पत्रकार चिट्ठा क्यों लिख रहे हैं, सवाल अच्छा है. अगर मैं ठीक समझा हूँ तो प्रश्न के मूल में शायद ये बात है कि जब नौकरी के क्रम में ही इतना लिखते, छपते, दिखते और बकते हैं तो फिर चिट्ठाकारिता में टाँग अड़ाने की क्या ज़रूरत है.
जो टीवी पर लाखों ड्राइंगरूमों में नज़र आ रहे हैं, जो लाखों सर्कुलेशन वाले अख़बारों या पत्रिकाओं में छप रहे हैं, उन्हें ब्लॉग लिखने की क्यों सूझी? यह सवाल ऐसा नहीं है जिसे आप "हम लिखेंगे, तेरा क्या?" कहकर टाल दें. सवाल में दम है लेकिन पत्रकारों की तड़प का आभास नहीं है.
हमारे मुहल्ले का सबसे सफल हलवाई मिठाइयाँ, समोसे-कचौरी बनाने के बीच समय निकालकर अपने लिए रोज़ तवे पर चार फुल्के ज़रूर सेंकता था, बचपन में हम सोचते थे कि यह पागल तो नहीं, ढेर सारी तरह-तरह की मज़ेदार खाने-पीने की चीज़ें बनाता है और अलग से मेहनत करके सूखी रोटियाँ क्यों खाता है.
बात अब समझ में आती है, बेचारा हलवाई मिठाइयाँ तो बाज़ार की ज़रूरत पूरी करने के लिए बनाता था लेकिन उसे संतुष्टि फुल्के खाकर ही होती थी. अब पड़ोस की किसी चाची ने तो उससे कभी नहीं कहा, "फुल्के हम घर की औरतें बनाती हैं, तू तो अपनी कचौरियाँ ही खा."
नई पीढ़ी के ग्लैमर के मारे बंटियों और बबलियों को छोड़कर ज्यादातर पत्रकार, ख़ास तौर पर हिंदी वाले, हिंदी-पट्टी के क़स्बों से मध्यम और निम्म मध्यमवर्ग से आए हैं. जब वे इस पेशे में आए थे तब न चमक-दमक थी, न पैसा. ज़्यादातर आए सिर्फ़ इसलिए क्योंकि दिमाग़ के कीड़े ने बेहाल कर रखा था, कुछ रचनात्मक करना है, कुछ लिखना-पढ़ना है, समाज को समझना और बदलना है वग़ैरह...
बहरहाल, उन्हें कुछ समय बाद समझ में आया कि वे तो समाचारों की फैक्ट्री में काम करते हैं, उनके पास ख़बर को समझने-परखने, लिखने-छाँटने-सँवारने का हुनर भले हो लेकिन जिस ब्रांड-चैनल के लिए वे काम करते हैं उसके तौर-तरीक़े बाज़ार तय करता है या वे लोग तय करते हैं जो पूंजी और सत्ता के खेल में आगे रहने के लिए बाक़ी धंधों के अलावा मीडिया का चाबुक भी अपने हाथ में रखना चाहते हैं. बात मुख़्तसर इतनी कि वह सब कुछ करता है लेकिन जो करने का अरमान लेकर आया था वही धरा रह जाता है.
बहुत से पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लेखन की शुरूआत अख़बारों में संपादक के नाम पत्र लिखने से की है. ब्लॉग उसी का एक बेहतर रूप है, बेहतर इसलिए कि संपादक के पास भी हक़ नहीं है आपके चिट्ठे को छापने या न छापने का, अपने ब्लॉग के मालिक आप हैं. अगर आप क्रिएटिव हैं, सवाल खदबदाते हैं, मन बेचैन रहता है तो उस तड़प से राहत पाने का ब्लॉग एक सुगम रास्ता है.
किस मीडिया हाउस का मालिक होगा जो कहेगा, "बेटा, अपनी बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए जो सही लगता है लिखो, दिखाओ". बेचैन होना सबका जन्मसिद्ध अधिकार है. कोई भी बेचैन हो सकता है लेकिन पत्रकार थोड़ा ज्यादा हो सकता है क्योंकि दुख-दर्द, पीड़ा-उत्पीड़न, हिंसा-प्रतिहिंसा, साज़िश-वहशत सब उसके लिए महज ख़बर है जिन्हें वह रोज़ थोक के भाव रिपोर्ट, पैकेज, पीटीसी, पैराडब, एंकर स्क्रिप्ट...दो कॉलम, चार कॉलम और बॉटम जैसे नामों से प्रॉसेस करता है. मजबूरियाँ कई तरह की हैं, वह सचमुच क्या सोचता है उसे पूरी ईमानदारी से दिखाने-सुनाने की गुंजाइश कतई नहीं है.
यही वजह है कि लगभग सभी गंभीर पत्रकार 40 तक पहुँचते-पहुँचते पत्रकारिता को कोसते हुए किताब लिखने के मंसूबे बनाते हैं जिनमें से दो से पाँच प्रतिशत तक कामयाब होते हैं, बाक़ी कुढ़ते हैं या शराब में बूड़ते हैं.
कुछ लोग इस बात से चकित हैं कि इतने पत्रकार क्यों ब्लॉग लिख रहे हैं लेकिन मैं तो सोच रहा हूँ जिन्हें नाज़ है क़लम पर वो कहाँ हैं. बहुत कम पत्रकार ब्लॉग लिख रहे हैं, शायद उन्हें मालिक की चक्की पीसने से फ़ुरसत नहीं है या फिर उन्हें अभी माध्यम के तौर पर ब्लॉग की ताक़त और उसके मज़े का अंदाज़ा नहीं है. ब्लॉग लिखने की ज़रूरत शायद हर दूसरे पत्रकार को देर-सवेर महसूस होगी.
