31 मई, 2007

लेखक हमेशा अकेला होता है, संघी नहीं

यह पक्की बात है कि लेखन खेलन नहीं है.

लेखन क्या है और लेखक कौन है यह एक अहम सवाल है, इसके बाद का सवाल ये है कि लेखक की भूमिका क्या है, लेखक का दायित्व क्या है, वह किसके प्रति उत्तरदायी है, वगैरह.

लेखन एक समानांतर सत्ता है. मेरे लेखक मेरे दिमाग़ पर राज करते हैं. रेणु, निराला, कबीर, मार्केज़, नेरूदा, कामू...

लेखक मालिक है विचारों-शब्दों-पात्रों-घटनाओं-स्थितियों का, शासक है, राजा है, सबसे बढ़कर स्वयंभू है, काफ़ी हद तक ईश्वर की तरह, अपना संसार रचता है. मानो तो देव, नहीं तो पत्थर.

छोटे-मोटे लेखक भी होते हैं जो कुछ-कुछ लिखते रहे हैं, बीच-बीच में मार्के की कोई बात कह देते हैं लेकिन जो लोग राज करते हैं वे दूसरे होते हैं, अपनी तरह से गुलशन नंदा भी हैं जिनकी सत्ता रही है लेकिन कमल कुमार, विमल कुमार, अनिल कुमार जैसे लोग जो अपने-आपको कवि-लेखक (आम काल्पनिक नाम हैं,कोई भाई बुरा न माने) समझते हैं वे भारी मुग़ालते में हैं.

मैं लिखता हूँ लेकिन ख़ुद को लेखक मानने की गुस्ताख़ी नहीं कर सकता, बात अगर शाब्दिक अर्थ की है तो जितने लोग साक्षर हैं सब लेखक हैं. मेरी नज़र में लेखक वह है जिसे लोग लेखक मानते हैं. नारद पर मैं लिखता हूँ और दूसरे लिखने वाले मुझे पढ़ते हैं इससे मैं लेखक नहीं बन जाता. बड़ा या छोटा लेकिन एक ऐसा वर्ग होना ज़रूरी है जो सचमुच आपके लिखे को पढ़ना चाहता हो, वैसे नहीं जैसे नारद पर हम एक-दूसरे को पढ़ते हैं और टिप्पणी करते हैं.

तरह-तरह के प्रगतिशील, अप्रगतिशील, तुक्कड़-मुक्कतड़, जनवादी-मनवादी आदि-आदि लेखक संघों का वर्चुअल कन्फ़ेडरेशन है नारद. इसके बाद आप कुछ रियल बना लीजिए, पर्चे छापिए, नए लोगों को प्रोत्साहन दीजिए, वाह-वाह करिए, बीस-तीस लोगों को आप लेखक कहिए, बीस-तीस लोग पढ़कर या बिना पढ़े आपको लेखक होने का सर्टिफ़िकेट दे देंगे, हो गया काम.

साम्राज्यवाद का मैं प्रबल विरोधी हूँ, साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चों में चीख़-चीख़कर नारा लगाऊँगा लेकिन एक आम आदमी के तौर पर. दो-चार परस्पर मित्र जिन्होंने पहले अपने-आपको लेखक घोषित करके 'साम्राज्यवाद विरोधी लेखक मोर्चा' बना लिया हो, उनके बारे सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि वे साम्राज्यवाद के विरोधी कम, अपने आपको लेखक साबित करने की मुहिम में ज़्यादा सक्रिय हैं.

जहाँ-जहाँ साम्राज्यवाद का विरोध हो रहा है वहाँ जाइए, नारे लगाइए. इसके लिए लेखक संघ की कोई ज़रूरत नहीं है, 'लेखक संघ' की सदस्यता से आपको तो लेखक का दर्जा मिलता है, सोचकर बताइए इससे साम्राज्यवाद का क्या बनता-बिगड़ता है.

पुरस्कार, सम्मान, प्रोत्साहन, सभा-गोष्ठी, सेमिनार-तकरार ये सब आयोजन हैं, लेखन नहीं. लेखक का काम लेखन है, आयोजन नहीं. यह निज- महिमामंडन है कि संघ बनाकर क्रांति ला देंगे, नए लेखकों को प्रोत्साहित करके मशाल में तेल डाल देंगे...इन लेखक संघों ने उनका नुक़सान किया है जो उनके सदस्य रहे हैं और उनका भी जो उनसे बाहर रहे हैं.

जो लिखता है और पढ़ा जाना चाहता है, वह साम्राज्यवाद का समर्थक और जनता का विरोधी हो ही नहीं सकता. मगर जो सचमुच का लेखक है वह अपने लेखन के ऊपर किसी संघ की सत्ता कैसे स्वीकार कर सकता है, कोई रचनाकार यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि चार लोगों की बैठक में तय हो कि वह क्या लिखेगा और क्या नहीं? एक जैसा सोचने वाले लोग स्वाभाविक तौर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं और विचार-विमर्श करते हैं लेकिन संघ बनाकर लेखन नहीं हो सकता, वह नितांत निजी और वैयक्तिक कार्य है जिसमें कोई दख़ल नहीं दे सकता.

जैसे ही आप संघ-वंघ बनाते हैं वह एक औपचारिक व्यवस्था होती है जिसके नियम-क़ानून होते हैं, नियम-क़ानून होंगे तो उनका पालन करना होगा, आपके न चाहते हुए भी एक सत्ता संरचना तैयार हो जाएगी, जैसा मैंने पहले कहा कि हर लेखक स्वयंभू होता है वह किसी और की सत्ता क्यों स्वीकार करेगा, और करेगा तो क्या ख़ाक लिखेगा?

इस मामले में सरकारी प्रश्रय वाली अकादमियों से जुड़े लेखकों की खिल्ली तो उड़ाई जाती है लेकिन पार्टी लाइन पर लिखने वालों की नहीं, यह कोई न्यायसंगत बात नहीं है.

मिसाल के तौर पर, कबीर 'मैं कूता राम का, मोतिया मेरो नाम...' और '...चक्की भली पीस खाए संसार' दोनों लिखते हैं. अगर वे किसी जनवादी लेखक संघ के सदस्य होते तो सगे कॉमरेड उन्हें 'कूता' बना देते और किसी भक्ति आंदोलन से जुड़े होते तो भगत उन्हें ही पीस खाते. यह उनकी लेखकीय स्वतंत्रता है कि धर्म और आडंबर की अपनी व्याख्या करते हैं.

सच बात तो ये है कि जिसने जो देखा, भोगा है, सीखा है, संजोया है, वही लिखेगा. कोई ग़रीब का दर्द लिखेगा, कोई अमीर का अभिमान लिखेगा, कोई दोनों का विरोधाभास लिखेगा...कोई महान लेखक तीसरी-चौथी-पाँचवी परत भी ढूँढ निकालेगा जो अब तक नहीं दिख रही...लेकिन यह कोई और तय नहीं करेगा.

