मैं एक क़स्बाई आदमी हूँ. मेरे शहरी दोस्तों को मुझसे देहाती बू आती है, वे बू के साथ 'बद' उपसर्ग नहीं लगाते मगर 'खुश' भी नहीं. देहाती सहकर्मी भी पूरी तरह नहीं अपनाते क्योंकि उन्हें मुझसे शहरी बू आती है.
मैं शहरियों की बुनावट में छिपी बनावट देखता हूँ, देहातियों की सादगी से उपजी नाकामी की कुंठाएँ भी. मैं कहीं फिट नहीं होता, मगर इसका कोई मलाल नहीं है क्योंकि 'ऑब्ज़र्वर स्टेटस' का मज़ा ही कुछ और है.
भारत के जो भी रस-रूप-गंध-सुर-स्वाद मैंने जाने हैं (बॉलीवुड को छोड़कर) उनकी जड़ें हमारे खेतों में हैं. 'भारत एक कृषि प्रधान देश है,' इस बेहद घिसे हुए वाक्य में नई किताब के अनुसार व्याकरण की एक गंभीर भूल है. 'भारत एक कृषि प्रधान देश था,' या ज्यादा सही वाक्य है--'भारत एक सेवा प्रधान देश है.'
सर्विस सेक्टर के उभार के दौर में जब खेत श्मशान बन रहे हैं तो उनसे उपजी संस्कृति की गत क्या होगी? मैं पूरी निर्ममता के साथ विकासवादियों की बात मान सकता हूँ कि भारत में तेज़ी से विकास हुआ और वह इंडिया बन गया है, मॉल-मल्टीप्लेक्स हैं, फ्लाइओवर हैं, होम डिलिवरी सर्विस है, पित्ज़ा हट है, क्या नहीं है?
डोरहारे नहीं हैं, डफाली नहीं हैं, बहरुपिए नहीं हैं, नट नहीं, मदारी नहीं हैं, चाकू पर सान देने वाले नहीं हैं, सिल पर छेनी से रेखाएँ खींचने वाले नहीं हैं, कलई करने वाले नहीं हैं... जाने दीजिए, इन गंदे-मंदे लोगों के लिए ज्यादा भावुक होने की ज़रूरत नहीं है. टीवी पर एंकर हैं, कॉरपोरेट सेक्टर में एमबीए हैं, बोर्डरूम में सीईओ हैं, मैनेजिंग बोर्ड में स्ट्रेटिजिस्ट हैं, सरकार के पास टेक्नोक्रैट्स हैं...ये पहले तो नहीं थे. संस्कृति कोई ठहरा हुआ तालाब नहीं है, वह तो बहता हुआ दरिया है, परिवर्तन ही स्थायी है.
मेरी आँखों को सामने असंख्य अवसान हुए लेकिन श्राद्ध-तर्पण-तेरहवीं नहीं. जितने नए पैदा हुए उनकी छट्ठी और सोहर के गीत तो बहुत गाए गए लेकिन जो गुज़र गए उनके नाम पर आँसू बहाने का मतलब है विकासविरोधी होने का बिल्ला पहनना. जो कृषि प्रधान समाज में फ़सल कटने के मौसम में दराँती पर सान देते थे, जो होली-दीवाली पर नाप लेकर कपड़े सिलते थे, जो मकर-संक्राति पर तिलकुट बनाते थे, जो हर मेले में सिंदूर-टिकुली बेचते थे वो अब कहाँ हैं, क्या करते हैं? यह सांस्कृतिक सवाल से ज़्यादा एक मानवीय प्रश्न है. लाखों लाख लोग गुमशुदा हैं, जब आप गाज़ियाबाद में रिक्शे पर बैठें तो इन लोगों के बारे में पूछिएगा.
जिन लोगों ने भारत की संस्कृति बनाई, बचाई और चलाई वे कभी मध्यवर्गीय शहरी लोग नहीं रहे. बुनकर मुसलमान थे, चर्मकार दलित, काष्ठकार, ठठेरे, लुहार और ज्यादातर शिल्पकार पिछड़े. गीत-संगीत को चलाए रखने में हरिप्रसाद चौरसिया, बिसमिल्लाह ख़ान से लेकर तीजन बाई, लोकसंगीत में बलेसर यादव जैसों का हाथ ज्यादा रहा, नाम के आगे लगे पंडित या उस्ताद पर मत जाइएगा. गली-गली में रामलीला कौन करता है, होलिका दहन के लिए लकड़ियाँ कौन जुटाता है? ज़रा ग़ौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि शहरी मध्य वर्ग हमेशा से एक ही संस्कृति जीता रहा है, उच्च वर्ग में दाख़िल होने की योग्यता हासिल करने का रिहर्सल.
