30 अगस्त, 2007

मन रे तू काहे न धीर धरे

असमंजस, उधेड़बुन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, उलझन, सशोपंज, कश्मकश, अंतर्द्वंद्व, डाइलेमा....कितने सारे शब्द हैं एक मनोभाव को प्रकट करने के लिए. शायद इसीलिए कि हम सब अक्सर जीवन के दोराहे, तिराहे या चौराहे पर खड़े सोचते हैं किधर जाएँ.

ये दोराहा, तिराहा और चौराहा भविष्य और वर्तमान का हो सकता है, अतीत का भी. यूँ हो तो क्या हो, यूँ हो रहा है तो क्यों हो रहा है, यूँ हुआ होता क्या होता.

मन का द्वंद्व है जो इस संसार का सारा साहित्य रचता है, यही द्वंद्व है जो हमें पतन और उत्कर्ष के अंनत में जाने से रोकता है, इस संसार के संतुलन में बनाए रखता है. अगर अर्जुन के मन में कोई द्वंद्व नहीं होता तो गीता क्योंकर होती?

मन में सवाल उठते हैं तो द्वंद्व होता है, मन में संवेदना होती है तो द्वंद्व होता है, मन में भावनाएँ होती हैं तो द्वंद्व होता है, हमारी सीमाएँ हैं इसलिए द्वंद्व हैं, समाज-नियम, रीति-रिवाज़, आशा-अपेक्षा है इसलिए द्वंद्व हैं, ज़रूरत-फ़ितरत, अपने-सपने हैं इसलिए द्वंद्व हैं. एक होता है तो दूसरा नहीं हो सकता इसलिए द्वंद्व है, दोनों हो तों भी द्वंद्व है.

द्वंद्व एक अदभुत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो हमें पागल होने से बचा लेती है और बहुत बढ़ जाए तो पागल बना देती है. द्वंद्व एक अदभुत खगोलीय प्रक्रिया है जो अपने अपने-अपने दायरे घूमते लोगों की धुरी तय करती है, तरह-तरह के खिंचाव का काउंटर बैलेंस.

द्वंद्व अच्छी चीज़ है या बुरी इसको लेकर मेरे मन में कोई द्वंद्व नहीं है. द्वंद्व अच्छा-बुरा नहीं होता वह हमारे सॉफ़्टवेयर का हिस्सा है. वही हमें बनाता है जो हम होते हैं, कुछ लोग निर्द्वंद्व होते हैं. उन्हें पता होता है कि वो जो कर रहे हैं सब सही कर रहे हैं, जो वो नहीं कर रहे हैं सब ग़लत है. द्वंद्व दुख देता है, लेकिन क्या आपने कोई संवेदनशील व्यक्ति देखा है जो निर्द्वंद्व हो? अगर आप जानते हों तो ज़रूर बताइगा.

27 अगस्त, 2007

जादू का खिलौना है, मिल जाए तो भी सोना है

कई दिनों से रैटल मेरे दिमाग़ में बज रहा है. वैसे तो वह झुनझुना है जिससे खेलना तीन साल के बच्चे को ख़ास शोभा नहीं देता लेकिन मेरे बेटे ने उसे अपने वजूद से जोड़ लिया है जैसे चर्चिल की सिगार, शरलक होम्स का पाइप, करुणानिधि का काला चश्मा, गाँधी जी की छड़ी या प्रभु के हाथों में घूमता सुदर्शन चक्र.

हरी वाली गेंद टॉम है, नारंगी वाली जेरी, दोनों गोल गोल घूमकर तेज़ी से एक दूसरे का पीछा करते हैं. यही कभी चश्मा है, कभी पिस्तौल और कभी मोबाइल फ़ोन. कभी गाना गाते समय यही माइक बन जाता है और कभी कुछ और.

शायद यही मोह की शुरूआत है, यह बहुत चकित और मोहित करने वाला मोह है. टीवी देखने वाले, नर्सरी जाने वाले, बीसियों कार्टून कैरेक्टरों को अपना दोस्त समझने वाले इस बच्चे को इस रैटल से क्या मिलता है? सारे चीनी-जापानी बैटरी वाले खिलौनों, सारे नरम-मुलायम टेडी-डॉगी को छोड़कर उसे रैटल जैसे खट-खट करने वाले प्लास्टिक इस खिलौने से प्यार हो गया है.

सोते समय, खाते समय, रेल में, बस में, बिस्तर पर, यहाँ तक कि नहाते समय और पॉटी में भी रैटल उसके हाथ में रहता है, साधु के चिमटे की तरह. उसका पास होना एक बहुत बड़ा आश्वासन है मानो वह भयानक युद्ध में अचूक अस्त्र हो या विदेश यात्रा में पासपोर्ट. वह उसे आँख से ओझल नहीं होने देता.

दो दिन पहले की बात है, कमोड पर बैठे सुपुत्र के हाथ से छूटकर रैटल सीधा अंदर गिरा जहाँ पहले से छिःछिः तैर रही थी. बहुत डाँट पड़ी, फिर मैंने निर्णय सुनाया कि फ्लश चला दिया जाएगा, रैटल का अंत हो चुका है. वह इस तरह शायद ही कभी रोता है, रोने में शोर मचाना ज़्यादा होता है, लेकिन इस बार उसकी आँखें भरीं थीं और होंठ नीचे लटक गए थे. नैपी बदलते-बदलते प्रैक्टिस तो हो गई है लेकिन कमोड में हाथ डालकर रैटल निकालना फिर भी बड़ी चुनौती थी. आख़िरकार मैंने चुनौती स्वीकार की और रैटल का भरपूर शुद्धिकरण करके उसे उसके मालिक के हवाले किया.

सोकर उठने के बाद पहला सवाल होता है, "ह्वेयर इज़ माइ रैटल?" रैटल की रट तब तक जारी रहती है जब तक प्लास्टिक की दो गेंदों वाली टिकटिकी उसे वापस न मिल जाए. रैटल के बरामद होने में जितनी देरी होती है वैसे-वैसे उसका सुर बदलता है, पहले उसे खोज देने का अनुरोध, फिर झल्लाहट, फिर विवशता, फिर गहरी बेचैनी और आख़िर में रुआँसापन. रैटल मिल जाने पर उसे जैसी खुशी होती है वैसी ख़ुशी अपनी याद्दाश्त में मुझे कभी नहीं हुई. क्या आगे कभी होगी?

