यह पक्की बात है कि लेखन खेलन नहीं है.
लेखन क्या है और लेखक कौन है यह एक अहम सवाल है, इसके बाद का सवाल ये है कि लेखक की भूमिका क्या है, लेखक का दायित्व क्या है, वह किसके प्रति उत्तरदायी है, वगैरह.
लेखन एक समानांतर सत्ता है. मेरे लेखक मेरे दिमाग़ पर राज करते हैं. रेणु, निराला, कबीर, मार्केज़, नेरूदा, कामू...
लेखक मालिक है विचारों-शब्दों-पात्रों-घटनाओं-स्थितियों का, शासक है, राजा है, सबसे बढ़कर स्वयंभू है, काफ़ी हद तक ईश्वर की तरह, अपना संसार रचता है. मानो तो देव, नहीं तो पत्थर.
छोटे-मोटे लेखक भी होते हैं जो कुछ-कुछ लिखते रहे हैं, बीच-बीच में मार्के की कोई बात कह देते हैं लेकिन जो लोग राज करते हैं वे दूसरे होते हैं, अपनी तरह से गुलशन नंदा भी हैं जिनकी सत्ता रही है लेकिन कमल कुमार, विमल कुमार, अनिल कुमार जैसे लोग जो अपने-आपको कवि-लेखक (आम काल्पनिक नाम हैं,कोई भाई बुरा न माने) समझते हैं वे भारी मुग़ालते में हैं.
मैं लिखता हूँ लेकिन ख़ुद को लेखक मानने की गुस्ताख़ी नहीं कर सकता, बात अगर शाब्दिक अर्थ की है तो जितने लोग साक्षर हैं सब लेखक हैं. मेरी नज़र में लेखक वह है जिसे लोग लेखक मानते हैं. नारद पर मैं लिखता हूँ और दूसरे लिखने वाले मुझे पढ़ते हैं इससे मैं लेखक नहीं बन जाता. बड़ा या छोटा लेकिन एक ऐसा वर्ग होना ज़रूरी है जो सचमुच आपके लिखे को पढ़ना चाहता हो, वैसे नहीं जैसे नारद पर हम एक-दूसरे को पढ़ते हैं और टिप्पणी करते हैं.
तरह-तरह के प्रगतिशील, अप्रगतिशील, तुक्कड़-मुक्कतड़, जनवादी-मनवादी आदि-आदि लेखक संघों का वर्चुअल कन्फ़ेडरेशन है नारद. इसके बाद आप कुछ रियल बना लीजिए, पर्चे छापिए, नए लोगों को प्रोत्साहन दीजिए, वाह-वाह करिए, बीस-तीस लोगों को आप लेखक कहिए, बीस-तीस लोग पढ़कर या बिना पढ़े आपको लेखक होने का सर्टिफ़िकेट दे देंगे, हो गया काम.
साम्राज्यवाद का मैं प्रबल विरोधी हूँ, साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चों में चीख़-चीख़कर नारा लगाऊँगा लेकिन एक आम आदमी के तौर पर. दो-चार परस्पर मित्र जिन्होंने पहले अपने-आपको लेखक घोषित करके 'साम्राज्यवाद विरोधी लेखक मोर्चा' बना लिया हो, उनके बारे सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि वे साम्राज्यवाद के विरोधी कम, अपने आपको लेखक साबित करने की मुहिम में ज़्यादा सक्रिय हैं.
जहाँ-जहाँ साम्राज्यवाद का विरोध हो रहा है वहाँ जाइए, नारे लगाइए. इसके लिए लेखक संघ की कोई ज़रूरत नहीं है, 'लेखक संघ' की सदस्यता से आपको तो लेखक का दर्जा मिलता है, सोचकर बताइए इससे साम्राज्यवाद का क्या बनता-बिगड़ता है.
पुरस्कार, सम्मान, प्रोत्साहन, सभा-गोष्ठी, सेमिनार-तकरार ये सब आयोजन हैं, लेखन नहीं. लेखक का काम लेखन है, आयोजन नहीं. यह निज- महिमामंडन है कि संघ बनाकर क्रांति ला देंगे, नए लेखकों को प्रोत्साहित करके मशाल में तेल डाल देंगे...इन लेखक संघों ने उनका नुक़सान किया है जो उनके सदस्य रहे हैं और उनका भी जो उनसे बाहर रहे हैं.
जो लिखता है और पढ़ा जाना चाहता है, वह साम्राज्यवाद का समर्थक और जनता का विरोधी हो ही नहीं सकता. मगर जो सचमुच का लेखक है वह अपने लेखन के ऊपर किसी संघ की सत्ता कैसे स्वीकार कर सकता है, कोई रचनाकार यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि चार लोगों की बैठक में तय हो कि वह क्या लिखेगा और क्या नहीं? एक जैसा सोचने वाले लोग स्वाभाविक तौर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं और विचार-विमर्श करते हैं लेकिन संघ बनाकर लेखन नहीं हो सकता, वह नितांत निजी और वैयक्तिक कार्य है जिसमें कोई दख़ल नहीं दे सकता.
