13 नवंबर, 2007

उदासी के भूरे चुभते कंबल में लिपटे दिन-रात

हरे पेड़ नंगे हो गए हैं, दो महीने पहले तक अधनंगे घूम रहे लोग लबादे लादे डोल रहे हैं. लाल, पीले, गुलाबी फूलों और हरियाली पर धूसर पेंट की बाल्टी उलट दी है किसी ने. यूरोप में सर्दी सांकल खड़का रही है.

सड़क पर डाल से बिछड़े पत्तों का अंबार है जो ठंडी हवा में उड़कर मुँह पर आते हैं, जूतों के नीचे उदास-सी आवाज़ करते हैं. कहीं कोई रंग नहीं, बस मुँह से भाप छोड़ती भूरी-काली आकृतियाँ हैं.

धूप, मूंगफली, गन्ने और रंग-बिरंगे स्वेटर नहीं हैं. दिन भर सूरज की सेंक और शाम को अलाव, सिगड़ी या हीटर...मकर संक्रांति तक की बात है उसके बाद तो सर्दी अपने मामा के घर चली जाती है. यूरोप की सर्दी का कोई मामा नहीं है जहाँ वह चली जाए, वह छह महीने तक बेघर भटकती है.

यूरोप में आसमान पर कंबल तन गया है, सब धुंधला-सा है कंबल के अंदर, सर्द हवा हड्डियाँ छेदती है कंबल के अंदर भी. सारे पुराने चोट-दर्द और घाव याद आते हैं. आँख बहती है, नाक जम जाती है, कान सुन्न हो जाते हैं...पाँचों ज्ञानेंद्रियों को पाला मार जाता है.

ये शुरुआत है जिसे विंटर कहलाने का गौरव हासिल नहीं है, यह पतझड़ है यानी ऑटम. गहरी उदासी का मौसम, सारी ख़ुशियों और उल्लास के स्थगन का मौसम. सर्दियों में फूल नहीं खिलेंगे, अंडों से बच्चे नहीं निकलेंगे, गिलहरी नहीं फुदकेगी, सब इंतज़ार करेंगे कंबल के हटने का, कोहरे के छंटने का. अप्रैल यानी स्प्रिंग तक कठजीव इंसानों के अलावा कुछ भी जीता-जागता नहीं दिखेगा.

इस बर्फ़ानी ठंड का प्रतिकार करने की एक कोशिश होगी क्रिसमस. ब्रांडी, जगमगाती बत्तियाँ और तोहफ़े थोड़ी गर्मी देने की कोशिश करेंगे लेकिन उस आख़िरी कोशिश के बाद सिर्फ़ वसंत की राह देखकर ही दिन-रात काटे जा सकेंगे. काली-डरावनी सर्दी क्रिसमस के जश्न के बाद थककर चूर यूरोप पर घात लगाकर हमला करेगी और कोई बच न पाएगा.

अगले छह महीने यूरोप एक मटमैली ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म की तरह दिखेगा, लोग ठंड की वजह से वैसे ही चलेंगे जैसी बहुत पुरानी फ़िल्मों में गाँधी जी चलते दिखते हैं. सड़क पर कोई बेवजह एक पल नहीं बिताना चाहेगा, कहीं ऐसी जगह पहुँचने की जल्दी होगी जहाँ ख़ून दोबारा पिघलकर धमनियों में बहने लगे.

सुनहरी धूप वाले मौसम में पार्क, बीच और गार्डन की तरफ़ भागने वाले लोगों को अब गुनगुने घर में लौट आने का सुख महसूस होगा. गर्म पानी, गर्म रज़ाई, गर्म चाय और घर में बसने वालों की उष्मा, इन सबका मोल फिर से समझ में आने लगेगा.

कुछ ही महीने में हम सब कुछ कैसे भूल जाते हैं. लगता है, धूप खिली रहेगी, तितलियाँ उड़ती रहेगी, हम रंग-बिरंगे टी-शर्ट पहनकर यूँ ही फहराते रहेंगे अनंतकाल तक डरावनी सर्दी अब कभी नहीं आएगी. लेकिन हर बार की तरह वह आ रही है, यूरोप भूरा, भयभीत और मलिन-सा होता जा रहा है.

30 अक्तूबर, 2007

पहला नशा, उम्र भर का ख़ुमार

मौसम यही था, बस उमर कुछ और थी. दीवाली से पहले की हल्की ठंड, बारिश की टिपिर-टिपिर से राहत. अच्छी-सी धूप, मीठा-मीठा गन्ना बिकने लगा था.

बारिश में जमी काई धूप से सूखकर झड़ गई और सारे काले-भूरे भुए तितलियाँ बनकर उड़ गए, बरसों बाद हासिल ज्ञान से पता चला कि उस एकरंगे मटमैले फड़फड़ाते जीव को तितली कहलाने का गौरव हासिल नहीं, उसे मॉथ कहते हैं.

ऐसे मौसम में 14 साल की उम्र में छत पर पी गई चाय का मज़ा लंदन के किसी बेहतरीन पब की बियर से बेहतर है, उम्र का अपना नशा होता है जिस पर बियर की बोतल की तरह एल्कोहल का परसेंट नहीं लिखा होता.

उम्र का नशा ईरान-सऊदी अरब और वेटिकन में भी होता है जहाँ ज्यादातर ऐसी चीज़ों की मनाही होती है जो अच्छी लगती हैं. मगर भारत के एक क़स्बे में निम्न मध्यवर्गीय परिवेश में जहाँ आपका परिवार दो-तीन पीढ़ियों से रहता है वहाँ या तो दीदियाँ होती हैं या आप भइया होते हैं.

ऐसे ही एक अच्छे से मुहल्ले में, अच्छे से मौसम में एक अच्छी सी लड़की आई, कहीं बाहर से यानी उसके दीदी होने या मेरे भइया होने का कोई अंदेशा नहीं था.

दसवीं क्लास में पढ़ने वाले लड़के ने उसे बालकनी पर खड़े देखा, ख़ुद को देखते हुए देखा, वह अपनी छत पर गया, दोनों ने एक-दूसरे को देखा, बस देखा, खूब देखा. लड़की तो याद है लेकिन उसका चेहरा नहीं.

लड़के ने पहली बार किसी लड़की को लड़की की तरह देखा और शायद लड़की ने भी जाने-अनजाने ऐसा ही किया, दो-तीन सौ फुट की दूरी से.

उसके बाद ब्रश, चाय, नाश्ता, पढ़ाई सब छत पर. सुबह से लेकर सूरज ढलने तक. आँखों-आँखों में भी नहीं, सब दो आकृतियों में. काफ़ी कुछ इंटरनेट के आभासी रोमांस की तरह, बस कोई चैट या ईमेल नहीं, बाक़ी सब वैसा ही, दूर से कल्पना का प्यार.

अपनी सबसे अच्छी कमीज़ पहनकर, किताबें लिए धूप खिलते ही छत पर पहुँचना, उसका बालकनी में आना, मुझे थोड़ी देर देखना, फिर अचानक चले जाना, वापस आना, सूरज ढलने तक बार-बार.

पंद्रह दिन हो गए, घर में पढ़ाई के प्रति मेरे लगन की तारीफ़ हुई, मुझे मैट्रिक पास करने की चिंता हुई. सीढ़ियों पर आहट होते ही मैं किताबों में खो जाता और वह दूसरी ओर देखने लगती.

अफ़सोस कि उसे 'लड़की' लिखना पड़ रहा है जो बीस दिनों तक मेरे लिए सब कुछ थी और आज भी मैं उसे भूल नहीं सकता, बस नाम नहीं जानता.

दीवाली की अगली सुबह घर के सामने से रिक्शा गुज़रा, क्रिकेट का बल्ला हाथ से छूट गया, गेंद का होश नहीं रहा, वह जा रही थी, रिक्शे पर सूटकेस लदे थे, मतलब साफ़ था, उसने मुझे मुड़कर देखा, मैंने उसे पहली बार इतने क़रीब से देखा.

वह कहाँ से आई थी, पता नहीं, कहाँ जा रही थी, मालूम नहीं. फिर कभी नहीं दिखेगी इसका अहसास था. वह सुंदर थी या नहीं, मालूम नहीं. उसका चेहरा याद नहीं, लेकिन एक आकृति याद है जो मेरे मन पर उम्र ने खींची थी.

मैं बहुत रोया लेकिन सिर्फ़ थोड़ी देर के लिए जब तक भाई ने क्रिकेट खेलने के लिए बुला नहीं लिया.
एक लड़की, जो मेरी ज़िंदगी में न आई थी, न कभी मेरी ज़िंदगी से गई.

19 अक्तूबर, 2007

नवरात्र में शेर और स्कूटर पर सवार माताएँ

नवरात्र चल रहा पुण्यभूमि भारत में. नारी शक्ति की अराधना उत्कर्ष पर है. एक ऐसे देश में जहाँ शाम ढलने के बाद बाहर निकलने में महिलाओं को डर लगता है.

भारत विडंबनाओं और विरोधाभासों का देश है, इसकी सबसे अच्छी मिसाल नवरात्र में देखने को मिलती है जब लोग हाथ जोड़कर माता की प्रतिमा को प्रणाम करते हैं और हाथ खुलते ही पूजा पंडाल की भीड़ का फ़ायदा उठाने में व्यस्त हो जाते हैं.

भारत का कमाल हमेशा से यही रहा है कि संदर्भ, आदर्श, दर्शन, विचार, संस्कार सब भुला दो लेकिन प्रतीकों को कभी मत भुलाओ.

जिस देश की अधिसंख्य जनता नारीशक्ति की इतनी भक्तिभाव से अर्चना करती है उसी देश में कन्या संतान को पैदा होने से पहले ही दोबारा भगवान के पास बैरंग वापस भेज दिया जाता है, 'हमें नहीं चाहिए यह लड़की, कोई गोपाल भेजो, कन्हैया भेजो, ठुमक चलने वाले रामचंद्र भेजो, लक्ष्मी जी को अपने पास ही रखो'.

अदभुत देश है जहाँ 'जय माता की' और 'तेरी माँ की'...एक जैसे उत्साह के साथ उच्चारे जाते हैं. माता का यूनिवर्सल सम्मान भी है, यूनिवर्सल अपमान भी.

नौ दिन तक जगराते होंगे, पूजा होगी, हवन होंगे, मदिरापान-माँसभक्षण तज दिया जाएगा और देवी प्रतिमा की भक्ति होगी, मगर साक्षात नारी के सामने आते ही प्रौढ़ देवीभक्त की आँखें भी वहीं टिक जाएँगी जहाँ पैदा होते ही टिकी थीं.