घर-गृहस्थी की कई वाजिब चिंताओं पर इस समय रैटल की चिंता भारी है. है तो खिलौना, टूट जाएगा, गुम जाएगा, उसके बाद क्या होगा? यह कोई मामूली चिंता नहीं है. यह रैटल उसे किसी जन्मदिन की पार्टी में तोहफ़े के तौर पर मिला था. हम चाहते हैं कि घर की डुप्लीकेट चाभी तरह एक ऐसा ही रैटल ख़रीदकर रख लें वर्ना अनहोनी हो गई तो बच्चे का दुख भी हमसे देखा नहीं जाएगा. हम किस-किस दुख से उसे बचाने के लिए कब तक ऐसे बैकअप तैयार करेंगे?

कई बार उसने बहुत ग़लत वक़्त पर 'रैटल खोज अभियान' शुरू करने की माँग की है, लेकिन हर बार मैंने उसकी माँग पूरी की है चाहे दफ़्तर के लिए देरी हो रही हो या खाना ठंडा हो रहा हो...क्योंकि रैटल उसके लिए सिर्फ़ एक खिलौना नहीं है, वह अपने रैटल को उतना महत्व ज़रूर देता है जितना मैं अपने दफ़्तर की किसी फ़ाइल को. उसे संभालकर रखता है, उसे किसी को हाथ नहीं लगाने देता और उसे सीने से लगाकर सोता है, इससे ज्यादा प्यार कोई और क्या कर सकता है?

निदा फ़ाज़ली बहुत गहरा शेर है--"दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है". मगर इस गहराई से भी गहरा है बचपन का फ़लसफ़ा जहाँ मिट्टी के खिलौने मिल जाने के बाद भी सोने से ज़्यादा क़ीमती होते हैं. जैसे ही हम उसे सोने का मतलब समझा देंगे यह जादू ख़त्म हो जाएगा.

मुझे अपने बचपन की एक धुंधली-सी याद है जब मैं चार-पाँच साल का रहा होऊँगा, गहरे हरे रंग की प्लास्टिक की चकई (यो-यो) हमारे हाथ आई जिसे धागे से बांधकर ऊपर-नीचे चलाया जाता था, मैं किसी ऊँची जगह पर खड़े होकर उसे नचाता था क्योंकि उसका धागा लंबा था. एक बार उसका धागा बुरी तरह उलझ गया, तब वही मेरे जीवन की सबसे बड़ी उलझन थी. अम्मा ने कहा- "पापा को आने दो", पापा बहुत देर से आए उस दिन. आते ही हमने अपनी माँग रखी, उन्होंने कहा- "चलो सो जाओ, कल सुबह ठीक कर देंगे." सूरज के उगने का, मुर्गे के बोलने का, कुएँ पर बाल्टी के खनकने का, पापा के अलार्म के बजने का इंतज़ार करता रहा, ऐसा इंतज़ार कि पूरी रात आँखों में काट दी. उतनी बेसब्री से सुबह का आसरा कभी नहीं देखा.

कई बार रैटल की रट पर झल्ला जाता हूँ लेकिन जल्दी ही अपनी चकई याद आ जाती है, उसके उलझे धागे याद आते हैं तो मौजूदा उलझनों को कुछ देर के लिए भूल जाता हूँ.

17 अगस्त, 2007

होनहार विरवान के होत चिकने पात

स्थानः षष्ठ 'घ' की कक्षा
वर्षः 1980
समयः प्रात: 9.30
अवसरः नामांकन के बाद पहला दिन

गुरू-शिष्य संवाद
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सरः नाम बोले रे सब अपना-अपना
छात्र एकः अकट राय
सरः पिताजी का नाम?
छात्रः सुराज राय
सरः तुम रे? (दूसरे से)
दूसरा छात्रः विकट राय
सरः बाप का नाम?
दूसरा छात्र- रामराज राय
सर--वाह-वाह, अकट-विकट, सुराज-रामराज, ऐं, भाई है का?
पहला छात्र- हाँ सर जी, चचेरा भाई है
सर--पिताजी का करते हैं
पहला छात्र--दुहते हैं
सर--(दूसरे वाले से) और तुम्हारे?
दूसरा छात्र- जी, चराते हैं


" अउर पानी कउन मिलाता है....हैं हैं हैं हैं... क्लास खुलते ही अहीर से पाला पड़ा... हा हा हा, " क्लास-टीचर चौबे सर तोंद छलका-छलका कर हँसे, उनके साथ हम भी हँसे. सिर्फ़ वो दो लड़के नहीं हँसे जो छठी क्लास में पहली बार अपने ख़ानदान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.

हमारा राजकीय उच्च माध्यमिक बालक विद्यालय विविधताओं से भरा था, सिर्फ़ दुहने-चराने वाले ही नहीं, सवर्ण सरकारी बाबुओं से लेकर इज़्ज़तदार विधवाओं तक के बच्चे वहाँ पढ़ते थे. हमारा स्कूल भविष्य के भारत की सच्ची झाँकी प्रस्तुत करता था. इंडिया उस वक़्त भी था लेकिन उसके अस्तित्व का कोई ठोस आभास हमें नहीं था.

सेंट नाम वाले पास के स्कूलों में भी बच्चे पढ़ते थे जिनके लिए उनके माँ-बाप मोटी फ़ीस भरते थे. हम ये नहीं जानते थे कि उन्हें क्या-क्या आता है लेकिन हम बहुत अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें क्या-क्या नहीं आता. मसलन, मार-पीट करने, पेड़ पर चढ़ने, तालाब से मछलियाँ पकड़ने, कीचड़ में फुटबॉल खेलने, ट्रक से उतरती बोरियों में से मूंगफली और इमली निकालने, उल्लू बनाने, गालियाँ बकने और क्लास से भागकर फ़िल्म देखने में हमारी उनसे कोई होड़ नहीं थी, वे क़ाबिलेरहम थे.

इन क़ाबिलेरहम बच्चों ने अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए हमें बताया था कि उनके स्कूल में प्रार्थना नहीं, बल्कि प्रेयर होती है. आसमानी कमीज़ और नीले हाफ पैंट वाले मेरे आधे सहपाठी कभी प्रार्थना के समय पर स्कूल ही नहीं आए, जो आए उनमें से अनेक जन-गण-मन की धुन पर सिर्फ़ होंठ हिलाते थे मगर आवाज़ नहीं निकलती थी, ढेर सारे ऐसे भी थे जो जन-गण-मन की धुन पर 'जानेमन जानेमन '... गाते.

जानेमन गाने की वजह पड़ोस की हरियाली थी, आधे से ज़्यादा लड़के सावन के अंधे बने घूमते थे क्योंकि उन्हें बालिका विद्यालय की हरी-हरी पोशाक के सिवा कुछ नज़र नहीं आता. बालक विद्यालय के होनहार पूरे वक़्त रामानारायण कन्या पाठशाला के बारे में बातें करते. कुछ निर्द्वंद्व थे और कुछ के भीतर गहरे द्वंद्व थे, दो ही श्रेणियाँ थीं. कुछ की बहनें वहाँ पढ़ती थीं और कुछ की नहीं. वैसे स्कूल आने-जाने के लिए ज़्यादातर लड़के 'हरियाली वाला रास्ता' ही चुनते थे.