बस बात इतनी है कि देहाती, ग़रीब, अँगरेज़ी शिक्षा से वंचित व्यक्ति इस बुरी तरह से तिरस्कृत-बहिष्कृत,दीन-हीन-मलिन पहले शायद कभी नहीं रहा इसलिए जो उसकी संस्कृति है वह किस तरह बचेगी, क्योंकि सवाल यही है कि उसका तबक़ा किस तरह बचेगा?
'ज़माना बहुत बदल गया है,' यह हर ज़माने का सबसे प्रिय डॉयलॉग रहा है. मगर जाते हुए ज़माने की विदाई इतनी बेरुख़ी से पहले कभी नहीं हुई. किसी ने भर्राए गले से इतना तो कहा होता--जाओ शिकंजी-लस्सी-आमरस तुमने बहुत साथ दिया फ़िलहाल पेप्सी पीने दो, या जाओ मोचीराम तुमने बहुत जूते गाँठें लेकिन अब रीबॉक-एडिडैस-नाइके ही जमते है या जाओ टेलर मास्टर अब तो हम पीटर इंग्लैंड पहनते हैं...इंडिया के इस विकास में कितने लोगों को फोन सुनने का काम मिला और कितनों की आख़िरी पुकार अनसुनी रह गई, यह एक गंभीर बहस का मुद्दा है.
दस-पंद्रह वर्षों में मेलों का देश मॉलों का देश, कारीगरों का देश एसईज़ेड का देश, किसानों का देश कॉलसेंटर का देश बन गया. इस पूरे प्रक्रिया का जो हिस्सा नहीं है, वह कहीं नहीं है. इस प्रक्रिया ने एक झटके में महानगरों की विकासोन्मुख परिधि से बाहर जो कुछ भी है सबको निंदनीय, शर्मनाक और डाउनमार्केट बना दिया.
डाउनमार्केट समाज के खान-पान, तीज-त्योहार, बोली-बचन, गीत-संगीत, रीति-रिवाज़ सब ऐसे हो गए कि उससे किसी तरह का रिश्ता रखना अपमानजनक-सा हो गया है. किसान से किसी तरह का संबंध ग्लोबल हाइट्स से गिराकर कीचड़ में लथेड़ देता है. किसान को व्यवस्थित तरीक़े से मिटाया जा रहा है. खाद और ट्रैक्टर के विज्ञापन के अलावा आपने टीवी पर आख़िरी बार किसान कब देखा है? अगर देखा होगा तो प्रधानमंत्री के दौरे की वजह से विदर्भ का किसान देखा होगा जिसका भाई आत्महत्या कर चुका है.
संस्कृति, वह भी भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ भी दावे से कहने की हिम्मत मुझमें नहीं है. मगर इतना तो तर्जुबे से समझ में आता है कि जो हेय, तिरस्कृत, पिछड़ा हो वह 'कल्चर्ड' नहीं होता, उसकी कोई संस्कृति होती होगी लेकिन वह अपनाने लायक़ नहीं होती, सीखने-समझने-सराहने लायक़ नहीं होती. अगर ऐसा नहीं होता तो लोगों को सोमालियाई, भूटानी, लात्वियाई या चिलियन संस्कृति के बारे में कुछ पता होता. संस्कृति सिर्फ़ सफलता की होती है.
देश 'सफलता की राह' पर है इसलिए इंडियन कल्चर पहले से कहीं ज्यादा वाइब्रेंट है क्योंकि वह उन तीस करोड़ लोगों का कल्चर है जो फादर्स डे, मदर्स डे, वेलेन्टाइंस डे, फ्रेंडशिप डे, परंपरागत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. हैप्पी होली, हैप्पी दीपावली, हैप्पी दशहरा, हैप्पी राखी के एसएमएस और कार्ड भेजते हैं. अगर अगले कुछ वर्षों में भारत में हैलोवीन और थैंक्सगिविंग डे नहीं मनाए गए तो मुझे आश्चर्य अधिक होगा और थोड़ी खुशी भी.
