tag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post7745982261317225136..comments2023-10-08T11:11:00.920+01:00Comments on अनामदास का चिट्ठा: हमारी अपनी ज़बान की साठवीं बरसीअनामदासhttp://www.blogger.com/profile/06852915599562928728noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-28277680103645275562007-08-09T20:16:00.000+01:002007-08-09T20:16:00.000+01:00हिंदी के असल दुश्मन हिंदी वाले ही हैं भाई। जो भाषा...हिंदी के असल दुश्मन हिंदी वाले ही हैं भाई। जो भाषा बोलो वही लिखो की नीति क्यों नहीं लागू की जा सकती। अगर कामयाब होगी तो हिंदुस्तानी ही होगी। तत्सम हिंदी केवल पात्रों के साथ ही जिंदा रह सकती है। जैसे अपभ्रंश इत्यादि का कुछ उदाहरण संस्कृत नाटकों में बरामद होता है वैसे ही शुद्धतावादियों की हिंदी के साथ भी होना है। <BR/>आप अच्छा लिख रहे हैं। पर ब्लॉग की दुनिया में बहुत गंभीर होने की जरूरत नहीं है। <BR/>मैं आप को लगातार पढ़ता आ रहा हूँ। गहरे मुद्दे पर टिप्पणियों के लिए सोचना पड़ता है। और केनल तारीफ कर देने से ऐसा लगता है कि खाना पूरी कर रहे हैं।बोधिसत्वhttps://www.blogger.com/profile/06738378219860270662noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-39089895389362254482007-08-07T19:34:00.000+01:002007-08-07T19:34:00.000+01:00अनामदासजी आपने बडे सरल तरीके से अपनी बात कही है. म...अनामदासजी आपने बडे सरल तरीके से अपनी बात कही है. मुझे लग रहा था कि इस मुद्दे पर टिप्पणियां ज़्यादा आएंगी पर इतनी कम टिप्पणी देख कर आश्चर्य हुआ. क्योकि किसी भी लेख को पढ़ने के बाद, टिप्पणी पढ़ना अनिवार्य हो जाना स्वाभाविक है..पर इतने तथ्यपरक लेख को पढने के बाद यही कह सकता हूं कि सटीक लिखा आपने,पर कम टिप्पणियों को देख कर लगा कि इस चिट्ठाजगत में बहुत लोग हैं जो हिन्दी हिन्दी करते रहते हैं, पर अन्दर से अभी उदासीनती की भारी चादर तान के सो रहे है...VIMAL VERMAhttps://www.blogger.com/profile/13683741615028253101noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-51142972931967520062007-08-07T17:39:00.000+01:002007-08-07T17:39:00.000+01:00प्रेमचंद्र ने इसी हिंदुस्तानी का इस्तेमाल कर कहानी...प्रेमचंद्र ने इसी हिंदुस्तानी का इस्तेमाल कर कहानी के शिल्प को एक ऍसा दर्जा दिया था जो सारे तबके के लोगों को आकर्षित कर सका था। आपके विचार मन के करीब लगे।Manish Kumarhttps://www.blogger.com/profile/10739848141759842115noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-54840294017582372592007-08-07T10:40:00.000+01:002007-08-07T10:40:00.000+01:00शिक़ायत को परिवाद लिखे जाने का कारण है. सोचिए, अगर...शिक़ायत को परिवाद लिखे जाने का कारण है. सोचिए, अगर शिक़ायत लिख दिया जाएगा तो लोग समझ नहीं जाएँगे और जब समझ जाएंगे तो करने भी लगेंगे. लोग शिक़ायत करने लगेंगे तो उनका समाधान भी करना पड़ेगा. फिर पूरी व्यवस्था सुधारनी पडेगी. व्यवस्था सुधरेगी तो राजनेताओं और उनकी काली कमाई का क्या होगा? इसीलिए शिक़ायत की जगह परिवाद, काबिलियत की जगह अर्हता लादी जाती है. एक बात और, जिस कचहरी वाली भाषा की बात आप कर रहे हैं, वह भी एक जमाने में लादी ही गयी है. इस संदर्भ में चंद्रभूषण की टिप्पणी बिल्कुल सही है.