06 अगस्त, 2007

हमारी अपनी ज़बान की साठवीं बरसी

हमारी हिंदी, जिसे हम इतना प्यार करते हैं अपंग है, वह जन्म से विकलांग नहीं थी लेकिन उसका अंग-भंग कर दिया गया. वह बहुत बड़ी सियासत का शिकार हुई, अभी वह बड़ी हो ही रही थी कि 1947 में उसके हाथ-पैर काटके उसे भीख माँगने के लिए बिठा दिया गया.

करोड़ों लोगों की भाषा क्या हो, कैसी हो, उसमें काम किस तरह किया जाए, इसका फ़ैसला रातोरात दफ़्तरों में होने लगा. राजभाषा विभाग बना और लोग उस अपंग की कमाई खाने लगे जिसका नाम हिंदी है. ऐसा दुनिया में कहीं और नहीं हुआ.

ठीक ऐसा ही ताज़ा-ताज़ा पैदा हुए पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी हुआ, वे जिस्म के कुछ हिस्से काट लाए थे बाक़ी सब अरबी-फ़ारसी वाले भाइयों से माँगने थे, उन्हें किसी तरह जोड़ा जाना था. पाकिस्तान जहाँ कोई उर्दू बोलने वाला नहीं था वहाँ उर्दू राष्ट्रभाषा बनी. पंजाबी, सिंधी, बलोच, पठान सबको उर्दू सीखना पड़ा. ऊपर से तुर्रा ये कि उर्दू का देहली, लखनऊ या भोपाल से कोई ताल्लुक नहीं है, वह तो जैसे पंजाब में पैदा हुई थी.

इधर भारत में मानो 'सुजला सुफला भूमि पर किसी यवन के अपने पैर कभी रखे ही नहीं, इस पावन भूमि की भाषा तो देवभाषा संस्कृत है. यहाँ सब कुछ पवित्र-पावन-वैदिक है, विदेशी आक्रमणकारी आए थे, कुछ सौ साल बाद मुसलमान और क्रिस्तान दोनों चले गए, अपनी भाषा भी वापस ले गए, हम वहीं आ गए जहाँ इनके आक्रमण से पहले थे, इन्हें बुरा सपना समझकर भूल जाओ'...ऐसा कम-से-कम भाषा और संस्कृति में मामले में कभी नहीं हुआ. न हो सकता है.

भारत में सदियों से जो ज़बान बोली जा रही थी उसका नाम हिंदुस्तानी था, लेकिन मुसलमान चूँकि 'अपनी उर्दू' पाकिस्तान ले गए थे इसलिए ज़रूरी था कि जल्द-से-जल्द बिना उर्दू हिंदुस्तानी यानी हिंदी के लिए जयपुर फुट तैयार हो जाए और वह चल पड़े, इसके लिए सबके आसान काम था पलटकर संस्कृत की तरफ़ देखना. वही हुआ, ऐसे-ऐसे भयानक प्रयोग हुए कि बेचारी अपंग हिंदी दोफाड़ हो गई. एक हिंदी जो लोग बोलते हैं, एक हिंदी जो दफ़्तरों में शब्दकोशों से देखकर लिखी जाती है.

नेहरू की भाषा कभी सुनिए जो ख़ालिस हिंदुस्तानी थी लेकिन उन पर भी शायद अँगरेज़ी का जुनून इस क़दर सवार था कि उन्हें अपनी हिंदुस्तानी की फिक्र नहीं रही. देश का धर्म के आधार पर विभाजन होने के बाद समझदारी दिखाते हुए उसे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र घोषित किया गया, वहीं भाषा के मामले में ऐसा बचपना क्योंकर हुआ, समझ में नहीं आता.

भारत के विभाजन को साठ वर्ष पूरे होने वाले हैं. दुनिया का हर भाषाशास्त्री मानता है कि किसी भाषा को जड़ें जमाने में कई सौ वर्ष लगते हैं. ब्रज, अवधी, भोजपुरी के साथ अमीर खुसरो फ़ारसी मिला रहे थे, रसखान कृष्णभक्ति का माधुर्य घोल रहे थे, इनके बीच शेरशाह सूरी जैसे तुर्क-अफ़गान भी अपनी भाषा ले आए थे. इन सबसे मिलकर एक जादुई ज़बान बनने लगी जिसमें मीर-ग़ालिब-मोमिन-ज़ौक लिखने लगे, भारतेंदु-प्रेमचंद-रतननाथ सरसार-देवकीनंदन खत्री से लेकर मंटो, कृशनचंदर तक आए. एक सिलसिला बना था जो अचानक झटके से टूट गया.

