tag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post2824221576851141784..comments2023-10-08T11:11:00.920+01:00Comments on अनामदास का चिट्ठा: मन का काम, मन ही जानेअनामदासhttp://www.blogger.com/profile/06852915599562928728noreply@blogger.comBlogger12125tag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-15651922195987285462007-06-15T00:17:00.000+01:002007-06-15T00:17:00.000+01:00"एक साथ अच्छा और सफल आदमी बनने की उधेड़बुन है ज़िं..."एक साथ अच्छा और सफल आदमी बनने की उधेड़बुन है ज़िंदगी."<BR/><BR/>अनामदास जी, एक वाक्य में सारी बात कह देने के यह हुनर आपने कहाँ से सिखा है। मुझे अपने जीवन का सच दिख रहा है आफके लेखन में। बहुत समय से पढ़ता हुँ आपका लेख, टिपड़ड़ी पहली बार कर रहा हुँ। ब्लोग पढ़ता हुं लेकिन लिखता नहीं हुं। <BR/><BR/>आप उधेड़ते भी बहुत अच्छा है और बुनते तो ऊससे भी अच्छा हैं। <BR/>दीपक जाजूAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-21347887745876053252007-06-14T14:34:00.000+01:002007-06-14T14:34:00.000+01:00देसीपंडित पर<A HREF="http://www.desipundit.com/2007/06/14/man-kaa-manakaa-pher/" REL="nofollow">देसीपंडित पर</A>Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-82331700780724707442007-06-14T14:24:00.000+01:002007-06-14T14:24:00.000+01:00मस्त लिखा है मित्र.. और सुसंगत भी.. बहुत सही.. देख...मस्त लिखा है मित्र.. और सुसंगत भी.. बहुत सही.. देखिये सभी धराशाही हो के गिरे पड़े हैं.. और तो और हमारे इरफ़ान मियां भी गिर पड़े..अभय तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-9181725779378282032007-06-14T12:23:00.000+01:002007-06-14T12:23:00.000+01:00अब तक जब जब मन की करनी चाही......मंजिलचल रही थी पग...अब तक जब जब मन की करनी चाही......<BR/><BR/><BR/>मंजिल<BR/><BR/>चल रही थी पगडंडी पर<BR/>रास्ता भी साफ था...<BR/>निशांत-निशा निश्चल-सी<BR/>सामने था चँद्रमा...<BR/><BR/>रास्ता जाता वहीं था<BR/>पहुंचना भी था वँही<BR/>जोश था , होश था....<BR/>और संदेह था नहीं<BR/><BR/>चल रही थी अग्रसर..<BR/>थके कदम, पर बुलंद मन<BR/>रास्ता भी साफ था...<BR/>सामने था चँद्रमा...<BR/><BR/>कब निशा चली गई!!<BR/>कब सवेरा हो गया!!<BR/>रोशनी और शोर में….<BR/>चँद्रमा भी खो गया.......Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/16964389992273176028noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-51746358605075677842007-06-14T08:43:00.000+01:002007-06-14T08:43:00.000+01:00विजिटिंग प्रोफेसरों या घुमक्कड़ ढंग से व्याख्यान द...विजिटिंग प्रोफेसरों या घुमक्कड़ ढंग से व्याख्यान देने वाले कुछ नामी लोगों को पश्चिम में कुछ कंपनियाँ प्रायोजित भी करती हैं और उनके सारे खर्चे और टेंशन भी उठाती हैं। इसमें कंपनी और व्यक्ति, दोनों का लाभ होता है। <BR/><BR/>अपने मन की करने वाले स्वामी विवेकानन्द, ओशो आदि के उदाहरण तो विश्वविख्यात हैं। डोमिनिक लेपियर, ब्लादीमिर नोबोकोव, शिव खेरा आदि जैसे लेखकों के उदाहरण भी उल्लेखनीय हैं। इन लोगों की जिन्दगी को सफल और सार्थक, दोनों कहा जा सकता