संस्कृति के बारे में कोई वैल्यू जजमेंट कभी नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है कि जो कुछ देहाती है वह सब अदभुत और अनुकरणीय है और जो महानगरीय है वह निकृष्ट है. मिलने से पहले फ़ोन करके सुविधा पूछ लेना, सॉरी-थैंक यू, एक्सयूज़ मी बोलना, मुँह खोलकर डकार न लेना, जम्हाई लेते समय मुँह पर हाथ रखना, नाक में ऊंगली न घुसेड़ना, इधर-उधर न खुजाना...ये तो अच्छी बाते हैं. मुद्दे की बात सिर्फ़ इतनी है कि क्या ग्रामीण-खेतिहर परिवेश से आने वाले व्यक्ति को तमाम गुणों के बावजूद वह सम्मान मिलेगा जो उससे कम योग्य-कुशल-ज्ञानी-सक्षम शहरी व्यक्ति को मिलता है.
हमारे समाज में जातिवाद, रुढ़िवादिता, अंधविश्वास कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो आधुनिक मानवीय मूल्यों के ख़िलाफ़ हैं और हर तरह से निंदनीय हैं. मगर और भी बहुत है जो इस देश को भारत बनाता है, सबसे जुदा, सबसे ख़ास. हमारी दार्शनिक अदा (भोग के दर्शन के अलावा भी), हमारी श्रृंगारिक रुमानियत (बॉलीवुड के परे भी), आत्मा को छूने वाली वास्तु-मूर्ति-चित्र कला, हृदय को झंकृत करने वाला संगीत, नदियों-पेड़ों-जानवरों को पूजनीय बना लेने वाली हमारी सबके प्रति कृतज्ञता, काटने वाली चींटियों को भी आटा खिलाने वाली सह-अस्तित्व की संस्कृति. यह सब पूरी तरह से ख़तरे में है क्योंकि ये ग्लोबल कल्चर में कहीं फिट नहीं होता.
फिट तो वही होगा जो मशीन के नाप का हो. फैक्ट्री और एसेंबलीलाइन वाले सिस्टम में अलग होना किसी काम नहीं, बहुत बड़ी मुसीबत है. मैकडॉनल्डस पित्ज़ा हट और बर्गर किंग को शेफ की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि हर बर्गर एक ही स्पेसिफ़िकेशन का होता है, किसी दिन ज़रा करारा बर्गर माँगकर देखिए.
बहरहाल, मैं कोई अलबेला आदमी नहीं हूँ, रेडीमेड कपड़े पहनता हूँ, कोक-पेप्सी पीता हूँ, देहाती लोग कहीं टकरा जाएँ तो इज़्ज़त से पेश आता हूँ लेकिन गाँव-देहात से कोई सीधा सरोकार नहीं है. मगर मन में एक टीस है, दर्द है, बेचैनी है, भारत के 60 करोड़ से ज्यादा लोगों के बारे में सोचकर दिल दुखता है. उनके बारे में टीवी से नहीं, पत्रिकाओं से नहीं, अख़बारों से नहीं बल्कि उन लोगों से पता चलता है जो नई सेवा प्रधान वर्ण व्यवस्था के शूद्र हैं. ड्राइवर, अपार्टमेंट के सिक्युरिटी गार्ड, सुबह-सुबह बालकनी में अख़बार फेंकने वाले...वे बताते हैं कि गाँव में क्या हो रहा है, वे बताते हैं कि तीन भाई झुग्गी में रहते हैं, माँ-बाप सूखे खेत अगोरते हैं. आपको हो न हो, मुझे तो दुख होता है.
लोगों के मन में कल-कल बहती विकास की इस धारा के प्रति अपार श्रद्धा है लेकिन वह जिन तटबंधों को तोड़ आई है, जिन लोगों को बहा ले गई है उनके प्रति कोई संवेदना नहीं है. यह मेरे दुख को दोहरा कर देता है, ग्लोबलाइज़ेशन के हर सुंदर फल का आस्वादन मैं करता हूँ लेकिन वह मुझे आह्लाद के बदले अवसाद से भर देता है. क्या ये मेरी व्यक्तिगत समस्या है?
