जब पढ़ाई की महत्ता समझ में आई उससे काफ़ी पहले गुरुओं का पढ़ाने से मोहभंग हो चुका था. वे उतनी ही रुचि से पढ़ाते थे जितनी रुचि से खादी ग्रामोद्योग भंडार का सेल्समैन कपड़े दिखाता है.
वर्षों के अनुभव से हमारे सारे शिक्षक जान गए थे कि जिसे पढ़ना होगा अपने-आप पढ़ लेगा, जिसे नहीं पढ़ना है वह कितना भी पढ़ाने पर नहीं पढ़ेगा. विद्यार्थियों के माँ-बाप और शिक्षकों में वैचारिक समानता थी--पढ़ना होगा तो हर हाल में पढ़ लेगा. बलभद्र पांडे सर मानो सबकी भावनाओं को स्वर देते थे--पढ़त सो भी मरतन, ना पढ़तन सो भी मरतन, तो दाँत खटाखट काहे को करतन...यह उनका व्यंग्य था शायद लेकिन सब कुछ इतना बड़ा व्यंग्य था कि यही सबसे बड़ा सच लगता था. छठी क्लास से वैराग्य का पाठ जीवन में आगे बड़ा काम आया.
इतिहास, भूगोल, हिंदी, अँगरेज़ी, समाजशास्त्र कुछ ऐसे विषय थे जिनकी पढ़ाई का मतलब था कि सब किताब खोल लें, जैसे ही पैराग्राफ़ ख़त्म हो बोल-बोलकर पढ़ने वाला छात्र बदल जाए, इस तरह पाठ समाप्त हो जाता था और जल्दी ही 'कोर्स कम्प्लीट'. विज्ञान और गणित जैसे विषयों में ब्लैकबोर्ड
साइन-कॉस-बीटा-थीटा के रहस्यों से भर जाता, फिर मास्साब कहते, कुछ न समझ आया हो तो पूछ लो. आठवीं क्लास के किसी लड़के ने कभी नहीं पूछा कि ग्रीस के पाइथोगोरस के नियम का हमें क्या करना, छठी कक्षा में किसी ने नहीं पूछा कि बंदर खंभे पर चढ़कर-फिसलकर-चढ़कर आख़िरकार कितनी देर में ऊपर पहुँचेगा या नहीं पहुँचेगा इससे हमें क्या लेना-देना. बंदर है, नहीं मन करेगा तो बीच में ही कूद जाएगा. ऐसी बात किसी छात्र ने नहीं पूछी और 'कोर्स कम्प्लीट' मान लिया गया.
सातवीं में एक विषय था जिसका 'कोर्स कम्प्लीट' घोषित नहीं किया जा सका क्योंकि उसकी कोई क्लास ही नहीं लगी थी, पता नहीं ऐसा कैसे हुआ लेकिन बहुत देर से पता चला कि "अरे, भूगोल तो रह ही गया." रघुवर प्रसाद सिंह शर्मा 'निष्कलंक' ने उस दिन पान के बीड़े के बदले एक दिन में भूगोल का
'कोर्स कम्प्लीट' कराने का बीड़ा उठाया. 'निष्कलंक' सर के कलंकों के बारे में हम छात्रों को ज्यादा पता नहीं था, उनका चोला-बाना कवियों वाला था और तीन जातिसूचक नामों के साथ एक अदद उपनाम भी था. जब बीसियों साल में एक बार विद्यालय पत्रिका का प्रकाशन हुआ था तो उन्होंने संपादक का
पद सुशोभित किया था, हम इतना ही जानते थे.
जब उन्होंने अचानक हमारे क्लास को सुशोभित किया तो हम सब चकरा गए. पान की पीक निगलकर, आँख बंद करके उन्होंने कहा, "बच्चों, भूगोल दुनिया का सबसे आसान विषय है क्योंकि यह भू- गोल है इसलिए हम चाहे कहीं से भी चलना शुरू करें, वहीं पहुँच जाएँगे. यह इसलिए भी आसान है क्योंकि हम इसी भू पर रहते हैं इसलिए सब कुछ जानना कोई कठिन बात नहीं है. इस धरती पर पहाड़, झील, झरने, जंगल हैं और सात समंदर हैं, सैकड़ों देश हैं... भारत के उत्तर में हिमालय है और दक्षिण में समुंदर... सबसे घने जगल असम और मध्य प्रदेश में हैं...आदि आदि...कोर्स कम्पलीट."