है। <BR/><BR/>मेरे ख्याल से जीवन के न्यूनतम निर्वाह का जुगाड़ सुनिश्चित करने लायक आजीविकमिलना किसी भी मेहनती और औसत समझदार व्यक्ति के लिए मुश्किल नहीं है, यदि उसका विधाता ही वाम न हो तो। न्यूनतम आजीविका का जुगाड़ हो जाने के बाद व्यक्ति अपने समय और ऊर्जा का उपयोग अपने मन की करने में कर सकता है। कम से कम मैं तो ऐसा ही प्रयास कर रहा हूँ। यदि नौकरी और कैरियर से बहुत ज्यादा उम्मीदें रखी जाएं तो मन की करने का अवकाश ही नहीं मिल पाएगा।Srijan Shilpihttps://www.blogger.com/profile/09572653139404767167noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-83854441883597705602007-06-14T06:18:00.000+01:002007-06-14T06:18:00.000+01:00भाई अनामदास,प्रतिक्रिया लिखने की हड्बडी इस लिये है...भाई अनामदास,<BR/>प्रतिक्रिया लिखने की हड्बडी इस लिये है कि आपके ब्लॉग पर पहली बार आया और जो पढा उसमें एक सुसंगतता पाई. क्या मैं सुसंगतता के खेल का रेफरी हूं और क्या मेरे इस कथन से आपका असंगत होना न होने में बदल जायेगा? सफलता-असफलता मैं समझता हूं एक तरह की मिडिल एज क्राइसिस है.इरफ़ानhttps://www.blogger.com/profile/10501038463249806391noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-17208673294980490382007-06-14T05:59:00.000+01:002007-06-14T05:59:00.000+01:00बिल्कुल सही लिखा है आपने मन को मार कर भी कभी कोई ज...बिल्कुल सही लिखा है आपने मन को मार कर भी कभी कोई जी पाता है,...मगर मन हमेशा अपनी-अपनी ही सोचता है...मेरा मानना है इन्साम के दो मन होते है...एक कहता है ये काम अच्छा है और दूसरा कहता है न नही ये ठीक नही...ये भी सच है मन मुताबिक काम करके ही हम खुश होते है..मगर ये भी सच है कभी-कभी जिस काम से दूसरों को खुशी मिलती है हम उसी में खुश होते है...आपके लेख से एक बात स्पष्ट होती है <BR/>"जो अपने काम से संतुष्ट है वही सुखी है...यानि जिसके मन में कुछ और पाने की अभिलाषा नही है"<BR/>मगर इंसान का मन संतोषी बहुत कम ही होता है...हर वक्त उधेड़-बुन चलती ही रहती है...<BR/><BR/>बहुत अच्छा लगा पढ़्कर...आज पहली बार आपका चिट्ठा पढ़ा है बहुत अच्छी बातें लगी...<BR/>धन्यवाद!<BR/>सुनीता(शानू)सुनीता शानूhttps://www.blogger.com/profile/11804088581552763781noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-20969404036794383312007-06-14T05:13:00.000+01:002007-06-14T05:13:00.000+01:00बहुत साफ, समझदारी वाला, सुंदर और सुकूनदेह कहन। बधा...बहुत साफ, समझदारी वाला, सुंदर और सुकूनदेह कहन। बधाई।Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-57587104190379753312007-06-14T04:37:00.000+01:002007-06-14T04:37:00.000+01:00मन का काम तलाशने की बजाय यदि हम हर काम में मन लगान...मन का काम तलाशने की बजाय यदि हम हर काम में मन लगाने लगें तो मुश्किल कुछ आसान हो जाये.क्योकि मन तो चंचल है..बदलता रहता है .. भटकता रहता है .. उसके पीछे ना भाग उसे साध लें तो राह आसान है " एकै साधे सब सधे , सब साधे सब जाय "काकेशhttps://www.blogger.com/profile/12211852020131151179noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-63279944100852062092007-06-14T03:53:00.000+01:002007-06-14T03:53:00.000+01:00ओह्, कि मार्मिक आख्यान!.. आप साठ-चालीस वाला रेशिय...