अपने मन की करता है. यह सफलता कई बार भगीरथ प्रयत्न से मिलती है और कई बार सहज प्रारब्ध से.

मेरी नज़र में जंगीलाल चौधरी सबसे सफल आदमी था जो हमारे मुहल्ले में कोयले की टाल चलाता था. सफ़ेद धोती और नीले कुर्ते में गद्दी पर बैठकर सौंफ-सुपारी खाता था, उसके आदिवासी मज़दूर कोयला तौलते थे, ग्राहक को दो-चार किलो ज़्यादा भी दे दें तो टन-मन के हिसाब में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था जंगीलाल को. उसने जीवन भर कोयला बेचने के अलावा कभी कुछ और करने की कुलबुलाहट नहीं पाली.

कोयला बेचकर या काग़ज़ काला करके, थोड़ा ऐसे या वैसे, घर सबका चलता है लेकिन ज़्यादातर लोग फेंस के उधर जाने के लिए छटपटाते हैं. जो पत्रकार नहीं हैं वे पत्रकार बनना चाहते हैं, जो पत्रकार हैं वे कार्यकर्ता बनना चाहते हैं या फिर लेखक, जो दुकानदार हैं वे कलमकार बनना चाहते हैं और कलमकार चाहते हैं कि दुकान चल निकले.

मेरे एक पुराने परिचित के पिता कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो में थे, बेटा बाप से बढ़कर निकला, माले का पर्ची काटने वाला कार्यकर्ता बन गया. जब मूँछे पकने लगीं तब घर बसाने का ख़याल आया तो पत्रकार बना, मगर संयोगवश एक संघी संपादक की अर्दल में. संपादक जी मकान मालिकों से तंग आए तो भाजपाई मुख्यमंत्री की कृपा से कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनी जिसके कोषाध्यक्ष बने माले वाले भाई. अपार्टमेंट बना और माले वाले भाई मालामाल हुए, उसके बाद पूरे प्रॉपर्टी डीलर बन गए.

माले वाले इस मालदार परिचित को मैं सचमुच सफल आदमी मानता हूँ क्योंकि उन्होंने हर दौर में अपने मन का काम किया, जब मन किया तब सर्वहारा के संगी बने और जब मन किया तो ज़ार के संगी बनकर चौथेपन में नवाबी आनंद लिया. जंगीलाग और माले वाले मालामाल, दोनों सफल हैं, एक प्रारब्ध से और दूसरा प्रयत्न से.

एक दोस्त हैं जो एम्स की नौकरी छोड़कर असम में ग़रीब लोगों का मुफ़्त इलाज कर रहे हैं, दूसरे हैं जो बिहार पुलिस की राह में बारूद बिछाने जैसा दिलेरी भरा काम बरसों करने के बाद अब पटना में पीसीओ चला रहे हैं. तरह-तरह के लोग हैं, सबकी अपनी-अपनी पिनक है, मेरी भी पिनक है लेकिन कई बार लगता है कि मन की करने के लिए जो मनमानी करनी पड़ती है उसके लायक़ कलेजा नहीं है अपने पास.

जब आप अपने मन की करते हैं तो बाक़ी लोगों के लिए मनमानी ही कर रहे होते हैं. ख़ानदानी नौकरीपेशा परिवार में पैदा हुए नाचीज़ ने जब ऐलान किया कि सरकारी नौकरी नहीं करूँगा तो घर में स्यापा पसर गया, ये नहीं कहा था कि नौकरी नहीं करूँगा. मन का काम तब यही था कि बाप जो कहें वह नहीं करना है. बस यहीं तक मन का काम किया.

मन करता है किताब लिख मारूँ जो मास्टरपीस हो जाए, मन करता है फ़िल्म बनाऊँ जो कुरोसावा और फेलिनी की श्रेणी में रखी जाए, मन करता है कोलंबस और कैप्टन कुक की तरह पूरी दुनिया छान मारूँ, मन करता है कि घूम-घूमकर दुनिया भर के जनसंघर्षों का गवाह बनूँ, मन करता है कि सिर्फ़ मन की करूँ. लेकिन करता क्या हूँ, सिर्फ़ नौकरी.

