12 अप्रैल, 2007

अनाम 'हरामियों' और 'कायरों' के बचाव में

बहुत मज़ा आ रहा है. प्रमोद जी अनामों को 'हरामी' बता रहे हैं (बाप का नाम पूछने का कोई और मतलब तो नहीं?), पोतड़े लेकर उनके पीछे भाग रहे हैं. कमल जी शरीफ़ आदमी की तरह उन्हें कायर के खिताब से नवाज़ रहे हैं.

मैं अनामदास हूँ, हजारी प्रसाद द्विवेदी वाला अनामदास जो आधुनिक युग में पोथे की जगह चिट्ठे लिखता है, रात के अंधेरे में पत्थर फेंककर भाग जाने वाला अनाम नहीं जिनसे कुछ चिट्ठाकार साथी परेशान हैं.

बहरहाल, अनाम वानर इधर-उधर उत्पात मचा रहे हैं, कुछ ब्लॉगर साथी "मारो-भगाओ-बचाओ" की गुहार लगा रहे हैं. ऐसी अफ़रा-तफ़री की हालत में कम ही होते हैं जो सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखते हैं, पहले पहलू से तो सब वाक़िफ़ हैं जिसके लिए प्रमोद जी, कमल जी और कई दूसरे साथी धन्यवाद के पात्र हैं.

अनामदास तो आदतन दूसरा पहलू देखते हैं, नामवर होते तो शायद ऐसा नहीं कर पाते. दूसरा पहलू देखने वाले लोग कई बार नामवर हो जाते हैं लेकिन फिर वे वही देखने लगते हैं जो दूसरे देखना और दिखाना चाहते हैं. अनामदास इसलिए अनाम नहीं हैं कि किसी को गाली देकर भाग जाने में सुविधा हो बल्कि इसलिए कि शब्दों की दुनिया में ऐसा समानांतर जीवन जिया जा सके जो पापी पेट या नाम के भूखे दिमाग़ के लिए जीने वालों को सहज प्राप्य नहीं है.

अनामों के बचाव में कुछ बातें कहनी हैं जो अनाम नहीं कह सकते, कहना होता तो कह चुके होते अब तक, जितनी गालियाँ पड़ी हैं बेचारों को. एक बात साफ़-साफ़ कह देना ज़रूरी है कि मैं काफ़ी हद तक कमल जी और प्रमोद जी से सहमत हूँ, मेरे इस पोस्ट का मतलब क़तई नहीं है कि अनाम लोग बिना पोतड़े के घूमें और जहाँ जी करे पवित्तर कर दें. लेकिन जो स्वनामधन्य हैं वे अनामों को बेभाव की सुनाएँ ये भी ठीक नहीं है. अनाम को अपराधी या पापी की श्रेणी में रखना थोड़ा अतिवादी रवैया लगता है.

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आतंकवादियों का समर्थक और पर्यावरणवादियों को विकास का विरोधी कहा जाना आम बात है, कुछ ऐसा ही ख़तरा अनामदास उठा रहे हैं, यह सोचकर कि व्यापक हिंदी ब्लॉग जगत का शायद कुछ हित इसमें छिपा हो....

अनाम लोगों के संदेश को नाम वालों के मुक़ाबले ज़रा ज़्यादा ग़ौर से सुनना चाहिए क्योंकि उसमें संदेश प्रमुख होता है न कि उसे भेजने वाला. गुप्त मतदान के महत्व को लोकतंत्र में रहने के कारण आप अच्छी तरह समझते हैं. अनाम लोग अक्सर जनभावनाओं के प्रतिनिधि होते हैं, टीवी पर जो आदमी कहता है कि 'महँगाई बहुत बढ़ गई है' वह अनाम ही होता है. गुप्त टिप्पणी करने वाले को एक आम मतदाता समझने में क्या कष्ट है?

जो सैकड़ों लोकगीत गाए जाते हैं उनका कोई कवि-गीतकार-शायर नहीं होता, कई बार जनमानस की भावनाओं को सुरों से अनाम लोग सजाते हैं.

एक ऐसा व्यक्ति जो किसी भी कारण से (कायरता और हरामीपना सहित) सनाम सामने नहीं आना चाहता उसकी तर्कसंगत बात को यूँ ही नकार देना महज तकनीकी आधार पर मामला खारिज करने जैसा है.

