किसी भी देश की विदेश नीति में कोई नैतिकता नहीं होती, कुछ ज़्यादा नंगे होते हैं, कुछ कम नंगे. नग्नता एक सांस्कृतिक प्रश्न है. अमरीका वाले जितने नंगई कर सकते हैं ब्रितानी उतना नहीं करते, लेकिन हैं सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे.
भारत चट्टा है या बट्टा आप तय कर लीजिए, मगर है तो उसी थैली में.
सबको अगर अपना फ़ायदा देखना है तो नैतिकता कौन देखे?
'मेरे पिया गए रंगून' पर भारत आज भी थिरक रहा है, रीमिक्स के साथ. कितने लोगों को इसका ख़याल है कि बर्मा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हमसाया है. वहाँ सैनिक शासक लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, इंटरनेट सहित हर संचार माध्यम पर रोक लगाकर, बौद्ध भिक्षुओं के सिर में गोली मारकर.....
भारत चुप है.
संयुक्त राष्ट्र से लेकर चीन तक के बोलने के बावजूद भारत चुप है क्योंकि उसके मुताबिक़ यह बर्मा का आंतरिक मामला है, आंतरिक मामला इसलिए है क्योंकि बर्मा के पास प्राकृतिक गैस का प्रचुर भंडार है जिस पर अमरीका, फ्रांस के अलावा भारत की भी नज़र है. पड़ोसी है इसलिए पाइपलाइन आ सकती है.
पाइपलाइन राष्ट्रहित में है. किसकी नैतिकता कब उसके अपने हित में हुई है?
जब से दुनिया ग्लोबलाइज़ हुई है, भारत सहित सबको समझ में आता है कि अमरीका ही रोल मॉडल है जिसने कंबोडिया, सऊदी अरब, चिली, इराक़ से लेकर बर्मा तक में तानाशाहियों को पाला-पोसा और भरपूर दुहा है. भारत भी उसी राह पर चल रहा है.
नैतिकता की परीक्षा हमेशा लालच के परिप्रेक्ष्य में होती है, भिखारी के कटोरे से उछली चवन्नी वापस दे देना ईमानदारी नहीं है. ईमानदारी नोटों का बंडल लौटाने पर होती है.
अमरीका की विदेश नीति के नैतिकता-निरपेक्ष होने पर भारत के लोगों ने वक़्तन-फवक़्तन शोर मचाया लेकिन अपने देश की विदेश नीति के बारे में उनका रवैया आम अमरीकी से कहाँ अलग है?
क्या यह भी याद दिलाना होगा कि नैतिकता एक उच्च मानवीय आदर्श है जिसकी वजह से दुनिया अब भी कुछ हद तक रहने लायक़ है.
अगर सिर्फ़ फ़ायदा ही देखना है तो 'अल क़ायदा' और 'अल फ़ायदा' में से कौन कम बुरा है, तय करना मुश्किल है.
तेल भी मिले तो गनीमत. कई बार तो दोनो नहीं मिलते - न माया न राम.
जवाब देंहटाएंइस बर्मा के मामले पर तो हमें भी खराब लग रहा है.
यह कुछ ऐसी ही बात है कि हमारे पड़ोस में कोई संकट आ जाये और हमें कहा जाये कि हमारे घर पर सेंध नहीं लगाई जायेगी। हम इसलिए चुप रह जाएँ कि हमारा घर तो सुरक्षित है.....जब तक हमारे हित सध रहे हैं सब कुछ सही है. चूंकि भारत को भी बर्मा से नेचुरल गैस चाहिए , इस लिए चीन के साझा हितों के नाम पर भाईचारा कायम किया जा रहा है। बर्मा में जो चल रहा है, उसे समझने के लिए दिलीप मंडल के ब्लोग 'रिजेक्ट्माल' को पढा जा सकता है. कम से कम हम ब्लोग्स के ही माध्यम से ही सही , जो चल रहा है चलने दो की राजनीति और नैतिकता विहीन विदेश नीति के खिलाफ अपना विरोध तो दर्ज़ कर ही सकते हैं .
जवाब देंहटाएंबर्मा ही क्यों अनाम्दास जी, पकिस्तान-बंगलादेश-चीन भारत के तीन तरफ तो घोषित या अघोषित रूप से लोकतंत्र की ऎसी-तैसी ही की जा रही है. और यह देश किस मुँह से लोकतंत्र की बात करेगा जहाँ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक एक अर्धदेशी सल्तनत की विदेशी उत्तराधिकारिणी द्वारा नियुक्त किए गए हों. मुझे खुशी होती है, कम से कम वहाँ की जनता में तो इतनी नैतिकता है. यहाँ तो हम भी सो गए हैं.