मकान की किस्त भरनी है, बुढ़ापा आरामदेह बनाना है, बच्चे की सही परवरिश करनी है. कई बार दिल में आया कि नौकरी छोड़ दूँ और करूँ अपने मन की. किसी तरह जुगाड़ हो जाएगा रोज़ी-रोटी का, सिर्फ़ नौकरी करना भी कोई जीवन है, ज़रा पढूँ-लिखूँ, दुनिया देखूँ. बीवी ने एक सादा सा सवाल पूछा, 'बेटे से जब स्कूल में लोग पूछेंगे कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो वह क्या जवाब देगा.'

मैं सोचता हूँ क्या वह यह नहीं कह सकता 'जो मन करता है, करते हैं.' क्या आपको मेरा यह परिचय स्वीकार्य है कि मैं वही करता हूँ जो मेरा मन कहता है.

माँ-बाप, बीवी-बच्चे, दफ़्तर-समाज, दीन-दुनिया के हिसाब से काम न करके अपने मन से चलूँगा तो क्या मुझे एक 'अच्छा आदमी' माना जाएगा? लेकिन अपने मन से नहीं चलूँगा तो क्या अपनी नज़र में सफल आदमी बन पाऊँगा? एक साथ 'अच्छा और सफल आदमी' बनने की उधेड़बुन है सारी ज़िंदगी.

कहिए उधेड़ूँ या बुनूँ?

(प्रमोद सिंह और अभय तिवारी के परस्पर संवाद की प्रेरणा से लिखे गए इस चिट्ठे पर अपनी राय देकर इसे सफल बनाएँ.)

07 जून, 2007

माले मॉल दिले बेरहम

जिनके पास माल है उनके लिए मॉल है, मॉल वो जगह है जहाँ सुख और सुविधा का एक साथ वास है.

ग़रीब पहले भी थे, आज भी हैं, वे पहले भी दुखी थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे. फिर इतना मॉल-विरोधी-माहौल क्यों बना रहे हैं कुछ लोग?

इस सवाल पर विचार करना उतना ही ज़रूरी है जितना मॉल से माल ख़रीदना. मॉल से सुख मिल रहा है लोगों को. ऐसे में उस पर सवाल उठाने को सुखी व्यक्ति को कठघरे में लाने जैसा माना जाता है. मगर मेरी राय में सुखी आदमी कठघरे में खड़ा किए जाने का पहला पात्र है, न कि सूखा आदमी.

नुक़्ते की बात ये है कि किसानों के खेत उजाड़कर उद्योगों के रमण के लिए सेज़ बिछाई जा रही है, अच्छा नाम दिया है सेज़ यानी एसईज़ेड (स्पेशल इकॉनॉमिक ज़ोन). मॉल भी सेज़ है, सोशल एक्सक्लूज़न ज़ोन यानी समाज के एक हिस्से को बाहर रखने वाला ज़ोन.

हर मॉल के बाहर वर्दी डाटकर कुछ गार्ड खड़े होते हैं जिन्हें पता होता है कि उन्हें ख़ुद से थोड़ा कमतर दिखने वाले आदमी से कैसे पेश आना है. कोई बेचारा अच्छी तेल-कंघी-इस्तरी की मदद से घुस भी गया तो ग़लत अँगरेज़ी बोलकर डराने वाले सेल्समैन मौजूद हैं. वह ज़्यादा से ज़्यादा रौनक़ देखकर लौट आता है. समझ जाता है कि यह जगह उसके लिए नहीं बनाई गई है.

ज़्यादातर लोग इतने भोले हैं कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्हें मॉल से शॉपिंग में अधिक आनंद क्यों आता है. इसलिए कि वहाँ सिर्फ़ उनके जैसे लोग शॉपिंग करते हैं या फिर वे जिनके जैसा बनने की वे तमन्ना रखते हैं. मॉल ने शॉपिंग को एक शानदार एक्सपिरियंस बनाने के लिए उन लोगों को पूरी तरह एलिमिनेट कर दिया है जो आपको देश की दशा की याद दिलाकर दुखी करते हैं.

बाज़ार में जाओ तो साला हर ऐरा-ग़ैरा चला आ रहा है, मैनर्स तो हैं ही नहीं. आप माल पसंद कर रहे हैं कि कोई भिखमंगा आ गया, क़ीमती सामान लेकर चले हैं कि किसी ने साँड़ की पूँछ उमेठ दी...नालियों-गड्ढों से तो किसी तरह बच जाएँगे लेकिन शोर-धूल-धुआँ वग़ैरह-वग़ैरह... यू नो शॉपिंग हैज़ टू बी फ़न.

