अभय तिवारी के उछाले सवाल--आप नास्तिक हैं या आस्तिक--का आसान जवाब है कि मैं भ्रमित हूँ, और जो भ्रमित नहीं हैं वे पूरी दुनिया को भ्रमित कर रहे हैं.
अस्ति (संस्कृत-है), नास्ति (नहीं है) के मत-मतांतर पर बहुत मंथन हो चुका है लेकिन बेचारे भ्रमित के पास भी बहुत कुछ कहने को है ईश्वर के बारे में, मगर उसकी सुनता कौन है? फ़ितरतन लोग अपनी पसंद का जवाब चाहते हैं, आस्तिक सुनना चाहता है ईश्वर है और नास्तिक उसका उल्टा. मैं बिना किसी भ्रम के कहना चाहता हूँ कि मैं भ्रमित हूँ क्योंकि मुझ जैसों को भरमाने में कोई क़सर बाक़ी नहीं छोड़ी है शास्त्रों, शास्त्रियों और अनीश्वरवादियों ने भी. मौजूदा स्थिति ये है कि जब मुसीबत होती है तो भगवान याद आता है वर्ना उसके होने और न होने के तर्क दिमाग़ को मथते हैं.
एक शायर ने कहा--'कोई तो है जो निज़ामे हस्ती चला रहा है, वही ख़ुदा है.' शायद ठीक बात है, हम सिर्फ़ पाँच इंद्रियों से (जिनकी बड़ी स्पष्ट सीमाएँ हैं) इस दुनिया को देखते-जानते-समझते हैं इसलिए भ्रमित हैं. यहीं से एक तर्क पनपता है कि ईश्वर को तर्क-वितर्क से नहीं पाया जा सकता क्योंकि हमें उसी ईश्वर ने इतनी क्षमता नहीं दी है कि हम उसे यूँ ही समझ लें.
मैंने एक पहुँचे हुए स्वामीजी से पूछा कि "अगर ईश्वर ही सब तय करता है तो हमें पाप-पुण्य क्यों होता है, उसके आधार पर जन्म-पुनर्जन्म क्यों होता है." उनका जवाब था--"बच्चा, ईश्वर ने मनुष्य को विवेक दिया है जो अन्य जंतुओं को नहीं दिया है इसलिए वह पाप-पुण्य का ज़िम्मेदार है." मैंने पूछा-- "तो फिर उसने सबको बराबर-बराबर विवेक क्यों नहीं दिया." उन्होंने कहा, "यह तो ईश्वर पूर्वजन्म के कर्मों के हिसाब से तय करता है."
यानी ईश्वरप्रदत्त विवेक के हिसाब से कर्म हम करें, कई जन्मों तक उसके फल भी हम ही भोगें, वह हर जन्म में विवेक की वोल्टेज फ्लकच्युयेट करता रहे और उसकी पूजा भी जारी रहे. ये क्या बात हुई.
अस्तु, न मैं आस्तिक हूँ, न नास्तिक हूँ, भ्रमित हूँ. मुझे मेरे भ्रम से ईश्वर ही निकाल सकता है, और वह ऐसा करेगा इसके आसार नहीं हैं.
आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार है.
अगला प्रश्न ये है कि क्या ईश्वर पूजनीय है? अगले ब्लॉग में....
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7 टिप्पणियां:
मंथन अच्छा है. लगे रहिये.
वाह अनामदास जी,
आते ही आपने अच्छी बात शुरु करी । ऐसे मै तो "घोर आस्तिक" हूँ लेकिन नास्तिकों का भी सम्मान करता हूँ । हर किसी को अपना रास्ता चुनने का हक़ होना ही चाहिये ।
ये बात सही रही आपकी...
"यानी ईश्वर प्रदत्त विवेक के हिसाब से कर्म हम करें, कई जन्मों तक उसके फल भी हम ही भोगें, वह हर जन्म में विवेक की वोल्टेज फ्लकच्युयेट करता रहे और उसकी पूजा भी जारी रहे. ये क्या बात हुई"
यँहा पर एक अवधारणा (कॉन्सेप्ट) आता है इच्छाशक्ति का भी जिसके बारे मे डिटेल मे नही लिख सकता अभी । ऐसे आपको स्वामी विवेकानन्द के विचार कैसे लगते हैं इस बारे मे । उन्हे भी अवश्य पढ़ना चाहिये ।
मैं भी घोर आस्तिक हूँ, यद्यपि कर्मकांडी नहीं हूँ। मेरा भी अभिषेक की तरह मानना है कि सबको अपना रास्ता चुनने का हक होना चाहिए। अगर कोई नास्तिक है तो मुझे कोई दिक्कत नहीं पर वह बंदा आस्तिकों के खिलाफ न हो।
मैं भ्रमित हूँ क्योंकि मुझ जैसों को भरमाने में कोई क़सर बाक़ी नहीं छोड़ी है शास्त्रों, शास्त्रियों और अनीश्वरवादियों ने भी. मौजूदा स्थिति ये है कि जब मुसीबत होती है तो भगवान याद आता है वर्ना उसके होने और न होने के तर्क दिमाग़ को मथते हैं.
सच है, ये लाइने दिल के आर-पार हो गयी। यूं तो मै भी ईश्वर मे कुछ खास विश्वास नही रखता, ना की किसी तरह की मूर्ति-पूजा और कर्मकांडों में। लेकिन मै प्रकृति को ही ईश्वर मानता हूँ।
लीला की भी एक अवधारणा है...वह परमपुरुष अपने विलास के लिए माया की रचना करता है.. और खेल शुरु हो जाता है..वो भी एक दार्शनिक उलझाव है.. उसे भी परखिये कभी..
खैर ..आप वमन कीजिये.. हम देख रहे हैं क्या क्या निकालते हैं..
भ्रम ही ब्रम्हा है।
आपका यह भ्रम बना रहे .. आमीन ।
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