मैं इस व्यवस्था से ख़ुश नहीं हूँ लेकिन इसका हिस्सा हूँ.
जीवन और परिवार चलाना है तो इस व्यवस्था के भीतर ही चलाना होगा. सारे क़ानून मानने होंगे, जिन्हें उन लोगों ने लिखा है जिन्होंने क़ानून लिखते वक़्त उसका जवाब भी अलग से लिख लिया था, ठीक वैसे ही जैसे कोई अख़बार में छपी पहेली का जवाब देने से पहले, पन्ना उल्टा करके जल्दी से नज़रें बचाकर, जवाब देख लेता है.
लिखित क़ानून से परे जिनकी सत्ता है, वे ही व्यवस्था के संचालक हैं.
व्यवस्था, जिसे चलाने वाले क़ानून बनाते-तोड़ते हैं, बाक़ी हर किसी को बस पालन करना होता है. कम या ज़्यादा, वह तो इस बात पर निर्भर है कि आप दुनिया के किस हिस्से में रहते हैं.
मैं व्यवस्था का हिस्सा हूँ क्योंकि टैक्स देता हूँ, अमरीका में देता हूँ तो मासूम इराक़ियों के ख़ून के छींटों से अपने दामन को कैसे बचा सकता हूँ, अगर भारत में देता हूँ तो किसी मासूम की पुलिसिया पिटाई का स्पॉन्सर मैं भी तो हूँ.
मैं इस व्यवस्था की शिकायत लेकर इस व्यवस्था से बाहर कहाँ जा सकता हूँ? जो लोग विकल या बेअक्ल होते हैं वे शिकायत लेकर जनता तक जाते हैं, जनता भी तो व्यवस्था का ही हिस्सा होती है, व्यवस्था की बुनियाद. वैसे नेता भी जनता के पास जाते हैं लेकिन वे सीधे उनके पास जाने की जगह उनकी 'अदालत' में जाते हैं.
जनता को पुलिस से शिकायत होती है तो सीबीआई के पास जाती है, सीबीआई से शिकायत हो तो उसी की विशेष अदालत में जाती है, विशेष अदालत में बात न सुनी जाए तो हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर होती है जो आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट तक जाती है, सुप्रीम कोर्ट इस पर कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वह सिर्फ़ कानून की व्याख्या कर सकती है, इसके लिए तो संसद को क़ानून बनाना होगा, संसद यूँ ही कैसे क़ानून बनाए, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता से पूछना होगा...जनता सिस्टम के बाहर है, भीतर है, कहीं है या नहीं है, पता नही.
कितनी झूठी बहसों, कितने फ़र्जी विचार-विमर्शों के बाद कारगर व्यवस्थाएँ बनती हैं जो सत्य-निष्ठा से अनुकरण न करने वालों को जेल भेज देती हैं. अगर आप जेल नहीं जाना चाहते, नक्सली नहीं बनना चाहते तो व्यवस्था में आस्था रखने के अलावा सिर्फ़ एक विकल्प है कि आप क़ानूनन पागल घोषित कर दिए जाएँ ताकि व्यवस्था आपके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी आयद न कर सके.
इस व्यवस्था के भीतर आप कुछ भी हो सकते हैं, पुलिस वाले या मानवाधिकार कार्यकर्ता, सत्य की खोज करने वाले व्याकुल पत्रकार या फिर सरकारी कर्मचारी...इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होता कि सरकारी शराब के ठेके के बाहर मद्य निषेध प्रचार निदेशालय के बोर्ड लगे होते हैं...सब अपना-अपना काम करते हैं, व्यवस्था के भीतर.
बाहर होते ही आप व्यवस्था के ही नहीं, दुनिया की सारी व्यवस्थाओं के, सारे संसार के शत्रु हो जाते हैं...आपका मरना-हारना लगभग निश्चित है लेकिन अगर आप किसी तरह जीत गए तो आप ही व्यवस्था हो जाते हैं, चक्र पूरा हो जाता है. क्यूबा से नेपाल तक.
व्यवस्था के भीतर बहुत जगह है, व्यवस्था से ऊपर चंद लोगों के लिए बहुत आरामदेह कुर्सियाँ हैं, व्यवस्था से बाहर कोई जगह नहीं दिखती.
मैं शायद व्यवस्था विरोधी हूँ, लेकिन व्यवस्था से बाहर क़तई नहीं हूँ. क़ानून तोड़ने के आरोप में जेल नहीं गया, क़ानून जिसने बनाया है उसी से ज़ोर-ज़ोर से कह रहा हूँ कि अपना बनाया हुआ क़ानून क्यों नहीं मानते. कई बार सोचता हूँ कि इस क़ानून का पलड़ा एक तरफ़ झुका हुआ क्यों है, अगले पल सोचता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ, क़ानून तो क़ानून है, व्यवस्था तो व्यवस्था है. यानी मैं व्यवस्था में आस्था रखता हूँ लेकिन उसका विरोधी भी हूँ.
मेरी जनहित याचिका जैसे अपने ख़िलाफ़, अपनी ही अदालत में, ख़ुद की शिकायत है.
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3 टिप्पणियां:
आपकी लेखनी बेजोड़ है..और हम मौन!! सम्मान में!
सत्य वचन महाराज
Hello, all is going nicely here and ofcourse every one is
sharing facts, that's truly excellent, keep up writing.
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