आपके इस अँगरेज़ी के फ़न को रूपए में बदलने का उर्दू वाला फ़न जिनके पास है उन्हें और भी कई बातें पता हैं. वे घाटा उठाने की योजना बनाकर आपसे मोहब्बत साध रहे हैं, वे जानते हैं कि आपका प्यार अटूट है. 'बाई वन गेट वन फ्री' ज़रा गुप्ता जी से लेकर दिखाइए, रीजेंसी मॉल वाले देते हैं और वजह भी बताते हैं-....बीकॉज़ वी केयर फॉर यू.

गुड़गाँव के एक पाँच मंज़िला शॉपिंग सेंटर में घुसा तो लोगों के चीख़ने की आवाज़ आई, मैं घबराया, ऊपर नज़र गई तो नौजवान पाँचवी मंज़िल पर बने प्लेटफॉर्म से कमर में रस्सी बाँधकर बंजी जंपिग कर रहे थे, फुल सेफ़्टी किट और इंस्ट्रक्टर के साथ, मुफ़्त में. लाइव बैंड था और बच्चों के लिए घूमता-फिरता मिकी माउस भी. चाट-पकौड़ी की दुकानें और अमरीकन बेगल भी. अब शॉपिंग करने यहाँ नहीं आएँगे तो क्या दरीबा और चावड़ी बाज़ार जाएँगे.

ग्लोबलाइज़ेशन का सबसे सुंदर प्रतीक है मॉल, जब आप मॉल के अंदर जाते हैं तो बिना टिकट-पासपोर्ट-वीज़ा के फौरन फॉरेन पहुँच जाते हैं. जैसे ही घुसते हैं मैनहट्टन में मछरहट्टा बाहर रह जाता है, शॉपिंग न भी करनी हो तो बीच-बीच में फॉरेन टूर का आनंद लेते रहना चाहिए, ट्रेंड्स पता रहते हैं. नाली-गंदगी-झोड़पपट्टी-ग़रीबी-बीमारी-भिखारी सबसे दूर जो आपके जीवन को स्थायी तौर पर मैनहट्टन नहीं बनने दे रहे.

मॉल वाले इतना कुछ कर रहे हैं आपके लिए, मज़ा भी आ रहा है, फिर क्यों पूछना कि 'क्यों कर रहे हो', 'कैसे कर रहे हो', 'किसके ख़र्चे पर कर रहे हो', 'क्या ज़रूरी है यह सब करना'? सवाल तो तब करना चाहिए जब आपको कोई तकलीफ़ हो, आनंद में क्या सवाल करना?

अच्छे माहौल में, अच्छा माल, अच्छी क़ीमत पर मिल रहा है तो फिर बाक़ी बातें फिज़ूल हैं. ये सब कैसे हो रहा है, आगे कैसे होगा, ये किसकी क़ीमत पर हो रहा है, सबके लिए क्यों नहीं हो रहा, यह एक अकादमिक बहस है जिसका ग्राहक से कोई सरोकार नहीं है.

ग्राहक देखता है कि उसने कितने पैसे दिए, पैसे के अलावा क़ीमतें और भी चुकाई जाती हैं. वो दूसरे लोग हैं जो अपनी अलग करेंसी में यह क़ीमत चुकाते हैं, मॉल के माल को पैक करने वाले, चढ़ाने-उतारने वाले, उगाने-धोने वाले से लेकर न जाने कौन-कौन...चीन में बैठे मज़दूर तक...जो बेहद दयनीय हालत में जीते हैं अगर उनको ज्यादा पैसा मिलेगा तो आपको सस्ता माल मिल चुका, भूलिए मत- बीकॉज़ वी केयर फ़ॉर यू (नॉट फॉर देम.)

लोकतंत्र में ख़रीदने-बेचने पर कोई रोकटोक नहीं है, साथ ही, सोचने-समझने से रोकने की साज़िशों पर भी पाबंदी नहीं है. सोचने-विचारने की भी स्वतंत्रता है मगर मॉल जैसी सुविधाजनक चीज़ या ग़रीबी जैसी दुविधाजनक चीज़ के बारे क्या सोचना. लेकिन आप मेरी तरह अड़ियल हैं तो ईपीडब्ल्यू (इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली) में छपा यह शोधपत्र पढ़ सकते हैं, उसके बाद जब मॉल में जाएँ तो मेरी तरह आपके दिल में भी थोड़ा अपराध-बोध हो.