एक ही रात में कई अपने शायर-कवि पराये हो गए, इधर भी-उधर भी. कई नए अंखुए उग आए जिन्होंने दावा किया कि वे सीधे जड़ से जुड़े हैं यानी संस्कृत या फ़ारसी से लेकिन उस भाषा का होश किसी को नहीं रहा जिसने उत्तर भारत में तीन-चार सौ साल में अपनी जगह बना ली थी और खूब परवान चढ़ रही थी. वह सबकी भाषा थी, जन-जन की भाषा थी, वह सहज पनपी थी, उसमें कोई बनावट नहीं थी, उसमें हिंदी-संस्कृत के शब्द थे, बोलियाँ-मुहावरे, ताने-मनुहार, दादरा, ठुमरी थी, अदालती ज़बान थी, जौजे-मौजे साक़िन, वल्द, रक़ीब, रक़बा था...क्या नहीं था.

एक ऐसी ज़बान जो मुग़लिया दौर में सारी ज़रूरतें पूरी कर रही थी और ठहर नहीं गई थी बल्कि आगे बढ़ रही थी, जिसने ज़रूरत भर अँगरेज़ी को भी अपनाया. उसमें अभी और बदलाव हो सकते थे, जो स्वाभाविक तरीक़े से होते जिनमें बनावट के कंकड़ न दिखते शायद. मगर दुर्भाग्य ये है कि देश के बँटने के साथ ही भाषा भी बँट गई और लोग एक नई भाषा गढ़ने में लग गए जो किसी की भाषा नहीं थी, नहीं रही है. यह एक बहुत बड़ी वजह है कि लोग हिंदी को मुश्किल मानकर त्याग देने में सुविधा महसूस करते हैं.

सच बात ये है कि अगर हिंदी को वाक़ई आम ज़बान बनाना है, सबकी बोली बनाना है तो उसे लोगों से दूर नहीं, नज़दीक ले जाना होगा. हिंदू हों या मुसलमान, जब कोई शिकायत होती है तो लोग यही कहते हैं कि हमें शिकायत है, फिर दिल्ली में बसों पर क्यों लिखा होता है कि "प्रतिवाद करने के लिए संपर्क करें"...

उर्दू और हिंदी से पहले एक भाषा है जिसने सारी ज़रूरतें पूरी कीं हिंदुस्तानी के रूप में, जो आज भी उत्तर भारत के रग-रग में बहती है. यह चिट्ठा उसी हिंदुस्तानी में लिखा गया है, उस हिंदी में नहीं जो 1947 में अपंग हुई उसके बाद दिन-ब-दिन इतनी बनावटी होती चली गई कि हिंदी बोलने वाला भी, लिखी हुई हिंदी को अपनी भाषा के तौर पर नहीं पहचानता.

जब पंद्रह अगस्त धूमधाम से मनाइएगा तो याद रखिएगा कि यह हिंदुस्तानी की साठवीं बरसी भी है. साझे की सदियों की विरासत के लिए अगर सिर झुकाने का जज़्बा दिल में आए तो ऐसी भाषा बरतिए जो हिंदुस्तान की है, हिंदुस्तानी है.

10 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा आपने.जिस प्रकार ए सी कमरे में बैठकर गांवो के बारे में योजना बनाने वाले हमेशा गलत योजना बनाते हैं वैसे ही हिन्दी की टांग तोड़ने वाले राजभाषा वाले भी हैं. हिन्दी एक समृद्ध भाषा है लेकिन इसे जन जन तक पहुंचाने के लिये आमूल चूल परिवर्तन करना होगा सरकारी नीतियों में. हिन्दी किसी को रोजगार दे सके इसकी व्यवस्था करनी होगी. मैने जिस दिन अपना पहला साक्षात्कार दिया था अंग्रेजी में और ढंग से बोल भी नहीं पाया था उसी दिन मैने निश्चित किया था कि अपने बच्चों को कभी हिन्दी माध्यम में नहीं पढ़ाउंगा. क्या मेरी सोच कोई बद्ल सकता है ??

