पत्रकारों और चिट्ठाकारों में होड़ कैसी? पत्रकारिता चाकरी है जबकि चिट्ठाकारिता स्वतंत्र अभिव्यक्ति का उत्सव.
फिर भी बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, भाषण या ज्ञान बाँटने का आरोप लगने का डर है लेकिन लिखने का मन कर रहा है. चिट्ठाकार उन्मुक्त जी के ब्लॉग (पत्रकार बनाम चिट्ठाकार) के संदर्भ में इसे पढ़ें तो बेहतर रहेगा. संक्षेप में, ब्लॉगरों के लिए पत्रकारों जैसी सुविधाओं की बात उन्होंने उठाई है.
उन्मुक्त जी, बचपन में चौथी कक्षा में एक कविता पढ़ी थी---
हम पंछी 'उन्मुक्त' गगन के
पिंजरबंद ना गा पाएँगे
कनक तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएँगे
हम हैं बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे प्यासे
कहीं भली है कटुक निबौरी (नीम का फल)
कनक कटोरी की मैदा से...
शायद उन्मुक्त जी के नाम की वजह से याद आ गया लेकिन काफ़ी प्रासंगिक है. ख़ैर आइए मुद्दे की बात करें.
धर्म--पत्रकार का धर्म है समाचार पहुँचाना. पत्रकारिता हमारी' चौपाया व्यवस्था' की चौथी टाँग है. इस चौपाया धर्म के निर्वाह में आसानी का ख़याल करके पत्रकारों को भी कुछ नाममात्र की सुविधाएँ दी गई हैं, उसी तरह जैसे नेताओं को, जजों को और सरकारी अधिकारियों को. पत्रकारों ने ऐसा कौन सा कमाल किया है कि उन्हें आम जनता से बेहतर सुविधाएँ मिलें? सवाल वाजिब है, और मैं पत्रकारों का बचाव करने का पक्षधर कतई नहीं हूँ. कर्मठ-कामचोर, ईमानदार-बेईमान, ज़िम्मेदार-ग़ैरज़िम्मेदार का अनुपात जितना हर धंधे में है उतना ही पत्रकारिता में होगा. सांसदों, विधायकों को मिलने वाली सुविधाएँ सवालों के दायरे में रही हैं, हमेशा रहेंगी और रहनी भी चाहिए. पत्रकार भी इस दायरे से बाहर नहीं होने चाहिए. वैसे याद रखिए कि कहीं जाने-आने, बड़ी हस्तियों से मिलने की आज़ादी, कार्यक्रमों में आगे वाली कुर्सी वग़ैरह...पत्रकार को नहीं उसके पत्र या चैनल को मिलती हैं जिसकी वह नौकरी करता है.
अब व्यवस्था की पाँचवी टाँग बनकर चिट्ठाकारी की आज़ादी खोने का क्या तुक है? और चिट्ठाकारी का आनंद यही है कि उसके लिए फ्रंट रो में कुर्सी नहीं चाहिए. सबसे दिलचस्प कमेंट वही करते हैं रामझरोखे बैठकर सबका मुजरा लेते हैं.
मर्म--पत्रकारिता बाज़ारवादी-लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक हिस्सा है जिसका अपना शक्ति संतुलन है. पत्रकारिता की अपनी सत्ता संरचना (हायरआर्किकल ऑर्डर), दबाव, मजबूरियाँ और लोभ-लाभ हैं. यानी आप जो चाहें, जब चाहें, जैसे चाहें जनता तक नहीं पहुँचा सकते. पत्र या चैनल की नीति, हित-अहित, वैचारिक आग्रह-दुराग्रह पत्रकार की वैचारिक स्वतंत्रता की सीमाएँ तय करते हैं. यही वजह है कि पंख पूरी तरह खोलकर उड़ान भरने की हरसत में दूसरे पंछियों के साथ पत्रकार प्रजाति भी चिट्ठाकारिता का रुख़ करती है.
आप मालिक, संपादक, उप-संपादक की क़ैंची से अपने डैने क्यों कटवाएँगे? है किसी की मजाल जो आपके चिट्ठे को एडिट करे, नारद में आप फ्रंट पेज पर छपते हैं, कोई आपकी रचना को कूड़ेदान में नहीं डालता या सातवें पन्ने पर कोने में नहीं धकेलता.
शर्म--अपने पेशे से जुड़ी जनता की उम्मीदों को ठीक से समझने वाले पत्रकार भी उतने ही शर्मिंदा होते हैं जितने ईमानदार पुलिस अधिकारी, नेता या वकील. पत्रकारिता का हाल राजनीति या न्यायपालिका से बहुत अलग नहीं है. पत्रकारिता नौकरी है जिसका निर्वाह करना जीवनयापन के लिए आवश्यक है, पत्रकार परिस्थितियों से बहुत ख़ुश न हों, तो भी. पत्रकारिता एक जटिल नौकरी है क्योंकि उसमें विचार का पक्ष दूसरे धंधों से अधिक प्रबल है.