निष्कलंक सर के बारे में एक ही बात विचित्र लगती थी कि वे पान वाले की दुकान से पान के पत्ते का पेस्ट मँगवाते थे. सखुए के पत्ते में लिपटा हरे रंग का गीला गोला, इसे निगलने के बाद वे सुपारी-चूना-कत्था-ज़र्दा वाला पान भी खाते थे, यही बात हमारी समझ में नहीं आती थी. पान खाने से पहले पान की चटनी क्यों खाए कोई? कई साल बाद एक देहाती दोस्त ने बताया कि "अबे मूरख, ई तो बाबूजी भी खाते हैं, इसको भाँग कहते हैं." अब समझ में आता है कि किस तरह सर ने आँखें बंद करके सात समंदर, हिमालय और सैकड़ों देश आधे घंटे में लाँघ दिए थे. वे पूरी तरह आश्वस्त थे कि उन्होंने भूगोल का कोर्स अच्छी तरह कम्प्लीट करा दिया था.
इसी तरह विज्ञान का कोर्स कम्प्लीट कराने की ज़िम्मेदारी भोगेंद्र झा सर के ऊपर थी. वे सबसे पहले पता लगाते थे कि किसका बाप क्या करता है, इस सूचना का बहुत ही विज्ञान सम्मत प्रयोग भी करते थे. जिन्हें लगता था कि कोर्स कम्प्लीट नहीं हुआ है वे उनसे ट्यूशन भी पढ़ते थे. मेरा सहपाठी रामेंद्र
राय साइकिल पर एक झोला लटकाए चला जा रहा था, हमने पूछ लिया कि कहाँ जा रहे हो? उसने बताया, "फादर मिलिटरी में हैं न, इसलिए सर ने कैंटीन से रम मँगवाया है." मैं उसके साथ सर के दर्शनार्थ हो लिया. भोंगेद्र सर ने सफ़ाई दी कि भोग वे नहीं लगाएँगे. बोले, "घर में कोई-कोई मेहमान आता-जाता है ने, तो हम्मै खरीदने जाएं, अच्छा नै लगता है नै, हें हें हें..." उनके घर मनीप्लांट बहुत लहलहा रहा था, चलते-चलते हमने देखा काँच के गोल-गोल मटकों में उनकी जड़ें डूबी हैं. किताब में पढ़ा था कि इसी को बीकर कहते हैं.
हमारा स्कूल कहने भर को हिंदी मीडियम था, लेकिन असल में स्कूल की पढ़ाई अनेक भाषाओं में होती थी. मसलन, भोजपुरी, मगही, मैथिल, अंगिका... छपरा के चौबे सर हिंदी पढ़ाते थे. पूछते थे, "ताई कहानी का मूख पात्र का नाम बताओ बउआ." नहीं बताने पर उनकी प्रिय सज़ा थी पेट की चमड़ी खींचना या ज़्यादा नाराज़ हों तो दुखहरन गोंसाईं का प्रसाद. लेकिन सज़ा देने से पहले वे ज़रूर पूछते थे, "घर कहवाँ बा बउआ..." आरा, छपरा, सिवान, गोपालगंज, सासाराम जैसा जवाब मिला तो हल्के से गाल खींचते थे, अगर पटना, गया, जहानाबाद हुआ तो पेट की चमड़ी खींची जाती और अगर मिथिलांचल का कोई ज़िला हुआ तो दुखहरन गोंसाईं काम आते. दुखहरन गोंसाई उनकी प्रिय बेंत का नाम था.
कुछ शिक्षक थे जो मारते नहीं थे लेकिन धमकियाँ एक से एक बढ़कर देते थे. बुद्धिनाथ सर कन्या विद्यालय से ट्रांसफर होकर आए थे, तबीयत से मुलायम थे, लड़कों को पढ़ाते-पढ़ाते आदतन पूछते थे, "समझ गई न रे." नाराज़ होने पर कहते, "अतना न मारबउ के बाप नै चिन्हतो." बंगाली मोशाय
दास सर कहते थे, "बोदमाश, बोरा, बंडल शोब, कोबाड़ी में किलो के भाव बेचके तोमारा बाप को पाँच टाका देगा तो वो भी खुब खुश होगा कि कूछ तो मीला." सबसे दुबले-पतले मोहंती सर हमेशा नाराज़गी में दाँत किटकिटाते थे, कहते थे, "येहाँ हार्टअटैक होगा मेरा, मोरेगा सिर खपाके लेकिन तूम बूझेगा नेई." ऐसा लगता उन्हें सचमुच हार्ट अटैक आने वाला है.