भारत में पूजा करने का अर्थ यही होता है कि रोज़मर्रा के जीवन से उस देवी-देवता का कोई वास्ता नहीं है, हमारे यहाँ सरस्वती पूजा में वही नौजवान सबसे उत्साह से चंदा उगाहते रहे हैं जिनका विद्यार्जन से कोई रिश्ता नहीं होता.

स्त्रीस्वरूप की पूजा तभी हो सकती है जब वह शेर पर सवार हो, उसके हाथों में तलवार-कृपाण-धनुष-वाण हो या फिर उसे जीते-जी जलाकर सती कर दिया गया हो, दफ़्तर जाने वाली, घर चलाने वाली, बच्चे पालने वाली, मोपेड चलाने वाली औरतें तो बस सीटी सुनने या कुहनी खाने के योग्य हैं.

भक्तिभाव से नवरात्र की पूजा में संलग्न कितने लाख लोग हैं जिन्होंने अपनी पत्नी को पीटा है, अपनी बेटी और बहन को जकड़ा है, अपनी माँ को अपने बाप की जागीर माना है. वे लोग न जाने किस देवी की पूजा कर रहे हैं.

भवानी प्रकृति हैं और शिव पुरूष हैं, यह हिंदू धर्म की आधारभूत अवधारणा है. दोनों बराबर के साझीदार हैं इस सृष्टि को रचने और चलाने में. मगर पुरुष का अहंकार पशुपतिनाथ को पशु बनाए रखता है इसका ध्यान कितने भक्तों को है.

जिस दिन पंडाल में बैठी प्रतिमा का नहीं, दफ़्तर में बैठी साँस लेती औरत का सच्चा सम्मान होगा, जिस दिन शेर पर बैठी दुर्गा को नहीं, साइकिल पर जा रही मोहल्ले की लड़की को भविष्य की गरिमामयी माँ के रूप में देखा जाएगा, उस दिन भारत में नवरात्र के उत्सव में भक्ति के अलावा सार्थकता भी रंग होगा.

फ़िलहाल यह उत्सव है जो नारी शक्ति की आराधना के नाम पर पुरुष मना रहे हैं.

06 अक्तूबर, 2007

भारत की नैतिकता गई तेल लेने

किसी भी देश की विदेश नीति में कोई नैतिकता नहीं होती, कुछ ज़्यादा नंगे होते हैं, कुछ कम नंगे. नग्नता एक सांस्कृतिक प्रश्न है. अमरीका वाले जितने नंगई कर सकते हैं ब्रितानी उतना नहीं करते, लेकिन हैं सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे.

भारत चट्टा है या बट्टा आप तय कर लीजिए, मगर है तो उसी थैली में.


सबको अगर अपना फ़ायदा देखना है तो नैतिकता कौन देखे?

'मेरे पिया गए रंगून' पर भारत आज भी थिरक रहा है, रीमिक्स के साथ. कितने लोगों को इसका ख़याल है कि बर्मा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हमसाया है. वहाँ सैनिक शासक लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, इंटरनेट सहित हर संचार माध्यम पर रोक लगाकर, बौद्ध भिक्षुओं के सिर में गोली मारकर.....

भारत चुप है.

संयुक्त राष्ट्र से लेकर चीन तक के बोलने के बावजूद भारत चुप है क्योंकि उसके मुताबिक़ यह बर्मा का आंतरिक मामला है, आंतरिक मामला इसलिए है क्योंकि बर्मा के पास प्राकृतिक गैस का प्रचुर भंडार है जिस पर अमरीका, फ्रांस के अलावा भारत की भी नज़र है. पड़ोसी है इसलिए पाइपलाइन आ सकती है.

पाइपलाइन राष्ट्रहित में है. किसकी नैतिकता कब उसके अपने हित में हुई है?

जब से दुनिया ग्लोबलाइज़ हुई है, भारत सहित सबको समझ में आता है कि अमरीका ही रोल मॉडल है जिसने कंबोडिया, सऊदी अरब, चिली, इराक़ से लेकर बर्मा तक में तानाशाहियों को पाला-पोसा और भरपूर दुहा है. भारत भी उसी राह पर चल रहा है.

नैतिकता की परीक्षा हमेशा लालच के परिप्रेक्ष्य में होती है, भिखारी के कटोरे से उछली चवन्नी वापस दे देना ईमानदारी नहीं है. ईमानदारी नोटों का बंडल लौटाने पर होती है.

अमरीका की विदेश नीति के नैतिकता-निरपेक्ष होने पर भारत के लोगों ने वक़्तन-फवक़्तन शोर मचाया लेकिन अपने देश की विदेश नीति के बारे में उनका रवैया आम अमरीकी से कहाँ अलग है?

क्या यह भी याद दिलाना होगा कि नैतिकता एक उच्च मानवीय आदर्श है जिसकी वजह से दुनिया अब भी कुछ हद तक रहने लायक़ है.

अगर सिर्फ़ फ़ायदा ही देखना है तो 'अल क़ायदा' और 'अल फ़ायदा' में से कौन कम बुरा है, तय करना मुश्किल है.

01 अक्तूबर, 2007

कृषि प्रधान देश की सेवा प्रधान संस्कृति

मैं एक क़स्बाई आदमी हूँ. मेरे शहरी दोस्तों को मुझसे देहाती बू आती है, वे बू के साथ 'बद' उपसर्ग नहीं लगाते मगर 'खुश' भी नहीं. देहाती सहकर्मी भी पूरी तरह नहीं अपनाते क्योंकि उन्हें मुझसे शहरी बू आती है.

मैं शहरियों की बुनावट में छिपी बनावट देखता हूँ, देहातियों की सादगी से उपजी नाकामी की कुंठाएँ भी. मैं कहीं फिट नहीं होता, मगर इसका कोई मलाल नहीं है क्योंकि 'ऑब्ज़र्वर स्टेटस' का मज़ा ही कुछ और है.

भारत के जो भी रस-रूप-गंध-सुर-स्वाद मैंने जाने हैं (बॉलीवुड को छोड़कर) उनकी जड़ें हमारे खेतों में हैं. 'भारत एक कृषि प्रधान देश है,' इस बेहद घिसे हुए वाक्य में नई किताब के अनुसार व्याकरण की एक गंभीर भूल है. 'भारत एक कृषि प्रधान देश था,' या ज्यादा सही वाक्य है--'भारत एक सेवा प्रधान देश है.'

सर्विस सेक्टर के उभार के दौर में जब खेत श्मशान बन रहे हैं तो उनसे उपजी संस्कृति की गत क्या होगी? मैं पूरी निर्ममता के साथ विकासवादियों की बात मान सकता हूँ कि भारत में तेज़ी से विकास हुआ और वह इंडिया बन गया है, मॉल-मल्टीप्लेक्स हैं, फ्लाइओवर हैं, होम डिलिवरी सर्विस है, पित्ज़ा हट है, क्या नहीं है?

डोरहारे नहीं हैं, डफाली नहीं हैं, बहरुपिए नहीं हैं, नट नहीं, मदारी नहीं हैं, चाकू पर सान देने वाले नहीं हैं, सिल पर छेनी से रेखाएँ खींचने वाले नहीं हैं, कलई करने वाले नहीं हैं... जाने दीजिए, इन गंदे-मंदे लोगों के लिए ज्यादा भावुक होने की ज़रूरत नहीं है. टीवी पर एंकर हैं, कॉरपोरेट सेक्टर में एमबीए हैं, बोर्डरूम में सीईओ हैं, मैनेजिंग बोर्ड में स्ट्रेटिजिस्ट हैं, सरकार के पास टेक्नोक्रैट्स हैं...ये पहले तो नहीं थे. संस्कृति कोई ठहरा हुआ तालाब नहीं है, वह तो बहता हुआ दरिया है, परिवर्तन ही स्थायी है.

मेरी आँखों को सामने असंख्य अवसान हुए लेकिन श्राद्ध-तर्पण-तेरहवीं नहीं. जितने नए पैदा हुए उनकी छट्ठी और सोहर के गीत तो बहुत गाए गए लेकिन जो गुज़र गए उनके नाम पर आँसू बहाने का मतलब है विकासविरोधी होने का बिल्ला पहनना. जो कृषि प्रधान समाज में फ़सल कटने के मौसम में दराँती पर सान देते थे, जो होली-दीवाली पर नाप लेकर कपड़े सिलते थे, जो मकर-संक्राति पर तिलकुट बनाते थे, जो हर मेले में सिंदूर-टिकुली बेचते थे वो अब कहाँ हैं, क्या करते हैं? यह सांस्कृतिक सवाल से ज़्यादा एक मानवीय प्रश्न है. लाखों लाख लोग गुमशुदा हैं, जब आप गाज़ियाबाद में रिक्शे पर बैठें तो इन लोगों के बारे में पूछिएगा.

जिन लोगों ने भारत की संस्कृति बनाई, बचाई और चलाई वे कभी मध्यवर्गीय शहरी लोग नहीं रहे. बुनकर मुसलमान थे, चर्मकार दलित, काष्ठकार, ठठेरे, लुहार और ज्यादातर शिल्पकार पिछड़े. गीत-संगीत को चलाए रखने में हरिप्रसाद चौरसिया, बिसमिल्लाह ख़ान से लेकर तीजन बाई, लोकसंगीत में बलेसर यादव जैसों का हाथ ज्यादा रहा, नाम के आगे लगे पंडित या उस्ताद पर मत जाइएगा. गली-गली में रामलीला कौन करता है, होलिका दहन के लिए लकड़ियाँ कौन जुटाता है? ज़रा ग़ौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि शहरी मध्य वर्ग हमेशा से एक ही संस्कृति जीता रहा है, उच्च वर्ग में दाख़िल होने की योग्यता हासिल करने का रिहर्सल.

बस बात इतनी है कि देहाती, ग़रीब, अँगरेज़ी शिक्षा से वंचित व्यक्ति इस बुरी तरह से तिरस्कृत-बहिष्कृत,दीन-हीन-मलिन पहले शायद कभी नहीं रहा इसलिए जो उसकी संस्कृति है वह किस तरह बचेगी, क्योंकि सवाल यही है कि उसका तबक़ा किस तरह बचेगा?

