09 सितंबर, 2007

संस्कृति यानी कल्चर, कल्चर यानी संस्कृति?

अनुवाद तक तो ठीक है, लेकिन अपने देश के संदर्भ में दोनों पर्यायवाची शब्द नहीं हैं. भारत में संस्कृति और कल्चर दोनों के अलग-अलग मतलब हैं क्योंकि भारत और इंडिया अलग-अलग हैं. जिसे भारत की रंग-बिरंगी बहुविध संस्कृति कहते हैं, वह इंडिया का वाइब्रेंट कल्चर नहीं है.

इंडिया के कल्चर का परफ़ेक्ट विजुअल आपको घड़ियों, परफ़्यूमों, सूटकेसों और बाइकों के विज्ञापन में देखने को मिलता है. एक परिवार है जिसमें सब सुंदर से लोग हैं, सब हँसते-मुस्कुराते हैं, रोने पर एक-दूसरे के आँसू पोंछ देते हैं, मोज़ार्ट की धुन पर छिपाकर प्यारा-सा गिफ़्ट देते हैं, कोई बाइक, कोई सूटकेस, कोई चॉकलेट या मारूति की चाभी...ओह ब्यूटीफुल इंडियन कल्चर...कितने विभोर हो जाते हैं हम लोग अपना कल्चर देखकर और प्यार जताने के लिए दुकान की ओर भागते हैं--'ए गिफ़्ट फॉर समवन यू लव'.

पिछली सदी में भारत का एक और स्नैपशॉट यूरोपियों-अमरीकियों ने बनाया था. जादूगरों, हठयोगियों, साँप-भालू-बंदर नचाने वालों का देश. अंधविश्वासी-अशिक्षित लोगों का देश, कौतूहल जगाने वाला देश. सारे स्नैपशॉट, टैगलाइन, पंचलाइन बेचने के लिए बनाए जाते हैं. इंडिया का नया पंचलाइन पिछले दस वर्षों से लिखा जा रहा है, 'फास्टेस्ट ग्रोइंग इकॉनॉमी', 'राइजिंग पावर', 'सुपरपावर इन मेकिंग'..

भारत का स्नैपशॉट तो वही है, इंडिया वाले से ताज़ा पेंट की बू आ रही है.

भारत अब भी गुड़ी पड़वा, घोंघा नवमी, गंगा दशहरा, मकर संक्राति और बैसाखी मनाने वालों का देश है, शादियाँ कुंडलियाँ मिलाकर होती हैं, खरमास में कोई शुभ काम नहीं होता, कुएँ पूजे जाते हैं, तुलसी-बरगद-आँवला की पूजा होती है. गाय लक्ष्मी है, कुत्ता भैरव है, लंगूर हनुमान है, हाथी गणेश हैं, साँप शेषनाग हैं...एक बहुत ही असभ्य क़िस्म का सहअस्तित्व है. आपने लंदन या न्यूयॉर्क की सड़क पर गाय देखी है, कभी पेरिस में बंदर ने आपका बर्गर छीना है?

भारत आस्था का, कृतज्ञता का, सहज विश्वास का देश है जहाँ पानी देने वाली नदी माता है, जहाँ रोग हरने वाली तुलसी पूजनीय है, वहीं गणेश जी दूध पीते हैं, समंदर का पानी मीठा हो जाता है और ज़िंदा मछली निगलने से दमा ठीक होता है...

इंडिया में ग्रोथ, प्रॉस्पेरिटी, स्टाइल और सबसे बढ़कर आर्थिक सत्ता पूजनीय है. इंडिया का क्लचर वहाँ से आता है जहाँ से उसकी प्रेरणा नहीं, बल्कि एस्पीरेशन आता है. बेस्वाद कॉन्टीनेंटल खाना हेल्थी है, बाक़ी सारे उच्चारण ग़लत हों लेकिन शेड्यूल नहीं एस्केड्यूल होता है...

एक ओर मंदिरों-मठों-मज़ारों-आश्रमों का देश है और कॉल सेंटर-बीपीओ-प्रॉसेंगिंग यूनिट-ब्लॉटलिंग प्लांट की कंट्री है.