पाठक अपने लेखक चुनता है और लेखक भी अपने पाठक. जैसे आप दोस्त, प्रेमिका और पत्नी को चुनते हैं वैसे ही आपको अपने लेखक को ख़ूबियों-ख़ामियों के साथ स्वीकार करना पड़ता है, वह पैकेज में आता है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप कहें कि टॉलस्टॉय का समता वाला पक्ष सही है लेकिन उनका संत वाला पक्ष हटा दो या फिर तुर्गनेव के सामंतवाद विरोधी विचार तो अच्छे हैं लेकिन इतना रंगीन मिजाज़ आदमी ठीक नहीं.

डीएच लॉरेंस, नोबोकोव को पढ़े बिना कोई जवान नहीं हो सकता (मस्तराम भी) और चेखव-तुर्गनेव को पढ़े बिना परिपक्व नहीं...देवकीनंदन खत्री और अगाथा क्रिस्टी से लेकर जेके रॉलिंग तक सबकी अपनी भूमिका है, उसी के हिसाब से उनकी जगह है. डैनियल स्टील और जॉन ग्रीशैम वह जगह नहीं पा सकते जो एन रैंड या मिलान कुंदेरा की है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे किस ख़ेमे में हैं.

ख़ेमे-वेमे के चक्कर में खुदरा लोग रहते हैं, ठीक से पढ़ने और ठीक से लिखने वालों को सार्थकता से सरोकार है. हर आदमी क्रांतियों का पोलापन और शोषण-दमन की पुख़्तगी को अच्छी तरह जानता है, उसके लिए लेखक नहीं चाहिए, और लेखक संघ तो बिल्कुल नहीं.

'अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है...' एक महान कविता है लेकिन इसलिए नहीं कि क्रांतिकारी कवि बाबा नागार्जुन ने लिखी है (वैसे इसमें क्रांति की कोई बात नहीं है), अगर इसे कांग्रेसी सांसद रहे श्रीकांत वर्मा ने भी लिखा होता तो ये महान कविता ही होती.

साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लेखकों की भूमिका पर चर्चा आगे फिर कभी.

28 मई, 2007

मायावती का हाथी और डोमटोली के सूअर

मेरे ख़ानदानी घर के संडास का मुँह जहाँ खुलता था वहाँ से एक बस्ती शुरू होती थी-डोमटोली. नाम यही था लेकिन वह बैनरों और तख़्तियों पर शोभता नहीं था इसलिए उसे हरिजन कॉलोनी या वाल्मीकि नगर लिखा जाता था. यह वैसा ही नाम था जैसे आजकल यौनकर्मी, जो सिर्फ़ लिखे हुए शब्दों में होता है, बोले हुए शब्दों में नहीं.

उस बस्ती के बोले हुए शब्द ऐसे थे जो लिखे नहीं जा सकते, जो लिखे हुए शब्द होते हैं उन्हें बोलने के लिए स्कूल जाना होता है. उस बस्ती के सौ में से पाँच लड़के स्कूल जाते थे जिन्हें 'अ' से अनार पढ़ाया जाता था जो उन्होंने कभी नहीं खाया, उनके लिए 'स' से सूअर होता था, हमारे लिए सरौता.

कोस-कोस पर पानी और बानी बदलने का मुहावरा ग़लत लगता है क्योंकि गज़ भर में मैंने उसे पूरी तरह बदलते देखा था. उनकी भाषा उन्हीं की तरह नंगी थी. उनका एक एक-एक शब्द हमारे घर में अछूत था. आज़ादलोक उनकी लड़ाइयों पर कुर्बान क्योंकि लिखे हुए शब्दों का सबसे अश्लील साहित्य उसके पासंग में नहीं. लेकिन उनकी गालियाँ उनके जीवन के मुक़ाबले बहुत शालीन थीं.

उनकी औरतें सबकी आँखों के सामने रगड़-रगड़कर नहाती थीं फिर भी उनसे गंदा कोई न था. वे किसी से बात नहीं करते थे लेकिन सबसे बदतमीज़ वही थे.

चंपक-बालभारती-मधुमुस्कान की उम्र में उनकी संतति को संतानोत्पत्ति की बारीकियाँ मालूम थीं लेकिन उन्हें किसी ने समझदार नहीं माना.

एक हज़ार लोगों के लिए कोई स्कूल और दवाख़ाना नहीं था लेकिन सरकार के दुलारे वही थे. भगवान की उन पर असीम कृपा थी इसलिए उन्होंने अपना एक अलग मंदिर बनाया था, उनका भगवान से सीधा नाता था क्योंकि वहाँ कोई पुजारी नहीं था.

सारे शहर की चोरियाँ वही करते थे क्योंकि हर दूसरे दिन डोमटोली में हवलदार आता था लेकिन चोरी कभी इतनी बड़ी नहीं होती थी कि थानेदार साहब आएँ.

उनमें से इक्का-दुक्का लोग बाइज़्ज़त सरकारी नौकरी करते थे, मुनसिपालटी की. सारे शहर की गंदगी के लिए वही ज़िम्मेदार थे क्योंकि झाड़ू लगाने के लिए उन्हें रिश्वत कोई नहीं देता था.

उनका अपना एक वोट था और एक नेता भी, जो हर चुनाव में वह खड़ा होता, नारे लगते, उसके पोस्टर सिर्फ़ डोमटोली में चिपकते और नामांकन वापस लेने के अंतिम दिन वह बैठ जाता ऐसे व्यक्ति के समर्थन में जो उन्हें उनका हक़ दिला देता, भुना सूअर और टंच ठर्रा.

दादी ने हमेशा माना कि इनरा गान्ही ने शह दी है वर्ना वे इतने बुरे नहीं थे. दादी अब नहीं हैं, डोमटोली वहीं है और मायावती लखनऊ में हैं. ताज़ा हाल देखने के लिए वहाँ जाना होगा, पता नहीं मायावती ने उन्हें और कितना बिगाड़ दिया होगा.

22 मई, 2007

दुनिया के सबसे ताज़ा आम मैंने खाए हैं

आम की ख़ास यादें हैं. हमारे पुराने पुश्तैनी घर में आम के दो पेड़ थे एक मालदा और एक बीजू. मालदा बड़ा था और बीजू छोटा.

मालदा पकने पर भी हरा रहता था, बीजू को बाल्टी में डुबोकर रख दिया जाता था और शाम को चूसा जाता था. जिन्होंने बीजू का रस नहीं लिया है उन्हें बता दें कि वह मैंगो फ्रूटी से बेहतर होता है और बिना स्ट्रॉ के ही चूसा जाता है.

मैं उन चंद ख़ुशक़िस्मत लोगों में हूँ जिन्होंने दुनिया के सबसे ताज़ा आम खाए हैं, इस मामले में हमारा मुक़ाबले सिर्फ़ तोतों से होता था. हम स्कूल का बस्ता फेंककर सीधे पेड़ पर चढ़ते थे. आम को पेड़ की डाल से अलग किए बिना खाते थे, पूरी तरह से ऑर्गेनिक आम, धोने का सवाल कहाँ था?