हमारा स्कूल सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत के ठीक विपरीत था. अंदर आने का रास्ता एक ही था लेकिन वहाँ से निकलने के रास्ते अनेक थे. घर की तरफ़, बाज़ार की तरफ़, अप्सरा टॉकीज़ की तरफ़, कन्या पाठशाला की तरफ़.... हर ओर जाने के शॉर्टकट स्कूल की बाउंड्रीवाल में मौजूद थे जिनका भरपूर लाभ सभी उठाते थे.

हमारा अपने समाज में घुलना-मिलना और उससे जीवन जीने का ढंग सीखना हमारे कई शिक्षकों को नहीं भाता था. लंचब्रेक के बाद बड़ी तादाद में आसमानी कमीज़ और नीली हाफ़पैंटें अलग-अलग शॉर्टकटों से निकलकर शहर में तैरने लगती थीं. इसे रोकने की नाकाम कोशिश में हमारे कुछ विध्नसंतोषी शिक्षकों ने लंच के बाद भी हाज़िरी का प्रावधान शुरू किया, जो ग़ायब पाया गया उसे जुर्माने के तौर पर अठन्नी भरनी पड़ेगी.

डार्विन के सिद्धांत को सच साबित करते हुए लड़के हमेशा मास्टरों से एक क़दम आगे चलते. जिन्होंने नून शो की योजना बनाई होती वे सुबह की हाज़िरी के बाद ही क्लास रूम का रुख़ करते या वहाँ बैठकर भी चुप रहते. कई बार ऐसा होता कि क्लास में चालीस लड़के हैं और टीचर ने सिर्फ़ तीस नामों के आगे निशान लगाया, फिर गिनती की और झल्लाकर बोले, " यस सर बोलने में नानी मरती है?" लड़कों ने मन ही मन कहा, "अठन्नी लगती है."

दूसरा परिणाम ये हुआ कि लंच के बाद की हाज़िरी के समय कई लड़के बेहतरीन मिमिकरी आर्टिस्ट बन जाते और मास्साब निशान तीस नामों के आगे लगा देते. जब गिनती करते तो पता चलता कि दोस्ती का फ़र्ज़ निभाने लिए फ़र्ज़ी हाज़िरी यानी प्रॉक्सी हो रही है, आख़िर सबको अपनी अठन्नी बचानी थी. मगर कई बार किसी दोस्त की अठन्नी बचाने के लिए बेंत खानी पड़ती लेकिन वह लेन-देन का सौदा था.

लेन में सर का सोंटा तो देन में फिलिम की कहानी. "एक ग़रीब लड़का बना है जीतेंद्र और अमीर लड़की है रेखा"....टाइप कहानी सुनकर हमारे कई साथी बेंत की मार को सार्थक मान लेते. तीन सिनेमाघर स्कूल से सौ क़दम की दूरी पर थे, लंच के बाद भागकर फिलिम देखने का फ़ायदा ये था कि ठीक स्कूल की छुट्टी के समय बेचारा बच्चा थका-हारा घर पहुँच जाता.

स्कूल से भागकर फिलिम देखने के अलावा कई ऐसे काम राजकीय बालक उच्च विद्यालय के बालकों ने किए हैं जिनसे पता चलता है कि वे अपने वक़्त से आगे चल रहे थे. इसकी बड़ी रेंज थी, नज़र बचाकर सिगरेट पीने, टेक्स्टबुक के बीच में फँसाकर पीली किताब पढ़ने से लेकर चक्कू-कट्टा लेकर आने तक. अपने गिजर-गुर्दे के हिसाब जितना बन पड़ा उतना मैंने किया, लेकिन मैं किसी मामले में ऐसा नहीं रहा कि कोई मुझ पर ग़ौर करे, न पढ़ने में और न ही इन एक्स्ट्रा करिकुलर कामों में.

हाँ गवाह ज़रूर रहा बहुत सारे दिलचस्प वाक़यों का, जिन्हें कलमबंद करने की सलाहियत उन्हें अंज़ाम देने वालों में नहीं रही इसलिए यह भार मेरे कंधों पर आ पड़ा. एक छोटी सी मिसाल, प्रिसिंपल सर के कमरे में बम का ज़ोरदार धमाका, मास्टरों की मीटिंग के दौरान.

वाक़या कुछ यूँ है कि बम विस्फोट के दो दिन पहले हमारे मार्गदर्शक अज्जू भइया की कारसेवा प्रिसिंपल सर ने अपने कर कमलों से की थी क्योंकि वे नौवीं की गणित की क्लास में ट्रांजिस्टर सुनकर क्रिकेट के स्कोर का हिसाब लगाते पकड़े गए थे. अज्जू भइया अपना खोया हुआ आत्मसम्मान और गौरव पाना चाहते थे और प्रेरणा शायद उन्हें भगत सिंह से मिली थी. लेकिन उन्होंने भगत सिंह की तरह बम फोड़ने के बाद आत्मसमर्पण करने की जगह स्क्रिप्ट में थोड़ा बदलाव किया.

अज्जू भइया ने आत्मसमर्पण पहले किया. प्रिसिंपल सर के कमरे में बाअदब गए, क्लास में कमेंटरी सुनने के लिए माफ़ी माँगी. देवी सरस्वती की मूर्ति को झुककर प्रणाम किया, सर के पैर छुए और बाहर आ गए. कोई सात मिनट बाद प्रिसिंपल सर के ऊँची सीलिंग वाले विशाल कमरे में ज़ोरदार धमाका हुआ, ऐन उसी वक़्त जब वे बाकी टीचरों को समझा रहे थे कि उनकी कारसेवा की बदौलत एक बिगड़ैल लड़का सुधर गया. मैं गवाह हूँ कि अज्जू भइया 'सरस्वती वंदना' के बहाने जलती हुई अगरबत्ती के आख़िरी सिरे पर बाज़ार में उपलब्ध सबसे बड़ा 'आलू बम' रख आए थे.

ऐसा नहीं था कि हमारा स्कूल अज्जू भइया जैसे स्वाधीनता के सेनानियों का गढ़ था, दीपू भइया जैसे भी थे जो बोर्ड परीक्षा में स्टेट भर में थर्ड आए थे. हम आधा तीतर आधा बटेर होकर रह गए क्योंकि दोनों को हमने प्रेरणास्रोत बना लिया इसलिए कहीं के नहीं रहे, अनामदास बन गए.