ओह्, कि मार्मिक आख्यान!.. आप साठ-चालीस वाला रेशियो लेकर चलिए.. चालीस प्रतिशत बुनते रहिए, और साठ प्रतिशत उधेड़ते रहिए! प्लीज़..azdakhttps://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-79138009589576009642007-06-14T03:34:00.000+01:002007-06-14T03:34:00.000+01:00बहूत-बहूत दिनों फरार रहते हैं जी। चिठ्ठा नहीं लिखत...बहूत-बहूत दिनों फरार रहते हैं जी। चिठ्ठा नहीं लिखते, क्या किसी मन के काम में लगे हुए हैं। मन का तो यह है जी विकट हरामी टाइप आइटम है। मन के मतै ना चालिए, मन के मतै हजार-कबीरदास जी कह गये हैं। कबीरदासजी भी जानते थे कि मन की करने में लग लिया बंदा, तो झुग्गी की किश्त भी ना निकाल पायेगा। पर मन की न करें, तो मन नहीं लगता। मन की सुनें तो मनी के मैटर उखड़ जाते हैं। अब मन तो हमारा यही सा हो रहा है कि कैमरा लेकर निकल जायें, और मार चिठ्ठे पे चिठ्ठे पे पेल दें, उन सब लेखों के, जो मन में लिखे रखे हैं। पर मनी चिठ्ठे से नहीं आता। मनी जहां से आता है, हर बार वहां मन की नहीं चलती। मन और मनी में संतुलन बनाने की जुगाड़ ढूंढ़ रहा हूं। प्रमोदजी ने परसों बैंक लूटने का प्रस्ताव रखा था, मैं सोचता हूं कि देशी क्यों लूटा जाये। ससुर सीधा स्विस-ऊस बैंक को खींचा जाये। इस संबंध में कोई मदद कर सकते हों, तो बतायें। मनी का जुगाड़ हो ले, फिर मन की करेंगे। <BR/>आलोक पुराणिकALOK PURANIKhttps://www.blogger.com/profile/09657629694844170136noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-42168279948692587472007-06-14T02:16:00.000+01:002007-06-14T02:16:00.000+01:00कल ही प्रमोद जी को इस विषय पर पढ़ता था. आज आपने भी ...कल ही प्रमोद जी को इस विषय पर पढ़ता था. आज आपने भी उन्हीं बातों को अपने अंदाज में पेश किया, अच्छा लगा पढ़कर यह उधेड़ बुन!! :)<BR/><BR/>मैं अब भी वही कहता हूँ जो मैने प्रमोद भाई के मंथन पर कही थी: (कट पेस्ट कर रहा हूँ क्यूँकि ऐसा करना मेरा मन पसंद कार्य है.. :))<BR/><BR/>मुझे लगता है कि सब कुछ तो मन का नहीं हो पाता. कुछ समझौता करना होता है. शायद इसी समझौते को जिंदगी का नाम दिया गया है. कुछ खट्टा कुछ मीठा. अक्सर पसंदीदा स्थलों पर पहुँचने के लिये कठिन यात्रायें करनी होती हैं मगर वहाँ पहुँच कर जो सुकुन मिलता है उसके लिये हम यह समझौता भी कर लेते हैं. <BR/><BR/>तो जीवन में कभी आजीविका ढो भी रहे हों और साथ में सामजस्य बैठाकर मन पसंद रुचि का कार्य भी कर हो या आजीविका इसलिये ढो रहे हों कि शीघ्र ही रुचिकर कार्य करने योग्य हो जाऊँ, तब तो चलता है और यह निपट आवारापने से बेहतर ही होगा.<BR/><BR/>अब डाब, सुराही का पानी- तो सपने की बातें सी लगती हैं. आपने याद दिला दिया, बस्स!! वैसे स्कॉच उठाकर सोचा तो लगा तो कि मैने अपने मन का काम खोज लिया है. अब कब तक मन लगा रहता है रोज रोज वही करने में, यह देखने वाली बात होगी. <BR/><BR/>आपका लेखन जरुर हमेशा रुचिकर होता है. :)<BR/><BR/>मात्र मेरे विचार हैं अतः कतई अन्यथा न लें. :)Udan Tashtarihttps://www.blogger.com/profile/06057252073193171933noreply@blogger.com