निश्चिंत रहिए, कुछ नहीं छूटेगा। जो भी काम का होगा, हमारी सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करेगा, वह पूरी धमक से लौटेगा, पुराने न सही, नए रूप में। आप सूफियाने या निर्गुण टाइप गानों की वापसी को क्या कहेंगे? हमारी सांस्कृतिक धरोधर हमसे कोई नहीं छीन सकता। वह नए में समाहित रहेगी। हां, इसके लिए चिंता करते रहना चाहिए।
जवाब देंहटाएंनहीं यह सबकी समस्या है, जो भी गांव से जुड़ा है उसका दिल आपकी तरह से दुखता है.
जवाब देंहटाएंअनामदास जी , आज पहली बार आपके लेख में एक पत्रकार की जगह एक साहित्यकार हावी होकर बोल रहा है ! देश से बाहर रहकर देश की अंतरात्मा से गहरा लगाव होना आपके लिखे की विशिष्टता है ! बनाए रखें यह जज्बा ..! बाकी फिर कभी...
जवाब देंहटाएं"...क्या ये मेरी व्यक्तिगत समस्या है?"
जवाब देंहटाएं--------------------
नहीं बन्धु, यह समस्या नहीं, यह मात्र नोस्टाल्जिया है.
लेख पढ़कर विचारने के अलावा कुछ किया नहीं जा सकता.सभ्य संस्कृति का अनुकरण क्या केवल दिखावा नहीं है. इस पर पहले भी विचार किया था..फिर सोचने के लिये मसाला मिल गया. क्या कोई है बीच का रास्ता.
जवाब देंहटाएंदेर से आए लेकिन बहुत-बहुत-बहुत दुरुस्त आए। आगे कहना यह है कि बड़े लोगों के लिए गांव-देहात या पुराने पेशों में लगे लोग भले ही कितने भी गंदे और भदेस क्यों न हों लेकिन बतौर बाजार, कमाई करने के लिहाज से वे उतने बुरे भी नहीं हैं। नतीजा यह है कि भोजपुरी फिल्मों, देहाती मॉलों, और बड़ी-बड़ी कंपनियों के बनाए सस्ते-मंदे सामानों के इर्द-गिर्द एक समानांतर उपसंस्कृति भी रची जा रही है। यह भदेस के और ज्यादा भदेसीकरण का अद्भुत नमूना है और इसपर अलग से काम करने की जरूरत है। दस-पंद्रह साल पहले भोजपुरी इलाकों में नथुनी के गानों के कैसेट बजते थे तो बुजुर्ग लोग हाथ से इशारा करके कहते थे कि हम उठ जाएं तब इसे बजाना। लेकिन आज भोजपुरी गानों के नाम पर जैसी सीडी बसों में बजती है उसे सुन लें तो शायद नथुनी ही उठकर भाग खड़े हों!
जवाब देंहटाएंखोपड़ी ही उलट जाए तो क्या कहें और किसको कहें? इस विकास का विरोध करनेवाले गर्त में तो नहीं जाएंगे. उस दिन का इंतजार है जब विरोध का ज्वार उठेगा.......
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत अच्छा लिखा है...पूरी ईमानदारी, प्राधीकार और विश्लेषणातमक प्रकरण सहित लिखा आलेख...बहुत प्रभावशाली....
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह सोचने को प्रेरित भी करती हुई....
आपके आलेख से कुछ निष्कर्श जो निकलते हैं.....
• भारतीय संस्कृति इन्डियन कल्चर से बहुत भिन्न है
• इन्डियन कल्चर ग्लोबलाइसेशन की देन है
• ग्लोबलाइसेशन की वजह से भारतीय संस्कृति के रखवाले देहाती, ग़रीब, अँगरेज़ी शिक्षा से वंचित व्यक्ति का तबक़ा किस तरह बचेगा?
• ग्लोबलाइज़ेशन के हर सुंदर फल का आस्वादन करने के बावजूद वह आह्लाद के बदले अवसाद का कारण बनता है....कम से कम आप के लिये।
आपका लेख पढ़कर मानने का मन करता है कि ग्लोबलाइसेशन वह विलेन है जिसने भारत की संस्कृति को सुला दिया, किसानों को आत्महत्या पर मज़बूर किया और भारत के निम्नतर वर्ग को गुमशुदा कर दिया।
बहुत ही सहज सा विश्लेषण नही है यह.... !!