अज्जू भइया की अब शादी हो गई है तीन बच्चे हैं. उनके रोबदाब का इतना सिला मिला कि कचहरी चौक पर उनकी चाय की दुकान है जिसका किराया नहीं देना पड़ता और दीपू भइया आईएएस बनना चाहते थे लेकिन एलायड सर्विस में रेलवे में हैं.

13 अगस्त, 2007

बलिहारी गुरू आपकी, कोर्स कम्प्लीट दियो कराए

जब पढ़ाई की महत्ता समझ में आई उससे काफ़ी पहले गुरुओं का पढ़ाने से मोहभंग हो चुका था. वे उतनी ही रुचि से पढ़ाते थे जितनी रुचि से खादी ग्रामोद्योग भंडार का सेल्समैन कपड़े दिखाता है.

वर्षों के अनुभव से हमारे सारे शिक्षक जान गए थे कि जिसे पढ़ना होगा अपने-आप पढ़ लेगा, जिसे नहीं पढ़ना है वह कितना भी पढ़ाने पर नहीं पढ़ेगा. विद्यार्थियों के माँ-बाप और शिक्षकों में वैचारिक समानता थी--पढ़ना होगा तो हर हाल में पढ़ लेगा. बलभद्र पांडे सर मानो सबकी भावनाओं को स्वर देते थे--पढ़त सो भी मरतन, ना पढ़तन सो भी मरतन, तो दाँत खटाखट काहे को करतन...यह उनका व्यंग्य था शायद लेकिन सब कुछ इतना बड़ा व्यंग्य था कि यही सबसे बड़ा सच लगता था. छठी क्लास से वैराग्य का पाठ जीवन में आगे बड़ा काम आया.

इतिहास, भूगोल, हिंदी, अँगरेज़ी, समाजशास्त्र कुछ ऐसे विषय थे जिनकी पढ़ाई का मतलब था कि सब किताब खोल लें, जैसे ही पैराग्राफ़ ख़त्म हो बोल-बोलकर पढ़ने वाला छात्र बदल जाए, इस तरह पाठ समाप्त हो जाता था और जल्दी ही 'कोर्स कम्प्लीट'. विज्ञान और गणित जैसे विषयों में ब्लैकबोर्ड
साइन-कॉस-बीटा-थीटा के रहस्यों से भर जाता, फिर मास्साब कहते, कुछ न समझ आया हो तो पूछ लो. आठवीं क्लास के किसी लड़के ने कभी नहीं पूछा कि ग्रीस के पाइथोगोरस के नियम का हमें क्या करना, छठी कक्षा में किसी ने नहीं पूछा कि बंदर खंभे पर चढ़कर-फिसलकर-चढ़कर आख़िरकार कितनी देर में ऊपर पहुँचेगा या नहीं पहुँचेगा इससे हमें क्या लेना-देना. बंदर है, नहीं मन करेगा तो बीच में ही कूद जाएगा. ऐसी बात किसी छात्र ने नहीं पूछी और 'कोर्स कम्प्लीट' मान लिया गया.

सातवीं में एक विषय था जिसका 'कोर्स कम्प्लीट' घोषित नहीं किया जा सका क्योंकि उसकी कोई क्लास ही नहीं लगी थी, पता नहीं ऐसा कैसे हुआ लेकिन बहुत देर से पता चला कि "अरे, भूगोल तो रह ही गया." रघुवर प्रसाद सिंह शर्मा 'निष्कलंक' ने उस दिन पान के बीड़े के बदले एक दिन में भूगोल का
'कोर्स कम्प्लीट' कराने का बीड़ा उठाया. 'निष्कलंक' सर के कलंकों के बारे में हम छात्रों को ज्यादा पता नहीं था, उनका चोला-बाना कवियों वाला था और तीन जातिसूचक नामों के साथ एक अदद उपनाम भी था. जब बीसियों साल में एक बार विद्यालय पत्रिका का प्रकाशन हुआ था तो उन्होंने संपादक का
पद सुशोभित किया था, हम इतना ही जानते थे.

जब उन्होंने अचानक हमारे क्लास को सुशोभित किया तो हम सब चकरा गए. पान की पीक निगलकर, आँख बंद करके उन्होंने कहा, "बच्चों, भूगोल दुनिया का सबसे आसान विषय है क्योंकि यह भू- गोल है इसलिए हम चाहे कहीं से भी चलना शुरू करें, वहीं पहुँच जाएँगे. यह इसलिए भी आसान है क्योंकि हम इसी भू पर रहते हैं इसलिए सब कुछ जानना कोई कठिन बात नहीं है. इस धरती पर पहाड़, झील, झरने, जंगल हैं और सात समंदर हैं, सैकड़ों देश हैं... भारत के उत्तर में हिमालय है और दक्षिण में समुंदर... सबसे घने जगल असम और मध्य प्रदेश में हैं...आदि आदि...कोर्स कम्पलीट."

निष्कलंक सर के बारे में एक ही बात विचित्र लगती थी कि वे पान वाले की दुकान से पान के पत्ते का पेस्ट मँगवाते थे. सखुए के पत्ते में लिपटा हरे रंग का गीला गोला, इसे निगलने के बाद वे सुपारी-चूना-कत्था-ज़र्दा वाला पान भी खाते थे, यही बात हमारी समझ में नहीं आती थी. पान खाने से पहले पान की चटनी क्यों खाए कोई? कई साल बाद एक देहाती दोस्त ने बताया कि "अबे मूरख, ई तो बाबूजी भी खाते हैं, इसको भाँग कहते हैं." अब समझ में आता है कि किस तरह सर ने आँखें बंद करके सात समंदर, हिमालय और सैकड़ों देश आधे घंटे में लाँघ दिए थे. वे पूरी तरह आश्वस्त थे कि उन्होंने भूगोल का कोर्स अच्छी तरह कम्प्लीट करा दिया था.

इसी तरह विज्ञान का कोर्स कम्प्लीट कराने की ज़िम्मेदारी भोगेंद्र झा सर के ऊपर थी. वे सबसे पहले पता लगाते थे कि किसका बाप क्या करता है, इस सूचना का बहुत ही विज्ञान सम्मत प्रयोग भी करते थे. जिन्हें लगता था कि कोर्स कम्प्लीट नहीं हुआ है वे उनसे ट्यूशन भी पढ़ते थे. मेरा सहपाठी रामेंद्र
राय साइकिल पर एक झोला लटकाए चला जा रहा था, हमने पूछ लिया कि कहाँ जा रहे हो? उसने बताया, "फादर मिलिटरी में हैं न, इसलिए सर ने कैंटीन से रम मँगवाया है." मैं उसके साथ सर के दर्शनार्थ हो लिया. भोंगेद्र सर ने सफ़ाई दी कि भोग वे नहीं लगाएँगे. बोले, "घर में कोई-कोई मेहमान आता-जाता है ने, तो हम्मै खरीदने जाएं, अच्छा नै लगता है नै, हें हें हें..." उनके घर मनीप्लांट बहुत लहलहा रहा था, चलते-चलते हमने देखा काँच के गोल-गोल मटकों में उनकी जड़ें डूबी हैं. किताब में पढ़ा था कि इसी को बीकर कहते हैं.

