दू एकम दू, दू दुनी चार, दू तिया छै, दू चौके आठ...हिल-हिल के याद किया है, नए ज़माने के टू टू जा फ़ोर वाले बच्चे तो हिलते ही नहीं हैं.
अब सिर्फ़ अलीफ़ बे वाले बच्चों को हिलता हुआ देखता हूँ जबकि हमारा इस्कूल पंडित जी चलाते थे, उनमें और मदरसा वाले मौलवी साहब में एक समानता थी, दोनों को यक़ीन था कि हिल-हिलकर याद करने से दिमाग़ में बात अच्छी तरह अंटती है, जैसे मर्तबान को हिलाने से उसमें ज्यादा सामान भरा जा सकता है.
हिल-हिलकर याद करना कट्टरपंथ का नहीं, रट्टरपंथ का मसला है.
कुछ अच्छा सा ही नाम रहा होगा, मेरे पहले स्कूल का, आदर्श शिक्षा मंदिर जैसा कुछ, क्योंकि उन दिनों सेंट या पब्लिक नाम वाले स्कूल चलन में नहीं थे. मुझे जो नाम पता है, वह है आम बगइचा (बागीचा). यथा नाम तथा पता, आम के बगान के बीचोंबीच स्थित चार कमरों का खपरैल, टाट पट्टी स्कूल से बेहतर रहा होगा क्योंकि वहाँ अपना आसन ले जाने की ज़रूरत नहीं होती थी, लकड़ी के बेंच थे.
मैं अपनी क्लास का सबसे होशियार छात्र था, ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि मुझे सबसे अधिक टॉफ़ियाँ मिलती थीं. हरे-नारंगी रंग के लेमनचूस मटमैले सूती कपड़े की पोटली में छप्पर की लकड़ी से लटके होते थे. उत्तर से प्रसन्न होने पर माधो सर अपनी छड़ी से खोदकर एक टॉफ़ी गिराकर मेरा नाम लेते, बाक़ी बच्चे तरसते हुए देखते रह जाते, वह टॉफ़ी कम और ट्रॉफ़ी ज्यादा लगती.
मुझे मटमैली पोटली से अक्सर टॉफ़ी मिलती और क्लास के मटमैले बच्चों को उसी छड़ी का प्रसाद जिससे ठेलकर मेरे लिए टॉफ़ी निकाली जाती. मैं स्कूल के उन गिनेचुने बच्चों में था जो साफ़-सुथरे कपड़े पहनते थे, जिनके अभिभावकों को हमारे सर लपककर नमस्कार करते थे और जिन्हें घर में प्यार से पढ़ाया जाता था.
आम बगइचा विद्यालय की एक बात जो मुझे बेहद पसंद थी कि साल के ज्यादातर महीनों में वहाँ तक पहुँचने के रास्ते में इतना कीचड़ होता था कि प्राइमरी स्कूल का बच्चा आकंठ डूब जाए, इसलिए हमें हमेशा नाना के नौकर गौरीशंकर की कंधे की सवारी मिलती या फिर किसी की साइकिल की.
धुंधली सी याद है, बारिश के दिन थे, कोई हमें लेने नहीं आ पाया, घुटने से ऊपर नाले का पानी बह रहा था, झालो भइया (दो भाई थे, झालो और मालो) जो नाना के घर के सामने रहते थे उन्होंने हमें गोद में उठाकर घर पहुँचाया. वे हमारे ही स्कूल में पढ़ते थे, उनका असली नाम और क्लास का मुझे पता नहीं था लेकिन वे काफ़ी समय तक हमारी नज़रों में बजरंग बली जैसे बलशाली रहे. तीस साल बाद पता चला कि सचमुच बलशाली थे, बैंक लूटने के चक्कर में पटना में गोली खाकर शहीद हो गए.
पंडित जी के आम बगइचा स्कूल में लड़कियाँ भी पढ़ती थीं, इसी स्कूल में पहली बार एक लड़की से दोस्ती हुई जिसका नाम रश्मि था, उस लड़की से मैंने दोस्ती के लिए कुछ किया हो ऐसा याद नहीं है, लेकिन वह मेरे साथ ही आकर बैठती थी. मुझे जब चेचक निकला और मैं कई दिनों तक स्कूल नहीं गया तो वह अपनी माँ के साथ मुझे देखने पहुँच गई. पहली क्लास की बच्ची को मैंने अपने घर का पता नहीं बताया था (मुझे ही कहाँ मालूम था), वह स्कूल मास्टर से पूछकर किस तरह मुझ तक पहुँची होगी, अब सोचता हूँ.
