गरम-गरम ख़बरों को साफ़-सुथरा करके आगे बढ़ाने में अब हथेलियाँ नहीं जलतीं, सालों हो गए, आदत पड़ गई है. धमाका, धुआँ, लाशें, आँसू, बिलखते बच्चे... सब होते हैं लेकिन वे अब बेचैन नहीं करते.
इराक़, अफ़ग़ानिस्तान और इसराइल की ख़बरों ने नहीं, अफ्रीकी देश आइवरी कोस्ट की एक 'सॉफ्ट' ख़बर मेरे लिए अचानक बहुत 'हार्ड' हो गई है. इस ख़बर में चिपचिपा ख़ून नहीं है, बारूद की गंध नहीं है लेकिन मन परेशान है.
लड़ाइयाँ बार-बार हमें रौंदती हैं. कौन जीता-कौन हारा, किसने किसकी कितनी ज़मीन छीन ली, जहाँ लड़ाई हुई उस जगह का सामरिक महत्व क्या है, किस देश का कूटनीतिक रवैया क्या है, और हाँ, इस सब में कुल कितनी जानें गईं, ये सब हम जान जाते हैं. जो जानना रह जाता है वही हमारे लिए बार-बार लड़ाइयाँ रचता है.
जानना रह जाता है कि कितने आँसू बहे, कितने बच्चे ख़ाली पेट सोए, कितने अरमानों के चिथड़े उड़े, कितनी प्रेम कहानियाँ हवा में तैरती रहीं अतृप्त-विक्षत आत्माओं के साथ. कितने प्रेमपत्र, कितने शोक संदेश जो नहीं पहुँचे अपने पते तक.
आइवरी कोस्ट में यही सब हुआ, कुछ आंकड़े आए जो इराक़-अफ़ग़ानिस्तान के मुक़ाबले फीके थे, ऊपर से एक अफ्रीकी देश जहाँ बनमानुस-हब्शी-नीग्रो रहते हैं. वहीं से एक ख़बर आई है कि पाँच साल बाद वहाँ डाक की छँटाई का काम शुरू हुआ है क्योंकि किसी तरह शांति समझौता हो गया है.
आँखें बंद करिए और सोचिए! पाँच साल की डाक!
डेढ़ दिन से इंटरनेट कनेक्शन दुबई, रियाद और दिल्ली में ठीक नहीं चल रहा है, कितने परेशान हैं हम सब.
जहाँ न फ़ोन है, न नेट, वहाँ की डाक कैसी होगी, उसकी पाँच साल की कुल जमा बेबसी-बेचारगी-बेचैनी को मापने का पैमाना क्या होगा? किसी ने माँ को अपने ठीक-ठाक होने का हाल लिखा होगा जो कुछ दिन-महीनों बाद मारा गया होगा, अम्मा तक न ठीक होने की ख़बर पहुँची, न ही न होने की.
कैसी-कैसी चिट्ठियाँ होंगी, किसी में प्यार का इज़हार होगा, किसी बच्चे के जन्मदिन का निमंत्रण, किसी की टाँगे टूटने, किसी की नौकरी छूटने से लेकर न जाने क्या-क्या...सब बेकार हो चुका है अब तक. कहीं भेजने वाला बारूदी सुरंग की चपेट में आ गया होगा तो कहीं पाने वाला मशीनगन के दायरे में.
बँटी हुई सरहदों, ख़ूनी लड़ाइयों के बीच इंसान का इंसानियत से ही नहीं, इंसानों से भी रिश्ता टूट जाता है. लड़ाइयों का हिसाब करते वक़्त अगर आइवरी कोस्ट की चिट्ठियों का हिसाब नहीं हुआ तो अगली लड़ाइयों के प्रतिकार का कोई ठोस तर्क इंसानियत के पास नहीं होगा.
भाई, लिखा तो बहुत प्यारा है आपने. लेकिन अगर शीर्षक का श्रेय निदा फाज़ली को दे देते तो कई लोगों को यह भ्रम तो न होता कि यह आपकी ओरिजिनल लाइन है. ख़ैर, आजकल तो सब चलता है, है न?
जवाब देंहटाएंबडी भावुक सी दिल को छू लेनेवाली मामूली मगर गहरी बात। कहने का अंदाज दिलचस्प है।
जवाब देंहटाएंबँटी हुई सरहदों, ख़ूनी लड़ाइयों के बीच इंसान का इंसानियत से ही नहीं, इंसानों से भी रिश्ता टूट जाता है
जवाब देंहटाएंexceelent observation
विजय जी, ध्यान दिलाने के लिए बहुत शुक्रिया. निदा फाज़ली का दोहा है.
जवाब देंहटाएंमैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार
वैसे गुस्ताख़ी माफ़, मैं शीर्षक लगाने के ही धंधे में काम करता रहा हूँ. शीर्षक हमेशा से ही किताबों, कहानियों, फ़िल्मों,कविताओं, मुहावरों से जुटाए जाते रहे हैं और उनका क्रेडिट देने का कोई चलन नहीं रहा है, लेकिन शायद अब ठीक कह रहे हैं ब्लॉगिंग माहौल ज़रा अलग है.