हमारा स्कूल कहने भर को हिंदी मीडियम था, लेकिन असल में स्कूल की पढ़ाई अनेक भाषाओं में होती थी. मसलन, भोजपुरी, मगही, मैथिल, अंगिका... छपरा के चौबे सर हिंदी पढ़ाते थे. पूछते थे, "ताई कहानी का मूख पात्र का नाम बताओ बउआ." नहीं बताने पर उनकी प्रिय सज़ा थी पेट की चमड़ी खींचना या ज़्यादा नाराज़ हों तो दुखहरन गोंसाईं का प्रसाद. लेकिन सज़ा देने से पहले वे ज़रूर पूछते थे, "घर कहवाँ बा बउआ..." आरा, छपरा, सिवान, गोपालगंज, सासाराम जैसा जवाब मिला तो हल्के से गाल खींचते थे, अगर पटना, गया, जहानाबाद हुआ तो पेट की चमड़ी खींची जाती और अगर मिथिलांचल का कोई ज़िला हुआ तो दुखहरन गोंसाईं काम आते. दुखहरन गोंसाई उनकी प्रिय बेंत का नाम था.

कुछ शिक्षक थे जो मारते नहीं थे लेकिन धमकियाँ एक से एक बढ़कर देते थे. बुद्धिनाथ सर कन्या विद्यालय से ट्रांसफर होकर आए थे, तबीयत से मुलायम थे, लड़कों को पढ़ाते-पढ़ाते आदतन पूछते थे, "समझ गई न रे." नाराज़ होने पर कहते, "अतना न मारबउ के बाप नै चिन्हतो." बंगाली मोशाय
दास सर कहते थे, "बोदमाश, बोरा, बंडल शोब, कोबाड़ी में किलो के भाव बेचके तोमारा बाप को पाँच टाका देगा तो वो भी खुब खुश होगा कि कूछ तो मीला." सबसे दुबले-पतले मोहंती सर हमेशा नाराज़गी में दाँत किटकिटाते थे, कहते थे, "येहाँ हार्टअटैक होगा मेरा, मोरेगा सिर खपाके लेकिन तूम बूझेगा नेई." ऐसा लगता उन्हें सचमुच हार्ट अटैक आने वाला है.

हमारे ज़्यादातर टीचर बहुत अच्छे भविष्यवक्ता थे, वे क्लास में बता देते थे कि कौन लड़का नींबू बेचेगा, कौन भीख माँगेगा, कौन जेबकतरा बनेगा. मोटे चश्मे वाले, काले, ठिगने श्यामा सर भी वर्षों से छात्रों का भविष्य बता रहे थे, रिटायरमेंट के करीब पहुँच रहे थे. एक दिन स्कूल ख़त्म होने के बाद घर जाने से पहले सब्ज़ी ख़रीदने के लिए रुके. नींबू रुपए के चार या छह, इस पर दुकानदार से उलझ पड़े. दुकानदार ने बहुत विनम्रता से कहा, "सर, हम जो भी हैं आपकी ही की बदौलत हैं, चार-छह की क्या बात है, आप आठ नींबू ले लीजिए, आप तो आठ साल पहले बता दिये थे कि हम नींबू बेचेंगे."

'कैम्पस सब कागद करो, गुरू महिमा बरनि न जाई.' यहाँ सिर्फ़ तीन-चार का ज़िक्र हुआ, कुल 33 थे. तीन-चार को छोड़कर यहाँ सब क़ाबिले ज़िक्र हैं लेकिन लग रहा है कि हम ही कौन से दूध के धुले थे, वे भी तो बेचारे हमारे जैसे छात्रों के बनाए हुए शिक्षक थे. हमारे अपने कारनामे अगली बार... अगर आप पढ़ना चाहें.

11 अगस्त, 2007

विद्या धन उद्यम बिना कहो जो पावे कौन

मेरे स्कूल का नाम ही पर्याप्त प्रेरणादायी था--राजकीय उच्च माध्यमिक बालक विद्यालय. सरकारी स्कूल होने की वजह से फ़ीस का कोई सवाल नहीं था, सबके लिए शिक्षा सुलभ थी. भारत में 'सुलभ' शब्द के साथ जैसी छवि उभरती है वैसा ही हमारा विद्यालय था.

वह जीवन की सच्ची पाठशाला थी, कोई किताबी स्कूल नहीं था. आदर्श, नीति, नियम आदि बनाए थे बेचारे मास्टरों ने, लेकिन बच्चे सीखते थे कई एकड़ फैले मैदान में चलने वाले प्रैक्टिकल क्लासों में.

प्रैक्टिकल के टीचरों में मुख्य थे 'संजै भइया' जिनका बड़ा सम्मान था, स्कूल के कैम्पस के बाहर भी उनकी धाक बताई जाती थी. उनके चलने में गजब का बांकपन था और उनके चक्कू चलाने के फ़न के बारे कई तरह के क़िस्से मशहूर थे लेकिन निष्पक्ष सूत्रों से उनकी पुष्टि नहीं हो सकी थी, वे अक्सर स्कूल के परिसर में छींटदार कमीज़ पहनकर आते थे और नौंवी-दसवीं के कुछ महत्वाकांक्षी लड़के उनके चारों तरफ़ मँडराने लगते थे.

बरगद के पेड़ के नीचे उनकी क्लास लगती थी, लड़के दौड़-दौड़कर पान-सिगरेट लाते थे संजै भइया के लिए. संजै भइया बोली बचन से ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं लगते थे लेकिन उनका स्टाइल अनुकरणीय था. यह शायद उनकी ज्ञानपिपासा ही थी जो नौकरी की उम्र में भी उन्हें स्कूल के परिसर में खींच लाती थी. लड़के अक्सर उनके कान में फुसफुसाते कि आज मनोजवा चक्कू खोंस के आया है या आज पंकजवा कट्टा लाया है, संजै भइया धीरे से मुस्कुराते.

लंचटाइम में प्यार से दो लप्पड़ लगाके लड़के का निशस्त्रीकरण कर देते, उनके पास ज़खीरा जमा होता जाता, क्या पता आगे बेच देते थे या सिर्फ़ परोपकारवश लड़कों को बिगड़ने से बचाने के लिए ऐसा करते थे. वे अक्सर उसी तोड़े हुए बाउंड्रीवाल से स्कूल में दाख़िल होते थे जहाँ से ढेर सारे लड़के लंच के बाद फिलिम देखने भाग जाते थे. हमारा स्कूल प्रधान डाकघर, तीन सिनेमाघरों, टेलीफ़ोन एक्सचेंज, मेन रोड, कोतवाली थाने और मारवाड़ी मुहल्ले से घिरा था, यह एक निहायत दिलचस्प सराउंडिंग थी.