आँधी में गिरे आमों को गुड़ के साथ पकाकर अम्मा गुड़म्बा बनाती थीं. पड़ोस के लोग भी टिकोले माँगने पहुँच जाते.

घर में आम का पेड़ होने की मुसीबत यह थी कि जिसके यहाँ पूजा होती थी वही पत्ते तोड़ने पहुँच जाता, कई दुकानदार तो दीवाली पर पूरी दुकान सजाने के लिए आम के पत्ते माँगते, हमें लगता इस तरह तो हमारा पेड़ नंगा हो जाएगा.

आम के पेड़ पर कौव्वों के घोंसले थे जो लोहे और अल्युमिनियम के मज़बूत तारों से बने थे, जिनमें चम्मच, जीभी और साइकल के स्पोक भी शामिल थे. कौव्वे पेड़ को अपने बाप का समझते थे, जब उनके घोंसलों में अंडे होते थे तो हमारा पेड़ पर चढ़ना असंभव कर देते थे.पेड़ को अपने बाप का समझकर वे कोई ग़लती नहीं करते थे क्योंकि उस पेड़ पर उनकी कई पुश्तें रहती थीं.

कभी-कभार ऐसे आम भी मिलते थे जो न कच्चे होते, न ही पके हुए. उनमें एक दरार सी पड़ जाती थी और वे सख़्त लेकिन काफ़ी मीठे होते थे, बड़े लोगों ने बताया कि उन्हें कोयलपादा आम कहा जाता है क्योंकि गाते-गाते हर बार आवाज़ कोयल की चोंच से ही नहीं निकलती.

हमारी दादी घर के सामने ठेला लगाने वाले को बचे हुए आम बेचने के लिए दे देती थीं. अपने घर के आमों को सड़क बिकते देखना अजीब अनुभव था, कई बार लगता कि हम क़ितने ख़ुशक़िस्मत हैं और कई बार लगता कि हमारे आम कोई और क्यों खाए.

घर में आम के दो पेड़ हों, दोनों पर मीठे फल लगते हों, ऐसे में किसो को भला क्या शिकायत हो सकती थी? हमारी बुआ को थी, कहती थीं दोनों पेड़ बेकार हैं, ख़ामख्वाह मीठे फल लगते हैं, अचार नहीं बन सकते, उसके लिए बाज़ार से आम लाना पड़ता है.

हम आम खाकर गुठलियाँ लापरवाही से आँगन में फेंक देते थे, मानसून के आने पर पूरे आँगन में 'आम की फ़सल' लहलहाने लगती क्योंकि गुठलियों से अंखुए फूट आते, एक दिन उन सबको बेरहमी से उखाड़कर फेंक दिया जाता, एक आँगन में आम के कितने पेड़ हो सकते थे?

जो कच्चे आम टपक जाते थे उन्हें टपका कहा जाता, उन्हें भूसे में लपेटकर बोरियों की कई तहों के नीचे रख दिया जाता, इस तरह गर्मी से आम दो-तीन दिन में पक जाते थे. यह इंतज़ाम अक्सर दादी की खटिया के नीचे होता था, जब दोपहर में वे सो रही होती थीं तो हम कच्चे-पक्के आम निकालकर आधा खाते-आधा फेंकते. पाँच-सात दिन में जब वे बोरियाँ खुलवातीं तो उन्हें पके हुए लेकिन चंद बचे हुए आम ही मिलते.

शहर के बीचो-बीच मकान और उसके अहाते में आम के दो पेड़, यह ऐसा कॉम्बिनेशन है जो ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता था. कई दशक तक चला. वह जितने दिन रहा सरकार की लापरवाही से. सड़क चौड़ी करने के मास्टर प्लान की चपेट में आम जनता भी आई और आम के पेड़ भी लेकिन मास्टर प्लान की घोषणा होने के तीस वर्ष बाद.

आम के एक फलदार पेड़ का मुआवज़ा मिला दो सौ रूपया जिसमें उसे कटवाने की मजदूरी भी शामिल थी. हमारे आँखों के सामने आम के पेड़ को ढेर कर दिया गया, जब उन्हें काटा गया बस उन पर मंजर लगने ही वाले थे. बात 16 साल पुरानी है लेकिन आज भी आँखें भर आती हैं.

कटे हुए आम के पेड़ से हरे पत्तों के बीच से कौव्वों के पाँच घोंसले निकाले गए, किसी चतुरसुजान ने कहा कि इसे कबाड़ी के यहाँ बेच दो, ख़ालिस लोहा है, हमने कौव्वों की बरसों की चोरी और अनूठे शिल्प को 23 रुपए में बेच दिया. उस पैसे से हमने मद्रास कॉफ़ी हाउस में डोसा खाया.

पेड़ कटने के बाद से ख़रीदकर आम खाने का मन कभी नहीं हुआ, जब कहीं मालदा दिखता है अपना दर्द हरा हो जाता है.

21 मई, 2007

भाइयों यह असहिष्णुता सही नहीं जाती

पंजाब में भड़के हुए सिखों की भीड़ एक पंथ को 27 तारीख़ तक बंद करा देना चाहती है. मानो वह कोई पंथ नहीं, गली के नुक्कड़ पर चलने वाली चाय की दुकान है.

लोकतंत्र में इससे शर्मनाक कोई बात नहीं हो सकती कि एक धर्म के मानने वाले कहें कि दूसरे अपना धर्म मानना बंद कर दें. इसके बाद उस राज्य के मुख्यमंत्री कहते हैं कि 'डेरा सच्चा सौदा' के लोगों को माफ़ी माँगनी चाहिए.

'डेरा सच्चा सौदा' ने भी वही किया है जो हुसैन, चंद्रमोहन और दूसरे लोगों ने किया है यानी भावनाओं को आहत किया है. लोगों को शरबत पिलाकर या कोई ख़ास पोशाक पहनकर बाबा गुरमीत रामरहीम सिंह ने सही किया या ग़लत यहाँ वह मुद्दा ही नहीं है, जैसे कि पहले के सारे मामलों में भी नहीं था.

यहाँ मुद्दा ये है कि जिसके पास ताक़त है, सत्ता की ताक़त, जनसंख्या की ताक़त, उग्रता की ताक़त...वही तय करेगा कि दूसरे क्या बोलें, क्या खाएँ, क्या पिएँ और क्या करें.

फ्रांस में स्कूलों में पगड़ी पहनने पर रोक लगा दी गई है, वहाँ ताक़त नहीं है तो सारी बहादुरी गुम हो गई है, सरकार से अनुमति लेकर लाइन लगाकर शराफ़त से सारे विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं जहाँ आबादी अधिक है वहाँ तलवारें खनक रही हैं.

