जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो परतदार न हो. जीवन की अपनी परतें हैं. अवस्था की परतें, दुरावस्था की परतें, व्यवस्था की परतें, चीज़ों के होने की परतें, उनके न होने की परतें.
इन सबसे बढ़कर इन परतों को लट्टू की तरह घुमाने वाला चक्र...लट्टू की रंग-बिरंगी धारियाँ जब घूमती हैं तो कुछ और होती हैं, जब रूकती हैं तो कुछ और. लट्टू के खेल में जीवन का आनंद लेने वाले भी हैं और उसकी गति को समझने में सिर खपाने वाले भी...यह फ़ितरत की बात है, इस फ़ितरत की भी परतें हैं. कुछ चीज़ों की परतें हमें दिखती हैं कुछ की नहीं दिखतीं, लेकिन होती ज़रूर हैं.
दुकानदार का लालच दिखता है, उसकी बिन-ब्याही बेटी दिखती है, उसकी जवानी दिखती है, उसका दहेज नहीं दिखता, उसके रिश्तेदारों के ताने नहीं दिखते...सब एक ही चीज़ की परतें हैं, कुछ दिखती हैं, कुछ नहीं दिखतीं, कुछ किसी को दिखती हैं तो कुछ किसी और को, सब कुछ सबके लिए अंधों का हाथी है.
ग्राहक की भी अपनी परतें हैं, उसकी भी बेटी है, उसके लिए सबसे बड़ा सवाल रोटी है..उसके लिए दुकानदार पापी है लेकिन उसके अपने पाप भी हैं, वह पीड़ित भी है लेकिन वह अपनी पत्नी का सामंत भी है मगर उन गायों का मालिक कोई और है जिन्हें वह चराता है...
...इच्छा हो तो गाय से घास तक की परतों पर जाइए. भूलिए मत कि बीच में दूध, मलाई, हलवाई, गोबर, गोचर, धर्म, संवेदना, सांप्रदायिकता, वगैरह भी परतों की शक्ल में मौजूद हैं, जिनकी अगली परतें हैं---दही, रोज़गार, गंदगी, गृहप्रवेश की रस्म, भूसा, चरवाहा, बाज़ार, पैसा, राजनीति और दुकान पर खड़ा गाँव से भागा लड़का वगैरह... हर चीज़ की तरह लड़के के जीवन की भी परतें हैं--गाँवों की बदहाली, शहरीकरण, अशिक्षा, बेरोज़गारी, माँ-बाप की लाचारी...चाहे-अनचाहे गाँव अमलाकोट से अटलांटिस तक सब परतें एक दूसरे जुड़ जाती हैं. और ध्यान रहे सब कुछ घूमता भी है.
बहरहाल, घास के नीचे मिट्टी है जिसके नीचे केंचुए हैं और उसके नीचे पानी और फिर खनिज-लवण, गाय के मालिक के ऊपर भी देखिए ज़रा-- बीडीओ-सीएम-पीएम-यूएस-यूएन...प्लैनेट अर्थ...उसका वायुमंडल, उपग्रह चाँद, सौरमंडल...उसके बाद...थोड़ा-थोड़ा पता है...उसके बाद कुछ पता नहीं...इन सबके आपस के रिश्ते और उन सबकी परतें और फिर उन परतों का घूमता लट्टू...
सपनों, भावनाओं, ज़रूरतों, मजबूरियों, बेचैनियों, उम्मीदों, आशाओं...की अपनी परतें हैं. ये सब परतें एक-दूसरे से लिपट जाती हैं और उसके बाद घूमती हैं...हम भी घूमते हैं उस लट्टू के रंगों को पढ़ने की कोशिश करते हुए.
हम से कुछ नहीं बन पड़ा, हमने डींगें बहुत हाँकी, न सबसे छोटा हमारे पल्ले पड़ा, न सबसे बड़ा. कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि परमाणु से छोटी कोई चीज़ नहीं, न ही पता कि ब्रह्मांड से बड़ा क्या है, कैसा है... है भी या नहीं...ब्रह्मांड का ही कहाँ पता है? ठहरिए, आप भूल गए कि कर्षण, गुरुत्वाकर्षण, चुंबकीय बल से घूम रहा है सब कुछ लट्टू की तरह. वाक़ई आश्चर्य होता है कि इतना कम जानते हुए अगर आदमी वाक़ई सफल है, तो इतना सफल कैसे है?
इस धरती से चार हज़ार गुना बड़ा पिंड जिसकी ब्रह्मांड के स्केल पर कोई औक़ात नहीं, गिर सकता है अचानक और कर सकता है सारी परतों को एक-बराबर, और माइक्रोस्कोप से भी न दिखने वाला अब तक अनजान रहा वायरस भी कर सकता है यही कारनामा.