ब्लॉगर के कोई तय दायित्व नहीं हैं जो एक आनंददायक स्थिति है, आप स्वांतः सुखाय लिख सकते हैं, दिल खोलकर, दिमाग़ खोलकर और बंद करके भी लिख सकते हैं. चिट्ठाकार के पास गर्व करने की वजहें हो सकती हैं, शर्म करने की नहीं.
पत्रकार को दूसरे पेशेवर इंसान से श्रेष्ठ या हीन मत समझिए. पत्रकारिता में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिसकी चाह ब्लॉगर कर सकते हैं, वहीं चिट्ठाकारिता में एक विशेष आनंद है जो पत्रकार पाना चाहते हैं. मगर इसका ये मतलब भी नहीं है चिट्ठाकार बेहतर हैं और पत्रकार बदतर.
होड़ में अगर चिट्ठाकार पत्रकार बन गए तो पछताएँगे. पत्रकार तो चिट्ठाकार बनकर ख़ुश हैं. फिर पिंजरबंद पंछियों से उन्मुक्त गगन के परिंदों की होड़ और बराबरी की इच्छा का क्या मतलब?
28 मार्च, 2007
पत्रकारिता के धर्म, मर्म और शर्म को समझिए
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5 टिप्पणियां:
"आप मालिक, संपादक, उप-संपादक की क़ैंची से अपने डैने क्यों कटवाएँगे?"
- अनामदासजी सिर्फ डैने काटने वाले इन तत्वों के अलावा कई बार काटने,कटवाने और जोड़ने / जुड़वाने वाले और भी होते हैं ।
जिनका समाचार छापना या न छापना हो अथवा जिनकी जिनकी बात प्रसारित करनी हो या न करनी हो-उनसे मिलने वाले नाना प्रकार के वैध/अवैध उपहार (सुना है,यह परम्परा यहीं की विशिष्टता है )प्राप्त होने की वजह से - उनकी भी चर्चा हो । पत्रकारों के द्वारा हो , कम्प्यूटरधारक चिट्ठेबाजों द्वारा भी हो । जरूर जाने दीजिए दूर तलक बात को । मण्ठा होने से मत बचाइये , जड़ में जाएगा तो बहुत कुछ नष्ट होने लायक नष्ट होगा । ज्यादातर ग्रामीण पत्रकार फिलहाल कम्प्यूटर से दूर हैं ठीक उसी कारण से जिस कारण ज्यादातर निजी और दफ़्तर में कम्प्यूटर से साबका जिनका है वे ही चिट्ठेबाज हैं ।
चलिये उन्मुक्तजी के लेख के बहाने एक और अच्छा सा लेख पढ़ने को मिला। अच्छा लगा।
मुझे लगता है कि चिट्ठाकार बनाम पत्रकार की बहस गैरजरूरी है। ब्लागिंग अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिसमें समाज की हर विधा के लोग अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं। इसमें अभिव्य्क्ति की आजादी के साथ दायित्व का टैग नहीं लगा है। जबकि पत्रकारिता एक पेशा है( समर्पित पत्रकारों के लिये मिशन )। इसमें समाज , संस्थान के प्रति जिम्मेदारी की बात भी होती है। किसी को किसी से हीन समझने की बात ठीक नहीं है। पांचवां खम्भा बनने की बात गैरजरूरी है। चौथी की कविता पढ़वाने का शुक्रिया।
आपने तो जैसे मेरे मन की बात कह दी ...आज सुबह जब चिट्ठा लिखने बैठा तो कुछ ऎसे ही भाव मन मैं थे (हाँ शब्द आपकी तरह सुन्दर नहीं थे)..कुछ लिखा भी था..पर अब लगता है उसकी जरूरत नहीं.
काकेश
ब्लॉगिंग -- चिट्ठाकारी -- 'स्वान्तः सुखाय' अभिव्यक्ति है जबकि पत्रकारिता एक व्यवसाय . व्यवसाय के यदि अपने प्रतिदान हैं तो अपनी प्रतिबद्धताएं-सीमाएं और अपने दबाव भी . जबकि चिट्ठाकार अभिव्यक्ति के सीमाहीन आकाश पर निर्बाध उड़ता स्वच्छंद पंछी है .
चिट्ठाकार यदि चाहे तो वह सच बेलाग कह सकता है जिसे बड़े-बड़े कॉरपोरेशन दबाना चाहें और बड़े-बड़े मीडिया हाउस न कहने में ही भलाई समझें .
संभवतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही वह एक मात्र कारण है जिसके चलते पत्रकार भी इस माध्यम की ओर आ रहे हैं .
बहुत अच्छा लिखा है।
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