'ज़माना बहुत बदल गया है,' यह हर ज़माने का सबसे प्रिय डॉयलॉग रहा है. मगर जाते हुए ज़माने की विदाई इतनी बेरुख़ी से पहले कभी नहीं हुई. किसी ने भर्राए गले से इतना तो कहा होता--जाओ शिकंजी-लस्सी-आमरस तुमने बहुत साथ दिया फ़िलहाल पेप्सी पीने दो, या जाओ मोचीराम तुमने बहुत जूते गाँठें लेकिन अब रीबॉक-एडिडैस-नाइके ही जमते है या जाओ टेलर मास्टर अब तो हम पीटर इंग्लैंड पहनते हैं...इंडिया के इस विकास में कितने लोगों को फोन सुनने का काम मिला और कितनों की आख़िरी पुकार अनसुनी रह गई, यह एक गंभीर बहस का मुद्दा है.

दस-पंद्रह वर्षों में मेलों का देश मॉलों का देश, कारीगरों का देश एसईज़ेड का देश, किसानों का देश कॉलसेंटर का देश बन गया. इस पूरे प्रक्रिया का जो हिस्सा नहीं है, वह कहीं नहीं है. इस प्रक्रिया ने एक झटके में महानगरों की विकासोन्मुख परिधि से बाहर जो कुछ भी है सबको निंदनीय, शर्मनाक और डाउनमार्केट बना दिया.

डाउनमार्केट समाज के खान-पान, तीज-त्योहार, बोली-बचन, गीत-संगीत, रीति-रिवाज़ सब ऐसे हो गए कि उससे किसी तरह का रिश्ता रखना अपमानजनक-सा हो गया है. किसान से किसी तरह का संबंध ग्लोबल हाइट्स से गिराकर कीचड़ में लथेड़ देता है. किसान को व्यवस्थित तरीक़े से मिटाया जा रहा है. खाद और ट्रैक्टर के विज्ञापन के अलावा आपने टीवी पर आख़िरी बार किसान कब देखा है? अगर देखा होगा तो प्रधानमंत्री के दौरे की वजह से विदर्भ का किसान देखा होगा जिसका भाई आत्महत्या कर चुका है.

संस्कृति, वह भी भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ भी दावे से कहने की हिम्मत मुझमें नहीं है. मगर इतना तो तर्जुबे से समझ में आता है कि जो हेय, तिरस्कृत, पिछड़ा हो वह 'कल्चर्ड' नहीं होता, उसकी कोई संस्कृति होती होगी लेकिन वह अपनाने लायक़ नहीं होती, सीखने-समझने-सराहने लायक़ नहीं होती. अगर ऐसा नहीं होता तो लोगों को सोमालियाई, भूटानी, लात्वियाई या चिलियन संस्कृति के बारे में कुछ पता होता. संस्कृति सिर्फ़ सफलता की होती है.

देश 'सफलता की राह' पर है इसलिए इंडियन कल्चर पहले से कहीं ज्यादा वाइब्रेंट है क्योंकि वह उन तीस करोड़ लोगों का कल्चर है जो फादर्स डे, मदर्स डे, वेलेन्टाइंस डे, फ्रेंडशिप डे, परंपरागत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. हैप्पी होली, हैप्पी दीपावली, हैप्पी दशहरा, हैप्पी राखी के एसएमएस और कार्ड भेजते हैं. अगर अगले कुछ वर्षों में भारत में हैलोवीन और थैंक्सगिविंग डे नहीं मनाए गए तो मुझे आश्चर्य अधिक होगा और थोड़ी खुशी भी.

संस्कृति के बारे में कोई वैल्यू जजमेंट कभी नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है कि जो कुछ देहाती है वह सब अदभुत और अनुकरणीय है और जो महानगरीय है वह निकृष्ट है. मिलने से पहले फ़ोन करके सुविधा पूछ लेना, सॉरी-थैंक यू, एक्सयूज़ मी बोलना, मुँह खोलकर डकार न लेना, जम्हाई लेते समय मुँह पर हाथ रखना, नाक में ऊंगली न घुसेड़ना, इधर-उधर न खुजाना...ये तो अच्छी बाते हैं. मुद्दे की बात सिर्फ़ इतनी है कि क्या ग्रामीण-खेतिहर परिवेश से आने वाले व्यक्ति को तमाम गुणों के बावजूद वह सम्मान मिलेगा जो उससे कम योग्य-कुशल-ज्ञानी-सक्षम शहरी व्यक्ति को मिलता है.

हमारे समाज में जातिवाद, रुढ़िवादिता, अंधविश्वास कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो आधुनिक मानवीय मूल्यों के ख़िलाफ़ हैं और हर तरह से निंदनीय हैं. मगर और भी बहुत है जो इस देश को भारत बनाता है, सबसे जुदा, सबसे ख़ास. हमारी दार्शनिक अदा (भोग के दर्शन के अलावा भी), हमारी श्रृंगारिक रुमानियत (बॉलीवुड के परे भी), आत्मा को छूने वाली वास्तु-मूर्ति-चित्र कला, हृदय को झंकृत करने वाला संगीत, नदियों-पेड़ों-जानवरों को पूजनीय बना लेने वाली हमारी सबके प्रति कृतज्ञता, काटने वाली चींटियों को भी आटा खिलाने वाली सह-अस्तित्व की संस्कृति. यह सब पूरी तरह से ख़तरे में है क्योंकि ये ग्लोबल कल्चर में कहीं फिट नहीं होता.

फिट तो वही होगा जो मशीन के नाप का हो. फैक्ट्री और एसेंबलीलाइन वाले सिस्टम में अलग होना किसी काम नहीं, बहुत बड़ी मुसीबत है. मैकडॉनल्डस पित्ज़ा हट और बर्गर किंग को शेफ की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि हर बर्गर एक ही स्पेसिफ़िकेशन का होता है, किसी दिन ज़रा करारा बर्गर माँगकर देखिए.

बहरहाल, मैं कोई अलबेला आदमी नहीं हूँ, रेडीमेड कपड़े पहनता हूँ, कोक-पेप्सी पीता हूँ, देहाती लोग कहीं टकरा जाएँ तो इज़्ज़त से पेश आता हूँ लेकिन गाँव-देहात से कोई सीधा सरोकार नहीं है. मगर मन में एक टीस है, दर्द है, बेचैनी है, भारत के 60 करोड़ से ज्यादा लोगों के बारे में सोचकर दिल दुखता है. उनके बारे में टीवी से नहीं, पत्रिकाओं से नहीं, अख़बारों से नहीं बल्कि उन लोगों से पता चलता है जो नई सेवा प्रधान वर्ण व्यवस्था के शूद्र हैं. ड्राइवर, अपार्टमेंट के सिक्युरिटी गार्ड, सुबह-सुबह बालकनी में अख़बार फेंकने वाले...वे बताते हैं कि गाँव में क्या हो रहा है, वे बताते हैं कि तीन भाई झुग्गी में रहते हैं, माँ-बाप सूखे खेत अगोरते हैं. आपको हो न हो, मुझे तो दुख होता है.

लोगों के मन में कल-कल बहती विकास की इस धारा के प्रति अपार श्रद्धा है लेकिन वह जिन तटबंधों को तोड़ आई है, जिन लोगों को बहा ले गई है उनके प्रति कोई संवेदना नहीं है. यह मेरे दुख को दोहरा कर देता है, ग्लोबलाइज़ेशन के हर सुंदर फल का आस्वादन मैं करता हूँ लेकिन वह मुझे आह्लाद के बदले अवसाद से भर देता है. क्या ये मेरी व्यक्तिगत समस्या है?

09 सितंबर, 2007

संस्कृति यानी कल्चर, कल्चर यानी संस्कृति?

अनुवाद तक तो ठीक है, लेकिन अपने देश के संदर्भ में दोनों पर्यायवाची शब्द नहीं हैं. भारत में संस्कृति और कल्चर दोनों के अलग-अलग मतलब हैं क्योंकि भारत और इंडिया अलग-अलग हैं. जिसे भारत की रंग-बिरंगी बहुविध संस्कृति कहते हैं, वह इंडिया का वाइब्रेंट कल्चर नहीं है.

इंडिया के कल्चर का परफ़ेक्ट विजुअल आपको घड़ियों, परफ़्यूमों, सूटकेसों और बाइकों के विज्ञापन में देखने को मिलता है. एक परिवार है जिसमें सब सुंदर से लोग हैं, सब हँसते-मुस्कुराते हैं, रोने पर एक-दूसरे के आँसू पोंछ देते हैं, मोज़ार्ट की धुन पर छिपाकर प्यारा-सा गिफ़्ट देते हैं, कोई बाइक, कोई सूटकेस, कोई चॉकलेट या मारूति की चाभी...ओह ब्यूटीफुल इंडियन कल्चर...कितने विभोर हो जाते हैं हम लोग अपना कल्चर देखकर और प्यार जताने के लिए दुकान की ओर भागते हैं--'ए गिफ़्ट फॉर समवन यू लव'.

पिछली सदी में भारत का एक और स्नैपशॉट यूरोपियों-अमरीकियों ने बनाया था. जादूगरों, हठयोगियों, साँप-भालू-बंदर नचाने वालों का देश. अंधविश्वासी-अशिक्षित लोगों का देश, कौतूहल जगाने वाला देश. सारे स्नैपशॉट, टैगलाइन, पंचलाइन बेचने के लिए बनाए जाते हैं. इंडिया का नया पंचलाइन पिछले दस वर्षों से लिखा जा रहा है, 'फास्टेस्ट ग्रोइंग इकॉनॉमी', 'राइजिंग पावर', 'सुपरपावर इन मेकिंग'..

भारत का स्नैपशॉट तो वही है, इंडिया वाले से ताज़ा पेंट की बू आ रही है.

भारत अब भी गुड़ी पड़वा, घोंघा नवमी, गंगा दशहरा, मकर संक्राति और बैसाखी मनाने वालों का देश है, शादियाँ कुंडलियाँ मिलाकर होती हैं, खरमास में कोई शुभ काम नहीं होता, कुएँ पूजे जाते हैं, तुलसी-बरगद-आँवला की पूजा होती है. गाय लक्ष्मी है, कुत्ता भैरव है, लंगूर हनुमान है, हाथी गणेश हैं, साँप शेषनाग हैं...एक बहुत ही असभ्य क़िस्म का सहअस्तित्व है. आपने लंदन या न्यूयॉर्क की सड़क पर गाय देखी है, कभी पेरिस में बंदर ने आपका बर्गर छीना है?

भारत आस्था का, कृतज्ञता का, सहज विश्वास का देश है जहाँ पानी देने वाली नदी माता है, जहाँ रोग हरने वाली तुलसी पूजनीय है, वहीं गणेश जी दूध पीते हैं, समंदर का पानी मीठा हो जाता है और ज़िंदा मछली निगलने से दमा ठीक होता है...

