20 जुलाई, 2007

हिंदी सम्मेलन हुआ, अँगरेज़ी की बात करें?

मैं बुनियादी तौर पर एक क़स्बाई आदमी हूँ. देश के औपनिवेशिक अतीत ने सबकी तरह मेरे लिए भी अँगरेज़ी को ज़रूरी बना दिया और ज़रूरत की मार ने उसे माँजने पर मजबूर किया.

मैं अँगरेज़ी का भक्त नहीं हूँ, उसका विरोधी था एक ज़माने में, जब भावुक था. अब व्यावहारिक हूँ इसलिए समझता हूँ कि अँगरेज़ी के बिना हिंदी में भी काम नहीं किया जा सकता. मिसाल के तौर पर महाविनाशकारी राजभाषा अधिकारी बनने की योग्यता पर ग़ौर कीजिए-- 'स्नातक स्तर तक हिंदी और
अँगरेज़ी दोनों तथा हिंदी या अँगरेज़ी अथवा दोनों में स्नातकोत्तर...'

मेरी पक्की राय थी कि आदमी अँगरेज़ी जाने बिना भी जानकार और समझदार हो सकता है लेकिन मेरी इस राय से शायद सिर्फ़ फ्रांसीसी या कुछ हद तक रूसी और स्पेनी सहमत हो सकते हैं.

अगर आपको फ्रांसीसी-रूसी या स्पेनिश आती है तो अँगरेज़ी के बिना भी इस हरी-भरी वसुंधरा के बारे में कुछ ज्ञान पा सकते हैं. अगर आप इस ख़ामख्याली में हैं कि साम्राज्यवादी अँगरेज़ी का विरोध करके और हिंदी-हिंदुस्तान गाकर आप अपने हिस्से का ज्ञानार्जन कर लेंगे तो आप अँगरेज़ी में स्टूपिड हैं. हिंदी में अपनी पसंद का कोई नाम च वर्ग से चुन लीजिए...

इस संसार के कटु सत्यों के अनंत कोश में से एक प्रमुख सत्य ये भी है कि पिछले चार सौ वर्षों में दुनिया में सिर्फ़ पाँच-सात भाषाओं का प्रसार हुआ है और सारा प्रसार साम्राज्यवादी ताक़त की बदौलत हुआ है. संस्था, नियम और व्यापार-व्यवस्था बनाने-चलाने की ताक़त और इस ताक़त से उपजा रौब हमारे-आपके ऊपर हावी है. बोलिविया में स्पेनिश, ब्राज़ील में पुर्तगाली, अल्जीरिया में फ्रांसीसी या सूडान में अरबी...आदमी पाँचों महाद्वीपों में ताक़त की भाषा सीखना चाहता है, दासता की नहीं. क्यूबा में क्रांति के नारे स्पैनिश में ही लगते हैं जो स्पेन से कई हज़ार किलोमीटर दूर है.

गाँव-देहात वाले हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं, हिंदी वाले अँगरेज़ी, अँगरेज़ी वाले ऑक्सब्रिज...यह प्रवाह निजी फितूर में उल्टा हो सकता लेकिन सामाजिक स्तर पर ऐसा कोई उदाहरण आज तक देखने को नहीं मिला कि किसी देश के लोगों ने साम्राज्यवादी ताक़त की भाषा को दरकिनार करके अपनी ज़बान को दोबारा वही जगह दी हो जो विदेशी आक़ाओं के काबिज़ होने से पहले थी.

वक़्त गवाह है कि पिछली कई सदियों में इक्का-दुक्का मौक़ों को छोड़कर इस दुनिया में व्यवस्थापक बदले गए हैं, व्यवस्थाएँ नहीं. भारत में व्यवस्था और सत्ता तंत्र की भाषा अँगरेज़ी थी और अब भी वही है. हिंदी हमारी अपनी भाषा है, प्यारी भाषा है, मन-आत्मा की भाषा है लेकिन सत्ता-सम्मान और समृद्धि की भाषा नहीं है.

अँगरेज़ी बोलकर पृष्ठभूमि की खाई को पाटा जा सकता है, अँगरेज़ी न बोलने पर आज के बाज़ार में पैसे देकर भी इज़्ज़त से सामान ख़रीदना मुहाल है. रौब से अँगरेज़ी बोलने पर ही बड़े लोग फ़ोन पर आते हैं. दुनिया का सारा ज्ञान अँगरेज़ी की किताबों में है जिनका जूठन घटिया हिंदी अनुवाद के ज़रिए उन लोगों तक पहुँचता है जिन्हें परिस्थिति की मार की वजह से अँगरेज़ी नहीं आती या जिन्होंने अँगरेज़ी की ताक़त से ऊपर न सीखने की इच्छाशक्ति को रखा है.