इष्ट देव सांकृत्यायनhttps://www.blogger.com/profile/06412773574863134437noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-70077218815613810832007-08-06T07:19:00.000+01:002007-08-06T07:19:00.000+01:00आत्मा को टहोकती हुई यह तकलीफ हिंदी और उर्दू को अपन...आत्मा को टहोकती हुई यह तकलीफ हिंदी और उर्दू को अपने दिल के नजदीक समझकर इन्हें बरतने वाले हर इन्सान ने महसूस की होगी। इन जुबानों को षड्यंत्र पूर्वक अलगाने वालों के बारे में फैसला इतिहास करेगा लेकिन इसके समानांतर कुछ बातें ऐसी भी हैं जो इस अलगाव को भाई से भाई के स्वाभाविक अलगाव जैसा बनाती हैं। सिर्फ लिपि का अलगाव एक तरफ हमें तुलसी,मीरा,कबीर, कालिदास और वाल्मीकि की तरफ ले जाता है तो दूसरी तरफ मीर, गालिब, रूमी, निजामी और शेख सादी की तरफ। किसी भी एक अकेली लिपि में दूसरी परंपरा वाले लोग या तो समाते नहीं, या बहुत ज्यादा अंड़से हुए से लगते हैं। ये सभी हमारे अपने लोग हैं, क्योंकि इन सभी को मिलाकर हमारा सामूहिक मानस बना है। इस्लाम को एक तरफ रख दें तो भी हमारी सभ्यता का इतिहास ईरानी और अरब सभ्यता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इस्लाम ने इस पुराने जुड़ाव में कुछ मायनों में दरारें पैदा कीं तो कुछ मायनों में इसे पहले से कहीं ज्यादा मजबूत भी किया। जिस समय हम इतिहास के दबाव से कराह रहे हों उस समय हमें थोड़ा सब्र भी रखना चाहिए कि यह भाई से बिरादरी बनने की दुखद लेकिन अंततः एक प्यारी प्रक्रिया है। जिस तरह की कर्री हिंदी अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध और मैथिली शरण गुप्त से लेकर अज्ञेय तक ने रची थी, उसका आज कोई नामलेवा नहीं है। कमोबेश वही हाल उर्दू का है, जिसमें चार-पांच दशक तक चुन-चुनकर घुसाए गए अरबी-फारसी अलफाज अब धीरे-धीरे खुदा हाफिज कहने की राह पर हैं। बोली हुई हिंदुस्तानी से शुद्धतावादियों का जो एतराज था, वह उनके साथ ही विदा हो चला है। जहां तक दो लिखी हुई भाषाओं का प्रश्न है, वे दो झगड़ालू बहुओं की तरह एक ही घर में ठंसे रहने के बजाय दो अच्छी पड़ोसिनों की तरह रहना जितनी जल्दी सीख लें, उतना अच्छा। काश, इन दोनों की तरक्की हो, इनके बीच हलवे, सिवइयों और दीगर शाकाहारी-मांसाहारी व्यंजनों का आदान-प्रदान होता रहे, भले ही इस दौरान दोनों के बच्चे गदर मचाते हुए आपस में छुपा-छुपौअल खेलें, या मुस्टंडे हो-होकर वक्त-बेवक्त एक-दूसरे का सिर फोड़ने में जुटे रहें।चंद्रभूषणhttps://www.blogger.com/profile/11191795645421335349noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-25630497945234872562007-08-06T06:55:00.000+01:002007-08-06T06:55:00.000+01:00अगर आपकी पोस्ट का अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहे तो...अगर आपकी पोस्ट का अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहे तो लगभग कुछ ऐसा होगा<BR/><BR/>The King is dead. Long live the King!<BR/><BR/>बरसी ?<BR/>यह तो मरने के बाद ही मनाई जाती है ना?<BR/>कब मरी हिंदुस्तानी ? आप के साथ तो चल रही है। <BR/><BR/>हिंदुस्तानी कुछ नाराज़ जरूर रही। गाँव की गोरी की तरह जबरन सूट पैंट पहनाने की कोशिश शायद इसे रास नहीं आई। पर गागरा चोली पहना कर तो देखें....