अनाम और अज्ञात का डर वहाँ होना चाहिए जहाँ कुछ लोभ-लाभ की बात हो यहाँ तो सब मौज कर रहे हैं, फिर उनसे घबराना कैसा?

मेरे ख़याल में किसी पर कायर, हरामी, उत्पाती, ग़ैर-ज़िम्मेदार जैसी बिल्ला चिपकाने के बदले उनका तर्कसंगत प्रतिकार करना एक बेहतर उपाय है (अगर आपको लगता है कि उनकी बात में कुछ दम है. अगर नहीं तो सीधे कूड़दान में डालिए.) हालाँकि ऐसे बिल्लों के ख़तरे से आगह होने की वजह से ही बंदे अनाम रहने में ख़ैर समझते हैं शायद.

बहस का मज़ा तर्क की धार में है, विशेषणों के प्रहार में नहीं.

मुझे ब्लॉग लिखते हुए ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ है लेकिन काफ़ी समय से पढ़ रहा हूँ, कई बार कुछ-कुछ इसराइली क़िस्म की संवेदनशीलता ब्लॉगर दिखाते हैं. रोड़ा(अनाम टिप्पणी) फेंककर भागने वाले बच्चे पर ग़ुस्से में भरकर पूरा टैंक (पोस्ट) चढ़ा देना सराहनीय नहीं है.

पुनश्चः ये अनामदास के निजी विचार हैं. जिन अनाम टिप्पणियों ने चिट्ठाकार साथियों को क्षुब्ध किया है उनके गुण-दोष पर विचार किए बिना उनकी सीमित सार्थकता को सामने लाने की एक कोशिश यहाँ की गई है. अगर आप अनाम टिप्पणियाँ करना चाहें तो आपका स्वागत है, गालियाँ देंगे तो फेंक दूँगा, बहस करेंगे तो यथासंभव जवाब तलाश करूँगा.

6 टिप्‍पणियां:

  1. विचार निजी भले ही हों पर सरोकार सार्वजनिक हैं।
    लगभग इस आशय की आधी टिप्‍पणी टंकित की थी कमल के चिट्ठे पर कि कंप्‍यूटर छोड़ना पड़ा। अभी सुबह सुबह उठकर इस अधूरे काम को पूरा करने के इरादे से बैठा तो देखा कि आप कर चुके हैं- उस दिन ईस्‍वामी ने कहा न
    तरकीबें जो कल पे छोडीं
    किसी और के नाम हो गईं
    :D

    खैर । यह ठीक है कि अक्‍सर बेनाम अपने दिमाग की गंदगी ही इधर उधर टिकाते ज्‍यादा नजर आते हैं और हमसे अधिक इस बात को शायद ही किसी ने सहा होगा। पर ये भी सच है कि वे इस पाखंड से दूर होते हैं कि भई देखो हमारे दिमाग में कोई गंदगी है ही नहीं। इसलिए हमने लगातार सबसे कुत्सित और कायर के बेनाम रहने के अधिकार का पूरा सम्‍मान किया भले ही उसकी कुत्सिकता और कायरता को रद्दी की टोकरी के हवाले किया। हमारे इस मुखौटेपन के विरोध में भी कई बाकायदा चेहरेवालों ने बेनाम मुखौटे पहने और अपनी दस्‍त और कब्‍ज का मुजाहिरा किया।

    और एक बार और हम बेनाम को गालियॉं बककर उसका एक चेहरा ही गढ़ने के व्‍याकरण में हैं जबकि शायद स्‍वाभाविक है कि बेनाम एक नहीं अनेक हैं चूकि हर बेनाम सिर्फ बेनाम होता है इसलिए हम मान लेते हैं कि हर बेनाम सिर्फ हरामी होता है नहीं साहब कुछ हरामी, कुछ कमीने, कुछ कायर, कुछ यशलिप्‍सा से मुक्‍त योगी,....अलग अलग होते होंगे।
    इसलिए वहीं किया जाना चाहिए कि किसी को कचरा फेंकने के अधिकार से इसलिए वंचित न करेंकि वह पासपोर्ट नहीं लाया है लेकिन आप उस कचरे को रखते हैं कि नहीं ये आपका ही विवेक रहेगा।
    :
    :
    और एक बात। ये बेनाम पर बात सदैव पुल्लिंग में ही क्‍यों होती है। वह कमीना है-कमीनी नहीं ?? हे चिट्ठाजगत की सीमोन तुम कहा हो।