यह बात सिखों की नहीं है, सबकी है. हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई इस मामले में सब भाई-भाई हैं. पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं लेकिन क्या वे कश्मीर या गोवा में ऐसी ही धौंस में रहना पसंद करेंगे जहाँ वे अल्पसंख्यक हैं.

यहाँ थोड़ा सामान्यीकरण हो रहा है, किसी भी धर्म के सभी लोग एक तरह से नहीं सोचते लेकिन मुखर उग्र अभिव्यक्ति ही सामने आती है इसलिए यहाँ उसी की बात हो रही है.

गुजरात के मोदी समर्थक एक हिंदू दोस्त लंदन आए और अँगरेज़ों के नस्लवादी रवैए की जमकर आलोचना की लेकिन यहाँ उनके सारे तर्क नए थे जो गुजरात में उनके काम नहीं आते.

धर्म और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते अगर दोनों तरफ़ से बराबर की सहिष्णुता न हो. यहाँ दोनों ओर से सीमाएँ टूटती दिख रही हैं. भारतीय जटिलता की परंपरा का निर्वाह यहाँ भी हो रहा है क्योंकि कई बार यही पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि धर्म कौन चला रहा है और लोकतंत्र कौन.

अकाली दल या भाजपा के मुख्यमंत्री होते हैं राज्यों की जनता के नहीं, कांग्रेसी हवा का रुख़ देखकर किधर भी जा सकते हैं, कोई किसी से कम नहीं है. उदाहरण अंतहीन हैं.

नेताओं से सबने उम्मीद छोड़ दी है लेकिन जनता भी नाउम्मीद कर रही है. अकालियों और भाजपाइयों को तो अपनी राजनीति चमकानी है लेकिन भीड़ में जो तलवार-त्रिशूल चमकाते हैं वो तो नेता नहीं हैं, किसी भी स्तर पर असहिष्णुता को बढ़ावा देने के ख़तरे से जो आगाह नहीं हैं वे ही सच्चे देशद्रोही हैं.

असहिष्णुता सिर्फ़ धर्म के मामले में नहीं है. जाति-भाषा-क्षेत्र-प्रांत सबको लेकर असहिष्णुता है. महाराष्ट्र हो या असम, मु्द्दा एक ही है कि बिहार-उत्तर प्रदेश से रोज़ी कमाने आए लोगों को कैसे भगाया जाए. मराठी हों या असमिया कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मूल बात है कि वे बहुसंख्यक हैं और उन्हें पता है कि लोकतंत्र के इस भारतीय संस्करण में उन्हीं की चलेगी.

बात यहीं ख़त्म नहीं होती, अब तो लोगों की साहित्यिक भावनाएँ भी आहत होने लगी हैं. नामवर सिंह ने पंत जी के अधिकांश साहित्य को कूड़ा बता दिया है इस पर राजनीति शास्त्र के एक अध्यापक की साहित्यिक भावनाएँ आहत हो गई हैं और उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है. इसके पहले शिल्पा के चुंबन की वजह से रोमांटिक भावनाएँ आहत हुई थीं.

बहस यह है ही नहीं कि पंत जी का साहित्य कूड़ा था या नहीं, बहस तो ये है कि अगर नामवर सिंह को ऐसा लगता है तो इसमें अदालत का क्या काम है. बात सिर्फ़ ये है कि किसी को थोड़ा परेशान करके नाम भी हो जाएगा और साहित्य-संस्कृति-धर्म के रक्षक भी बन जाएँगे, इससे आसान सौदा क्या हो सकता है.

दूसरी ओर, जज साहब साहित्य-चित्रकला-चुंबन सबके ज्ञाता हैं. उनके पास ढेर सारी फ़ुर्सत है, सिर्फ़ डेढ़ करोड़ मुक़दमे पेंडिंग हैं, सिर्फ़ कुछ लाख लोग हैं जो लौकी या मुर्गी चुराने के जुर्म में 20 साल से जेल में बंद हैं. उनकी बारी जब आएगी तब आएगी, लेकिन उससे पहले धर्म-संस्कृति-साहित्य को नष्ट-भ्रष्ट होने से बचाना ज़रूरी है. सीधे शब्दों में अदालतें ऐसे मुक़दमे शुरू करके असहिष्णुता को न्याय पर तरजीह दे रही हैं.

हर तरह की असहिष्णुता बाक़ी देश की तरह नारद पर भी दिखती है, विचारहीनता से उपजी असहिष्णुता और वैचारिक प्रतिबद्धता के थोथे अहंकार से पैदा हुई असहिष्णुता भी. ब्लॉग लिखने वाले आम नागरिकों से ज़्यादा समझदारी दिखाएँगे, यह उम्मीद कुछ ज़्यादा तो नहीं.

18 मई, 2007

अजब आनंद है अज्ञान में

ज्ञानी कहते हैं कि अज्ञान अंधकार है जिसे ज्ञान का प्रकाश ही दूर कर सकता है, यह वाक्य अधूरा है. उन्होंने यह नहीं बताया कि ज्ञान आनंद का परम शत्रु है.

ठीक उसी तरह जैसे शोर मचाने वाले कहते हैं कि उन्होंने शांति की ऊब को ख़त्म कर दिया है.

यह ज्ञान का घमंड है कि उसने अज्ञान को ओछा समझा.

अज्ञानी सब समझते हैं, आप उन्हें ज्ञान से खिजा दें तो वे सिर्फ़ इतना कहते हैं--"अपने-आपको बड़ा ज्ञानी समझता है."

ज्ञान की रोशनी में मुझ जैसे लोग मुँह लटकाए बैठे हैं (प्रोफ़ाइल वाला फ़ोटो देखिए)जबकि सारी मस्ती अज्ञान के अंधकार में होती है.

'इग्नोरेंस इज़ ब्लिस' सुना था लेकिन इस छोटी सी बात में कितना गहन ज्ञान छिपा है यह मैं ज्ञान की चकाचौंध में समझ ही नहीं पाया.

मैंने अपने जीवन में जितने लोगों को अज्ञानी समझकर हिकारत की नज़रों से देखा है, वे सब शर्तिया तौर पर मुझसे ज्यादा आनंदित हैं.

ज्ञानी शहर के अंदेशे में दुबले होते हैं जबकि अज्ञानी आनंद के सागर में गोते लगाते हैं.

बचपन से आज तक आपने देखा है, जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है, आनंद कम होता जाता है.

गौतम बुद्ध ने वर्षों तक घर-परिवार और राजसी आनंद का त्याग करने के बाद जो प्राप्त किया था उसे ज्ञान कहते हैं.

अब सुनिए कि वह ज्ञान क्या था--संसार में दुख ही दुख है, दुखों का कारण तृष्णा है, तृष्णा का कारण अभिलाषा है, तृष्णा की आग बुझाने से और भड़कती है, तृष्णा कम करो तभी दुखों से छुटकारा होगा...

अब इस ज्ञान के साथ क्या ख़ाक आनंद मिलेगा, ज्ञान यही है कि कुछ भी न चाहो, आप कुछ नहीं चाहेंगे तो कुछ मिलेगा नहीं, कुछ मिलेगा नहीं तो आनंद कहाँ से आएगा.