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  2. बस १५ अगस्त को हिंदी मे भाषण दे कर नेता अपने हिन्दुस्तानी होने का अहसास करते है।

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  3. कुछ ऐताहिसक तथ्यों की तरफ़ हमारा ध्यान आकृष्ट करने के अलावा शायद आप और कुछ नहीं कर रहे. ख़ैर ये भी ज़रूरी है. जिस हिंदुस्तानी की बात आप कर रहे हैं उस टर्म का इस्तेमाल अब "दुनिया के पिछवाडे रहने वाले लोग करते हैं" यह मान लिया गया है. बताइये ज़रा कि जिन नेहरू जी की बात आप ने उठाई उनकी किताब का नाम हिंदी में "हिंदुस्तान की कहानी" है जबकि सेलिब्रेटेड टीवी सीरियल "भारत एक खोज" ही कहा गया. क्या इस नाम के फ़ैसले के वक़्त नेहरू की ज़बान और कंसर्ंस को समझने वाले लोग नहीं थे? हिंदुस्तान को सब्स्क्राइब करने वाले लोग हैं तो सही लेकिन थोडे बदलाव के साथ यानी "हिंदुस्थान". ज़बान को लेकर फ़्रांचेस्का ओर्सेनी कुछ निर्णायक बातें हमें-आपको बता चुकीं हैं. अगर विचार ही करना है तो उसे प्रस्थान बिंदु मान कर करने में सार्थकता है. आखिरकार ब्लॉगजगत के धर्मधुरीणों के लिये वह चर्चा आंख खोल देने वाली होगी.

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  4. अगर आपकी पोस्ट का अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहे तो लगभग कुछ ऐसा होगा

    The King is dead. Long live the King!

    बरसी ?
    यह तो मरने के बाद ही मनाई जाती है ना?
    कब मरी हिंदुस्तानी ? आप के साथ तो चल रही है।

    हिंदुस्तानी कुछ नाराज़ जरूर रही। गाँव की गोरी की तरह जबरन सूट पैंट पहनाने की कोशिश शायद इसे रास नहीं आई। पर गागरा चोली पहना कर तो देखें....होठों और उँगलियों पर थिरकती हुई चली आयेगी।
    कुछ सपने बस हिंदुस्तानी में आते हैं...जब तक यह जिन्दा है आप बरसी ना मनायें।

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  5. आत्मा को टहोकती हुई यह तकलीफ हिंदी और उर्दू को अपने दिल के नजदीक समझकर इन्हें बरतने वाले हर इन्सान ने महसूस की होगी। इन जुबानों को षड्यंत्र पूर्वक अलगाने वालों के बारे में फैसला इतिहास करेगा लेकिन इसके समानांतर कुछ बातें ऐसी भी हैं जो इस अलगाव को भाई से भाई के स्वाभाविक अलगाव जैसा बनाती हैं। सिर्फ लिपि का अलगाव एक तरफ हमें तुलसी,मीरा,कबीर, कालिदास और वाल्मीकि की तरफ ले जाता है तो दूसरी तरफ मीर, गालिब, रूमी, निजामी और शेख सादी की तरफ। किसी भी एक अकेली लिपि में दूसरी परंपरा वाले लोग या तो समाते नहीं, या बहुत ज्यादा अंड़से हुए से लगते हैं। ये सभी हमारे अपने लोग हैं, क्योंकि इन सभी को मिलाकर हमारा सामूहिक मानस बना है। इस्लाम को एक तरफ रख दें तो भी हमारी सभ्यता का इतिहास ईरानी और अरब सभ्यता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इस्लाम ने इस पुराने जुड़ाव में कुछ मायनों में दरारें पैदा कीं तो कुछ मायनों में इसे पहले से कहीं ज्यादा मजबूत भी किया। जिस समय हम इतिहास के दबाव से कराह रहे हों उस समय हमें थोड़ा सब्र भी रखना चाहिए कि यह भाई से बिरादरी बनने की दुखद लेकिन अंततः एक प्यारी प्रक्रिया है। जिस तरह की कर्री हिंदी अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध और मैथिली शरण गुप्त से लेकर अज्ञेय तक ने रची थी, उसका आज कोई नामलेवा नहीं है। कमोबेश वही हाल उर्दू का है, जिसमें चार-पांच दशक तक चुन-चुनकर घुसाए गए अरबी-फारसी अलफाज अब धीरे-धीरे खुदा हाफिज कहने की राह पर हैं। बोली हुई हिंदुस्तानी से शुद्धतावादियों का जो एतराज था, वह उनके साथ ही विदा हो चला है। जहां तक दो लिखी हुई भाषाओं का प्रश्न है, वे दो झगड़ालू बहुओं की तरह एक ही घर में ठंसे रहने के बजाय दो अच्छी पड़ोसिनों की तरह रहना जितनी जल्दी सीख लें, उतना अच्छा। काश, इन दोनों की तरक्की हो, इनके बीच हलवे, सिवइयों और दीगर शाकाहारी-मांसाहारी व्यंजनों का आदान-प्रदान होता रहे, भले ही इस दौरान दोनों के बच्चे गदर मचाते हुए आपस में छुपा-छुपौअल खेलें, या मुस्टंडे हो-होकर वक्त-बेवक्त एक-दूसरे का सिर फोड़ने में जुटे रहें।