इंडिया में ग्रोथ, प्रॉस्पेरिटी, स्टाइल और सबसे बढ़कर आर्थिक सत्ता पूजनीय है. इंडिया का क्लचर वहाँ से आता है जहाँ से उसकी प्रेरणा नहीं, बल्कि एस्पीरेशन आता है. बेस्वाद कॉन्टीनेंटल खाना हेल्थी है, बाक़ी सारे उच्चारण ग़लत हों लेकिन शेड्यूल नहीं एस्केड्यूल होता है...

एक ओर मंदिरों-मठों-मज़ारों-आश्रमों का देश है और कॉल सेंटर-बीपीओ-प्रॉसेंगिंग यूनिट-ब्लॉटलिंग प्लांट की कंट्री है.

नो फुल स्टॉप्स इन इंडिया, कंट्री ऑफ़ आयरनीज़, ए मिलियन गॉड्स एंड पैराडॉक्स...अनेकता में एकता, रंगीन गुलदस्ता वगैरह. एक अरब की आबादी, पाँच हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता, ऐसे में कोई निष्कर्ष निकाल कर मुझे अपना गला नहीं फँसाना. मगर मामला सिर्फ़ धर्म, अंधविश्वास, विकास या पच्छिम-परस्ती का नहीं है, घालमेल बहुत गहरा है.

गाँव में ज़मींदारी चलाने वाले दादाजी के दुलारे, अमरीका में पढ़े, सात्विक लेकिन मद्यपायी, विदेशी पत्नी के स्वामी, बच्चों को हिंदी सिखाने में नाकाम लेकिन हर महीने सत्यनारायण कथा कराने वाले लाखों लोग हैं, मल्टीनेशनल कंपनी के दफ़्तर के लिए जाते समय जयगणेश-राधास्वामी-नमो भगवते वासुदेवाय से लेकर झक्कड़ बाबा की जय तक बोलने वाले करोड़ों हैं, बिल्ली रास्ता काटे तो रूक जाते हैं, मंगलवार को हनुमान मंदिर जाते हैं और मन ललचाने पर चिकेन नहीं खाते, शुक्रवार-शनिवार (वीकेंड) को दिन-दिन में संतोषी माता और शनि मंदिर, रात को पब और डिस्को.

यह घालमेल मामूली नहीं है बल्कि हम सबकी ज़िंदगी ही सांस्कृतिक दृष्टि से एक विचित्र पहेली है.

भारत और इंडिया के बीच में अब भी ख़ासा इंटरेक्शन है लेकिन दोनों अलग-अलग ही हैं. भारत की संस्कृति भारत के लोगों के हाथों में हैं. न्यू इंडियावाले हर शुक्रवार को संतोषी माता को भी आर्चीज़ का कार्ड पोस्ट करने से बाज़ नहीं आएँगे और भारत वाले भी बिल क्लिंटन और बिल गेट्स को टीका लगाकर मंगलाचरण गाते रहेंगे.

कल्चर या संस्कृति का मतलब समझाना बड़े-बड़े विद्वानों के बूते के बात नहीं है, लेकिन समाजशास्त्रीय और अकादमिक दृष्टि से थोड़ा ग़लत होने की छूट दी जाए तो सारा सवाल जीवनशैली का है. भारत और इंडिया की जीवनशैली इसलिए अलग है क्योंकि दोनों के जीने का आधार अलग है.

उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी... का जाप करने वाले जानते हैं कि खेती कितनी उत्तम है,चाकरी के मौज क्या हैं. खेतिहरों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी ऐसे बात करती है मानो उनके पुरखे जरायमपेशा हों. तीन-चार पीढ़ी से शहरी रहे लोग भारतीय देश की आबादी में दो-चार फ़ीसदी भी नहीं हैं.

जितनी ते़ज़ी से अपना देश पिछले दस वर्षों में बदला है उतनी तेज़ी से बदलाव के दशक शायद पहले कभी इक्का-दुक्का ही आए होंगे. इस बदलाव ने शहरी मध्यवर्ग को बहुत काफ़ी कुछ मुहैया कराया है लेकिन उसकी क़ीमत भी हमने चुकाई है. अच्छे-बुरे का वैल्यू जजमेंट करने के बदले इरादा यही है कि बदलते भारत की संस्कृति और राइजिंग इंडिया के कल्चर पर एक गहरी नज़र डाली जाए, आप सबकी मदद से.

यह एक प्रस्तावना है, भारत की संस्कृति के ध्वजवाहकों पर अगली बार.इंडियावालों पर उसके बाद...और फिर क़स्बे वालों की बात भी...आप साथ बने रहिए तो सफ़र का मज़ा आएगा.

30 अगस्त, 2007

मन रे तू काहे न धीर धरे

असमंजस, उधेड़बुन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, उलझन, सशोपंज, कश्मकश, अंतर्द्वंद्व, डाइलेमा....कितने सारे शब्द हैं एक मनोभाव को प्रकट करने के लिए. शायद इसीलिए कि हम सब अक्सर जीवन के दोराहे, तिराहे या चौराहे पर खड़े सोचते हैं किधर जाएँ.

ये दोराहा, तिराहा और चौराहा भविष्य और वर्तमान का हो सकता है, अतीत का भी. यूँ हो तो क्या हो, यूँ हो रहा है तो क्यों हो रहा है, यूँ हुआ होता क्या होता.

मन का द्वंद्व है जो इस संसार का सारा साहित्य रचता है, यही द्वंद्व है जो हमें पतन और उत्कर्ष के अंनत में जाने से रोकता है, इस संसार के संतुलन में बनाए रखता है. अगर अर्जुन के मन में कोई द्वंद्व नहीं होता तो गीता क्योंकर होती?

मन में सवाल उठते हैं तो द्वंद्व होता है, मन में संवेदना होती है तो द्वंद्व होता है, मन में भावनाएँ होती हैं तो द्वंद्व होता है, हमारी सीमाएँ हैं इसलिए द्वंद्व हैं, समाज-नियम, रीति-रिवाज़, आशा-अपेक्षा है इसलिए द्वंद्व हैं, ज़रूरत-फ़ितरत, अपने-सपने हैं इसलिए द्वंद्व हैं. एक होता है तो दूसरा नहीं हो सकता इसलिए द्वंद्व है, दोनों हो तों भी द्वंद्व है.

द्वंद्व एक अदभुत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो हमें पागल होने से बचा लेती है और बहुत बढ़ जाए तो पागल बना देती है. द्वंद्व एक अदभुत खगोलीय प्रक्रिया है जो अपने अपने-अपने दायरे घूमते लोगों की धुरी तय करती है, तरह-तरह के खिंचाव का काउंटर बैलेंस.

द्वंद्व अच्छी चीज़ है या बुरी इसको लेकर मेरे मन में कोई द्वंद्व नहीं है. द्वंद्व अच्छा-बुरा नहीं होता वह हमारे सॉफ़्टवेयर का हिस्सा है. वही हमें बनाता है जो हम होते हैं, कुछ लोग निर्द्वंद्व होते हैं. उन्हें पता होता है कि वो जो कर रहे हैं सब सही कर रहे हैं, जो वो नहीं कर रहे हैं सब ग़लत है. द्वंद्व दुख देता है, लेकिन क्या आपने कोई संवेदनशील व्यक्ति देखा है जो निर्द्वंद्व हो? अगर आप जानते हों तो ज़रूर बताइगा.

27 अगस्त, 2007

जादू का खिलौना है, मिल जाए तो भी सोना है

कई दिनों से रैटल मेरे दिमाग़ में बज रहा है. वैसे तो वह झुनझुना है जिससे खेलना तीन साल के बच्चे को ख़ास शोभा नहीं देता लेकिन मेरे बेटे ने उसे अपने वजूद से जोड़ लिया है जैसे चर्चिल की सिगार, शरलक होम्स का पाइप, करुणानिधि का काला चश्मा, गाँधी जी की छड़ी या प्रभु के हाथों में घूमता सुदर्शन चक्र.

हरी वाली गेंद टॉम है, नारंगी वाली जेरी, दोनों गोल गोल घूमकर तेज़ी से एक दूसरे का पीछा करते हैं. यही कभी चश्मा है, कभी पिस्तौल और कभी मोबाइल फ़ोन. कभी गाना गाते समय यही माइक बन जाता है और कभी कुछ और.

शायद यही मोह की शुरूआत है, यह बहुत चकित और मोहित करने वाला मोह है. टीवी देखने वाले, नर्सरी जाने वाले, बीसियों कार्टून कैरेक्टरों को अपना दोस्त समझने वाले इस बच्चे को इस रैटल से क्या मिलता है? सारे चीनी-जापानी बैटरी वाले खिलौनों, सारे नरम-मुलायम टेडी-डॉगी को छोड़कर उसे रैटल जैसे खट-खट करने वाले प्लास्टिक इस खिलौने से प्यार हो गया है.

सोते समय, खाते समय, रेल में, बस में, बिस्तर पर, यहाँ तक कि नहाते समय और पॉटी में भी रैटल उसके हाथ में रहता है, साधु के चिमटे की तरह. उसका पास होना एक बहुत बड़ा आश्वासन है मानो वह भयानक युद्ध में अचूक अस्त्र हो या विदेश यात्रा में पासपोर्ट. वह उसे आँख से ओझल नहीं होने देता.

दो दिन पहले की बात है, कमोड पर बैठे सुपुत्र के हाथ से छूटकर रैटल सीधा अंदर गिरा जहाँ पहले से छिःछिः तैर रही थी. बहुत डाँट पड़ी, फिर मैंने निर्णय सुनाया कि फ्लश चला दिया जाएगा, रैटल का अंत हो चुका है. वह इस तरह शायद ही कभी रोता है, रोने में शोर मचाना ज़्यादा होता है, लेकिन इस बार उसकी आँखें भरीं थीं और होंठ नीचे लटक गए थे. नैपी बदलते-बदलते प्रैक्टिस तो हो गई है लेकिन कमोड में हाथ डालकर रैटल निकालना फिर भी बड़ी चुनौती थी. आख़िरकार मैंने चुनौती स्वीकार की और रैटल का भरपूर शुद्धिकरण करके उसे उसके मालिक के हवाले किया.