ज्ञानियों ने ही समझाया है कि आनंद अंदर से फूटता है, उसके लिए बाहर से कुछ नहीं चाहिए, यह भी ज्ञानियों की आनंद-विरोधी चाल है. उन्होंने यह नहीं बताया कि जब तक ज्ञान भीतर है आनंद बाहर नहीं फूट सकता.

ज्ञानी कहते हैं कि इस संसार में एक ही सत्य है, मृत्यु. अब अगर आप जानते हैं कि सत्य क्या है तो आप मरते दम तक मरघट वाले माहौल में रहेंगे क्योंकि सत्य से आप टरेंगे नहीं.

मुझे हमेशा तो नहीं लेकिन बीच-बीच में आनंद आता है, इसका सीधा मतलब है कि मुझे अभी आधा-अधूरा ज्ञान प्राप्त हुआ है.

आप ही बताइए पूरा ज्ञान प्राप्त करूँ या रहने दूँ, वापस अज्ञान की उत्तम अवस्था में लौटने का विकल्प बचपन की ग़लतियों के कारण बंद हो चुका है.

13 मई, 2007

तब तो सारे ब्लॉग थानेदारजी चेक करेंगे

नाम से लग रहा है कि चंद्रमोहन हिंदू हैं, अगर मुसलमान या ईसाई होते तब तो भावनाएँ और ज़्यादा आहत हो जातीं. यह बार-बार आहत होने वाली धार्मिक भावना ही अश्लील हो चली है.

कलम और कूची चलाने वालों का फ़ैसला डंडा चलाने वालों के हाथ में सौंपने से ज़्यादा ख़तरनाक बात किसी भी सभ्य समाज के लिए कोई और नहीं हो सकती. चंद्रमोहन के चित्र अश्लील हैं या नहीं, यह अलग मुद्दा है. इस पर वैचारिक बहस हो सकती है लेकिन फौजदारी नहीं.

जिस रफ़्तार से लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं वह निश्चित रूप से चिंता की बात है. जिनकी भावनाएँ आहत हो रही हैं उन्हें पता लगाने की ज़रूरत है, उनकी भावनाओं में कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं है.

हिंदू पौराणिक ग्रंथों को पलटते ही पता चलता है कि उनमें काम और कामुकता को लेकर कोई झेंप नहीं है, देवताओं और देवियों का पर्याप्त सेनसुअल चित्रण किया गया है, अगर आप उसी वर्णन को पेंटिंग के रूप में उकेरना चाहेंगे तो 'धर्म के रक्षक' आपको बख़्शेंगे नहीं.

विस्तार में जाने का कोई मतलब नहीं है लेकिन देवराज इंद्र से लेकर प्रभु विष्णु तक की कामक्रीड़ाओं का ग्राफ़िक वर्णन उन ग्रंथों में है जिन पर अक्षत-फूल चढ़ाए जाते हैं. देवी लक्ष्मी की कमनीय कटि और विपुल वक्षों का विशद वर्णन श्रीसूक्त में है जो एक वैदिक स्तुति है.

शिव लिंग की पूजा करने वाले हिंदू समाज में लैंगिकता, नग्नता को लेकर ऐसी वर्जना समझ में नहीं आती है. वैसे भी, नग्नता हमेशा अश्लीलता नहीं होती, मंदिर में माँ काली की नग्न मूर्ति अश्लील नहीं लगती, दिगंबर जैन मुनि किसी को अश्लील नहीं लगते लेकिन एक कलाकार की कल्पना अचनाक अश्लील हो जाती है. बहरहाल, यहाँ मुद्दा कुछ और है.

हिंदू संस्कृति में काम को लेकर जो उन्मुक्तता रही है वह शर्माने या झेंपने की नहीं, समझने और सम्मान करने की चीज़ है. जो कुछ आपके पुण्य ग्रंथों में लिखा है अगर वह किसी रूप में सामने आता है तो उसमें घबराने या आहत होने की क्या बात है?

देवी और देवताओं का हमारी संस्कृति ने मानवीकरण किया, सखाभाव और प्रेमभाव से भक्ति की, अब अगर ऐसा होगा तो भक्त अपनी काम भावनाओं को कूड़ेदान में नहीं फेंक देगा, बल्कि जिस ईश्वर को उसने इतना सुंदर-मोहक-आकर्षक बनाया है उसमें काम का दिखना एकदम स्वाभाविक बात है.

सुनील गंगोपाध्याय विवाद भी कुछ ऐसा ही था. मैंने देवियों की मूर्तियाँ बनते देखी हैं, उन्हें निरावरण देखा है, वे निश्चित तौर पर बेहद आकर्षक होती हैं और किसी किशोर का उन्हें सुंदर देह की तरह देखना सहज संभव है. श्रद्धा, सम्मान, प्रेम और कामुकता सब एक ही दिमाग़ में उपजते हैं और एक-दूसरे में
घुलमिल जाते हैं, कौन कहाँ शुरू होता है, कहाँ ख़त्म, यह कहना मुश्किल है. कलाकार उसे ज़ाहिर करने की कोशिश करता है, हिम्मत करता है. हम-आप दबाकर बैठ जाते हैं. उस पर डंडे चलाने के बदले उसे समझने की कोशिश करिए.

सुनील गंगोपाध्याय जैसे रचनाकार की इस हिम्मत को मानसिक विकृति या सनसनी फैलाने का हथकंडा कह देना बहुत आसान है. उसे समझने के लिए थोड़ी बुद्धि, थोड़ी संवेदना और रटी-रटाई बातों से परे देखने का साहस चाहिए. हर मामले में हर कलाकार सही है और विरोध करने वाले ग़लत हैं, ऐसा नहीं हो सकता. मगर सत्ता और क़ानून का कला के क्षेत्र में कोई दख़ल नहीं हो सकता. कलाकारों और कला के पारखियों को देखने-परखने दीजिए, आपको अच्छा लगता है तो देखिए, नहीं लगता है तो मत देखिए.

जो लोग धार्मिक भावनाओं के आहत होने की दुहाई देते हैं उनका पहला तर्क होता है, 'मुसलमानों का बनाकर दिखाओ'...जो लोग चाहते हैं कि इस्लाम की तरह सारे कलाकार हिंदू धर्म के सिपाहियों से भी डरने लगें और उनके प्रतीकों से दूर रहें, वे एक अधोगामी प्रतियोगिता में पड़ रहे हैं जो उन्हें वहीं ले
जाएगी जहाँ उन्मादी मुसलमान ही नहीं, हर धर्म के जाहिल लोग हैं.

