14 जून, 2007

मन का काम, मन ही जाने

अपने मन का काम, इससे बढ़कर कोई और माँग आप ख़ुद से नहीं कर सकते.

अपने मन का काम वही होता है जो आप इस समय नहीं कर रहे या करने की स्थिति में नहीं हैं. इससे ज़्यादा रूमानी ख़याल कोई और होता भी नहीं.

जब तक मौत की आहट सुनाई न देने लगे ज़्यादातर लोग ऐसे ही ख़यालों में जीते हैं, कुछ लोग पक्की कोशिश करते हैं और कुछ लोग कसमसा कर रह जाते हैं. अपना अभी तय होना है कि किस खाँचे में फिट होंगे.

अपनी नज़र में सफल आदमी वही है जो अपने मन की करता है. यह सफलता कई बार भगीरथ प्रयत्न से मिलती है और कई बार सहज प्रारब्ध से.

मेरी नज़र में जंगीलाल चौधरी सबसे सफल आदमी था जो हमारे मुहल्ले में कोयले की टाल चलाता था. सफ़ेद धोती और नीले कुर्ते में गद्दी पर बैठकर सौंफ-सुपारी खाता था, उसके आदिवासी मज़दूर कोयला तौलते थे, ग्राहक को दो-चार किलो ज़्यादा भी दे दें तो टन-मन के हिसाब में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था जंगीलाल को. उसने जीवन भर कोयला बेचने के अलावा कभी कुछ और करने की कुलबुलाहट नहीं पाली.

कोयला बेचकर या काग़ज़ काला करके, थोड़ा ऐसे या वैसे, घर सबका चलता है लेकिन ज़्यादातर लोग फेंस के उधर जाने के लिए छटपटाते हैं. जो पत्रकार नहीं हैं वे पत्रकार बनना चाहते हैं, जो पत्रकार हैं वे कार्यकर्ता बनना चाहते हैं या फिर लेखक, जो दुकानदार हैं वे कलमकार बनना चाहते हैं और कलमकार चाहते हैं कि दुकान चल निकले.

मेरे एक पुराने परिचित के पिता कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो में थे, बेटा बाप से बढ़कर निकला, माले का पर्ची काटने वाला कार्यकर्ता बन गया. जब मूँछे पकने लगीं तब घर बसाने का ख़याल आया तो पत्रकार बना, मगर संयोगवश एक संघी संपादक की अर्दल में. संपादक जी मकान मालिकों से तंग आए तो भाजपाई मुख्यमंत्री की कृपा से कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनी जिसके कोषाध्यक्ष बने माले वाले भाई. अपार्टमेंट बना और माले वाले भाई मालामाल हुए, उसके बाद पूरे प्रॉपर्टी डीलर बन गए.

माले वाले इस मालदार परिचित को मैं सचमुच सफल आदमी मानता हूँ क्योंकि उन्होंने हर दौर में अपने मन का काम किया, जब मन किया तब सर्वहारा के संगी बने और जब मन किया तो ज़ार के संगी बनकर चौथेपन में नवाबी आनंद लिया. जंगीलाग और माले वाले मालामाल, दोनों सफल हैं, एक प्रारब्ध से और दूसरा प्रयत्न से.

एक दोस्त हैं जो एम्स की नौकरी छोड़कर असम में ग़रीब लोगों का मुफ़्त इलाज कर रहे हैं, दूसरे हैं जो बिहार पुलिस की राह में बारूद बिछाने जैसा दिलेरी भरा काम बरसों करने के बाद अब पटना में पीसीओ चला रहे हैं. तरह-तरह के लोग हैं, सबकी अपनी-अपनी पिनक है, मेरी भी पिनक है लेकिन कई बार लगता है कि मन की करने के लिए जो मनमानी करनी पड़ती है उसके लायक़ कलेजा नहीं है अपने पास.

जब आप अपने मन की करते हैं तो बाक़ी लोगों के लिए मनमानी ही कर रहे होते हैं. ख़ानदानी नौकरीपेशा परिवार में पैदा हुए नाचीज़ ने जब ऐलान किया कि सरकारी नौकरी नहीं करूँगा तो घर में स्यापा पसर गया, ये नहीं कहा था कि नौकरी नहीं करूँगा. मन का काम तब यही था कि बाप जो कहें वह नहीं करना है. बस यहीं तक मन का काम किया.

मन करता है किताब लिख मारूँ जो मास्टरपीस हो जाए, मन करता है फ़िल्म बनाऊँ जो कुरोसावा और फेलिनी की श्रेणी में रखी जाए, मन करता है कोलंबस और कैप्टन कुक की तरह पूरी दुनिया छान मारूँ, मन करता है कि घूम-घूमकर दुनिया भर के जनसंघर्षों का गवाह बनूँ, मन करता है कि सिर्फ़ मन की करूँ. लेकिन करता क्या हूँ, सिर्फ़ नौकरी.