प्यारे अनामदास जी, बहुत प्यारी सी , दिल को छूने वाले अहसास के साथ आपने लिखी है चिट्ठी की बात । अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंये जो विजय भाई ने चुटकी ली है उसे भूल जाइये। आप कौनो ग़लती नाही किए हैं। हैडिंग लगाना हमारा भी धंधा है और शीर्षक तो शीर्षक है । उस पर श्रेय सिर्फ लगाने वाले को मिलता है। जिसे सूझ जाए। अलबत्ता मशहूर लाइनें तो दिमाग़ मे कौंधती ही इसलिए हैं कि संदर्भ से मेल खाती हैं।
एक छोटी-सी चिट्ठी पूरी दुनिया है . जो सुदूर गांवों में रहे हैं -- ऐसे गांव जहां टेलीग्राम भी बोरे में आया करता था -- वे ही कुछ समझ पाएंगे पांच साल तक चिट्ठियां न छंटने-मिलने का दुख .
जवाब देंहटाएंबेहद मर्मस्पर्शी पोस्ट .
आपका लिखा पढ़ा । यह कैसी स्थिति रही होगी सोचकर ही काँप गई । ८ वर्ष पहले बिटिया जब पहली बार अकेले यात्रा कर रही थी तो उसके पहुँचने की जब खबर ना आई तो बेहाल हो गई थी । कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ । इन माँओं व टूटते बिखरते परिवारों, युद्धों में बार बार घायल, अपनों से बिछड़ते, उनकी खोज खबर न पाने वालों की सोचकर ही कहने को कोई शब्द नहीं मिल रहे ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
अनामदास जी, मेरा इरादा आपको आहत करने का हरगिज़ नहीं था. शीर्षक लगाने में मैं भी आपका ही अनुज हूँ. करीब हज़ार शीर्षक तो लगाए ही होंगे.
जवाब देंहटाएंदरअसल एक दिन निदा साहब से बात हो रही थी तो मैंने दुःख जताया कि आजकल टीवी चैनलों पर कई मशहूर शायरों की लाइनें इस तरह कोट की जाती हैं जैसे वे कोट करने वाले ने ही लिखी हों. इनमें फिल्मी-गैर फिल्मी हस्तियाँ तथा सिद्धू जैसे गाल बजाने वाले भी शामिल हैं जो अच्छे खासे शेर का वह कबाडा करते हैं कि मरहूम शायर भी कब्र में करवटें बदलने लगे. निदा साहब ने इस पर जो कहा वह यहाँ लिखने का कोई तुक नहीं है. बहरहाल...
मैं किसी भी रूप में दूसरे की चीज बिना उसे श्रेय दिए इस्तेमाल करने को उचित नहीं मानता. जब हम अखबारों या टीवी चैनलों में शीर्षक देते हैं तो वहाँ यह श्रेय देने की अक्सर गुंजाइश नहीं होती. लेकिन इस तरह की पोस्टों में इसका जिक्र आसानी से किया जा सकता है. जैसे कि उदाहरण के लिए यही कह दिया जाए कि निदा साहब का दोहा है- वगैरह...
लेकिन जैसा कि आपने ख़ुद कहा- 'शीर्षक हमेशा से ही किताबों, कहानियों, फ़िल्मों,कविताओं, मुहावरों से जुटाए जाते रहे हैं और उनका क्रेडिट देने का कोई चलन नहीं रहा है, लेकिन शायद अब ठीक कह रहे हैं ब्लॉगिंग माहौल ज़रा अलग है.'
अन्यथा न लीजियेगा. धन्यवाद!
@विजयशंकर जी (जवाब जिसे संबोधित हो उसके लिए @ का प्रयोग हिंदी ब्लॉग में पहली बार मैंने ज्ञानदत्त पांडेय जी को करते देखा,इसका क्रेडिट कृपया मुझे न दें.)
जवाब देंहटाएंचिंता न करें. आप सही कह रहे हैं, जहाँ तक संभव हो क्रेडिट दिया जाना चाहिए.
अनामदास जी,ऐसा ऑब्ज़र्वेशन पेश किया आपने कि अभी मैं यही सोच रहा था कि हम भी कितने एकांगी हो गये हैं कि अपने आस पास ही बहुत सारी चीज़ें होती हैं जिससे हम बेज़ार रहते हैं..वाकई ब्लॉगजगत में इस तरह की नज़र कम लोगों में ही है....सोच कर ही मन आहत हो उठा.कैसा हो गया होगा वहां का समाज..किसी भी समाज में इस तरह की बात मैं तो कम से कम कल्पना भी नहीं कर सकता... शीर्षक पर बहस विजय बाबू को करने दीजिये, जो बात आप कहना चाहते हैं वो हम तक पहुँच रही है यही क्या कम है,
जवाब देंहटाएंआपका ये ब्लॉग www.tehelkahindi.com पर भी पढ़ा...दुबारा से उतना ही आनंद आया..
जवाब देंहटाएंदुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार...की ना?!!
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