सोकर उठने के बाद पहला सवाल होता है, "ह्वेयर इज़ माइ रैटल?" रैटल की रट तब तक जारी रहती है जब तक प्लास्टिक की दो गेंदों वाली टिकटिकी उसे वापस न मिल जाए. रैटल के बरामद होने में जितनी देरी होती है वैसे-वैसे उसका सुर बदलता है, पहले उसे खोज देने का अनुरोध, फिर झल्लाहट, फिर विवशता, फिर गहरी बेचैनी और आख़िर में रुआँसापन. रैटल मिल जाने पर उसे जैसी खुशी होती है वैसी ख़ुशी अपनी याद्दाश्त में मुझे कभी नहीं हुई. क्या आगे कभी होगी?

घर-गृहस्थी की कई वाजिब चिंताओं पर इस समय रैटल की चिंता भारी है. है तो खिलौना, टूट जाएगा, गुम जाएगा, उसके बाद क्या होगा? यह कोई मामूली चिंता नहीं है. यह रैटल उसे किसी जन्मदिन की पार्टी में तोहफ़े के तौर पर मिला था. हम चाहते हैं कि घर की डुप्लीकेट चाभी तरह एक ऐसा ही रैटल ख़रीदकर रख लें वर्ना अनहोनी हो गई तो बच्चे का दुख भी हमसे देखा नहीं जाएगा. हम किस-किस दुख से उसे बचाने के लिए कब तक ऐसे बैकअप तैयार करेंगे?

कई बार उसने बहुत ग़लत वक़्त पर 'रैटल खोज अभियान' शुरू करने की माँग की है, लेकिन हर बार मैंने उसकी माँग पूरी की है चाहे दफ़्तर के लिए देरी हो रही हो या खाना ठंडा हो रहा हो...क्योंकि रैटल उसके लिए सिर्फ़ एक खिलौना नहीं है, वह अपने रैटल को उतना महत्व ज़रूर देता है जितना मैं अपने दफ़्तर की किसी फ़ाइल को. उसे संभालकर रखता है, उसे किसी को हाथ नहीं लगाने देता और उसे सीने से लगाकर सोता है, इससे ज्यादा प्यार कोई और क्या कर सकता है?

निदा फ़ाज़ली बहुत गहरा शेर है--"दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है". मगर इस गहराई से भी गहरा है बचपन का फ़लसफ़ा जहाँ मिट्टी के खिलौने मिल जाने के बाद भी सोने से ज़्यादा क़ीमती होते हैं. जैसे ही हम उसे सोने का मतलब समझा देंगे यह जादू ख़त्म हो जाएगा.

मुझे अपने बचपन की एक धुंधली-सी याद है जब मैं चार-पाँच साल का रहा होऊँगा, गहरे हरे रंग की प्लास्टिक की चकई (यो-यो) हमारे हाथ आई जिसे धागे से बांधकर ऊपर-नीचे चलाया जाता था, मैं किसी ऊँची जगह पर खड़े होकर उसे नचाता था क्योंकि उसका धागा लंबा था. एक बार उसका धागा बुरी तरह उलझ गया, तब वही मेरे जीवन की सबसे बड़ी उलझन थी. अम्मा ने कहा- "पापा को आने दो", पापा बहुत देर से आए उस दिन. आते ही हमने अपनी माँग रखी, उन्होंने कहा- "चलो सो जाओ, कल सुबह ठीक कर देंगे." सूरज के उगने का, मुर्गे के बोलने का, कुएँ पर बाल्टी के खनकने का, पापा के अलार्म के बजने का इंतज़ार करता रहा, ऐसा इंतज़ार कि पूरी रात आँखों में काट दी. उतनी बेसब्री से सुबह का आसरा कभी नहीं देखा.

कई बार रैटल की रट पर झल्ला जाता हूँ लेकिन जल्दी ही अपनी चकई याद आ जाती है, उसके उलझे धागे याद आते हैं तो मौजूदा उलझनों को कुछ देर के लिए भूल जाता हूँ.

17 अगस्त, 2007

होनहार विरवान के होत चिकने पात

स्थानः षष्ठ 'घ' की कक्षा
वर्षः 1980
समयः प्रात: 9.30
अवसरः नामांकन के बाद पहला दिन

गुरू-शिष्य संवाद
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सरः नाम बोले रे सब अपना-अपना
छात्र एकः अकट राय
सरः पिताजी का नाम?
छात्रः सुराज राय
सरः तुम रे? (दूसरे से)
दूसरा छात्रः विकट राय
सरः बाप का नाम?
दूसरा छात्र- रामराज राय
सर--वाह-वाह, अकट-विकट, सुराज-रामराज, ऐं, भाई है का?
पहला छात्र- हाँ सर जी, चचेरा भाई है
सर--पिताजी का करते हैं
पहला छात्र--दुहते हैं
सर--(दूसरे वाले से) और तुम्हारे?
दूसरा छात्र- जी, चराते हैं


" अउर पानी कउन मिलाता है....हैं हैं हैं हैं... क्लास खुलते ही अहीर से पाला पड़ा... हा हा हा, " क्लास-टीचर चौबे सर तोंद छलका-छलका कर हँसे, उनके साथ हम भी हँसे. सिर्फ़ वो दो लड़के नहीं हँसे जो छठी क्लास में पहली बार अपने ख़ानदान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.

हमारा राजकीय उच्च माध्यमिक बालक विद्यालय विविधताओं से भरा था, सिर्फ़ दुहने-चराने वाले ही नहीं, सवर्ण सरकारी बाबुओं से लेकर इज़्ज़तदार विधवाओं तक के बच्चे वहाँ पढ़ते थे. हमारा स्कूल भविष्य के भारत की सच्ची झाँकी प्रस्तुत करता था. इंडिया उस वक़्त भी था लेकिन उसके अस्तित्व का कोई ठोस आभास हमें नहीं था.

सेंट नाम वाले पास के स्कूलों में भी बच्चे पढ़ते थे जिनके लिए उनके माँ-बाप मोटी फ़ीस भरते थे. हम ये नहीं जानते थे कि उन्हें क्या-क्या आता है लेकिन हम बहुत अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें क्या-क्या नहीं आता. मसलन, मार-पीट करने, पेड़ पर चढ़ने, तालाब से मछलियाँ पकड़ने, कीचड़ में फुटबॉल खेलने, ट्रक से उतरती बोरियों में से मूंगफली और इमली निकालने, उल्लू बनाने, गालियाँ बकने और क्लास से भागकर फ़िल्म देखने में हमारी उनसे कोई होड़ नहीं थी, वे क़ाबिलेरहम थे.

इन क़ाबिलेरहम बच्चों ने अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए हमें बताया था कि उनके स्कूल में प्रार्थना नहीं, बल्कि प्रेयर होती है. आसमानी कमीज़ और नीले हाफ पैंट वाले मेरे आधे सहपाठी कभी प्रार्थना के समय पर स्कूल ही नहीं आए, जो आए उनमें से अनेक जन-गण-मन की धुन पर सिर्फ़ होंठ हिलाते थे मगर आवाज़ नहीं निकलती थी, ढेर सारे ऐसे भी थे जो जन-गण-मन की धुन पर 'जानेमन जानेमन '... गाते.

जानेमन गाने की वजह पड़ोस की हरियाली थी, आधे से ज़्यादा लड़के सावन के अंधे बने घूमते थे क्योंकि उन्हें बालिका विद्यालय की हरी-हरी पोशाक के सिवा कुछ नज़र नहीं आता. बालक विद्यालय के होनहार पूरे वक़्त रामानारायण कन्या पाठशाला के बारे में बातें करते. कुछ निर्द्वंद्व थे और कुछ के भीतर गहरे द्वंद्व थे, दो ही श्रेणियाँ थीं. कुछ की बहनें वहाँ पढ़ती थीं और कुछ की नहीं. वैसे स्कूल आने-जाने के लिए ज़्यादातर लड़के 'हरियाली वाला रास्ता' ही चुनते थे.

हमारा स्कूल सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत के ठीक विपरीत था. अंदर आने का रास्ता एक ही था लेकिन वहाँ से निकलने के रास्ते अनेक थे. घर की तरफ़, बाज़ार की तरफ़, अप्सरा टॉकीज़ की तरफ़, कन्या पाठशाला की तरफ़.... हर ओर जाने के शॉर्टकट स्कूल की बाउंड्रीवाल में मौजूद थे जिनका भरपूर लाभ सभी उठाते थे.

हमारा अपने समाज में घुलना-मिलना और उससे जीवन जीने का ढंग सीखना हमारे कई शिक्षकों को नहीं भाता था. लंचब्रेक के बाद बड़ी तादाद में आसमानी कमीज़ और नीली हाफ़पैंटें अलग-अलग शॉर्टकटों से निकलकर शहर में तैरने लगती थीं. इसे रोकने की नाकाम कोशिश में हमारे कुछ विध्नसंतोषी शिक्षकों ने लंच के बाद भी हाज़िरी का प्रावधान शुरू किया, जो ग़ायब पाया गया उसे जुर्माने के तौर पर अठन्नी भरनी पड़ेगी.

डार्विन के सिद्धांत को सच साबित करते हुए लड़के हमेशा मास्टरों से एक क़दम आगे चलते. जिन्होंने नून शो की योजना बनाई होती वे सुबह की हाज़िरी के बाद ही क्लास रूम का रुख़ करते या वहाँ बैठकर भी चुप रहते. कई बार ऐसा होता कि क्लास में चालीस लड़के हैं और टीचर ने सिर्फ़ तीस नामों के आगे निशान लगाया, फिर गिनती की और झल्लाकर बोले, " यस सर बोलने में नानी मरती है?" लड़कों ने मन ही मन कहा, "अठन्नी लगती है."

दूसरा परिणाम ये हुआ कि लंच के बाद की हाज़िरी के समय कई लड़के बेहतरीन मिमिकरी आर्टिस्ट बन जाते और मास्साब निशान तीस नामों के आगे लगा देते. जब गिनती करते तो पता चलता कि दोस्ती का फ़र्ज़ निभाने लिए फ़र्ज़ी हाज़िरी यानी प्रॉक्सी हो रही है, आख़िर सबको अपनी अठन्नी बचानी थी. मगर कई बार किसी दोस्त की अठन्नी बचाने के लिए बेंत खानी पड़ती लेकिन वह लेन-देन का सौदा था.

लेन में सर का सोंटा तो देन में फिलिम की कहानी. "एक ग़रीब लड़का बना है जीतेंद्र और अमीर लड़की है रेखा"....टाइप कहानी सुनकर हमारे कई साथी बेंत की मार को सार्थक मान लेते. तीन सिनेमाघर स्कूल से सौ क़दम की दूरी पर थे, लंच के बाद भागकर फिलिम देखने का फ़ायदा ये था कि ठीक स्कूल की छुट्टी के समय बेचारा बच्चा थका-हारा घर पहुँच जाता.