मकान की किस्त भरनी है, बुढ़ापा आरामदेह बनाना है, बच्चे की सही परवरिश करनी है. कई बार दिल में आया कि नौकरी छोड़ दूँ और करूँ अपने मन की. किसी तरह जुगाड़ हो जाएगा रोज़ी-रोटी का, सिर्फ़ नौकरी करना भी कोई जीवन है, ज़रा पढूँ-लिखूँ, दुनिया देखूँ. बीवी ने एक सादा सा सवाल पूछा, 'बेटे से जब स्कूल में लोग पूछेंगे कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो वह क्या जवाब देगा.'

मैं सोचता हूँ क्या वह यह नहीं कह सकता 'जो मन करता है, करते हैं.' क्या आपको मेरा यह परिचय स्वीकार्य है कि मैं वही करता हूँ जो मेरा मन कहता है.

माँ-बाप, बीवी-बच्चे, दफ़्तर-समाज, दीन-दुनिया के हिसाब से काम न करके अपने मन से चलूँगा तो क्या मुझे एक 'अच्छा आदमी' माना जाएगा? लेकिन अपने मन से नहीं चलूँगा तो क्या अपनी नज़र में सफल आदमी बन पाऊँगा? एक साथ 'अच्छा और सफल आदमी' बनने की उधेड़बुन है सारी ज़िंदगी.

कहिए उधेड़ूँ या बुनूँ?

(प्रमोद सिंह और अभय तिवारी के परस्पर संवाद की प्रेरणा से लिखे गए इस चिट्ठे पर अपनी राय देकर इसे सफल बनाएँ.)

12 टिप्‍पणियां:

  1. कल ही प्रमोद जी को इस विषय पर पढ़ता था. आज आपने भी उन्हीं बातों को अपने अंदाज में पेश किया, अच्छा लगा पढ़कर यह उधेड़ बुन!! :)

    मैं अब भी वही कहता हूँ जो मैने प्रमोद भाई के मंथन पर कही थी: (कट पेस्ट कर रहा हूँ क्यूँकि ऐसा करना मेरा मन पसंद कार्य है.. :))

    मुझे लगता है कि सब कुछ तो मन का नहीं हो पाता. कुछ समझौता करना होता है. शायद इसी समझौते को जिंदगी का नाम दिया गया है. कुछ खट्टा कुछ मीठा. अक्सर पसंदीदा स्थलों पर पहुँचने के लिये कठिन यात्रायें करनी होती हैं मगर वहाँ पहुँच कर जो सुकुन मिलता है उसके लिये हम यह समझौता भी कर लेते हैं.

    तो जीवन में कभी आजीविका ढो भी रहे हों और साथ में सामजस्य बैठाकर मन पसंद रुचि का कार्य भी कर हो या आजीविका इसलिये ढो रहे हों कि शीघ्र ही रुचिकर कार्य करने योग्य हो जाऊँ, तब तो चलता है और यह निपट आवारापने से बेहतर ही होगा.

    अब डाब, सुराही का पानी- तो सपने की बातें सी लगती हैं. आपने याद दिला दिया, बस्स!! वैसे स्कॉच उठाकर सोचा तो लगा तो कि मैने अपने मन का काम खोज लिया है. अब कब तक मन लगा रहता है रोज रोज वही करने में, यह देखने वाली बात होगी.

    आपका लेखन जरुर हमेशा रुचिकर होता है. :)

    मात्र मेरे विचार हैं अतः कतई अन्यथा न लें. :)

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  2. बहूत-बहूत दिनों फरार रहते हैं जी। चिठ्ठा नहीं लिखते, क्या किसी मन के काम में लगे हुए हैं। मन का तो यह है जी विकट हरामी टाइप आइटम है। मन के मतै ना चालिए, मन के मतै हजार-कबीरदास जी कह गये हैं। कबीरदासजी भी जानते थे कि मन की करने में लग लिया बंदा, तो झुग्गी की किश्त भी ना निकाल पायेगा। पर मन की न करें, तो मन नहीं लगता। मन की सुनें तो मनी के मैटर उखड़ जाते हैं। अब मन तो हमारा यही सा हो रहा है कि कैमरा लेकर निकल जायें, और मार चिठ्ठे पे चिठ्ठे पे पेल दें, उन सब लेखों के, जो मन में लिखे रखे हैं। पर मनी चिठ्ठे से नहीं आता। मनी जहां से आता है, हर बार वहां मन की नहीं चलती। मन और मनी में संतुलन बनाने की जुगाड़ ढूंढ़ रहा हूं। प्रमोदजी ने परसों बैंक लूटने का प्रस्ताव रखा था, मैं सोचता हूं कि देशी क्यों लूटा जाये। ससुर सीधा स्विस-ऊस बैंक को खींचा जाये। इस संबंध में कोई मदद कर सकते हों, तो बतायें। मनी का जुगाड़ हो ले, फिर मन की करेंगे।
    आलोक पुराणिक

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  3. ओह्, कि मार्मिक आख्‍यान!.. आप साठ-चालीस वाला रेशियो लेकर चलिए.. चालीस प्रतिशत बुनते रहिए, और साठ प्रतिशत उधेड़ते रहिए! प्‍लीज़..