भारत में कोई भी ऐसा पेशेवर क्षेत्र नहीं है जहाँ आप अँगरेज़ी जाने बिना ठीक तरीक़े से काम कर सकें, राजनीति पेशा तो है लेकिन वहाँ व्यवस्था के अनुरूप ठीक तरीक़े से काम करना ज़रूरी नहीं है इसलिए उनके उदाहरण यहाँ रहने दीजिए. छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी पत्रकारिता में डेस्क पर काम करने वाले अनेक लोग 'स्टेट ऑफ़ द आर्ट' जैसे जुमले का अनुवाद 'कला की अवस्था' करके पर्याप्त शर्मिंदगी झेलते रहते हैं.

मैंने अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई हिंदी माध्यम से की है, अँगरेज़ी से आतंकित भी रहा हूँ. अँगरेज़ी भारत में निश्चित रूप से आतंक और अलगाव की भाषा है लेकिन वह भारत की अपनी भाषा हो चली है, बहुत हद तक वैसे ही जैसे लातीनी अमरीका में स्पैनिश या उत्तरी अफ्रीका में अरबी.

अँगरेज़ी को रौब की भाषा की तरह इस्तेमाल करने पर मेरे गंभीर एतराज़ हैं, वैसे भारत में हिंदी का ठीक अँगरेज़ी जैसा इस्तेमाल बस्तर-विदर्भ से लेकर उत्कल-कोल्हान तक होता है. यहाँ सवाल भाषा की राजनीति का नहीं बल्कि शोषण की राजनीति का है, उसका तो हर हाल में विरोध होना चाहिए लेकिन अँगरेज़ी का निर्रथक विरोध करके कोई सार्थक काम करने की कोशिश करना समंदर में साइकिल चलाने की कल्पना करने जैसा है.

इस तेज़ी से ग्लोबलाइज़ हो रही दुनिया में अगर कोई भाषा है जो आपको बाक़ी संसार से जोड़ सकती है और जिसके सीखने के लिए आपको अपेक्षाकृत बहुत कम प्रयास करना होगा तो वह अँगरेज़ी ही है. यक़ीन मानिए कि आप अँगरेज़ी बोलकर शोषण-दमन का विरोध कर सकते हैं जो हिंदीवालों से नहीं हो रहा, कम से कम ब्रितानी-अमरीका अख़बार अरुंधति रॉय की तरह उनके लेख तो नहीं छाप रहे.

हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ हिंदी संसार ज्ञान के लिए लगभग पूरी तरह अँगरेज़ी पर निर्भर है, ऐसे में अच्छा यही होगा कि अपनी अँगरेज़ी ठीक करें, भले ही काम हिंदी में करते हों लेकिन अँगरेज़ी न सीखने का हठ क़दम-क़दम पर भारी पड़ेगा, अगर करियर बनाने की आकांक्षा न हो, तब भी.

हिंदी में लिखने-पढ़ने का आग्रह बहुत अच्छा-आवश्यक और अर्थपूर्ण है लेकिन अँगरेज़ी को त्याज्य बनाकर जो भी लिखा-पढ़ा जाएगा वह बच्चन, अज्ञेय, फिराक़, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी... जैसा नहीं हो सकेगा. अँगरेज़ी से डरकर, अँगरेज़ी वालों को देखकर हीनता की ग्रंथि सहलाने से बेहतर बेहतर विकल्प है एक सरल-सरस भाषा सीखना.

बाक़ी आपकी मरज़ी, पढ़तन सो भी मरतन, ना पढतन सो भी मरतन...

14 टिप्‍पणियां:

  1. अंग्रेज़ी को अब किनारे करना सम्भव नहीं.. वह ग्लोबल भाषा बन चुकी है.. हम भाग्यशाली हैं कि अंग्रेज़ी से एक्स्पोज़्ड हैं.. चीनियों का सोचिये.. वे हिन्दुस्तानियों को बुला बुला कर अंग्रेज़ी सीख रहे हैं.. ताकि विश्वमंच पर सबकी बराबरी में खड़े हो सकें..

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  2. aapki baat se sau feesad ittefaaq... jise angrezi mein kahte hain: i m agree with you...

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  3. सही बोले, मास्‍साब.. आपके यहां अंग्रेजी ट़्यूशन का क्‍या रेट चल रहा है? अविनाश के लिए पूछ रहा हूं!

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  4. आपने बहुत सही विमर्श प्रस्तुत किया है1 हमें जान लेना होगा कि अंग्रेजी के प्रति हमारा रवैया हमारी दुराग्रहपूर्णता से उपजा है या हमारी हीनता ग्रंथि से ! कोई भी भाषा उतनी ही सुंदर है जितनी हमारी अपनी भाषा ! अंग्रेजी का औपनिवेशिक चेहरा अभी भी बरकरार है लेकिन साथ ही एक भाषा के रूप में उसका साहित्य भी उससे जुडा है ..जो उतना ही पठनीय है जितना विश्व की किसी अन्य भाषा का साहित्य ..