सहिष्णु होने का दावा करने वाले हिंदु आज मुसलमानों के उन्मादी तबक़े से लगातार प्रेरणा ले रहे हैं. वे अक्सर मिसाल देते हैं कि कार्टून विवाद में मुसलमानों ने दुनिया को हिला दिया, हिंदू ऐसा नहीं कर पाते क्योंकि वे एकजुट नहीं हैं, अपने धर्म की अस्मिता को लेकर आक्रामक नहीं हैं... वगैरह-वगैरह. ऐसा लगता है मानो आहत होने और बुरी तरह आहत होने की होड़ सी लगी है.

अलग-अलग धर्मों की तुलना नहीं करनी चाहिए, इसका कोई सकारात्मक नतीजा शायद ही कभी निकला हो. हिंदु धर्म की तुलना वैसे भी दूसरे धर्मों से नहीं हो सकती क्योंकि अन्य धर्मों की तरह उसमें न तो एक किताब है, न एक या कुछेक पैगंबर. उसके कोई तय मानदंड नहीं हैं, उसने मंदिरों की दीवारों
पर यौनशिक्षा दी...कामसूत्र और ब्रह्मचर्य का एक जैसा सम्मान रहा. ऐसा इसलिए हुआ कि हज़ारों वर्षों से विचारों का निर्बाध संप्रेषण होता रहा, समय के साथ सीमाएँ टूटती रहीं, कला-संगीत-साहित्य-विचारों पर ताले नहीं जड़े गए.

मेरी भी धार्मिक भावनाएँ हैं और उन्हें भी ठेस पहुँचती है जब मेरे धर्म की सीमा तय करने की कोशिश कोई जाहिल करता है.

09 मई, 2007

अनामदास की पोलपट्टी सब सच्ची-सच्ची

हर आदमी पूछता है, आई कार्ड दिखाओ, बैज दिखाओ, किधर खड़े हो, जल्दी बताओ. किस खाँचे में फिट होते हो?

आज मैं सिर्फ़ अपनी बात करूँगा. एक-एक शब्द सच है. मुझे ख़ुद ही पता नहीं है, मैं कहाँ खड़ा हूँ, जो सही लगता है करता हूँ, अपना तर्क ख़ुद बुनता हूँ...उधेड़ता हूँ...बुनता हूँ.

हिंदू हूँ लेकिन बीफ़ बर्गर पसंद है.

थोड़ा वामपंथी हूँ लेकिन माओ-स्टालिन का निंदक हूँ.

थोड़ा साम्यवादी हूँ लेकिन पूंजी जुटा रहा हूँ.

थोड़ा गाँधीवादी हूँ लेकिन माँसाहारी और मदिराप्रेमी हूँ.

थोड़ा समाजवादी हूँ लेकिन लोहिया-जेपी के बाद लालू जँचे नहीं.

पूरा लोकतंत्रवादी हूँ लेकिन अमरीकी स्टाइल कबूल नहीं है.

पक्का अमरीका विरोधी हूँ लेकिन सद्दाम मंज़ूर नहीं था.

ईरान समर्थक हूँ लेकिन मुल्लों से चिढ़ है.

देशप्रेमी हूँ लेकिन विदेश में रहता हूँ.

राष्ट्रवाद का आलोचक हूँ लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन से डर लगता है.

आधुनिक हूँ लेकिन वेद-उपनिषद पढ़ना चाहता हूँ.

सवर्ण हूँ लेकिन आरक्षण को ग़लत नहीं मानता.

व्यवस्था विरोधी हूँ लेकिन नौकरी करता हूँ.

जान साहित्य-इतिहास में बसती है लेकिन रोज़गार समाचार है.

सृजनशील हूँ लेकिन अनुवाद करता हूँ.

सारे कर्म-उद्यम करता हूँ लेकिन नियति को मानता हूँ.

परिवर्तन चाहता हूँ लेकिन उससे डरता हूँ.

मानवतावादी हूँ लेकिन उसके लिए कुछ नहीं करता.

आप ही बताइए, कौन है जो मुझे अपनाएगा, मैंने सबको ठुकराया है. मैं ग़लत हूँ लेकिन सबसे ग़लत यही मानना है कि कोई भी, कुछ भी पूरी तरह सही है. बाक़ी निर्णय आप ख़ुद करें.

07 मई, 2007

नारद पर हिंदू-मुसलमान टंटा यानी 'माइ हेड'

तर्क-वितर्क, सुतर्क-कुतर्क का चक्र-कुचक्र जारी है. हिंदू, हिंदुत्व, मुसलमान,इस्लाम, धर्मांधता, सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता जैसे सारे शब्द ज़रूरत से ज़्यादा ख़र्च हो चुके हैं.

सबकी राय पढ़ी, अपनी राय दी लेकिन बहस है कि चलती जाती है, साथी हैं कि ईंधन झोंके जाते हैं.

समझने वाले समझ गए हैं, जो नहीं समझे हैं वो भी नासमझ नहीं हैं उन्होंने तय कर लिया है कि हम नहीं समझेंगे.

ट्विंकल नाम की पत्रिका में बचपन में पढ़ी हुई कहानी बरबस याद आ रही है, बार-बार याद आ रही है. जो कुछ इस तरह है--

मास्टर साहब पढ़ा रहे थे--'माइ हेड यानी मेरा सिर.'

पढ़ाई करने के बाद शाम को घर पहुँचे टिल्लू से उसके पापा ने पूछा, 'बेटा आज स्कूल में क्या पढ़ा?' टिल्लू ने कहा, 'माइ हेड यानी मास्टर साहब का सिर.'

पापा पहले हँसे, फिर बोले, 'नहीं बेटे, माइ हेड यानी मेरा सिर.' टिल्लू ने कहा, 'माइ हेड यानी आपका सिर.' पापा ने दोहराया, 'बेटे, माइ हेड यानी मेरा सिर.'

टिल्लू अगले दिन स्कूल पहुँचा, मास्टर साहब ने कहा, 'बच्चों, कल का सबक दुहराओ. टिल्लू तुम बताओ, माइ हेड यानी?'

टिल्लू उछलकर खड़ा हुआ, 'मास्टर साहब, माइ हेड मतलब पापा का सिर.' मास्टर साहब ने उसके कान उमेठे और कहा, 'बेवकूफ़, माइ हेड का मतलब पापा का सिर नहीं, मेरा सिर.' टिल्लू ने कहा, 'मेरे पापा ने तो कहा था, माइ हेड मतलब मेरा सिर.'मास्टर साहब बहुत नाराज़ हुए, टिल्लू को एक चपत लगाई और कहा, 'हमेशा के लिए याद कर लो, माइ हेड का मतलब मेरा सिर.'

टिल्लू घर पहुँचा, पापा ने स्कूल की पढ़ाई के बारे में पूछा, टिल्लू ने कहा, 'आपने तो ग़लत बता दिया था, माइ हेड का मतलब आपका सिर थोड़े ही होता है, माइ हेड का मतलब मास्टर साहब का सिर होता है.' पापा बहुत नाराज़ हुए उन्होंने थप्पड़ रसीद करने के बाद टिल्लू को सबक़ एक बार फिर पढ़ाया, 'माइ हेड यानी मेराsss सिर...मेराsss सिर....मेराsss सिर...'