जवाब देंहटाएंBharat ka aam aadmi buniyadi suvidhaon ke liye kabse aawaaz uthata raha hai jo aap videsh neeti ke bare mein aisi umeed rakhte hain?
जवाब देंहटाएंAmerica ke silsile mein jo ho halla hota hai wo bhi tathakathit budhdhijeeviyon aur raajnetaaon ki den hai.
Bharteey lahza yahi hai ki chai ki dukanon mein, train ke dibbon mein, daftaron ke kakshon mein in vishayon par bahas kar lo aur chup chaap ghar jaakar TV mein cricket match dekho.
Waise internet par burma mein ho rahi loktantra ki hatya ke khilaaf hastakshar abhiyan zari hai aur log ise apna samarthan de rahe hain.
roman mein likne ke liye kshama prarthi hoon .
मेरे पिया गए रंगून ... को हमने काफी दिनों तक दिल में बसा के रखा पर आज जब बर्मा के संबंध में हमें चिंतन करने एवं उसकी सहायता करने की बारी आई है तो सारी चिंतायें तेल लेने चली गई । आपके जैसे विचार को हमारे भाई शुभ्रांशु चौधरी जी जो बीबीसी के पूर्व पत्रकार हैं, नें अपने बासी में ऊफान सीरिज के कालम में बहुत बढिया तरीके से सिलसिलेवार प्रस्तुत किया है कृपया आप एवं अन्य पाठक इसे जरूर पढे, मैं प्रयास करूंगा कि आपके इस चिंतन एवं शुभ्रांशु भाई के विचारों पर एक पोस्ट लिखूं ।
जवाब देंहटाएंआपके सदप्रयासों के लिए धन्यवाद ।
आपकी चिंतायें जायज हैं।
जवाब देंहटाएं"भिखारी के कटोरे से उछली चवन्नी वापस दे देना ईमानदारी नहीं है. ईमानदारी नोटों का बंडल लौटाने पर होती है."
जवाब देंहटाएंइस एक वाक्य से ही पूरी तस्वीर साफ़ हो जाती है. दरअसल राष्ट्रवाद एक महामारी है जिसके सिम्टम्स विदेशनीति के अंध समर्थन में ढूँढे जा सकते हैं.
बहुत बेहतर लिखा है. साथ ही ये भी बता दूँ कि आपका पिछला लेख एक पढ़ चुका हूँ और एक लंबी बहस की तवक्को रखता हूँ.
बहुत बेहतर काम है -- जारी रखा जाए.
sahi baat hai bhai. Barma Pakistan ki baat wo kare jiske paas roti kapda aur makaan ho. american logon ka kya hai. unko Bush ki neetiyaan pasand nahi aati to sabke sab sadak par aa sakte hain, unko chinta thode hi na hai ki shaam ke khane ka jugad karni hai.
जवाब देंहटाएंaur waise dekhein to Gut Nirpeksha andolan se Bharat ko mila kya? thenga. Jab jaroorat thi tab kis desh ne hamara saath diya? Ab ye mat kahiyega ki Chin ne thodi bahut zameen le li to halla machane wali kya baat hai? desh wesh sab faltu ki baatein hai.
"भारत की नैतिकता गई तेल लेने" क्या मस्त टाईटल दिया है आपने ..आप तो बहुत ही अच्छा लिखते है ...मैं आपको पढ़ नही पाया.पर अब तो रोज़ ही आपके चिट्ठे पर आना पड़ेगा....
जवाब देंहटाएंRaj Yadav
http://rajy.blogspot.com
भाई बौद्ध भिक्षुओं को मारनेवाली बात किसे विचलित करेगी ......सत्ता की लड़ाई में यह सब होता ही है। लेकिन लोक तंत्र का जाप करनेसाले मुल्कों का चुप रहना शर्मनाक है....
जवाब देंहटाएंये नैतिकता क्या है भाई!
जवाब देंहटाएंबाहरी दबाव से एडजस्ट करने की नीति है विदेश नीति। भारत की विदेश नीति अब ठेकेदारी में कमीशन हासिल करने की नीति है। बकवासबाजी की हद है विदेश नीति
जवाब देंहटाएंवस्तुतः खरी खरी।
जवाब देंहटाएंachha likha hai.maza aya padhkr.wastav me ye globlization ka yug.kevel aarthik unnati ka poshak hai.yha zazbaat aur neetiyo ya naitktao ko koi jaah nahi.bharat nhi apne un aadarsho aur naitikta wadi adarsho se peeche hatne par mazboor hai.
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