18 अप्रैल, 2007

स्टार न्यूज़ पर हमला लोकतंत्र पर हमला नहीं

स्टार न्यूज़ के दफ़्तर पर हमला एक निंदनीय आपराधिक कृत्य है. इसमें कोई शक नहीं कि यह गुंडों का हमला है, इसके लिए हमलावरों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए. बड़े-बड़े संपादक कह रहे हैं कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है, लोकतंत्र पर हमला है. वे भी जानते हैं कि वे एक रस्मी बयान दे रहे हैं जो कैमरा और माइक सामने आने पर देना होता है.

प्रसारण के लिए मेरा बयान भी कुछ ऐसा ही होगा लेकिन यह सोचने का एक मौक़ा भी है, अगर कोई सोचना चाहे. मुझे पता है कि हिंदू राष्ट्र सेना वाले ठोकशाही में विश्वास रखते हैं इसलिए उनसे सोचने की उम्मीद करना बेकार है लेकिन जो लोकशाही की बात कर रहे हैं उनसे सोचने की उम्मीद करना वाजिब है. हमलावरों पर लानत भेजने का काम तफ़स्लीन हो चुका है, दो दिन रुकने के बाद लिख रहा हूँ ताकि जले पर नमक छिड़कने का आरोप न लगे.

हमला तो हमला है, हर सूरत में बुरा है लेकिन भारत में शब्द इतने बेमानी हो गए हैं कि वांछित प्रभाव के लिए किसी बडी़ चीज़ पर हमला बताना ज़रूरी होता है क्योंकि हमले तो रोज़ होते रहते हैं. नोट लेकर सवाल पूछने वालों, सरकारी आवास को किराए पर उठाने वालों और बंदूक के बल पर जीतकर दिल्ली आने वालों पर जब हमला हुआ तो वह लोकतंत्र के मंदिर पर हमला था. डोनेशन लेकर दाख़िला देने वाले स्कूल में हमला विद्या के मंदिर पर हमला, ग़रीबों के मामले छोड़कर पहले माफ़िया या हीरोइनों की फ़रियाद सुनने वाली अदालत में गोलीबारी न्याय के मंदिर पर हमला... संसद, स्कूल या अदालत पर हमला कहने से वज़न पैदा नहीं होता. हमने बात में वज़न पैदा करने के चक्कर में हर बात को हल्का बना दिया है.

बहरहाल, स्टार न्यूज़ ही नहीं, भारत के किसी व्यावसायिक टीवी चैनल पर किसी भी बहाने से हमला हो सकता है, कभी भी हो सकता है, कोई सिरफ़िरा, गुमनाम उपद्रवी गुट कर सकता है लेकिन वह बाज़ार पर हमला होगा, एक दुकान पर हमला होगा.

व्यावसायिक समाचार चैनलों के जो चार-पाँच प्रमुख संपादक हैं सभी ने सोमवार को एक ही बात कही--यह लोकतंत्र पर हमला है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. इन चारों-पाँचों वरिष्ठ पत्रकारों के अनेक पुराने इंटरव्यू रिकॉर्ड पर हैं, कई इंटरव्यू मिल जाएँगे जिनमें नाग-नागिन, पुनर्जन्म, माफ़िया, बलात्कार, सनसनी, काल-कपाल, भूत पिशाच...के कार्यक्रम बड़ी लगन से दिखाने को परम कर्तव्य बताया गया है. समाचार के साथ व्यभिचार के आरोप पर सफ़ाई में सबने एक ही मासूम तर्क दिया है, "हम तो वही दिखाते हैं जो लोग देखना चाहते हैं." यह बहुत अच्छा तर्क है लेकिन यह एक दुकानदार का तर्क है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के ध्वजवाहक का नहीं.

व्यवसाय होने में कोई बुराई क़तई नहीं है, टीवी चैनलों का जो कारोबारी मॉडल है उसमें उनका लोकप्रिय होना ज़रूरी है. सत्तर-अस्सी के दशक में भी सारे अख़बार व्यावसायिक थे जो बिक्री और विज्ञापन के बूते चलते थे लेकिन उनकी व्यावसायिकता धूमिल के शब्दों में 'रामनामी बेचने' वाली व्यावसायिकता थी, दूसरी वाली नहीं.

लोकतंत्र को एक चौपाया व्यवस्था माना गया है जिसमें चौथी टाँग आज़ाद है कि वो कब वज़न उठाए और कब तीनों पालिकाओं से कहे कि तुम संभालो हमें तो लोकतंत्र में लोकरुचि का खयाल रखना है.

सिर्फ़ इस हमले की बात नहीं कर रहा, इस तरह की किसी भी वारदात को लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कहना 'फिसल पड़े तो हरगंगे' कहने वाली बात है. यह एक टिटिहरी के बयान से ज़्यादा नहीं है जिसे लगता है कि लोकतंत्र का आसमान उसकी ही टाँगों पर टिका है.