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  5. जरूरी नहीं कि हम अपनीं भाषा को अच्छा दिखानें के लिये दूसरी भाषा को नीचा दिखायें ।
    अंग्रेजी से भागनें से कुछ हासिल नहीं होनें वाला , अंग्रेजी को जानना और उस का सही स्थान पर प्रयोग करना हिन्दी के प्रति अपमान क्यों माना जाये ?
    अच्छे सवाल उठाये हैं आप नें अपनें लेख में ।

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  6. बहुत ही अच्छा लिखा, आपके विचार पढ़ कर लगा जैसे ये मेरा ही लिखा हो।

    अंग्रेजी जानना आज के दौर में अत्यंत आवश्यक है। कुछ लोग हिन्दी प्रेम का अर्थ अंग्रेजी विरोध के तौर पर लेते हैं, यह संकुचित मानसिकता है। अंग्रेजी बिना कम से कम कैरियर में तो सफलता मुमकिन नहीं।

    हाँ अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी को कमतर समझने की मानसिकता का मैं विरोधी हूँ।

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  7. हिन्दी प्रतिक्रिया की भाषा है. हिन्दी दरअसल उर्दू के विरोध में गढ़ी गई भाषा है. इसीलिए ऑकवर्ड है. इसीलिए उसके शब्द बरतने में खुद हिन्दी भाषी शर्मा जाते हैं और खुद को दूसरे हिन्दी भाषियों से अलग दिखाने के उपक्रम में उन्हीं शब्दों के प्रयोग पर खिसियानी हँसी हँसते हैं.

    उदाहरणार्थः- इसी शब्द को लें. बातचीत में अगर अपनी बात समझाने के लिए आप कहेंगे उदाहरणार्थ तो खुद ही झेंप जाएंगे और फिर सहारा लेंगे मसलन और यानी का. एक फ़ारसी और एक अरबी का शब्द.

    इसलिए हिन्दी की तो बात ही न करें महाशय. बात करनी है तो ब्रज भाषा की की जाए या फिर उर्दू की. उर्दू के समझदार लोगों ने हमेशा इस बात को स्वीकार किया है कि उर्दू खेमे यानी बाज़ार यानी लश्करों की जबान है. उसमें इस्लाम की श्रेष्ठता का आग्रह हो सकता है मगर भाषाई पवित्रता आग्रह कतई नहीं रहा.

    अँगरेज़ीः- आपने अँगरेज़ी से आतंकित होने की बात कही. ये आतंक भाषा नहीं बल्कि साहब वर्ग का आतंक है. नई दिल्ली में अपने कुत्ते को डॉगी और कुतिया को बिच की बजाए शी डॉग कहने वाली पुलिटिकली करेक्ट सुकन्याएँ अपने सौंदर्य से अधिक अपनी अँगरेज़ी से आतंकित करती हैं.

    जैसे पुराने ज़माने में ऐसा ही आतंक फारसी को लेकर साहब वर्ग ने बुन लिया था और कहावत बनाई -- हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या. अब आम जन जब कान काटने पर उतारू हुए तो इस तरह व्यंग्य-वमन कियाः पढ़ें फारसी, बेचें तेल, ये देखो किस्मत का खेल.

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  8. Kha gaye ham pratikriyavadiyon ki pratikriya? Jai Jantantra !! Jai Jan Sevak !!

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  9. पढ़तन सो भी मरतन, ना पढतन सो भी मरतन.
    सच है भाई. अंगरेजी के संदर्भ में हमारे भारतीय समाज की स्थिति यही है. इसके लिए मूल रुप से जिम्मेदार हमारी राजनैतिक व्यवस्था है. हिंदी के मामले में आज भी उसमें कोई इच्छाशक्ति नहीं है. कभी होगी भी, ऐसा भी नहीं लगता है.

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  10. मैं सहमत हूं। हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश की पहली परीक्षा अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की होती है। जो अंगेजी नहीं सीखेगा वो जी नहीं बन सकेगा। हुज़ूर का ज़ अंग्रेज़ी के ज़ी से बनता है। हिंदी ठीक है मगर अंग्रेजी के बिना नहीं।

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  11. अनामदासजी, हमारे दिल की बात आपने कह डाली। आपकी लेखनी से और भी सुथरेपन से निकली और सौ टंच खरी-खरी। आपने बहुत अच्छा लिखा है। अंग्रेजी ही नही किसी भी भाषा से वैर भाव बेमानी है। आपकी पहचान समूचे संस्कार बनते हैं। कम से कम कोई भाषा आपकी समूची पहचान पर खतरा बनकर नहीं मंडरा सकती। हर भाषा एक नेमत की तरह होती है। भाषा के पंखों पर सवारी करना आ जाए तो शायद हम देवदूतों से बेहतर हो जाएंगे। क्योकि तब स्वर्ग की छोड़िये ये धरा ही इतनी सुंदर लगेगी। भाषा के ज़रिये भी तो मनुश्य ही को तो समझना है ?

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