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  2. रोड़ा(अनाम टिप्पणी) फेंककर भागने वाले बच्चे पर ग़ुस्से में भरकर पूरा टैंक (पोस्ट) चढ़ा देना सराहनीय नहीं है.
    ये डायलाग मजेदार है। वैसे हुआ यहां भी यही है। जो काम एक रोड़े, पत्थर से हो सकता था उसके लिये एक पूरी पोस्ट चढ़ा दी। :)
    अनाम टिप्पणियां भलाई, बुराई करें यह खराब बात नहीं है। खराब यह लगता है कि कोई अनाम होकर भद्दी-भद्दी गालियां दे जाये या आपके ब्लाग पर दूसरे के लिये सनसनीखेज बयान! अब आप अपना सिर पीटो। जिसके लिये बयान जारी किये गये वह सोचता रहे कि ब्लाग वाले ने उसे गरियाने में सहयोग प्रदान किया।

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  3. अनामदास जी,
    आपका कहना बिलकुल वाजिब है. परंतु प्रमोद जी ने और बाद में कमल जी ने अनामों के लिए जो लिखा वो आप जैसे संभ्रांत अनामों के लिए नहीं है, बल्कि गंदगी फैलाने वाले अनामों बेनामों के लिए हैं जिनकी जुबान में गालियाँ रचती बसती हैं - वे अपनी बातों को सभ्य तरीके से रखने की कला नहीं जानते. और ये बात आपने भी अप्रत्यक्ष रूप से कही भी है.

    आप जैसे और ढेरों अनामों का तो स्वागत और अभिनंदन तो है ही, बल्कि आवश्यक भी हैं - बहुत से मामलों में आप अनामों की अनिवार्यता से इंकार नहीं किया जा सकता.

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  4. अनाम भैया,

    अनाम, गुमनाम या चाहे जो जाना... बदनाम न होना। मैंने तो आपके स्वागत में पहले दिन ही कहा था आपकी व्यवसायिक मजबूरी है इसलिए अनाम हो ... कोई ढेला-पत्थर चलाने के लिए थोड़े न पहचान छुपाये हो। रवि भैया ने ठीक ही कहा कि प्रमोदजी और कमलजी का इशारा गंदगी फैलाने वाले अनामों की ओर है। आप तो दिल पर बिलकुल न बात को... और लिखते रहो रात को (दिन में फुर्सत कहां मिलती है :) )।

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  5. भईया मैंने जो कहना था ऊपर सभी सज्जन कह ही चुके हैं। बाकी छ्द्म नाम (जिसे आजकल मुखौटा कहा जा रहा है) से ब्लॉग लिखना और बेनाम टिप्पणी करना दो अलग अलग चीजें हैं। छ्द्म नाम से ब्लॉग लिखने पर हमें कोई ऐतराज नहीं। ऐसा करने के कई कारण हो सकते हैं जिनमें व्यावसायिक मजबूरियाँ भी शामिल हैं।

    अब हमारे कई साथी छ्द्म नाम से लिखते हैं लेकिन वे अपने लेखन के प्रति पूरी तरह जिम्मेवार हैं। हिन्दी चिट्ठाजगत के पहले छ्द्म नामधारी चिट्ठाकार ईस्वामी (जिन्हें हम प्यार से "फैंटम" या "चलता-फिरता प्रेत" कहते हैं) का उदाहरण आपके सामने हैं। वो लोग जो छ्द्म नाम का सहारा किसी गलत बात के लिए नहीं लेते उतने ही सही हैं जितने असली नाम से लिखने वाले।

    लेकिन समस्या उन बेनाम लोगों से है जो घटिया टिप्पणियाँ करके गंदगी फैलाते हैं। ये लोग बेनाम सिर्फ अपनी कायरता और कुत्सित इरादों को लेकर हैं न कि किसी अन्य कारण से।

    वैसे भी छ्द्म नाम होना भी एक पहचान है। छ्द्म नामधारी होने और अनाम/बेनाम होने में बहुत फर्क है।

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