18 मई, 2007

अजब आनंद है अज्ञान में

ज्ञानी कहते हैं कि अज्ञान अंधकार है जिसे ज्ञान का प्रकाश ही दूर कर सकता है, यह वाक्य अधूरा है. उन्होंने यह नहीं बताया कि ज्ञान आनंद का परम शत्रु है.

ठीक उसी तरह जैसे शोर मचाने वाले कहते हैं कि उन्होंने शांति की ऊब को ख़त्म कर दिया है.

यह ज्ञान का घमंड है कि उसने अज्ञान को ओछा समझा.

अज्ञानी सब समझते हैं, आप उन्हें ज्ञान से खिजा दें तो वे सिर्फ़ इतना कहते हैं--"अपने-आपको बड़ा ज्ञानी समझता है."

ज्ञान की रोशनी में मुझ जैसे लोग मुँह लटकाए बैठे हैं (प्रोफ़ाइल वाला फ़ोटो देखिए)जबकि सारी मस्ती अज्ञान के अंधकार में होती है.

'इग्नोरेंस इज़ ब्लिस' सुना था लेकिन इस छोटी सी बात में कितना गहन ज्ञान छिपा है यह मैं ज्ञान की चकाचौंध में समझ ही नहीं पाया.

मैंने अपने जीवन में जितने लोगों को अज्ञानी समझकर हिकारत की नज़रों से देखा है, वे सब शर्तिया तौर पर मुझसे ज्यादा आनंदित हैं.

ज्ञानी शहर के अंदेशे में दुबले होते हैं जबकि अज्ञानी आनंद के सागर में गोते लगाते हैं.

बचपन से आज तक आपने देखा है, जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है, आनंद कम होता जाता है.

गौतम बुद्ध ने वर्षों तक घर-परिवार और राजसी आनंद का त्याग करने के बाद जो प्राप्त किया था उसे ज्ञान कहते हैं.

अब सुनिए कि वह ज्ञान क्या था--संसार में दुख ही दुख है, दुखों का कारण तृष्णा है, तृष्णा का कारण अभिलाषा है, तृष्णा की आग बुझाने से और भड़कती है, तृष्णा कम करो तभी दुखों से छुटकारा होगा...

अब इस ज्ञान के साथ क्या ख़ाक आनंद मिलेगा, ज्ञान यही है कि कुछ भी न चाहो, आप कुछ नहीं चाहेंगे तो कुछ मिलेगा नहीं, कुछ मिलेगा नहीं तो आनंद कहाँ से आएगा.

ज्ञानियों ने ही समझाया है कि आनंद अंदर से फूटता है, उसके लिए बाहर से कुछ नहीं चाहिए, यह भी ज्ञानियों की आनंद-विरोधी चाल है. उन्होंने यह नहीं बताया कि जब तक ज्ञान भीतर है आनंद बाहर नहीं फूट सकता.

ज्ञानी कहते हैं कि इस संसार में एक ही सत्य है, मृत्यु. अब अगर आप जानते हैं कि सत्य क्या है तो आप मरते दम तक मरघट वाले माहौल में रहेंगे क्योंकि सत्य से आप टरेंगे नहीं.

मुझे हमेशा तो नहीं लेकिन बीच-बीच में आनंद आता है, इसका सीधा मतलब है कि मुझे अभी आधा-अधूरा ज्ञान प्राप्त हुआ है.

आप ही बताइए पूरा ज्ञान प्राप्त करूँ या रहने दूँ, वापस अज्ञान की उत्तम अवस्था में लौटने का विकल्प बचपन की ग़लतियों के कारण बंद हो चुका है.

7 टिप्‍पणियां:

  1. अब जाकर समझा कि हमें हमेशा ही क्यूँ आनन्द आता है. :)

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  2. एक मनुष्य था - कृष्ण. वह परम ज्ञानी साबित हुआ. उसका कहा हुआ ही नहीं आगे और चरितार्थ होगा. उसके जैसा मस्त/प्रसन्न/मस्ती बिखेरने वाला मुझे आज तक नहीं दिखा.

    उसका कहा 700 श्लोकों मे किताब बद्ध है और बेस्ट सेलर है.
    आप उसे पकड़ लें. आपको ज्ञान भी मिलेगा और आनन्द भी.

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  3. कबीरदासजी कह गये हैं-
    सुखिया सब संसार है खाबै और सोवे
    दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे
    ज्ञान सिर्फ संकोच,अपनी सीमाओं की जानने की परेशानी लाता है। मारू-धांसू किस्म का डैशिंग आत्मविश्वास अज्ञानियों को ही सहज-सुलभ होता है।
    वैसे यह बयान भी एक अज्ञानी का ही है।
    आलोक पुराणिक

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  4. जितना है उसी में खुश रहिए । अब सारा आप ही बटोर लेंगे तो औरों का क्या होगा ? कुछ औरों के लिए भी छोड़ दीजिये ।
    घुघूती बासूती

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  5. घुघूती बासूती जी से सबक लेकर जितना है उसमें मगन रहिये. और ज्ञानदत्‍त जी की सलाह से आनंद में उछलने का सपना न पालने लगिएगा! देश में इतना दुख है और आप विदेश में सुखी कैसे हों कि चिंता करें, यह देखनेवाले को अच्‍छा नहीं ही लगेगा!