अगर ग्लोबलाइसेशन नहीं होता तो.... डोरहारे होते, डफाली होते, बहरुपिए होते, नट होते, मदारी होते, चाकू पर सान देने वाले होते, सिल पर छेनी से रेखाएँ खींचने वाले होते, कलई करने वाले होते....मध्य वर्ग भी निम्न वर्ग में शामिल होता...और नौस्टालजिया नहीं होता...वर्तमान का कैसा नौस्टालजिया!!
भारत के आम मध्य वर्ग के लोग जिनके पास पूंजी के नाम पर सिर्फ शिक्षा और हुनर है उसे देश में तो नहीं....बाहर भी मौका नहीं मिलता। उन्हे सपनों का अधिकार नहीं मिलता।
सही है....चलते चलते भेड़चाल पर उतर आये हैं....ब्रैन्ड, कोक पेप्सी, पहनावे और डेय्स सेलिब्रेट करने को हम काफी मान्यता देने लगे हैं....पर सिर्फ किसी कल्चर को अपनाने से अपनी संस्कृति तो नहीं मर सकती।
आप बेहद संवेदनशील और समझदार भारतीय लगते हैं.... फिर भी कहते हैं,
“मैं कोई अलबेला आदमी नहीं हूँ, रेडीमेड कपड़े पहनता हूँ, कोक-पेप्सी पीता हूँ, देहाती लोग कहीं टकरा जाएँ तो इज़्ज़त से पेश आता हूँ लेकिन गाँव-देहात से कोई सीधा सरोकार नहीं है।“
जहाँ तक मैं समझती हूँ यह एक व्यक्तिगत समस्या है। कोई भी देश आपको आपके देश के सिलवाये कपड़े पहनने के लिये अवमानना नहीं करता, कोक पेप्सी पीने की कोई मजबूरी मुझे नहीं दिखाई देती....और गाँव से अपने सरोकार दूर रखने की जरूरत भी नहीं।
निम्न वर्ग भारतीय संस्कृति के लिये बहुत हद तक जिम्मेदार हैं....किन्तु यह घरोहर भी उन्होने मजबूरी में ही सँभाली थी।उनके पास रोज़गारी का दूसरा और कोई मार्ग भी नहीं था।
हम जरूर मजबूरी में नहीं ....बल्कि सोच समझ कर....अपनी संस्कृति को बचाने का फैसला कर सकते हैं।
संस्कृति के शतरंज के खेल में निम्न वर्ग का पैदल जितना ही महत्व है....सचमुच इसे बचाना हो तो सही चाल चलनी होगी....
यह सिर्फ हाथों की नहीं...सही विचार, जज़्बात और इरादे की माँग रखता है....
और भारतीय संस्कृति सिर्फ खान पान, रहन सहन और पहनावा नहीं है...यह तो आप भी मानते हैं....संयुक्त परिवार, माँ बहन का सम्मान और बुजुर्गों को मान....ऐसी पूरी एक वैल्यू सिस्टम है जो कहीं भी कोई भी अपना सकता है। हम में से हर एक इस संस्कृति को बचाने की इकाई हो सकते हैं।
हाँ बद से बदतर होती किसानों की हालत....इसके लिये भी समाधान होना चाहिये।
अनायास ही अमुल की याद आ जाती है....एक सही सोच जिसकी पहुँच गाँव से ग्लोब तक है...
शायद जरूरत हमें भारत को ग्लोबलाइस करने की है।
हमेशा की तरह आपकी लेखन शैली मन को छूती है।
जवाब देंहटाएंइस लेख को पढ़ते हुए मन में जो खयालात उभर रहे थे बहुत हद तक उसे अनिल जी, चंद्रभूषणजी और बेजी ने शब्दों की शक्ल दे दी है ।
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आपका पोस्ट पढ़ कर अच्छा लगा.बेजी ने पहले ही इतना कुछ लिख दिया है कि अब क्या बोलूं ? फिर भी इतना जरुर कहूँगी कि यह आपकी व्यक्तिगत समस्या नही बल्कि हर उस व्यक्ति की समयस्या है जो छोटे शहरों , कस्बों और गांवों की दुनिया से बाहर निकल कर आया है , अपनी जमीन से जिसे गहरा लगाव है और जो सामाजिक संक्रमण के इस दौर का गवाह है .ध्रीरे -ध्रीरे हमें इसकी आदत हो जाये. draft by tanivi 10/1/07 Delete
Edit टिप्पणी draft by tanivi 8/28/07 Delete
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साहेब इसकी अगली कड़ी नहीं लिखियेगा क्या......
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