स्कूल से भागकर फिलिम देखने के अलावा कई ऐसे काम राजकीय बालक उच्च विद्यालय के बालकों ने किए हैं जिनसे पता चलता है कि वे अपने वक़्त से आगे चल रहे थे. इसकी बड़ी रेंज थी, नज़र बचाकर सिगरेट पीने, टेक्स्टबुक के बीच में फँसाकर पीली किताब पढ़ने से लेकर चक्कू-कट्टा लेकर आने तक. अपने गिजर-गुर्दे के हिसाब जितना बन पड़ा उतना मैंने किया, लेकिन मैं किसी मामले में ऐसा नहीं रहा कि कोई मुझ पर ग़ौर करे, न पढ़ने में और न ही इन एक्स्ट्रा करिकुलर कामों में.

हाँ गवाह ज़रूर रहा बहुत सारे दिलचस्प वाक़यों का, जिन्हें कलमबंद करने की सलाहियत उन्हें अंज़ाम देने वालों में नहीं रही इसलिए यह भार मेरे कंधों पर आ पड़ा. एक छोटी सी मिसाल, प्रिसिंपल सर के कमरे में बम का ज़ोरदार धमाका, मास्टरों की मीटिंग के दौरान.

वाक़या कुछ यूँ है कि बम विस्फोट के दो दिन पहले हमारे मार्गदर्शक अज्जू भइया की कारसेवा प्रिसिंपल सर ने अपने कर कमलों से की थी क्योंकि वे नौवीं की गणित की क्लास में ट्रांजिस्टर सुनकर क्रिकेट के स्कोर का हिसाब लगाते पकड़े गए थे. अज्जू भइया अपना खोया हुआ आत्मसम्मान और गौरव पाना चाहते थे और प्रेरणा शायद उन्हें भगत सिंह से मिली थी. लेकिन उन्होंने भगत सिंह की तरह बम फोड़ने के बाद आत्मसमर्पण करने की जगह स्क्रिप्ट में थोड़ा बदलाव किया.

अज्जू भइया ने आत्मसमर्पण पहले किया. प्रिसिंपल सर के कमरे में बाअदब गए, क्लास में कमेंटरी सुनने के लिए माफ़ी माँगी. देवी सरस्वती की मूर्ति को झुककर प्रणाम किया, सर के पैर छुए और बाहर आ गए. कोई सात मिनट बाद प्रिसिंपल सर के ऊँची सीलिंग वाले विशाल कमरे में ज़ोरदार धमाका हुआ, ऐन उसी वक़्त जब वे बाकी टीचरों को समझा रहे थे कि उनकी कारसेवा की बदौलत एक बिगड़ैल लड़का सुधर गया. मैं गवाह हूँ कि अज्जू भइया 'सरस्वती वंदना' के बहाने जलती हुई अगरबत्ती के आख़िरी सिरे पर बाज़ार में उपलब्ध सबसे बड़ा 'आलू बम' रख आए थे.

ऐसा नहीं था कि हमारा स्कूल अज्जू भइया जैसे स्वाधीनता के सेनानियों का गढ़ था, दीपू भइया जैसे भी थे जो बोर्ड परीक्षा में स्टेट भर में थर्ड आए थे. हम आधा तीतर आधा बटेर होकर रह गए क्योंकि दोनों को हमने प्रेरणास्रोत बना लिया इसलिए कहीं के नहीं रहे, अनामदास बन गए.

अज्जू भइया की अब शादी हो गई है तीन बच्चे हैं. उनके रोबदाब का इतना सिला मिला कि कचहरी चौक पर उनकी चाय की दुकान है जिसका किराया नहीं देना पड़ता और दीपू भइया आईएएस बनना चाहते थे लेकिन एलायड सर्विस में रेलवे में हैं.

13 अगस्त, 2007

बलिहारी गुरू आपकी, कोर्स कम्प्लीट दियो कराए

जब पढ़ाई की महत्ता समझ में आई उससे काफ़ी पहले गुरुओं का पढ़ाने से मोहभंग हो चुका था. वे उतनी ही रुचि से पढ़ाते थे जितनी रुचि से खादी ग्रामोद्योग भंडार का सेल्समैन कपड़े दिखाता है.

वर्षों के अनुभव से हमारे सारे शिक्षक जान गए थे कि जिसे पढ़ना होगा अपने-आप पढ़ लेगा, जिसे नहीं पढ़ना है वह कितना भी पढ़ाने पर नहीं पढ़ेगा. विद्यार्थियों के माँ-बाप और शिक्षकों में वैचारिक समानता थी--पढ़ना होगा तो हर हाल में पढ़ लेगा. बलभद्र पांडे सर मानो सबकी भावनाओं को स्वर देते थे--पढ़त सो भी मरतन, ना पढ़तन सो भी मरतन, तो दाँत खटाखट काहे को करतन...यह उनका व्यंग्य था शायद लेकिन सब कुछ इतना बड़ा व्यंग्य था कि यही सबसे बड़ा सच लगता था. छठी क्लास से वैराग्य का पाठ जीवन में आगे बड़ा काम आया.

इतिहास, भूगोल, हिंदी, अँगरेज़ी, समाजशास्त्र कुछ ऐसे विषय थे जिनकी पढ़ाई का मतलब था कि सब किताब खोल लें, जैसे ही पैराग्राफ़ ख़त्म हो बोल-बोलकर पढ़ने वाला छात्र बदल जाए, इस तरह पाठ समाप्त हो जाता था और जल्दी ही 'कोर्स कम्प्लीट'. विज्ञान और गणित जैसे विषयों में ब्लैकबोर्ड
साइन-कॉस-बीटा-थीटा के रहस्यों से भर जाता, फिर मास्साब कहते, कुछ न समझ आया हो तो पूछ लो. आठवीं क्लास के किसी लड़के ने कभी नहीं पूछा कि ग्रीस के पाइथोगोरस के नियम का हमें क्या करना, छठी कक्षा में किसी ने नहीं पूछा कि बंदर खंभे पर चढ़कर-फिसलकर-चढ़कर आख़िरकार कितनी देर में ऊपर पहुँचेगा या नहीं पहुँचेगा इससे हमें क्या लेना-देना. बंदर है, नहीं मन करेगा तो बीच में ही कूद जाएगा. ऐसी बात किसी छात्र ने नहीं पूछी और 'कोर्स कम्प्लीट' मान लिया गया.

सातवीं में एक विषय था जिसका 'कोर्स कम्प्लीट' घोषित नहीं किया जा सका क्योंकि उसकी कोई क्लास ही नहीं लगी थी, पता नहीं ऐसा कैसे हुआ लेकिन बहुत देर से पता चला कि "अरे, भूगोल तो रह ही गया." रघुवर प्रसाद सिंह शर्मा 'निष्कलंक' ने उस दिन पान के बीड़े के बदले एक दिन में भूगोल का
'कोर्स कम्प्लीट' कराने का बीड़ा उठाया. 'निष्कलंक' सर के कलंकों के बारे में हम छात्रों को ज्यादा पता नहीं था, उनका चोला-बाना कवियों वाला था और तीन जातिसूचक नामों के साथ एक अदद उपनाम भी था. जब बीसियों साल में एक बार विद्यालय पत्रिका का प्रकाशन हुआ था तो उन्होंने संपादक का
पद सुशोभित किया था, हम इतना ही जानते थे.

जब उन्होंने अचानक हमारे क्लास को सुशोभित किया तो हम सब चकरा गए. पान की पीक निगलकर, आँख बंद करके उन्होंने कहा, "बच्चों, भूगोल दुनिया का सबसे आसान विषय है क्योंकि यह भू- गोल है इसलिए हम चाहे कहीं से भी चलना शुरू करें, वहीं पहुँच जाएँगे. यह इसलिए भी आसान है क्योंकि हम इसी भू पर रहते हैं इसलिए सब कुछ जानना कोई कठिन बात नहीं है. इस धरती पर पहाड़, झील, झरने, जंगल हैं और सात समंदर हैं, सैकड़ों देश हैं... भारत के उत्तर में हिमालय है और दक्षिण में समुंदर... सबसे घने जगल असम और मध्य प्रदेश में हैं...आदि आदि...कोर्स कम्पलीट."

निष्कलंक सर के बारे में एक ही बात विचित्र लगती थी कि वे पान वाले की दुकान से पान के पत्ते का पेस्ट मँगवाते थे. सखुए के पत्ते में लिपटा हरे रंग का गीला गोला, इसे निगलने के बाद वे सुपारी-चूना-कत्था-ज़र्दा वाला पान भी खाते थे, यही बात हमारी समझ में नहीं आती थी. पान खाने से पहले पान की चटनी क्यों खाए कोई? कई साल बाद एक देहाती दोस्त ने बताया कि "अबे मूरख, ई तो बाबूजी भी खाते हैं, इसको भाँग कहते हैं." अब समझ में आता है कि किस तरह सर ने आँखें बंद करके सात समंदर, हिमालय और सैकड़ों देश आधे घंटे में लाँघ दिए थे. वे पूरी तरह आश्वस्त थे कि उन्होंने भूगोल का कोर्स अच्छी तरह कम्प्लीट करा दिया था.

इसी तरह विज्ञान का कोर्स कम्प्लीट कराने की ज़िम्मेदारी भोगेंद्र झा सर के ऊपर थी. वे सबसे पहले पता लगाते थे कि किसका बाप क्या करता है, इस सूचना का बहुत ही विज्ञान सम्मत प्रयोग भी करते थे. जिन्हें लगता था कि कोर्स कम्प्लीट नहीं हुआ है वे उनसे ट्यूशन भी पढ़ते थे. मेरा सहपाठी रामेंद्र
राय साइकिल पर एक झोला लटकाए चला जा रहा था, हमने पूछ लिया कि कहाँ जा रहे हो? उसने बताया, "फादर मिलिटरी में हैं न, इसलिए सर ने कैंटीन से रम मँगवाया है." मैं उसके साथ सर के दर्शनार्थ हो लिया. भोंगेद्र सर ने सफ़ाई दी कि भोग वे नहीं लगाएँगे. बोले, "घर में कोई-कोई मेहमान आता-जाता है ने, तो हम्मै खरीदने जाएं, अच्छा नै लगता है नै, हें हें हें..." उनके घर मनीप्लांट बहुत लहलहा रहा था, चलते-चलते हमने देखा काँच के गोल-गोल मटकों में उनकी जड़ें डूबी हैं. किताब में पढ़ा था कि इसी को बीकर कहते हैं.