टिल्लू का सिर अब तक माइ हेड का मतलब सुन-सुनकर पक चुका था, दोनों तरफ़ से कान उमेठे जा रहे थे. उसने गहन चिंतन किया और सही निष्कर्ष पर पहुँच गया---माइ हेड यानी स्कूल में मास्टर साहब का सिर, माइ हेड यानी घर में पापा का सिर.

टिल्लू ने जीवन के अनुभव से सीखा है कि माइ हेड का मतलब क्या होता है. न तो उसके पापा के पास इतना अनुभव है, न ही मास्टर साहब के पास जो वे उसे माइ हेड का 'हेड एंड टेल' समझा सकें.

अब आप प्यार से समझाने की कोशिश करें या कान उमेठें, टिल्लू अपने निष्कर्ष पर पहुँच चुका है.

अगर आप ख़ुद को या किसी और को टिल्लू समझ रहे हों तो निम्नलिखित सूचना अवश्य पढ़ लें.

विशेष सूचनाः (इस कथा के सभी पात्र काल्पनिक हैं, किसी भी जागृत या सुप्त चिट्ठाकर की लेखनी या करनी से इसका कोई संबंध नहीं है, अगर कोई संबंध हो तो वह महज एक संयोग है.)

बेहतर यही है कि कोई नया अध्याय शुरू किया जाए, मिसाल के तौर पर 'माइ लेग' यानी नारद की टाँग.

04 मई, 2007

कहीं आप देशभक्त तो नहीं हैं?

मैं देशभक्त नहीं हूँ. न होना चाहता हूँ, मैं देशभक्ति से डरता हूँ क्योंकि दुनिया की हर लड़ाई की वजह वही रही है.

मैं देशप्रेमी हूँ. दुनिया भर में जितनी तरक़्की हुई है उसके पीछे लोभ-लाभ के अलावा कहीं न कहीं देशप्रेम ज़रूर रहा है.

देशप्रेम में भावना की ताक़त है तो देशभक्ति में अंधश्रद्धा की दासता. प्रेम दोतरफ़ा रिश्ता है जबकि भक्ति एकतरफ़ा.

सबसे ख़तरनाक बात जो देशभक्त बार-बार कहते हैं-"देश इंसान से बड़ा है".

यह सरासर ग़लत बात है कि देश इंसान से बड़ा है, कोई भी व्यवस्था किसी जीवित इंसान बड़ी नहीं हो सकती. देश एक व्यवस्था है जिसे इंसान ने ही बनाया है, इसमें व्यापक हित दिखता है कि व्यवस्था बनी रहे इसलिए कोई भी व्यवस्थावादी यही कहेगा कि देश बड़ा है लेकिन कोई सच्चा मानवतावादी इसे स्वीकार नहीं कर सकता. मैं तो नहीं करता. दुनिया में सब कुछ इंसान के लिए है, इंसान से बढ़कर कुछ नहीं.

देश की एकता और अखंडता कोरी राजनीतिक नारेबाज़ी है, दुनिया भर के देशों का नक़्शा बीसियों बार बदला है, आगे भी बदलेगा. लेकिन देशभक्ति के नाम पर हज़ारों-लाखों बेकसूर लोगों की जान लेने के बाद. टोबा टेक सिंह भारत में हो या पाकिस्तान में इससे आदमी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, देशभक्ति या हुब्बुलवतनी के दुकानदारों और उनके भोले ग्राहकों को फ़र्क़ पड़ता है.

देशप्रेम अपने परिवार-परिवेश के प्रति प्रेम का विस्तार है. मैं देशप्रेमी हूँ, इसलिए नहीं कि भारत एक बेहतरीन देश है, मैं देशप्रेमी इसलिए हूँ कि मेरे जीने का ढंग हिंदुस्तानी है जो एक विशु्द्ध संयोग है, मेरे पूरे अस्तित्व से मेरी संस्कृति को अलग नहीं किया जा सकता, मेरा भारत-प्रेम एक सांस्कृतिक प्रेम है. एक स्वाभाविक प्रेम है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं है, जिसके लिए किसी ने मुझे पट्टी नहीं पढ़ाई है.

देशभक्ति एक थोपा हुआ राजनीतिक विचार है जो इनडॉक्ट्रिनेशन यानी घुट्टी पिलाने से पैदा होता है, देशभक्ति को हर देश में सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्थापित किया गया है. दुनिया के ज़्यादातर देशों के नेताओं ने जितने भी घृणित कार्य किए हैं देशभक्त जनता ने उसके गुण-दोष पर विचार किए बिना देशभक्ति के नाम पर मानवता के ख़िलाफ़ किए गए सभी अन्यायों का समर्थन किया है.

देशभक्त अमरीकी जनता ने हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराए जाने को ग़लत कहना ग़लत समझा. देशप्रेमी जनता ने हिरोशिमा और नागासाकी में दोबारा जान फूँकने का चमत्कार कर दिखाया. उदाहरण हज़ारों हैं लेकिन उनमें जाने से बहस भटक जाती है.

देशभक्त पाकिस्तानी नहीं मानते कि तालेबान को समर्थन देकर पाकिस्तान ने अपने फ़ायदे के लिए अफ़ग़ानिस्तान के लिए इतनी बड़ी मुसीबत पैदा कर दी, देशभक्त भारतीयों ने कब माना कि तमिल विद्रोहियों को प्रशिक्षण और हथियार देकर भारत ने श्रीलंका की आम जनता का अहित किया. दोनों देशों के देशभक्त तो यही नहीं मानेंगे कि ऐसा कुछ हुआ भी था.

दुनिया में सबसे आसान है देशभक्त होने का तमगा ख़ुद पहन लेना और देशद्रोही होने का किसी और को पहना देना. अगर किसी ने देश की बहुसंख्य जनता का अहित किया है तो वह यूँ ही मानवता का अपराधी है लेकिन जिसे देशद्रोह कहा जाता है वह हमेशा राजसत्ता के हितों पर चोट होती है, न कि जनता के हितों पर. जनता के हितों पर सबसे अधिक चोट वही कर सकता है जो सत्तासीन हो, लेकिन वह कभी देशद्रोही नहीं होता.
सवाल उठ सकता है कि इस तरह तो भगवान की भक्ति में भी बुराई है. ईश्वरभक्ति और देशभक्ति में एक बुनियादी फ़र्क़ है. ईश्वर राजनीतिक सत्ता के केंद्र में नहीं बल्कि अध्यात्मिक सत्ता के केंद्र में है. देश या राष्ट्र नाम की व्यवस्था राजनीति और कूटनीति की धुरी है.

बहस बहुत लंबी हो गई है. बहरहाल, हर देशभक्त यही तो चाहता है कि देश श्रेष्ठ बने लेकिन भक्ति श्रेष्ठ बनाने का नहीं बल्कि आँख मूँदकर अराध्य को सर्वश्रेष्ठ मान लेने का नाम है, किसी को आपने यह सोचकर पूजा करते देखा है कि इससे शायद रामजी या कृष्णजी और बेहतर हो जाएँ.