हमारे ज़्यादातर टीचर बहुत अच्छे भविष्यवक्ता थे, वे क्लास में बता देते थे कि कौन लड़का नींबू बेचेगा, कौन भीख माँगेगा, कौन जेबकतरा बनेगा. मोटे चश्मे वाले, काले, ठिगने श्यामा सर भी वर्षों से छात्रों का भविष्य बता रहे थे, रिटायरमेंट के करीब पहुँच रहे थे. एक दिन स्कूल ख़त्म होने के बाद घर जाने से पहले सब्ज़ी ख़रीदने के लिए रुके. नींबू रुपए के चार या छह, इस पर दुकानदार से उलझ पड़े. दुकानदार ने बहुत विनम्रता से कहा, "सर, हम जो भी हैं आपकी ही की बदौलत हैं, चार-छह की क्या बात है, आप आठ नींबू ले लीजिए, आप तो आठ साल पहले बता दिये थे कि हम नींबू बेचेंगे."
'कैम्पस सब कागद करो, गुरू महिमा बरनि न जाई.' यहाँ सिर्फ़ तीन-चार का ज़िक्र हुआ, कुल 33 थे. तीन-चार को छोड़कर यहाँ सब क़ाबिले ज़िक्र हैं लेकिन लग रहा है कि हम ही कौन से दूध के धुले थे, वे भी तो बेचारे हमारे जैसे छात्रों के बनाए हुए शिक्षक थे. हमारे अपने कारनामे अगली बार... अगर आप पढ़ना चाहें.
बहुत सही. आपने तो हमें हमारे स्कूल के दिन याद करा दिये. वाकई-कोर्स कम्पलीट. :)
जवाब देंहटाएंकितने मास्टरों और अपनी कितनी शरारतों की याद दिला दी सवेरे-सवेरे!
जवाब देंहटाएंलगता है कि अब मै भी लगे हाथ अपने शिक्षको को याद कर ही डालू वैसे काफ़ी याद तो आपने दिलाही दी है..
जवाब देंहटाएंबहुत रंगीन सिच्छा हुई है आप की..
जवाब देंहटाएंये तो सरासर नाइंसाफी हुई , तैंतीस में सिर्फ तीन का वर्णन । अभी तो मज़ा आना शुरु ही हुआ था ।
जवाब देंहटाएंअध्यापकों के बद्धमूल पूर्वग्रह, उनकी बेईमानी और लालच के छोटे-मोटे किस्से,उनकी कामचोरी और उनका अपढ-कुपढपना,विद्यार्थियों को हतोत्साहित करने के उनके नायाब पारम्परिक नुस्खे , ये सब आपकी 'अंडरस्टेटमेंट' वाली शैली में भी खुल-खिल रहे हैं .
जवाब देंहटाएंmast hai guroo.
जवाब देंहटाएंएतना ओल्टा-सीधा (जादे त ओल्टे है!) नै न लिखे के चाहीं, सर? शिच्छक लोक का धोती लहरवा रहे हैं, कौनो अच्छा बात है? लंदन का पश्चिम संस्कृति में रहके, सीख के ईहे आदर्स स्थापित कै रहे हैं?
जवाब देंहटाएंआनन्द आया प्रभो।
जवाब देंहटाएंइसमें कई गुरु हमारे भी है।
बढ़िया ...लिखते रहें।
जवाब देंहटाएंह्म्म, लौटा ले गए थे आप स्कूल के दिनों में!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, मजा आ रहा है, जारी रखें!!
भाई वाह! कोर्स कम्प्लीट कराने का इतना नायाब तरीका तो लॉर्ड मैकाले के पास भी नहीं रहा होगा.
जवाब देंहटाएंआपने स्कूल के दिन याद दिला दिए। बहुत सुंदर ...अब लगे हाथ सारी स्मृतियों को खंगाल डालिए, रुकिये नहीं। लिखने लायक देश में बहुत समस्याएं हैं पर हमारे आपके लिखने से होना जाना कुछ नहीं है। तो बेहतर है यही सृजनकर्म पवित्र भाव से जारी रहे। शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएंमस्त है.... गुरु की गुरुआई वो भी ऐसी? क्या कहने.....मज़ा आ रहा है लिखते रहें...
जवाब देंहटाएंयाल्लाह!!आपको समानांतर शिक्षा शास्त्र की इतनी नायाब प्रनालियों से पढाया गया ! इहां तो तू पढ मैथड से लेकर RS और् SR मैथडों को आजमाया गया है जी ! शिक्षा की इस महान स्टीमुलस रेस्पोंस और रेस्पॉंस-स्टीमुलस थ्योंरियों को सबसे पहले कुत्तों पर आजमाया गया था फिर छात्रों पर.....
जवाब देंहटाएंzabardast tha bhi. blog pathne likhne ki prerna dene ke liye dhanyavad. likte huy dyan rakhen ki kewal hum taise nahi ghar valey bhi path rahe hain
जवाब देंहटाएंpreeti
कहां गया हमारा कमेंत ?अब बार बार नहीं लिख सकते
जवाब देंहटाएंमजेदार!
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