हमारा स्कूल कहने भर को हिंदी मीडियम था, लेकिन असल में स्कूल की पढ़ाई अनेक भाषाओं में होती थी. मसलन, भोजपुरी, मगही, मैथिल, अंगिका... छपरा के चौबे सर हिंदी पढ़ाते थे. पूछते थे, "ताई कहानी का मूख पात्र का नाम बताओ बउआ." नहीं बताने पर उनकी प्रिय सज़ा थी पेट की चमड़ी खींचना या ज़्यादा नाराज़ हों तो दुखहरन गोंसाईं का प्रसाद. लेकिन सज़ा देने से पहले वे ज़रूर पूछते थे, "घर कहवाँ बा बउआ..." आरा, छपरा, सिवान, गोपालगंज, सासाराम जैसा जवाब मिला तो हल्के से गाल खींचते थे, अगर पटना, गया, जहानाबाद हुआ तो पेट की चमड़ी खींची जाती और अगर मिथिलांचल का कोई ज़िला हुआ तो दुखहरन गोंसाईं काम आते. दुखहरन गोंसाई उनकी प्रिय बेंत का नाम था.

कुछ शिक्षक थे जो मारते नहीं थे लेकिन धमकियाँ एक से एक बढ़कर देते थे. बुद्धिनाथ सर कन्या विद्यालय से ट्रांसफर होकर आए थे, तबीयत से मुलायम थे, लड़कों को पढ़ाते-पढ़ाते आदतन पूछते थे, "समझ गई न रे." नाराज़ होने पर कहते, "अतना न मारबउ के बाप नै चिन्हतो." बंगाली मोशाय
दास सर कहते थे, "बोदमाश, बोरा, बंडल शोब, कोबाड़ी में किलो के भाव बेचके तोमारा बाप को पाँच टाका देगा तो वो भी खुब खुश होगा कि कूछ तो मीला." सबसे दुबले-पतले मोहंती सर हमेशा नाराज़गी में दाँत किटकिटाते थे, कहते थे, "येहाँ हार्टअटैक होगा मेरा, मोरेगा सिर खपाके लेकिन तूम बूझेगा नेई." ऐसा लगता उन्हें सचमुच हार्ट अटैक आने वाला है.

हमारे ज़्यादातर टीचर बहुत अच्छे भविष्यवक्ता थे, वे क्लास में बता देते थे कि कौन लड़का नींबू बेचेगा, कौन भीख माँगेगा, कौन जेबकतरा बनेगा. मोटे चश्मे वाले, काले, ठिगने श्यामा सर भी वर्षों से छात्रों का भविष्य बता रहे थे, रिटायरमेंट के करीब पहुँच रहे थे. एक दिन स्कूल ख़त्म होने के बाद घर जाने से पहले सब्ज़ी ख़रीदने के लिए रुके. नींबू रुपए के चार या छह, इस पर दुकानदार से उलझ पड़े. दुकानदार ने बहुत विनम्रता से कहा, "सर, हम जो भी हैं आपकी ही की बदौलत हैं, चार-छह की क्या बात है, आप आठ नींबू ले लीजिए, आप तो आठ साल पहले बता दिये थे कि हम नींबू बेचेंगे."

'कैम्पस सब कागद करो, गुरू महिमा बरनि न जाई.' यहाँ सिर्फ़ तीन-चार का ज़िक्र हुआ, कुल 33 थे. तीन-चार को छोड़कर यहाँ सब क़ाबिले ज़िक्र हैं लेकिन लग रहा है कि हम ही कौन से दूध के धुले थे, वे भी तो बेचारे हमारे जैसे छात्रों के बनाए हुए शिक्षक थे. हमारे अपने कारनामे अगली बार... अगर आप पढ़ना चाहें.

11 अगस्त, 2007

विद्या धन उद्यम बिना कहो जो पावे कौन

मेरे स्कूल का नाम ही पर्याप्त प्रेरणादायी था--राजकीय उच्च माध्यमिक बालक विद्यालय. सरकारी स्कूल होने की वजह से फ़ीस का कोई सवाल नहीं था, सबके लिए शिक्षा सुलभ थी. भारत में 'सुलभ' शब्द के साथ जैसी छवि उभरती है वैसा ही हमारा विद्यालय था.

वह जीवन की सच्ची पाठशाला थी, कोई किताबी स्कूल नहीं था. आदर्श, नीति, नियम आदि बनाए थे बेचारे मास्टरों ने, लेकिन बच्चे सीखते थे कई एकड़ फैले मैदान में चलने वाले प्रैक्टिकल क्लासों में.

प्रैक्टिकल के टीचरों में मुख्य थे 'संजै भइया' जिनका बड़ा सम्मान था, स्कूल के कैम्पस के बाहर भी उनकी धाक बताई जाती थी. उनके चलने में गजब का बांकपन था और उनके चक्कू चलाने के फ़न के बारे कई तरह के क़िस्से मशहूर थे लेकिन निष्पक्ष सूत्रों से उनकी पुष्टि नहीं हो सकी थी, वे अक्सर स्कूल के परिसर में छींटदार कमीज़ पहनकर आते थे और नौंवी-दसवीं के कुछ महत्वाकांक्षी लड़के उनके चारों तरफ़ मँडराने लगते थे.

बरगद के पेड़ के नीचे उनकी क्लास लगती थी, लड़के दौड़-दौड़कर पान-सिगरेट लाते थे संजै भइया के लिए. संजै भइया बोली बचन से ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं लगते थे लेकिन उनका स्टाइल अनुकरणीय था. यह शायद उनकी ज्ञानपिपासा ही थी जो नौकरी की उम्र में भी उन्हें स्कूल के परिसर में खींच लाती थी. लड़के अक्सर उनके कान में फुसफुसाते कि आज मनोजवा चक्कू खोंस के आया है या आज पंकजवा कट्टा लाया है, संजै भइया धीरे से मुस्कुराते.

लंचटाइम में प्यार से दो लप्पड़ लगाके लड़के का निशस्त्रीकरण कर देते, उनके पास ज़खीरा जमा होता जाता, क्या पता आगे बेच देते थे या सिर्फ़ परोपकारवश लड़कों को बिगड़ने से बचाने के लिए ऐसा करते थे. वे अक्सर उसी तोड़े हुए बाउंड्रीवाल से स्कूल में दाख़िल होते थे जहाँ से ढेर सारे लड़के लंच के बाद फिलिम देखने भाग जाते थे. हमारा स्कूल प्रधान डाकघर, तीन सिनेमाघरों, टेलीफ़ोन एक्सचेंज, मेन रोड, कोतवाली थाने और मारवाड़ी मुहल्ले से घिरा था, यह एक निहायत दिलचस्प सराउंडिंग थी.

प्रैक्टिकल की दूसरी टीचर थीं 'लंगड़ी मैडम'. उनकी क्लास में बच्चे दूर से ही और अंदाज़े से शामिल होते थे, ये वाली मैडम रंग-बिरंगी साड़ी पहनती थीं, पान खाती थीं और पूरे स्कूल परिसर में प्रिसिंपल से भी ज्यादा रोब से घूमती थीं. स्कूल के मैदान के झाड़ी वाले कोने उन्हें ख़ास पसंद थे, वे अक्सर या तो तड़के दिखाई देती थीं या देर शाम को. मॉर्निंग क्लास के लिए जाते समय हमें पता होता था उनकी नाइट क्लास खत्म हो गई है, वे स्कूल के हैंडपंप पर हाथ-मुँह धोती थीं और उनका छात्र हरी घास पर, पेड़ के नीचे खर्राटे ले रहा होता.

स्कूल के कुछ अध्यापकों ने उनके अनधिकृत पाठ्यक्रम को स्कूल से बाहर ऱखने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हो सका. इसलिए कि वे अक्सर कोतवाली वाली दीवार की तरफ़ से सुबह स्कूल के हैंडपंप की तरफ़ जाती देखी जाती थीं, जैसे संजै भइया सिनेमाहाल वाली साइड से आते थे. संस्कृत के हमारे अति संस्कारवान अध्यापक श्रीनारायण मिश्र के सरकारी आवास के पास ही लंगड़ी मैडम का एकड़ों में फैला फार्महाउस था.

तीसरे मास्टर 'तीन पत्ती वाले सर' थे. वे सुविधा, मौसम और माहौल के मुताबिक़ कभी स्कूल के अंदर और कभी ऐन बाहर अपनी क्लास लगाते थे. वे कभी कैरम के तीन स्ट्राइकरों में से दो पर स्टिकर चिपका कर या फिर कभी ताश के पत्तों से प्रशिक्षण देते थे. वे बहुत तेज़ी से पत्ती या स्ट्राइकर घुमाते थे, ताश या स्ट्राइकर को इज़्ज़त बख़्शने के लिए वे लाल रूमाल जरूर बिछाते थे. शुरू में कोतवाली के तोंदवाले प्राणियों ने हमारे इस शिक्षक के साथ अपमानजनक बर्ताव किया लेकिन बाद में क्लास निर्बाध रूप से चलने लगी, प्राथमिक शिक्षा के महत्व को समझते हुए उनका सम्मान शुरू हो गया था.

इनके अलावा हमारे कुछ 'विजिटिंग प्रैक्टिकल टीचर' थे जो स्कूल की टूटी दीवार के पार कोतवाली में आते थे, हम दीवार में बनी फाँक से होकर ज्ञान अर्जन के लिए कभी-कभी उनके पास चले जाते थे. इनकी क्लास की दिलचस्प बात ये थी कि इसमें आप मर्ज़ी से आते और जाते थे, टीचर का कोई कंट्रोल नहीं था. इनमें से एक सर ने मुझे बताया था कि "बेटा, किसी से डरना मत, डरने वाले को सब डराते हैं. अगर नहीं डरोगे तो काम सही करो या ग़लत, सब ठीक रहेगा." ये सीख मैं कभी नहीं भूल पाया, न ही कभी ग़लत साबित हुई.