होठों और उँगलियों पर थिरकती हुई चली आयेगी।<BR/>कुछ सपने बस हिंदुस्तानी में आते हैं...जब तक यह जिन्दा है आप बरसी ना मनायें।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/16964389992273176028noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-80343940179989352007-08-06T06:10:00.000+01:002007-08-06T06:10:00.000+01:00सहमत!!बहुत सही लिखा आपने!!सहमत!!<BR/><BR/>बहुत सही लिखा आपने!!Sanjeet Tripathihttps://www.blogger.com/profile/18362995980060168287noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-41953603630184250792007-08-06T04:49:00.000+01:002007-08-06T04:49:00.000+01:00कुछ ऐताहिसक तथ्यों की तरफ़ हमारा ध्यान आकृष्ट करने ...कुछ ऐताहिसक तथ्यों की तरफ़ हमारा ध्यान आकृष्ट करने के अलावा शायद आप और कुछ नहीं कर रहे. ख़ैर ये भी ज़रूरी है. जिस हिंदुस्तानी की बात आप कर रहे हैं उस टर्म का इस्तेमाल अब "दुनिया के पिछवाडे रहने वाले लोग करते हैं" यह मान लिया गया है. बताइये ज़रा कि जिन नेहरू जी की बात आप ने उठाई उनकी किताब का नाम हिंदी में "हिंदुस्तान की कहानी" है जबकि सेलिब्रेटेड टीवी सीरियल "भारत एक खोज" ही कहा गया. क्या इस नाम के फ़ैसले के वक़्त नेहरू की ज़बान और कंसर्ंस को समझने वाले लोग नहीं थे? हिंदुस्तान को सब्स्क्राइब करने वाले लोग हैं तो सही लेकिन थोडे बदलाव के साथ यानी "हिंदुस्थान". ज़बान को लेकर फ़्रांचेस्का ओर्सेनी कुछ निर्णायक बातें हमें-आपको बता चुकीं हैं. अगर विचार ही करना है तो उसे प्रस्थान बिंदु मान कर करने में सार्थकता है. आखिरकार ब्लॉगजगत के धर्मधुरीणों के लिये वह चर्चा आंख खोल देने वाली होगी.इरफ़ानhttps://www.blogger.com/profile/10501038463249806391noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-40740792876300299982007-08-06T03:10:00.000+01:002007-08-06T03:10:00.000+01:00बस १५ अगस्त को हिंदी मे भाषण दे कर नेता अपने हिन्...बस १५ अगस्त को हिंदी मे भाषण दे कर नेता अपने हिन्दुस्तानी होने का अहसास करते है।mamtahttps://www.blogger.com/profile/05350694731690138562noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6853758773001535028.post-73299033950333164592007-08-06T02:11:00.000+01:002007-08-06T02:11:00.000+01:00सही कहा आपने.जिस प्रकार ए सी कमरे में बैठकर गांवो ...सही कहा आपने.जिस प्रकार ए सी कमरे में बैठकर गांवो के बारे में योजना बनाने वाले हमेशा गलत योजना बनाते हैं वैसे ही हिन्दी की टांग तोड़ने वाले राजभाषा वाले भी हैं. हिन्दी एक समृद्ध भाषा है लेकिन इसे जन जन तक पहुंचाने के लिये आमूल चूल परिवर्तन करना होगा सरकारी नीतियों में. हिन्दी किसी को रोजगार दे सके इसकी व्यवस्था करनी होगी. मैने जिस दिन अपना पहला साक्षात्कार दिया था अंग्रेजी में और ढंग से बोल भी नहीं पाया था उसी दिन मैने निश्चित किया था कि अपने बच्चों को कभी हिन्दी माध्यम में नहीं पढ़ाउंगा. क्या मेरी सोच कोई बद्ल सकता है ??काकेशhttps://www.blogger.com/profile/12211852020131151179noreply@blogger.com