जिस घटनाक्रम के प्रसारण के बाद यह हमला हुआ वैसी घटनाओं का हर रोज़ सभी टीवी चैनलों पर निरंतर प्रसारण हो रहा है लेकिन हमले रोज़ नहीं होते. ऐसे किसी कार्यक्रम के प्रसारण के बाद चैनलों के आक़ा ये नहीं देखते कि उनकी रिपोर्टिंग से लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी मज़बूत या कमज़ोर हुई. टीआरपी ठीक है मतलब लोगों ने पसंद किया जो लोगों की पसंद है वही लोकतंत्र है. अब लोगों की पसंद के कार्यक्रम दिखाने वालों पर हमला लोकतंत्र पर ही तो हमला है. कौन न मर जाए इस सादगी पर.

मीडिया लोकतंत्र की चौथी टाँग है या सहस्त्रबाहु बाज़ार का मुँह ? या फिर बाज़ार ही असल में इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की चौथी टाँग है और मीडिया उसकी रणभेरी? इन सवालों पर फ़ैसला होता तो अच्छा था, लेकिन आप भी जानते हैं और मैं भी, ऐसा नहीं होगा. हमलावर तो उन वानरों की तरह हैं जो सत्ता के केंद्र नॉर्थ ब्लॉक-साउथ ब्लॉक में कभी-कभी उत्पात मचाते हैं और उन्हें खदेड़ने के लिए वेतनभोगी लंगूर तैनात कर दिए जाते हैं.

7 टिप्‍पणियां:

  1. आप जो काम कर रहे हैं, उसमें इनहैरेण्ट रिस्क होता ही हैं. टीटीई अगर टिकट चेक करता है तो कभी-कभी मार भी खा सकता है. उसकी तनख्वाह में मार खाने का हिस्सा भी है. लेथ मशीन पर काम करने वाला कभी चोट खा सकता है. न खाना चाहे तो दूसरा काम कर ले. इसी तरह टीवी वाला हमेशा टाई पहन चमकता थोड़े रहेगा. सब को जबान से लतियाता है - कभी तो लात खायेगा. उसके मुनाफे में लात खाने का हिस्सा भी है. रिस्क मेनेजमेंट करना हो तो इंश्योरेंश कराले. यहां लोकतंत्र कहां से आ गया?

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  2. यही तो मजबूरी है कि असल बात को भाई लोग गुल कर जाते हैं और अपनी सहुलियत के हिसाब वजनदार जुमले गढ़ लेते हैं। बेशर्मी की हद तो तब हो जाती है जब संसद पर हमले को लोकतंत्र पर हमला मानने वाले उन्हीं हमलावरों की पैरवी में सड़कों पर उतर आते हैं। हद हो गई बेईमानी की। आश्चर्य नहीं होगा यदि कल को कोई टीआरपी पीड़ित पत्रकारिता की दुकान इन्हीं गुंड़ों के हवाले से लोकहित (दुकानदारों के शब्द) में कोई स्टोरी चलाने लगे। कभी-कभी तो लगता है कि इस देश में कोई बहुत बड़ी भगदड़ मची है... लेकिन यकीन है ये सब ज्यादा दिन चलने वाला नहीं... सबकुछ बदलेगा। एक सार्थक बदलाव जल्दी ही होगा।

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  3. वाह भाई, बहुत खूब!

    आपने घटना को घिसे-पिटे तरीके से देखने के बजाय नयी दृष्टि से देखा है। मेडिया को पवित्र मानना भारी वेवकूफ़ी है, जनता को मूर्ख बनाना है।

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  4. सही कहा आपने । लेकिन जल्दी में हमले की नई निंदा कैसे करें ध्यान नहीं आया होगा । सोच कर देखा जाना चाहिए कि कहते क्या । हिंदू सेना ने ठीक नहीं किया । हमें पसंद नहीं । ऐसे हमले से हम डरने वाले नहीं । उन्हें अपनी बात रखनी थी तो किसी और तरीके से विरोध कर सकते थे । हिंसा ठीक नहीं । प्रेस की आज़ादी सबके हित में हैं । मुझे लगता है निंदा भर्त्सना के समय में नई अभिव्यक्ति की तलाश होनी चाहिए । वरना जैसा आपने कहा है..फिसल पड़े तो हरगंगे ।

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  5. is hamle ki hame ninda to karni hi chahiye. saath aise programo ke baare mein bhi likhna chahiye jo samaj ko koi disha nahi de paati hain.

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  6. अच्छा है तस्वीर के इस रुख को आप सामने लाए।

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  7. गजब का लिखे हैं. एतना साहस सब नहीं दिखाते हैं. इनको लोकतंत्र का पाठ फिर से पढ़ाना चाहिये लेकिन यह भी सच है कि बाजार के आगे लोकतंत्र अब दिखता ही नहीं है.

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