प्रैक्टिकल की दूसरी टीचर थीं 'लंगड़ी मैडम'. उनकी क्लास में बच्चे दूर से ही और अंदाज़े से शामिल होते थे, ये वाली मैडम रंग-बिरंगी साड़ी पहनती थीं, पान खाती थीं और पूरे स्कूल परिसर में प्रिसिंपल से भी ज्यादा रोब से घूमती थीं. स्कूल के मैदान के झाड़ी वाले कोने उन्हें ख़ास पसंद थे, वे अक्सर या तो तड़के दिखाई देती थीं या देर शाम को. मॉर्निंग क्लास के लिए जाते समय हमें पता होता था उनकी नाइट क्लास खत्म हो गई है, वे स्कूल के हैंडपंप पर हाथ-मुँह धोती थीं और उनका छात्र हरी घास पर, पेड़ के नीचे खर्राटे ले रहा होता.

स्कूल के कुछ अध्यापकों ने उनके अनधिकृत पाठ्यक्रम को स्कूल से बाहर ऱखने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हो सका. इसलिए कि वे अक्सर कोतवाली वाली दीवार की तरफ़ से सुबह स्कूल के हैंडपंप की तरफ़ जाती देखी जाती थीं, जैसे संजै भइया सिनेमाहाल वाली साइड से आते थे. संस्कृत के हमारे अति संस्कारवान अध्यापक श्रीनारायण मिश्र के सरकारी आवास के पास ही लंगड़ी मैडम का एकड़ों में फैला फार्महाउस था.

तीसरे मास्टर 'तीन पत्ती वाले सर' थे. वे सुविधा, मौसम और माहौल के मुताबिक़ कभी स्कूल के अंदर और कभी ऐन बाहर अपनी क्लास लगाते थे. वे कभी कैरम के तीन स्ट्राइकरों में से दो पर स्टिकर चिपका कर या फिर कभी ताश के पत्तों से प्रशिक्षण देते थे. वे बहुत तेज़ी से पत्ती या स्ट्राइकर घुमाते थे, ताश या स्ट्राइकर को इज़्ज़त बख़्शने के लिए वे लाल रूमाल जरूर बिछाते थे. शुरू में कोतवाली के तोंदवाले प्राणियों ने हमारे इस शिक्षक के साथ अपमानजनक बर्ताव किया लेकिन बाद में क्लास निर्बाध रूप से चलने लगी, प्राथमिक शिक्षा के महत्व को समझते हुए उनका सम्मान शुरू हो गया था.

इनके अलावा हमारे कुछ 'विजिटिंग प्रैक्टिकल टीचर' थे जो स्कूल की टूटी दीवार के पार कोतवाली में आते थे, हम दीवार में बनी फाँक से होकर ज्ञान अर्जन के लिए कभी-कभी उनके पास चले जाते थे. इनकी क्लास की दिलचस्प बात ये थी कि इसमें आप मर्ज़ी से आते और जाते थे, टीचर का कोई कंट्रोल नहीं था. इनमें से एक सर ने मुझे बताया था कि "बेटा, किसी से डरना मत, डरने वाले को सब डराते हैं. अगर नहीं डरोगे तो काम सही करो या ग़लत, सब ठीक रहेगा." ये सीख मैं कभी नहीं भूल पाया, न ही कभी ग़लत साबित हुई.

मेरे जीवन में जो कुछ छोटे-मोटे अपराध बोध हैं उनमें से एक ऐसे ही शिक्षक के साथ किए विश्वासघात को लेकर है. अच्छा बच्चा बनने के दबाव में किसी बड़े अपराध बोध की लज़्ज़त अपने हिस्से में नहीं आई. हुआ यूँ कि हम दो साथी दीवार फाँद कर नए 'विजिटिंग प्रैक्टिकल टीचर' से मिलने की उत्सुकता में अंदर गए. थानेदार साहब के मुंशी जी हमेशा की तरह बुड़बुड़ाए थे, "पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस.. फेन आ गया इस्कुलिया छौंडा सब..." थोड़ी इधर-उधर की बातचीत के बाद रात भर हुई सेवा के परिणामस्वरूप चेहरे पर आई सूजन की जगह नरमी लाते हुए उन्होंने पाँच का नोट दिया, "बेटा, एक पैकेट नंबरटेन ला दो." हमने एक बेबस आदमी के पैसे से पहले फ़िल्म देखी जिसका नाम था 'कालिया' और मूंगफली खाई. बताइए अपराध बोध होना चाहिए कि नहीं?

जैसा कि बेहतरीन शिक्षण संस्थानों में होता है, सीनियर छात्र भी जूनियर छात्रों को पढ़ाते हैं. ऐसे कई प्रैक्टिकल टीचर भी थे, अजै भइया, विजै भइया और दिप्पु भइया इनमें प्रमुख थे. इन्हीं के एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी की क्लासों में अनेकानेक बालकों ने अपनी पहली सिगरेट पी, पहली पीली किताब पढ़ी और पहली बार हरे रंग के सलवार सूट वाली बालिका विद्यालय की लड़कियों को चिट्ठी पकड़ाई.

ये तो बात हुई हमारे अवैतनिक प्रैक्टिकल टीचरों की, वेतनभोगी पूर्णकालिक सैद्धांतिक टीचरों की चर्चा अगले अंक में. अगर आप पढ़ना चाहें तो कुछ सहपाठियों के बारे में उसके बाद...

06 अगस्त, 2007

हमारी अपनी ज़बान की साठवीं बरसी

हमारी हिंदी, जिसे हम इतना प्यार करते हैं अपंग है, वह जन्म से विकलांग नहीं थी लेकिन उसका अंग-भंग कर दिया गया. वह बहुत बड़ी सियासत का शिकार हुई, अभी वह बड़ी हो ही रही थी कि 1947 में उसके हाथ-पैर काटके उसे भीख माँगने के लिए बिठा दिया गया.

करोड़ों लोगों की भाषा क्या हो, कैसी हो, उसमें काम किस तरह किया जाए, इसका फ़ैसला रातोरात दफ़्तरों में होने लगा. राजभाषा विभाग बना और लोग उस अपंग की कमाई खाने लगे जिसका नाम हिंदी है. ऐसा दुनिया में कहीं और नहीं हुआ.