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  4. मन का काम तलाशने की बजाय यदि हम हर काम में मन लगाने लगें तो मुश्किल कुछ आसान हो जाये.क्योकि मन तो चंचल है..बदलता रहता है .. भटकता रहता है .. उसके पीछे ना भाग उसे साध लें तो राह आसान है " एकै साधे सब सधे , सब साधे सब जाय "

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  5. बहुत साफ, समझदारी वाला, सुंदर और सुकूनदेह कहन। बधाई।

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  6. बिल्कुल सही लिखा है आपने मन को मार कर भी कभी कोई जी पाता है,...मगर मन हमेशा अपनी-अपनी ही सोचता है...मेरा मानना है इन्साम के दो मन होते है...एक कहता है ये काम अच्छा है और दूसरा कहता है न नही ये ठीक नही...ये भी सच है मन मुताबिक काम करके ही हम खुश होते है..मगर ये भी सच है कभी-कभी जिस काम से दूसरों को खुशी मिलती है हम उसी में खुश होते है...आपके लेख से एक बात स्पष्ट होती है
    "जो अपने काम से संतुष्ट है वही सुखी है...यानि जिसके मन में कुछ और पाने की अभिलाषा नही है"
    मगर इंसान का मन संतोषी बहुत कम ही होता है...हर वक्त उधेड़-बुन चलती ही रहती है...

    बहुत अच्छा लगा पढ़्कर...आज पहली बार आपका चिट्ठा पढ़ा है बहुत अच्छी बातें लगी...
    धन्यवाद!
    सुनीता(शानू)

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  7. भाई अनामदास,
    प्रतिक्रिया लिखने की हड्बडी इस लिये है कि आपके ब्लॉग पर पहली बार आया और जो पढा उसमें एक सुसंगतता पाई. क्या मैं सुसंगतता के खेल का रेफरी हूं और क्या मेरे इस कथन से आपका असंगत होना न होने में बदल जायेगा? सफलता-असफलता मैं समझता हूं एक तरह की मिडिल एज क्राइसिस है.

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  8. विजिटिंग प्रोफेसरों या घुमक्कड़ ढंग से व्याख्यान देने वाले कुछ नामी लोगों को पश्चिम में कुछ कंपनियाँ प्रायोजित भी करती हैं और उनके सारे खर्चे और टेंशन भी उठाती हैं। इसमें कंपनी और व्यक्ति, दोनों का लाभ होता है।

    अपने मन की करने वाले स्वामी विवेकानन्द, ओशो आदि के उदाहरण तो विश्वविख्यात हैं। डोमिनिक लेपियर, ब्लादीमिर नोबोकोव, शिव खेरा आदि जैसे लेखकों के उदाहरण भी उल्लेखनीय हैं। इन लोगों की जिन्दगी को सफल और सार्थक, दोनों कहा जा सकता है।

    मेरे ख्याल से जीवन के न्यूनतम निर्वाह का जुगाड़ सुनिश्चित करने लायक आजीविकमिलना किसी भी मेहनती और औसत समझदार व्यक्ति के लिए मुश्किल नहीं है, यदि उसका विधाता ही वाम न हो तो। न्यूनतम आजीविका का जुगाड़ हो जाने के बाद व्यक्ति अपने समय और ऊर्जा का उपयोग अपने मन की करने में कर सकता है। कम से कम मैं तो ऐसा ही प्रयास कर रहा हूँ। यदि नौकरी और कैरियर से बहुत ज्यादा उम्मीदें रखी जाएं तो मन की करने का अवकाश ही नहीं मिल पाएगा।

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  9. अब तक जब जब मन की करनी चाही......


    मंजिल

    चल रही थी पगडंडी पर
    रास्ता भी साफ था...
    निशांत-निशा निश्चल-सी
    सामने था चँद्रमा...

    रास्ता जाता वहीं था
    पहुंचना भी था वँही
    जोश था , होश था....
    और संदेह था नहीं

    चल रही थी अग्रसर..
    थके कदम, पर बुलंद मन
    रास्ता भी साफ था...
    सामने था चँद्रमा...

    कब निशा चली गई!!
    कब सवेरा हो गया!!
    रोशनी और शोर में….
    चँद्रमा भी खो गया.......

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  10. मस्त लिखा है मित्र.. और सुसंगत भी.. बहुत सही.. देखिये सभी धराशाही हो के गिरे पड़े हैं.. और तो और हमारे इरफ़ान मियां भी गिर पड़े..

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  11. "एक साथ अच्छा और सफल आदमी बनने की उधेड़बुन है ज़िंदगी."

    अनामदास जी, एक वाक्य में सारी बात कह देने के यह हुनर आपने कहाँ से सिखा है। मुझे अपने जीवन का सच दिख रहा है आफके लेखन में। बहुत समय से पढ़ता हुँ आपका लेख, टिपड़ड़ी पहली बार कर रहा हुँ। ब्लोग पढ़ता हुं लेकिन लिखता नहीं हुं।

    आप उधेड़ते भी बहुत अच्छा है और बुनते तो ऊससे भी अच्छा हैं।
    दीपक जाजू

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