रश्मि के बारे में इतना ही याद है कि उसका गोल सा, साफ़-सुथरा चेहरा था, नाक-कान ताज़ा-ताज़ा छिदवाए गए थे जिनमें वो नीम की सींक खोंसकर घूमती थी, मुझे ऐसा लगता कि उसके पापा ने अपनी सुविधा के लिए उन्हें वहाँ रखा है जब खाना दाँत में अटकेगा तो सींक उसके कानों से निकालकर दाँत साफ़ कर लेंगे. इस बात पर वह थोड़ी देर के लिए चिढ़ जाती थी.
आम बगइचा स्कूल में मैं सिर्फ़ कुछ महीने पढ़ा लेकिन बड़ी शान से पढ़ा, बाद में कथित इंग्लिश मीडियम प्राइमरी स्कूल में जाते ही मेरा हाल वही हो गया जो आम बगइचा के मटमैले बच्चों का था, शुरू के कुछ महीनों के लिए तो ज़रूर.
16 जून, 2008
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11 टिप्पणियां:
अच्छा संस्मरण है। रश्मि कभी फ़िर मिली बड़े होने पर?
ऐसे ही कुछ महीने हमने भी सरस्वती विद्या मंदिर में बिताये थे ,जहाँ कुछ महीनों में ही बेकहल आवारा काहिल और पढाईचोर हो जाने और कई बार स्कूल से बैरंग वापस ... सिर्फ इसलिये कि मास्टर साहब के किसी पारिवारिक काम की वजह से स्कूल की छुट्टी घोषित हो जाती । हमारी आवारगी और मस्ती माता पिता को देखी नहीं गई और बावज़ूद इसके कि इस स्कूल में हमें दो क्लास ऊपर दाखिला अपने ज्ञान के बलबूते मिला था ..वापस हमें राँची के मिशनरी स्कूल के रेजिमेंटेशन में , प्रिंसिपल सिस्टर रोज़लिन की प्रिय छात्रा होने की वजह से मिड सेशन , घर के बुद्धू घर को आये ..बैरंग वापस मुँह लटकाये दाखिल।
वैसी मस्ती फिर बचपन में और कभी नहीं हुई ।
आपका पोस्ट पढकर नोस्टैल्जिक हुआ जा रहा हूं..
बचपन की याद ताज़ा हो गई .सभी दोस्त उछलने कूदने लगे आंखों के सामने . दु दुनी चार पढ़ने वाले मे मै भी था .ये बात अलग है की अभी जीवन का एका एक ही पढ़ पाया हूँ . दु दुनी चार अभी नही हो पाया .धन्यवाद आपका अतीत मे पहुचाने का .
bahut achcha laga aap ka aam bagayicha school.....meri ek kavita hai sath ki ladkiyan kabhi aap ke liye chapunga....
तो... एक बार फिर से आप नॉस्टैलजिक हुए जा रहे हैं।
जब भी आप इस भाव में होते हैं, कुछ सुन्दर शब्द नई सजधज के साथ उतरते हैं।
बड़े दिनों बाद आज आना हुआ यहां, और आकर देखा.. कुछ सुन्दर शब्द फिर से खिले हैं।
इस वर्ष कम पोस्ट आयी हैं आपकी. कुछ बढाइये ना. ये रंग-ओ-बू कम ही मिलते हैं अन्यत्र.
आपका पुराना मुरीद हूँ। बहुत दिनों से गायब थे, स्कूल वाली आपकी पुरानी पोस्ट में ज्यादा रस था, ये वाला भी ठीक है लेकिन उतना मजा नहीं आया। लेकिन आप कभी भी कमाल के वनलाइनर टपका जाते है, कट्टरपंथी और रट्टरपंथी वाली लाइन जोरदार है। और लिखि
सतीश, मुंबई
Der aayad durast aayad !! Khoob aayad, zabardast aayad !!! Mausam par kabhi Banwari ke aalekh padhta tha to tvacha mein jhurjhuri hone lagti thee. Ab bhi bahut barason baad vaisa hi ehsaas hua hai. Mausam ke aur rangon par bhi likhoge?
Rajesh Joshi
हर पल गुजरने के बाद कहाँ से ओढ़ लेता है नोस्टाल्जिया की खुशबू......
बेहतरीन शैली....और स्पष्ट यादें...
हिल-हिलकर याद करने से दिमाग़ में बात अच्छी तरह अंटती है, जैसे मर्तबान को हिलाने से उसमें ज्यादा सामान भरा जा सकता है.
वाह !!!! क्या व्याख्या है ...! बढ़िया पोस्ट ..
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