हमारी सारी उछलकूछ बीच में कहीं है, जानने-समझने की होड़ लगी है--एक दूसरे से भी और अनंत से भी. हम हमेशा अपना दायरा खींचते हैं और उसके बीच सबसे अक्लमंद, दूसरे या तीसरे बड़े अक्लमंद होने की बात करते हैं लेकिन अगर हम सचमुच अक्लमंद होते हैं तो अपना दायरा भी जानते हैं कि वह पाँच सौ लोगों का है, पाँच हज़ार लोगों का.
अक्लमंद होने की निशानी यही है कि बेवकूफ़ होने का एहसास बना रहे ताकि जानने की प्यास बनी रहे, इसका ठीक उल्टा भी सही है कि अक्लमंद होने का एहसास बना रहे कि जानने की ज़रूरत न महसूस हो और हम वही बने रहें जो हमें पसंद है. वैसे जानने की प्यास बनी रहने में भी कोई खुश होने की बात नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी परतें हैं जो घूम रही हैं.
अब घूमती धरती का नक्शा बन सकता है तो इस धरती पर घूम रहे 'श्रेष्ठतम जीव' के ज्ञान का भी नक्शा बन सकता है, उसमें कुछ लोग लगे हैं... उनकी अपनी परतें हैं...लगे हैं ज्ञान का नक्शा बनाने में. सूचना, जानकारी, अनुभव, इन सबसे मिलकर बनता है ज्ञान, ज्ञान के परिमार्जन और विश्लेषण से बनती है बुद्धिमत्ता और उसके बाद यह आभास कि सारे ज्ञान तो पोले हैं.
अनामदास का सूत्र बस इतना है कि परत-दर-परत अनवरत और चक्कर-पर-चक्कर जब तक चक्कर न आ जाए, जिसने अपने-आपको समझदार समझा वह ज़रूर किसी परत पर ठहर गया है या किसी चक्कर पर चकरा गया है.
अब बनाइए नक्शा और इसकी सूचना फ़ौरन भेजिए मुझे या मेरे प्रिय प्रमोद सिंह जी को, बीच में परत या चक्कर मेरी जानकारी के मुताबिक़ कोई और नहीं है.
आपकी परतें तो चकरा देने वाली हैं. ये कहीं कोई परत ही तो है जो आपको और प्रमोद जी के मन में इस तरह के सवाल उठा रही है.ऎसे सवाल और उनके जबाबों की हर किसी को नहीं होती.अधिकतर तो इस सवाल के अस्तित्व को ही नकार देंगें.नकार से सवाल बदलता नहीं बना रहता है.
जवाब देंहटाएंबांकी फिर कभी...
एम.आई.बी के अंतिम हिस्से में इस विचार से मिलता जुलता दृश्य था जिसमें पृथ्वी पर से कैमरा ज़ूम आउट करता है और हमारी आकाशगंगा से होते हुए बाहर चलता ही जाता है। जान पड़ता है कि जो हमारे लिए विहंगम है, विराट है वो किसी और के लिए हैं महज़ कंचे।
जवाब देंहटाएंहमको तो चक्कर ही आ गया।
जवाब देंहटाएंपर बातें बड़ी गहरी है।
जीवन
जवाब देंहटाएंकाश जीवन एक रेखा होती
एक बिन्दू से दूसरे बिन्दू तक
एक निश्चित दिशा होती
हर कदम कुछ आगे बढ़ते
कुछ दूरी हर दिन तय होती
पर हर पल यहाँ...
एक नयी दिशा....
गोल घूमती दुनिया...
प्रदक्षिना...
और परीक्रमा...
लट्टू की तरह....
अपनी दुरी में घूम...
आगे कभी पीछे...
गोल कक्षा में झूम..
सुन्न...... सुस्त...स्तब्ध....
गती..
संगती....
स्नेह ...समृद्घी...
एक भ्रम....
मौसम…
पहर….
बनते....बिगड़ते....
गाम...शहर...
एक क्रम....
कहाँ.....???
..आदित्य.....
..चैतन्य.....
.....परम.....????
परतों के इन ताने-बानों की बहक अच्छी है.. ज्यादा संभावना है कम ही लोग इसमें रस लें.. उम्मीद की जाये आपको ज़रूर मिला होगा. मैं तो लड़ियाकर यहां तो सोच गया कि क्यों न इसी लाइन पर ज़रा साफ़-सुथरे स्टाइल में ग्रैहम ग्रीन व हज़ारी बाबू को मिलाते हुए आप एक थ्रिलर लिख मारें.. !
जवाब देंहटाएंवह भाई
जवाब देंहटाएंपियाज छीलने का आपका यह तरीका बढिया लगा. और हाँ, वो जो आपने लट्टू की बात की है, उसकी जगह अब एक नई चीज आ चुकी है. बे-ब्लेड कहते हैं उसे. उसको लेकर जो भयंकर विज्ञापनबाजी हुई है और व्यावसायिक कैम्पेनिंग हुई है, उसकी भी अपनी परतें हैं. कभी हो सके तो उन्हें भी छीलने की कोशिश करें.