प्रेम हो तो आपको ग़ुस्सा भी आएगा, खीझ भी होगी और ये चाहत भी सुलगती रहेगी कि आप जिससे प्रेम करते हैं वह कैसे बेहतर बनेगा.

01 मई, 2007

आपके शब्द बताते हैं आपकी हैसियत

आप उतने ही शब्द जानते हैं जितनी आपने दुनिया देखी है.

शब्द भंडार और अनुभव संसार बिल्कुल समानुपाती होते हैं.

अनुभव संसार का मतलब स्थूल अनुभव से नहीं है, इसमें वह सब शामिल है जो आपने पढ़ा-सुना-देखा-जाना है. अगर लिखते या बोलते समय शब्दों की कमी महसूस हो रही है तो इसके दो ही मतलब हैं--या तो अभी जीवन भरपूर नहीं जिया है या ग्राह्यता में कुछ कमी रह गई है.

शब्द और विचार एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, विचारों में जितनी विविधता जितनी जटिलता होगी उन्हें व्यक्त करने के लिए आपको उतने ही बहुविध शब्दों की ज़रूरत होगी. अगर जीवन में घूमने-फिरने-खाने-पीने-देखने-सुनने-लिखने-पढ़ने-अनुभवी लोगों से मिलने-जुलने के अनुभव कम हैं तो आपके पास शब्द भी कम होंगे.

डर लग रहा है कि ज्ञान बघारने का आरोप लगने ही वाला है लेकिन भाषा और ख़ास तौर पर शब्दों को लेकर मैं कुछ बावला-सा हूँ इसलिए अपने-आप को रोक नहीं पा रहा हूँ. बुरा मत मानिएगा और माफ़ कर दीजिएगा अगर आपको लगे कि मैं बड़बोला हो रहा हूँ.

गोड़ाई, निराई, रोपनी, दँवरी, अधबँटाई, पगहा, रेहड़, जोहड़...अगर आपको ये शब्द नहीं मालूम तो आपकी खेती-किसानी में कोई दिलचस्पी नहीं है. इन शब्दों को जानने के लिए किसान होना ज़रूरी नहीं है. खेत से आपकी थाली तक अनाज कैसे पहुँचता है इसमें रुचि होना बहुत सहज है, लेकिन सबकी रुचि नहीं होती.

करनी, साबल, खंती, गैंता, रंदा, बरमा जैसे शब्द अगर आपको नहीं मालूम इसका मतलब है कि आपके घर में मज़दूरों और बढ़ई ने कभी काम नहीं किया या फिर वे क्या करते हैं, क्यों करते हैं, कैसे करते हैं इसमें आपकी दिलचस्पी नहीं रही.

कील, कवच, अर्गला, मारण, मोहन, उच्चाटन, संपुट आप नहीं जानते इसका मतलब है कि आपके घर में देवी की विधिवत पूजा कभी नहीं हुई, अगर हुई तो आपको पता नहीं चला कि क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, कैसे हो रहा है.

जौजे, मौजे, खसरा, खतियान, वल्द, मुदई, नालिश, हाज़िर-नाज़िर, दाख़िल-ख़ारिज अगर आप नहीं जानते इसका मतलब यही है कि आपने ज़मीन न ख़रीदी है, न बेची है, न आपने कभी किसी गाँव-क़स्बे के ज़मीन के पट्टे को छुआ-पढ़ा-देखा है.

ब्लू लगून, ब्लैक रशियन, सेक्स ऑन द बीच, पर्पल रेन, लॉग आइलैंड आइस टी...अगर आपको ये फ़िल्मों के नाम लग रहे हैं तो इसका मतलब है कि कॉकटेल में आपकी कोई रुचि नहीं है. हैनिकेन, स्टेला आर्तुआ, बडवाइज़र, कार्लस्बर्ग, करोना...दुनिया की मशूहर बियरों के नाम हैं जिन्हें जानने के लिए शराबी होना ज़रूरी नहीं है.

उदाहरण हज़ारों हैं. दर्शन, कला, धर्म, अधायात्म, सिलाई,कढ़ाई,बुनाई,पेंटिंग, पाककला, युद्धकला, दस्तकारी, भवननिर्माण, व्यापार, उद्योग, पर्यटन, खेल-कूद, चिकित्सा, रसायन, इतिहास, पुरातत्व...जितने भी नाम आप गिन सकते हैं इन सबसे हमारे आम जीवन में शब्द आते हैं.

आपकी रुचि कितने विषयों में है, आप कितना जानने-समझने और पचाने की कुव्वत रखते हैं इसी पर निर्भर करता है कि आपका शब्द भंडार कितना बड़ा है.

इसका किसी एक भाषा से ताल्लुक़ नहीं है, कुल मिलाकर आप जितने शब्द जानते हैं इस दुनिया को आप उतना ही बेहतर जानते हैं.

मैं बहुत भाग्यवान हूँ कि भारत के एक क़स्बे में पैदा हूँ, महानगर में जवानी के शुरुआती वर्ष गुज़ारे और एक दशक से यूरोप में हूँ, एक बोली और दो भाषाएँ मोटे तौर पर ठीक-ठाक आती हैं, यह अपने-आप बेहतरीन संयोग है. लेकिन ज़्यादातर लोगों के साथ ऐसा नहीं होता मगर पढ़कर, देखकर, सुनकर बहुत कुछ जाना-समझा जा सकता है. एक दफ़ा सीधे बिहार के एक गाँव से आए एक व्यक्ति ने ब्रिटेन की भौगोलिक रूपरेखा के बारे में ऐसा ज्ञानवर्धन किया कि मैं और मेरे पैदाइशी ब्रितानी दोस्त सकते में आ गए.

कोई विरला और शायद खिसकी हुई खोपड़ी वाला ही आदमी होगा जिसे शब्दकोश के सारे शब्द याद होंगे, शब्दकोश लिखने वालों को भी शायद नहीं याद होते. न ही कोई शब्दकोश रटकर विद्वान बन सकता है.

लेकिन जब आप शब्दों की ताक़त, उनके मर्म, उनकी उत्पत्ति, उनकी विविधता, उनकी छाया, उनकी ध्वनि को समझना शुरू कर देंगे तो आपको खाने-पीने-पढ़ने-लिखने-जीने का मज़ा आने लगेगा.

पुर्तगाल और भारत के कई हिस्सों में आलू को बटाटा और अनानास को अनानास ही कहते हैं...ऐसी सिर्फ़ एक मामूली बात जानने के बाद आलू, अनानास, इतिहास, भूगोल, व्यापार, उपनिवेशवाद, भाषाशास्त्र सबकी परतें खुलने लगती हैं.

आप प्याज़ की एक परत उतारकर आँसू बहाने लगते हैं या छीलते चले जाना चाहते हैं यह आपके ऊपर है.