जिन रवीश कुमार को भारत के लाखों लोग स्पेशल प्रोग्राम करते हुए प्राइम टाइम पर देखते हैं उनके ब्लॉग सिर्फ़ 30-35 लोग पढ़ रहे हैं फिर भी वे लिख रहे हैं तो उसकी वजह यही है कि बाज़ार-चालित जनसंचार का एजेंडा और उसके सरोकार अलग भी हैं और शायद संकरे भी. ऐसे में जिनको मालिक की पूरियाँ तलने के बाद अपनी संतुष्टि के लिए अपना फुल्का सेंकना है वे और क्या करें.
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9 टिप्पणियां:
झकास! बहुत सही अनामदास जी, एकदम वाजिब और संतुलित तरीके से अपनी बात रखी आपने। मान गए।
आपने हलवाई की बात की, भई हलवाई फुलके अपने लिए बनाए, खुद खाए, दूसरों को भी निमन्त्रण दे। फुलके अच्छे होंगे तो शायद लोग भी खाने आएं। लेकिन ये क्या, कि अपने फुलके को को फुलका, दूसरे के फुलके को नक्शा बोलना। फिर फुलका बनानें की परिभाषा पर ही सवाल उठाना। थोड़े दिनो बाद, अपनी दुकान का प्रचार करना और कहना कि फुलका बनाया तो आजतक ’कल्लू हलवाई’ ने ही। उसके पहले तो कभी फुलके बने ही नही। ये तो गलत है ना। ऐसे मे पड़ोस की चाची को हलवाई को दस बातॆं सुनाएगी ही ना? कोई बुढी ताई तो शायद गरिआ भी दें।
इसलिए सभी अपने अपने फुलके बनाएं, दूसरे के फुलके मे नुक्स ना निकालें। सभी अपने अपने घर मे खाना खाएं। कभी कभार मिलकर पिकनिक भी करेंगे। एक दूसरे के फुल्को की तारीफ़ भी।
सफ़ाई से रखा अपना पक्ष.. बहुत सही..
आपने बेजी जी के सवाल को सही परिदृश्य में रखकर अपनी बात कही है । पत्रकारों की पीड़ा को इस पोस्ट के माध्यम से हम तक पहुँचाने का शुक्रिया ।
"...ब्लॉग लिखने की ज़रूरत शायद हर दूसरे पत्रकार को देर-सवेर महसूस होगी..."
पत्रकार ही क्या, मेरे विचार में ब्लॉग की जरूरत हर प्रोफ़ेशन के हर दूसरे व्यक्ति को होगी. मोबाइल-से-ब्लॉग जैसे औजारों ने इसे और आसान बनाना प्रारंभ कर दिया है.
गर्मागर्म बहसें ब्लॉगों के जरिए तो होने ही लगी हैं...
बेहद माकूल जवाब और अच्छा स्पष्टीकरण.
हां! पत्रकार ब्लॉग की इस जन-यात्रा में सहयात्री बन कर आएं,तारनहार बन कर नहीं . मुगालता किसी भी काम में अच्छा नहीं होता .
ऊपर जीतू जी और प्रियंकर जी की टिप्पणी से सहमत हूँ। पत्रकारों का क्या सभी का ब्लॉगिंग में स्वागत है। बल्कि हम तो रात दिन लगे ही इसी कोशिश में हैं कि अधिक से अधिक लोग हिन्दी ब्लॉगिंग में आएं। लेकिन ऐसा तो ठीक नहीं न कुछ भाई यह समझें कि बस वे ही समझदार हैं और हम सब निपट गंवार।
अनामदार जी, रचनाशीलता एक परन्तु अकेला कारण नहीं दिखता। पत्रकारों को शायद हिन्दी ब्लॉगिंग में बडा बाजार भी नजर आता है।
पुनीत
HindiBlogs.com
बहुत अच्छा लिखा. इसके लिये बधाई के पात्र हैं. लेकिन अफसोस भी हुआ प्रियंकर जी के कमेंट पर. शायद उन्होंने पत्रकारिता का एक ही पहलू देखा है जिसके आधार पर उन्होंने यह कह दिया कि वे सहयात्री बन कर आएं तारनहार नहीं. उन्हें मैं यह बताना चाहता हूं पत्रकार सदैव सहयात्री ही रहे हैं. अखबार जगत के बारे में मैं बता दूं कि यहां खबरों में विचार नहीं होते हैं उसके लिए एक अलग पेज होता है संपादकीय. इसलिये पत्रकार सिर्फ खबर देता है अर्थात वह सहयात्री ही होता है. यह अलग है इलेक्ट्रानिक मीडिया ने वर्जनाओं को थोड़ा लांघा है. फिर भी पत्रकार सदैव सहयात्री ही रहा है और रहेगा.
बहुत अच्छा लिखा. इसके लिये बधाई के पात्र हैं. लेकिन अफसोस भी हुआ प्रियंकर जी के कमेंट पर. शायद उन्होंने पत्रकारिता का एक ही पहलू देखा है जिसके आधार पर उन्होंने यह कह दिया कि वे सहयात्री बन कर आएं तारनहार नहीं. उन्हें मैं यह बताना चाहता हूं पत्रकार सदैव सहयात्री ही रहे हैं. अखबार जगत के बारे में मैं बता दूं कि यहां खबरों में विचार नहीं होते हैं उसके लिए एक अलग पेज होता है संपादकीय. इसलिये पत्रकार सिर्फ खबर देता है अर्थात वह सहयात्री ही होता है. यह अलग है इलेक्ट्रानिक मीडिया ने वर्जनाओं को थोड़ा लांघा है. फिर भी पत्रकार सदैव सहयात्री ही रहा है और रहेगा.
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