जैसे ही आप संघ-वंघ बनाते हैं वह एक औपचारिक व्यवस्था होती है जिसके नियम-क़ानून होते हैं, नियम-क़ानून होंगे तो उनका पालन करना होगा, आपके न चाहते हुए भी एक सत्ता संरचना तैयार हो जाएगी, जैसा मैंने पहले कहा कि हर लेखक स्वयंभू होता है वह किसी और की सत्ता क्यों स्वीकार करेगा, और करेगा तो क्या ख़ाक लिखेगा?
इस मामले में सरकारी प्रश्रय वाली अकादमियों से जुड़े लेखकों की खिल्ली तो उड़ाई जाती है लेकिन पार्टी लाइन पर लिखने वालों की नहीं, यह कोई न्यायसंगत बात नहीं है.
मिसाल के तौर पर, कबीर 'मैं कूता राम का, मोतिया मेरो नाम...' और '...चक्की भली पीस खाए संसार' दोनों लिखते हैं. अगर वे किसी जनवादी लेखक संघ के सदस्य होते तो सगे कॉमरेड उन्हें 'कूता' बना देते और किसी भक्ति आंदोलन से जुड़े होते तो भगत उन्हें ही पीस खाते. यह उनकी लेखकीय स्वतंत्रता है कि धर्म और आडंबर की अपनी व्याख्या करते हैं.
सच बात तो ये है कि जिसने जो देखा, भोगा है, सीखा है, संजोया है, वही लिखेगा. कोई ग़रीब का दर्द लिखेगा, कोई अमीर का अभिमान लिखेगा, कोई दोनों का विरोधाभास लिखेगा...कोई महान लेखक तीसरी-चौथी-पाँचवी परत भी ढूँढ निकालेगा जो अब तक नहीं दिख रही...लेकिन यह कोई और तय नहीं करेगा.
पाठक अपने लेखक चुनता है और लेखक भी अपने पाठक. जैसे आप दोस्त, प्रेमिका और पत्नी को चुनते हैं वैसे ही आपको अपने लेखक को ख़ूबियों-ख़ामियों के साथ स्वीकार करना पड़ता है, वह पैकेज में आता है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप कहें कि टॉलस्टॉय का समता वाला पक्ष सही है लेकिन उनका संत वाला पक्ष हटा दो या फिर तुर्गनेव के सामंतवाद विरोधी विचार तो अच्छे हैं लेकिन इतना रंगीन मिजाज़ आदमी ठीक नहीं.
डीएच लॉरेंस, नोबोकोव को पढ़े बिना कोई जवान नहीं हो सकता (मस्तराम भी) और चेखव-तुर्गनेव को पढ़े बिना परिपक्व नहीं...देवकीनंदन खत्री और अगाथा क्रिस्टी से लेकर जेके रॉलिंग तक सबकी अपनी भूमिका है, उसी के हिसाब से उनकी जगह है. डैनियल स्टील और जॉन ग्रीशैम वह जगह नहीं पा सकते जो एन रैंड या मिलान कुंदेरा की है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे किस ख़ेमे में हैं.
ख़ेमे-वेमे के चक्कर में खुदरा लोग रहते हैं, ठीक से पढ़ने और ठीक से लिखने वालों को सार्थकता से सरोकार है. हर आदमी क्रांतियों का पोलापन और शोषण-दमन की पुख़्तगी को अच्छी तरह जानता है, उसके लिए लेखक नहीं चाहिए, और लेखक संघ तो बिल्कुल नहीं.
'अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है...' एक महान कविता है लेकिन इसलिए नहीं कि क्रांतिकारी कवि बाबा नागार्जुन ने लिखी है (वैसे इसमें क्रांति की कोई बात नहीं है), अगर इसे कांग्रेसी सांसद रहे श्रीकांत वर्मा ने भी लिखा होता तो ये महान कविता ही होती.
साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लेखकों की भूमिका पर चर्चा आगे फिर कभी.
एक बहुत ज़रूरी बात जिसे बार बार याद दिलाये जाने की ज़रूरत बनी हुई है.. आपने बहुत सरलता सहजता से सामने रखी.. पढ़ कर बड़ी तसल्ली हुई..
जवाब देंहटाएंअप्रगतिशील लेखन अघाड़ी की ओर से हाज़िरी बजाने आया हूं.. ट्राई मारते रहिए, एक दिन आप हमारी तरह पहुंचे हुए लेखक बनेंगे, ऐसा दिख रहा है.. पहले भी आपके विचार बदल जायें तो हमारी तरफ आपका स्वागत है. अप्रगतिशील सलाम!
जवाब देंहटाएंदादा भालो लिखो छे
जवाब देंहटाएंअनामदास के इस ब्लॉग का मक़सद यही है कि लोग आपस में चर्चा करें, तर्क-वितर्क करें. तारीफ़ किसे अच्छी नहीं लगती लेकिन आलोचना का भी खुले दिल से स्वागत है.