ठीक ऐसा ही ताज़ा-ताज़ा पैदा हुए पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी हुआ, वे जिस्म के कुछ हिस्से काट लाए थे बाक़ी सब अरबी-फ़ारसी वाले भाइयों से माँगने थे, उन्हें किसी तरह जोड़ा जाना था. पाकिस्तान जहाँ कोई उर्दू बोलने वाला नहीं था वहाँ उर्दू राष्ट्रभाषा बनी. पंजाबी, सिंधी, बलोच, पठान सबको उर्दू सीखना पड़ा. ऊपर से तुर्रा ये कि उर्दू का देहली, लखनऊ या भोपाल से कोई ताल्लुक नहीं है, वह तो जैसे पंजाब में पैदा हुई थी.

इधर भारत में मानो 'सुजला सुफला भूमि पर किसी यवन के अपने पैर कभी रखे ही नहीं, इस पावन भूमि की भाषा तो देवभाषा संस्कृत है. यहाँ सब कुछ पवित्र-पावन-वैदिक है, विदेशी आक्रमणकारी आए थे, कुछ सौ साल बाद मुसलमान और क्रिस्तान दोनों चले गए, अपनी भाषा भी वापस ले गए, हम वहीं आ गए जहाँ इनके आक्रमण से पहले थे, इन्हें बुरा सपना समझकर भूल जाओ'...ऐसा कम-से-कम भाषा और संस्कृति में मामले में कभी नहीं हुआ. न हो सकता है.

भारत में सदियों से जो ज़बान बोली जा रही थी उसका नाम हिंदुस्तानी था, लेकिन मुसलमान चूँकि 'अपनी उर्दू' पाकिस्तान ले गए थे इसलिए ज़रूरी था कि जल्द-से-जल्द बिना उर्दू हिंदुस्तानी यानी हिंदी के लिए जयपुर फुट तैयार हो जाए और वह चल पड़े, इसके लिए सबके आसान काम था पलटकर संस्कृत की तरफ़ देखना. वही हुआ, ऐसे-ऐसे भयानक प्रयोग हुए कि बेचारी अपंग हिंदी दोफाड़ हो गई. एक हिंदी जो लोग बोलते हैं, एक हिंदी जो दफ़्तरों में शब्दकोशों से देखकर लिखी जाती है.

नेहरू की भाषा कभी सुनिए जो ख़ालिस हिंदुस्तानी थी लेकिन उन पर भी शायद अँगरेज़ी का जुनून इस क़दर सवार था कि उन्हें अपनी हिंदुस्तानी की फिक्र नहीं रही. देश का धर्म के आधार पर विभाजन होने के बाद समझदारी दिखाते हुए उसे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र घोषित किया गया, वहीं भाषा के मामले में ऐसा बचपना क्योंकर हुआ, समझ में नहीं आता.

भारत के विभाजन को साठ वर्ष पूरे होने वाले हैं. दुनिया का हर भाषाशास्त्री मानता है कि किसी भाषा को जड़ें जमाने में कई सौ वर्ष लगते हैं. ब्रज, अवधी, भोजपुरी के साथ अमीर खुसरो फ़ारसी मिला रहे थे, रसखान कृष्णभक्ति का माधुर्य घोल रहे थे, इनके बीच शेरशाह सूरी जैसे तुर्क-अफ़गान भी अपनी भाषा ले आए थे. इन सबसे मिलकर एक जादुई ज़बान बनने लगी जिसमें मीर-ग़ालिब-मोमिन-ज़ौक लिखने लगे, भारतेंदु-प्रेमचंद-रतननाथ सरसार-देवकीनंदन खत्री से लेकर मंटो, कृशनचंदर तक आए. एक सिलसिला बना था जो अचानक झटके से टूट गया.

एक ही रात में कई अपने शायर-कवि पराये हो गए, इधर भी-उधर भी. कई नए अंखुए उग आए जिन्होंने दावा किया कि वे सीधे जड़ से जुड़े हैं यानी संस्कृत या फ़ारसी से लेकिन उस भाषा का होश किसी को नहीं रहा जिसने उत्तर भारत में तीन-चार सौ साल में अपनी जगह बना ली थी और खूब परवान चढ़ रही थी. वह सबकी भाषा थी, जन-जन की भाषा थी, वह सहज पनपी थी, उसमें कोई बनावट नहीं थी, उसमें हिंदी-संस्कृत के शब्द थे, बोलियाँ-मुहावरे, ताने-मनुहार, दादरा, ठुमरी थी, अदालती ज़बान थी, जौजे-मौजे साक़िन, वल्द, रक़ीब, रक़बा था...क्या नहीं था.

एक ऐसी ज़बान जो मुग़लिया दौर में सारी ज़रूरतें पूरी कर रही थी और ठहर नहीं गई थी बल्कि आगे बढ़ रही थी, जिसने ज़रूरत भर अँगरेज़ी को भी अपनाया. उसमें अभी और बदलाव हो सकते थे, जो स्वाभाविक तरीक़े से होते जिनमें बनावट के कंकड़ न दिखते शायद. मगर दुर्भाग्य ये है कि देश के बँटने के साथ ही भाषा भी बँट गई और लोग एक नई भाषा गढ़ने में लग गए जो किसी की भाषा नहीं थी, नहीं रही है. यह एक बहुत बड़ी वजह है कि लोग हिंदी को मुश्किल मानकर त्याग देने में सुविधा महसूस करते हैं.

सच बात ये है कि अगर हिंदी को वाक़ई आम ज़बान बनाना है, सबकी बोली बनाना है तो उसे लोगों से दूर नहीं, नज़दीक ले जाना होगा. हिंदू हों या मुसलमान, जब कोई शिकायत होती है तो लोग यही कहते हैं कि हमें शिकायत है, फिर दिल्ली में बसों पर क्यों लिखा होता है कि "प्रतिवाद करने के लिए संपर्क करें"...

उर्दू और हिंदी से पहले एक भाषा है जिसने सारी ज़रूरतें पूरी कीं हिंदुस्तानी के रूप में, जो आज भी उत्तर भारत के रग-रग में बहती है. यह चिट्ठा उसी हिंदुस्तानी में लिखा गया है, उस हिंदी में नहीं जो 1947 में अपंग हुई उसके बाद दिन-ब-दिन इतनी बनावटी होती चली गई कि हिंदी बोलने वाला भी, लिखी हुई हिंदी को अपनी भाषा के तौर पर नहीं पहचानता.

जब पंद्रह अगस्त धूमधाम से मनाइएगा तो याद रखिएगा कि यह हिंदुस्तानी की साठवीं बरसी भी है. साझे की सदियों की विरासत के लिए अगर सिर झुकाने का जज़्बा दिल में आए तो ऐसी भाषा बरतिए जो हिंदुस्तान की है, हिंदुस्तानी है.