नो फुल स्टॉप्स इन इंडिया, कंट्री ऑफ़ आयरनीज़, ए मिलियन गॉड्स एंड पैराडॉक्स...अनेकता में एकता, रंगीन गुलदस्ता वगैरह. एक अरब की आबादी, पाँच हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता, ऐसे में कोई निष्कर्ष निकाल कर मुझे अपना गला नहीं फँसाना. मगर मामला सिर्फ़ धर्म, अंधविश्वास, विकास या पच्छिम-परस्ती का नहीं है, घालमेल बहुत गहरा है.

गाँव में ज़मींदारी चलाने वाले दादाजी के दुलारे, अमरीका में पढ़े, सात्विक लेकिन मद्यपायी, विदेशी पत्नी के स्वामी, बच्चों को हिंदी सिखाने में नाकाम लेकिन हर महीने सत्यनारायण कथा कराने वाले लाखों लोग हैं, मल्टीनेशनल कंपनी के दफ़्तर के लिए जाते समय जयगणेश-राधास्वामी-नमो भगवते वासुदेवाय से लेकर झक्कड़ बाबा की जय तक बोलने वाले करोड़ों हैं, बिल्ली रास्ता काटे तो रूक जाते हैं, मंगलवार को हनुमान मंदिर जाते हैं और मन ललचाने पर चिकेन नहीं खाते, शुक्रवार-शनिवार (वीकेंड) को दिन-दिन में संतोषी माता और शनि मंदिर, रात को पब और डिस्को.

यह घालमेल मामूली नहीं है बल्कि हम सबकी ज़िंदगी ही सांस्कृतिक दृष्टि से एक विचित्र पहेली है.

भारत और इंडिया के बीच में अब भी ख़ासा इंटरेक्शन है लेकिन दोनों अलग-अलग ही हैं. भारत की संस्कृति भारत के लोगों के हाथों में हैं. न्यू इंडियावाले हर शुक्रवार को संतोषी माता को भी आर्चीज़ का कार्ड पोस्ट करने से बाज़ नहीं आएँगे और भारत वाले भी बिल क्लिंटन और बिल गेट्स को टीका लगाकर मंगलाचरण गाते रहेंगे.

कल्चर या संस्कृति का मतलब समझाना बड़े-बड़े विद्वानों के बूते के बात नहीं है, लेकिन समाजशास्त्रीय और अकादमिक दृष्टि से थोड़ा ग़लत होने की छूट दी जाए तो सारा सवाल जीवनशैली का है. भारत और इंडिया की जीवनशैली इसलिए अलग है क्योंकि दोनों के जीने का आधार अलग है.

उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी... का जाप करने वाले जानते हैं कि खेती कितनी उत्तम है,चाकरी के मौज क्या हैं. खेतिहरों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी ऐसे बात करती है मानो उनके पुरखे जरायमपेशा हों. तीन-चार पीढ़ी से शहरी रहे लोग भारतीय देश की आबादी में दो-चार फ़ीसदी भी नहीं हैं.

जितनी ते़ज़ी से अपना देश पिछले दस वर्षों में बदला है उतनी तेज़ी से बदलाव के दशक शायद पहले कभी इक्का-दुक्का ही आए होंगे. इस बदलाव ने शहरी मध्यवर्ग को बहुत काफ़ी कुछ मुहैया कराया है लेकिन उसकी क़ीमत भी हमने चुकाई है. अच्छे-बुरे का वैल्यू जजमेंट करने के बदले इरादा यही है कि बदलते भारत की संस्कृति और राइजिंग इंडिया के कल्चर पर एक गहरी नज़र डाली जाए, आप सबकी मदद से.

यह एक प्रस्तावना है, भारत की संस्कृति के ध्वजवाहकों पर अगली बार.इंडियावालों पर उसके बाद...और फिर क़स्बे वालों की बात भी...आप साथ बने रहिए तो सफ़र का मज़ा आएगा.