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  6. शिक़ायत को परिवाद लिखे जाने का कारण है. सोचिए, अगर शिक़ायत लिख दिया जाएगा तो लोग समझ नहीं जाएँगे और जब समझ जाएंगे तो करने भी लगेंगे. लोग शिक़ायत करने लगेंगे तो उनका समाधान भी करना पड़ेगा. फिर पूरी व्यवस्था सुधारनी पडेगी. व्यवस्था सुधरेगी तो राजनेताओं और उनकी काली कमाई का क्या होगा? इसीलिए शिक़ायत की जगह परिवाद, काबिलियत की जगह अर्हता लादी जाती है. एक बात और, जिस कचहरी वाली भाषा की बात आप कर रहे हैं, वह भी एक जमाने में लादी ही गयी है. इस संदर्भ में चंद्रभूषण की टिप्पणी बिल्कुल सही है.

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  7. प्रेमचंद्र ने इसी हिंदुस्तानी का इस्तेमाल कर कहानी के शिल्प को एक ऍसा दर्जा दिया था जो सारे तबके के लोगों को आकर्षित कर सका था। आपके विचार मन के करीब लगे।

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  8. अनामदासजी आपने बडे सरल तरीके से अपनी बात कही है. मुझे लग रहा था कि इस मुद्दे पर टिप्पणियां ज़्यादा आएंगी पर इतनी कम टिप्पणी देख कर आश्चर्य हुआ. क्योकि किसी भी लेख को पढ़ने के बाद, टिप्पणी पढ़ना अनिवार्य हो जाना स्वाभाविक है..पर इतने तथ्यपरक लेख को पढने के बाद यही कह सकता हूं कि सटीक लिखा आपने,पर कम टिप्पणियों को देख कर लगा कि इस चिट्ठाजगत में बहुत लोग हैं जो हिन्दी हिन्दी करते रहते हैं, पर अन्दर से अभी उदासीनती की भारी चादर तान के सो रहे है...

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  9. हिंदी के असल दुश्मन हिंदी वाले ही हैं भाई। जो भाषा बोलो वही लिखो की नीति क्यों नहीं लागू की जा सकती। अगर कामयाब होगी तो हिंदुस्तानी ही होगी। तत्सम हिंदी केवल पात्रों के साथ ही जिंदा रह सकती है। जैसे अपभ्रंश इत्यादि का कुछ उदाहरण संस्कृत नाटकों में बरामद होता है वैसे ही शुद्धतावादियों की हिंदी के साथ भी होना है।
    आप अच्छा लिख रहे हैं। पर ब्लॉग की दुनिया में बहुत गंभीर होने की जरूरत नहीं है।
    मैं आप को लगातार पढ़ता आ रहा हूँ। गहरे मुद्दे पर टिप्पणियों के लिए सोचना पड़ता है। और केनल तारीफ कर देने से ऐसा लगता है कि खाना पूरी कर रहे हैं।

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