04 अगस्त, 2007

उम्मीद सिर्फ़ अँगरेज़ी न जानने वालों से है

भाषा भावुकता से नहीं, ताक़त से चलती है. जिस तरह सिक्के चलाए जाते हैं वैसे ही भाषा भी चलाई जाती है.

भाषा का ईंधन सत्ता से उसकी निकटता है. अगर वह शक्ति की कुंजी नहीं है तो कुछ सिरफिरों का शौक़ भर बन सकती है, कामयाब लोगों की ज़बान और उनकी कलम से फूटने वाली धारा नहीं.

दुनिया की चार बड़ी भाषाएँ अँगरेज़ी, फ्रेंच, स्पैनिश और अरबी विशुद्ध रूप से सत्ता की वजह से प्रसार पाने वाली भाषाएँ हैं, उनका गहरा औपनिवेशिक अतीत है, अगर इन भाषाओं को बोलने वाले लोग कोलोनाइज़र नहीं होते तो तमिल, गेलिक, स्वीडिश या हिब्रू से अधिक इन भाषाओं का क्या महत्व होता?

भाषा चला देने से चल जाती है, अगर कोई भाषा सबके लिए ज़रूरी हो जाए तो लोग रातोंरात उसे सीख जाते हैं. भारत शायद दुनिया का अकेला देश है जहाँ अपनी भाषा हिंदी, तमिल, कन्नड़, मराठी, मलयालम... जाने बिना काम चल जाता है, बाइज़्ज़त चल जाता है. वैसे काम तो अँगरेज़ी जाने बिना भी चल जाता है लेकिन बेइज़्ज़त होकर चलता है. अँगरेज़ी जाने बिना तरक्की नहीं हो सकती, अपनी भाषा जाने बिना जितनी चाहें उतनी तरक्की हो सकती है.

भारत में ग्लोबलाइज़ेशन की जो चकाचौंध दिख रही है उसके पीछे भारतीय कामगारों के अँगरेज़ी ज्ञान की भारी भूमिका है. जहाँ चीनी भाई अँगरेज़ी सीखने के लिए बेहाल हैं वहीं भारत में अँगरेज़ी बच्चों को ही नहीं, बल्कि पिल्लों को भी सिखाई जाती है.

ठीक है कि अँगरेज़ी जानने की वजह से शहरी मध्यवर्ग को कुछ हज़ार नई नौकरियाँ मिल गई हैं लेकिन प्रतापगढ़, सिवान, झाँसी-झूँसी के करोड़ों लौंडे बेरोज़गार घूम रहे हैं, ज़्यादा से ज़्यादा 'सिकोरटी गारड' बन सकते हैं. वैसे एक से एक बढ़कर 'इंटलीजेंट' हैं लेकिन "इंगलिस में मार खा जाते हैं."

जॉर्ज बुश भारत आते हैं और बेहिचक कह जाते हैं कि जितनी आबादी अमरीका की है, उतने तो भारत में उपभोक्ता हैं इसलिए वे भारत को इतना महत्व दे रहे हैं. यहाँ बात तकरीबन 30 करोड़ शहरी लोगों की हो रही है जिनके लिए किसी अमरीकी प्रोडक्ट के ऊपर हिंदी में नाम लिखने की भी मशक्कत नहीं करनी है. लेकिन बाकी बचे 70 करोड़ लोगों का क्या?

चीन में ऐसा नहीं हो सकता, बिना चीनी के काम नहीं चल सकता. अब ज़रा ठहरकर सोचिए, यह चीन की ताक़त है या कमज़ोरी?

चीनी अँगरेज़ी सीखने के लिए बेताब हैं वहीं यूरोपीय-अमरीकी लोग भी चीनी भाषा सीख रहे हैं, हिंदी नहीं. माइक्रोसॉफ़्ट ने सबसे पहले चीनी और उसके बाद आइसलैंडिक से हौसा तक पचासों भाषाओं में अपने ऑपरेटिंग सिस्टम लॉन्च किए लेकिन हिंदी की ज़रूरत नहीं समझी, ऐसे देश के लिए जहाँ उसके ग्राहक लाखों में नहीं बल्कि करोड़ो में हैं.

मुझे कई बार लगता है कि भारत की असली ताक़त अँगरेज़ी न जानने वाली बिरादरी है जिनकी वजह से शायद बाज़ार को होश आए. एक मिसाल लीजिए-- ट्रैक्टर, खाद और कीटनाशक बनाने वाली विदेशी कंपनियों के विज्ञापन कभी अँगरेज़ी में नहीं होते. धीरे-धीरे, देर-सबेर जब देश के बहुसंख्यक लोगों के बीच माल बेचने की बात आएगी तब हिंदी, तमिल, गुजराती, असमिया और ओड़िया के बारे में भी कंपनियों को सोचना होगा.

लेकिन यहाँ एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है, वो ये कि अँगरेज़ी जाने बिना कुछ ज़मींदारों-रंगदारों-ठेकेदारों को छोड़कर बाक़ी लोगों के पास पैसा कब तक आएगा, वे दमदार ग्राहक कैसे बन पाएँगे, क्योंकर बन पाएँगे, किसी को नहीं पता. देश में सत्ता की संरचना कुछ ऐसी बन चुकी है कि उसमें अँगरेज़ी के बिना सेंध लगाना असंभव दिखता है.

भारत में हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को वही लोग बचा सकते हैं जो अँगरेज़ी की अग्निजिह्वा से बचे हुए हैं. शायद किसी समानांतर-वैकल्पिक तरीक़े से वे इतनी क्रयशक्ति हासिल कर लें कि उनके बीच माल बेचने के लिए हिंदी, तमिल, गुजराती, असमिया या ओड़िया जैसी भारतीय भाषा अनिवार्य हो जाए. लेकिन क्या उसके पहले सब लोग अँगरेज़ी ही नहीं सीख जाएँगे?

अँगरेज़ी नहीं भी सीखेंगे तो इतना आत्मविश्वास कहाँ से आएगा कि कहें, "हमें नहीं पता क्या लिखा है, हम नहीं ख़रीदते." किसी अधपढ़े से पढ़वा लेंगे और अपनी क़िस्मत को कोस लेंगे लेकिन माल तो वही बिकेगा जो जिसके ख़रीदने में शान हो, वही शान जो शहर में अँगरेज़ी बोलने वाले की है. रामलाल-कुंदनलाल एंड कंपनी की वो इज़्ज़त कैसे हो सकती है जो जॉनसन एंड निकल्सन की होती है.

कुचक्र है कि क्रयशक्ति बिना अँगरेज़ी के सिर्फ़ गुंडागर्दी से आती है. यह कुचक्र कब और कैसे टूट सकता है इसके बारे कुछ सोचिए, बोलिए और बताइए.