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  6. आप आनन्द और ज्ञान, दोनों एक साथ चाहते हैं। आपको कृष्ण, बुद्ध और कबीर के उदाहरण ज्ञात हैं। कृष्ण का आनन्दमय धर्म प्रमुखतया प्रेमयोग और कर्मयोग पर आधारित है, ज्ञानयोग वहां गौण है। कृष्ण ने उद्धव और सुदामा जैसे अपने परम ज्ञानी मित्रों को भी बहुत यत्न करके प्रेम और कर्म के मार्ग की तरफ ही प्रवृत्त किया। क्योंकि सत्य का ज्ञान हो जाने भर से आनन्द की प्राप्ति नहीं हो जाती, बल्कि आनंद निस्वार्थ प्रेम और अनासक्त कर्म से प्राप्त होता है।

    बुद्ध ने प्रेम को करुणा के रूप में लिया, उनका जीवन करुणा-प्रेरित कर्म का अप्रतिम उदाहरण है। कबीर के लिए भी भक्ति और कर्म का संगम ही आनन्द पाने का साधन रहा है।

    जिसे आत्म-ज्ञान कहा जाता है, उसके प्राप्त होने के बाद दो तरह की परिस्थितियाँ सामने आती हैं। पहला, तत्क्षण मृत्यु का वरण करते हुए प्राण त्याग दो और मुक्त हो जाओ। लेकिन मृत्यु आपके अधीन नहीं है, और कहते हैं कि कर्मफलों का भोग किए बगैर ज्ञानियों को भी मुक्ति नहीं मिला करती। दूसरा, ज्ञान प्राप्ति के बाद जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक ज्ञान के कारण हासिल हुई अपनी विशेष जिम्मेदारी के अनुरूप फल की कामना किए बगैर यथासंभव कर्म करो।

    एक और उपाय है, जिसमें केवल विशुद्ध ज्ञान के सहारे ही आनन्द की प्राप्ति हो सकती है, प्रेम, कर्म और साधना आदि का कोई झंझट बीच में नहीं है। वह है अष्टावक्र का मार्ग, जिसके बारे में अष्टावक्र गीता के अध्ययन से जाना जा सकता है। यह मार्ग सबसे सुगम और सबसे कठिन है। कठिन इसलिए कि वैराग्य और अहंशून्य आत्म-विश्वास के बगैर इसको समझना असंभव है। और सुगम इसलिए कि यदि वैराग्य और अहंशून्य आत्म-विश्वास हो तो अष्टावक्र गीता का पहला अध्याय पढ़ते-पढ़ते ही आत्म-ज्ञान के आनन्द लोक में पहुँच जाना सहज संभव है, जैसा कि राजा जनक के साथ पहला अध्याय सुनते ही हो गया था।

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  7. जब से आपकी यह पोस्ट पढ़ी है काफी सोचा.....आपके हिसाब से
    आनन्द directly proportional to अज्ञान
    आनन्द inversely proportional to ज्ञान
    Ignorance is bliss because the awareness of the implications of the situation is not there and one stays in wrong belief.

    किन्तु ज्ञान आनन्द के खोने का कारण कैसे हो सकता है...??


    जहाँ तक मैं समझती हूँ आनन्द एक प्रवृति है.....जो व्यक्ति विशेष पर निर्भर है। हर ज्ञान के स्तर पर दुखी और आनन्दित व्यक्ति मौजूद है। यह स्वाभाविक कुदरती विशेषता है। शायद मनुष्य अपना स्वाभाव कोशिश कर के बदल सकता है। किन्तु एक स्वभाव उसे जन्म से प्राप्त होता है। परिवार का स्वभाव पर विशेष प्रभाव पड़ता है। और आनन्दित रहना या ना रहना एक आदत बन जाती है....एक चुनाव जो कमचेतन अवस्था में किया जाता है।

    ज्ञान क्या है? क्या ज्ञान का मतलब जो जानकारी अलग अलग जगह उपलब्घ है उससे अवगत होना है? अगर ऐसा है तो हाथ में किताब, लैप मे लैपटौप और सर में दिमाग में काफी उपमायें हैं। और इस ज्ञान का आनन्द के घटने और बढ़ने से कोई रिश्ता नहीं हो सकता।

    और अगर ज्ञान का मतलब सृजन से है.......

    नवजात शिशु.....
    खिलती हुई कली.....
    सुंदर अहसास....
    अच्छी कविता....
    रोचक लेखन....
    नई नीती....
    खूबसूरत चित्र.....
    निपुण शिल्प.....
    नया अविष्कार....

    तो कहने की जरूरत नहीं है.....यह वास्तव में आनन्द है.......

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