तो दादा ये भी बताईये कुतर्क करने कह जाये
ख़ेमे-वेमे के चक्कर में खुदरा लोग रहते हैं, ठीक से पढ़ने और ठीक से लिखने वालों को सार्थकता से सरोकार है. हर आदमी क्रांतियों का पोलापन और शोषण-दमन की पुख़्तगी को अच्छी तरह जानता है, उसके लिए लेखक नहीं चाहिए, और लेखक संघ तो बिल्कुल नहीं.
जवाब देंहटाएंसही बात.... सिंहों के लेंहड़े नहीं, हंसों की नहिं पांत.
अनामदास जी, आपने अच्छा लिखा है और बिल्कुल यही बात है। बाबा इसके उदाहरण हैं- बाबा को जब लगा कि जनांदोलनों के साथ अपनी जम कर भागीदारी होनी चाहिए, वे गये। जब लगा कि अकेले भ्रमण करना चाहिए, उन्होंने किया। बाबा ने ही लिखा है- बंदा क्या घबराएगा, जब जनता देगी साथ... या पुलिस पकड़ के जेल ले गयी, बाकी बच गया अंडा। बिल्कुल सही है कि लेखन एकाकी मसला है, हां नागरिक-दायित्व के स्तर पर लेखक अपनी भूमिका कहीं देख सकते हैं- तो इसके लिए भी वे पूरी तरह आज़ाद हैं।
जवाब देंहटाएं"ख़ेमे-वेमे के चक्कर में खुदरा लोग रहते हैं, ठीक से पढ़ने और ठीक से लिखने वालों को सार्थकता से सरोकार है."
जवाब देंहटाएंठीक लिखा है भैया अनामदास .पूरी तरह सहमत हैं आपसे.
लेखक का विवेक किसी भी सिद्धांत से बड़ा है . बड़े-बड़े उपयोगी सिद्धांत कालांतर में रूढि में बदल जाते हैं . कोरे शब्द जिनसे अर्थ के पखेरू उड़ गए होते हैं .
“पाठक अपने लेखक चुनता है और लेखक भी अपने पाठक .” धन्यवाद अनामदास जी, लेखक पहले लेखक ही होता है फिर समान विचारधारा वाले आपस मे जुड जाते है एसे मे यदि समूह मौलिकता को प्रभावित करे तभी यह स्थितिया निर्मित होती है . हिन्दी मे प्रगतिशील व जनवादी लेखक समूह से जुडे हुए या जोडे गये लेखको को भी पाठक मिले है . पर आपने जो चिन्तन दिया है उस पर सन्जीदगी से सभी को सोचना चाहिये एसे लेख समय समय पर पाठक के बीच आते रहना चाहिये . साधुवाद
जवाब देंहटाएंशुक्रिया इस अच्छे चिंतन से रुबरु कराने के लिए
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही, सच के इतने कोण हैं, इतनी परते हैं। फिर जो लेखक का संसार है, वह महत्वपूर्ण है। यह सिर्फ और सिर्फ लेखक को तय करना है कि वह क्या लिखेगा। कोई भी संगठन चाहे कित्ते ही सदाशयी लोगों द्वारा बनाया गया हो, अंतत एक न्यूनतम आंतरिक राजनीति पर चलता है। लेखन अंतत एक व्यक्तिगत क्रिया है, जिसके लिए लेखक कच्चा माल, दुनिया समाज से जुटाता है। लेखक को लिखते समय अपनी भी नहीं सुननी चाहिए,मतलब अपने धुरखेलों, अपने इक्वेशन्स की. लेखक को पहले अपनी ऐसी-तैसी करना आना चाहिए। फिर संगठनों की करे, फिर सबकी करे। ऐसा करने की हिम्मत सामूहिक नहीं होती , नहीं हो सकती। अनामदासजी आपका यह लेख पत्रकारिता के छात्रों के स्टडी मटरियल में लिये जाने योग्य है। वैसे मैं उस लेखक संघ की सक्रिय सदस्यता लेने को उत्सुक हूं, जिसमें प्लाट, कोठी, फ्लैट वगैरह मिलते हों।
जवाब देंहटाएंआलोक पुराणिक
लेखन पर इस तरह का चिंतन ब्लाग पर कम ही होता है. शायद इस्लिये की कई लोग गंभीर लेखन को लक्ष्य न रख के लिखते रहने के लिये लिखते हैं. ब्लाग पर सबसे वैसी आशा भी नहीं की जा सकती. शुरुआत के लिये ऐसा कुछ स्वीकार्य भी है, पर ऐसा लिख कर खुद को लेखक मान लेना नादानी है.
जवाब देंहटाएंमुख्यधारा साहित्य में खेमेबाजी पर आपने खरी खरी बातें कहीं. खेमे में बंध कर लेखक की संप्रभुता समाप्त हो जाती है. राजनीतिक सरोकार लेखन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं. निर्मल वर्माजी का प्रकाशक के साथ विवाद होने पर प्रगतिशील लेखको ने उन्ह अप्रगतिशील घोषित कर दिया. महाश्वेता देवी भी कुछ ऐसी धींगामुश्ती में फंसी हैं. लेबल में बंध कर, सही-गलत की (संघ)निर्धारित हद में रह कर सार्थकता से समझौता करना पडता है. और लेखक को सार्थकता से ही मतलब रहना चाहिये.