मेरे जीवन में जो कुछ छोटे-मोटे अपराध बोध हैं उनमें से एक ऐसे ही शिक्षक के साथ किए विश्वासघात को लेकर है. अच्छा बच्चा बनने के दबाव में किसी बड़े अपराध बोध की लज़्ज़त अपने हिस्से में नहीं आई. हुआ यूँ कि हम दो साथी दीवार फाँद कर नए 'विजिटिंग प्रैक्टिकल टीचर' से मिलने की उत्सुकता में अंदर गए. थानेदार साहब के मुंशी जी हमेशा की तरह बुड़बुड़ाए थे, "पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस.. फेन आ गया इस्कुलिया छौंडा सब..." थोड़ी इधर-उधर की बातचीत के बाद रात भर हुई सेवा के परिणामस्वरूप चेहरे पर आई सूजन की जगह नरमी लाते हुए उन्होंने पाँच का नोट दिया, "बेटा, एक पैकेट नंबरटेन ला दो." हमने एक बेबस आदमी के पैसे से पहले फ़िल्म देखी जिसका नाम था 'कालिया' और मूंगफली खाई. बताइए अपराध बोध होना चाहिए कि नहीं?

जैसा कि बेहतरीन शिक्षण संस्थानों में होता है, सीनियर छात्र भी जूनियर छात्रों को पढ़ाते हैं. ऐसे कई प्रैक्टिकल टीचर भी थे, अजै भइया, विजै भइया और दिप्पु भइया इनमें प्रमुख थे. इन्हीं के एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी की क्लासों में अनेकानेक बालकों ने अपनी पहली सिगरेट पी, पहली पीली किताब पढ़ी और पहली बार हरे रंग के सलवार सूट वाली बालिका विद्यालय की लड़कियों को चिट्ठी पकड़ाई.

ये तो बात हुई हमारे अवैतनिक प्रैक्टिकल टीचरों की, वेतनभोगी पूर्णकालिक सैद्धांतिक टीचरों की चर्चा अगले अंक में. अगर आप पढ़ना चाहें तो कुछ सहपाठियों के बारे में उसके बाद...

06 अगस्त, 2007

हमारी अपनी ज़बान की साठवीं बरसी

हमारी हिंदी, जिसे हम इतना प्यार करते हैं अपंग है, वह जन्म से विकलांग नहीं थी लेकिन उसका अंग-भंग कर दिया गया. वह बहुत बड़ी सियासत का शिकार हुई, अभी वह बड़ी हो ही रही थी कि 1947 में उसके हाथ-पैर काटके उसे भीख माँगने के लिए बिठा दिया गया.

करोड़ों लोगों की भाषा क्या हो, कैसी हो, उसमें काम किस तरह किया जाए, इसका फ़ैसला रातोरात दफ़्तरों में होने लगा. राजभाषा विभाग बना और लोग उस अपंग की कमाई खाने लगे जिसका नाम हिंदी है. ऐसा दुनिया में कहीं और नहीं हुआ.

ठीक ऐसा ही ताज़ा-ताज़ा पैदा हुए पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी हुआ, वे जिस्म के कुछ हिस्से काट लाए थे बाक़ी सब अरबी-फ़ारसी वाले भाइयों से माँगने थे, उन्हें किसी तरह जोड़ा जाना था. पाकिस्तान जहाँ कोई उर्दू बोलने वाला नहीं था वहाँ उर्दू राष्ट्रभाषा बनी. पंजाबी, सिंधी, बलोच, पठान सबको उर्दू सीखना पड़ा. ऊपर से तुर्रा ये कि उर्दू का देहली, लखनऊ या भोपाल से कोई ताल्लुक नहीं है, वह तो जैसे पंजाब में पैदा हुई थी.

इधर भारत में मानो 'सुजला सुफला भूमि पर किसी यवन के अपने पैर कभी रखे ही नहीं, इस पावन भूमि की भाषा तो देवभाषा संस्कृत है. यहाँ सब कुछ पवित्र-पावन-वैदिक है, विदेशी आक्रमणकारी आए थे, कुछ सौ साल बाद मुसलमान और क्रिस्तान दोनों चले गए, अपनी भाषा भी वापस ले गए, हम वहीं आ गए जहाँ इनके आक्रमण से पहले थे, इन्हें बुरा सपना समझकर भूल जाओ'...ऐसा कम-से-कम भाषा और संस्कृति में मामले में कभी नहीं हुआ. न हो सकता है.

भारत में सदियों से जो ज़बान बोली जा रही थी उसका नाम हिंदुस्तानी था, लेकिन मुसलमान चूँकि 'अपनी उर्दू' पाकिस्तान ले गए थे इसलिए ज़रूरी था कि जल्द-से-जल्द बिना उर्दू हिंदुस्तानी यानी हिंदी के लिए जयपुर फुट तैयार हो जाए और वह चल पड़े, इसके लिए सबके आसान काम था पलटकर संस्कृत की तरफ़ देखना. वही हुआ, ऐसे-ऐसे भयानक प्रयोग हुए कि बेचारी अपंग हिंदी दोफाड़ हो गई. एक हिंदी जो लोग बोलते हैं, एक हिंदी जो दफ़्तरों में शब्दकोशों से देखकर लिखी जाती है.

नेहरू की भाषा कभी सुनिए जो ख़ालिस हिंदुस्तानी थी लेकिन उन पर भी शायद अँगरेज़ी का जुनून इस क़दर सवार था कि उन्हें अपनी हिंदुस्तानी की फिक्र नहीं रही. देश का धर्म के आधार पर विभाजन होने के बाद समझदारी दिखाते हुए उसे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र घोषित किया गया, वहीं भाषा के मामले में ऐसा बचपना क्योंकर हुआ, समझ में नहीं आता.

भारत के विभाजन को साठ वर्ष पूरे होने वाले हैं. दुनिया का हर भाषाशास्त्री मानता है कि किसी भाषा को जड़ें जमाने में कई सौ वर्ष लगते हैं. ब्रज, अवधी, भोजपुरी के साथ अमीर खुसरो फ़ारसी मिला रहे थे, रसखान कृष्णभक्ति का माधुर्य घोल रहे थे, इनके बीच शेरशाह सूरी जैसे तुर्क-अफ़गान भी अपनी भाषा ले आए थे. इन सबसे मिलकर एक जादुई ज़बान बनने लगी जिसमें मीर-ग़ालिब-मोमिन-ज़ौक लिखने लगे, भारतेंदु-प्रेमचंद-रतननाथ सरसार-देवकीनंदन खत्री से लेकर मंटो, कृशनचंदर तक आए. एक सिलसिला बना था जो अचानक झटके से टूट गया.

एक ही रात में कई अपने शायर-कवि पराये हो गए, इधर भी-उधर भी. कई नए अंखुए उग आए जिन्होंने दावा किया कि वे सीधे जड़ से जुड़े हैं यानी संस्कृत या फ़ारसी से लेकिन उस भाषा का होश किसी को नहीं रहा जिसने उत्तर भारत में तीन-चार सौ साल में अपनी जगह बना ली थी और खूब परवान चढ़ रही थी. वह सबकी भाषा थी, जन-जन की भाषा थी, वह सहज पनपी थी, उसमें कोई बनावट नहीं थी, उसमें हिंदी-संस्कृत के शब्द थे, बोलियाँ-मुहावरे, ताने-मनुहार, दादरा, ठुमरी थी, अदालती ज़बान थी, जौजे-मौजे साक़िन, वल्द, रक़ीब, रक़बा था...क्या नहीं था.

एक ऐसी ज़बान जो मुग़लिया दौर में सारी ज़रूरतें पूरी कर रही थी और ठहर नहीं गई थी बल्कि आगे बढ़ रही थी, जिसने ज़रूरत भर अँगरेज़ी को भी अपनाया. उसमें अभी और बदलाव हो सकते थे, जो स्वाभाविक तरीक़े से होते जिनमें बनावट के कंकड़ न दिखते शायद. मगर दुर्भाग्य ये है कि देश के बँटने के साथ ही भाषा भी बँट गई और लोग एक नई भाषा गढ़ने में लग गए जो किसी की भाषा नहीं थी, नहीं रही है. यह एक बहुत बड़ी वजह है कि लोग हिंदी को मुश्किल मानकर त्याग देने में सुविधा महसूस करते हैं.

सच बात ये है कि अगर हिंदी को वाक़ई आम ज़बान बनाना है, सबकी बोली बनाना है तो उसे लोगों से दूर नहीं, नज़दीक ले जाना होगा. हिंदू हों या मुसलमान, जब कोई शिकायत होती है तो लोग यही कहते हैं कि हमें शिकायत है, फिर दिल्ली में बसों पर क्यों लिखा होता है कि "प्रतिवाद करने के लिए संपर्क करें"...

उर्दू और हिंदी से पहले एक भाषा है जिसने सारी ज़रूरतें पूरी कीं हिंदुस्तानी के रूप में, जो आज भी उत्तर भारत के रग-रग में बहती है. यह चिट्ठा उसी हिंदुस्तानी में लिखा गया है, उस हिंदी में नहीं जो 1947 में अपंग हुई उसके बाद दिन-ब-दिन इतनी बनावटी होती चली गई कि हिंदी बोलने वाला भी, लिखी हुई हिंदी को अपनी भाषा के तौर पर नहीं पहचानता.

जब पंद्रह अगस्त धूमधाम से मनाइएगा तो याद रखिएगा कि यह हिंदुस्तानी की साठवीं बरसी भी है. साझे की सदियों की विरासत के लिए अगर सिर झुकाने का जज़्बा दिल में आए तो ऐसी भाषा बरतिए जो हिंदुस्तान की है, हिंदुस्तानी है.

04 अगस्त, 2007

उम्मीद सिर्फ़ अँगरेज़ी न जानने वालों से है

भाषा भावुकता से नहीं, ताक़त से चलती है. जिस तरह सिक्के चलाए जाते हैं वैसे ही भाषा भी चलाई जाती है.

भाषा का ईंधन सत्ता से उसकी निकटता है. अगर वह शक्ति की कुंजी नहीं है तो कुछ सिरफिरों का शौक़ भर बन सकती है, कामयाब लोगों की ज़बान और उनकी कलम से फूटने वाली धारा नहीं.

दुनिया की चार बड़ी भाषाएँ अँगरेज़ी, फ्रेंच, स्पैनिश और अरबी विशुद्ध रूप से सत्ता की वजह से प्रसार पाने वाली भाषाएँ हैं, उनका गहरा औपनिवेशिक अतीत है, अगर इन भाषाओं को बोलने वाले लोग कोलोनाइज़र नहीं होते तो तमिल, गेलिक, स्वीडिश या हिब्रू से अधिक इन भाषाओं का क्या महत्व होता?

भाषा चला देने से चल जाती है, अगर कोई भाषा सबके लिए ज़रूरी हो जाए तो लोग रातोंरात उसे सीख जाते हैं. भारत शायद दुनिया का अकेला देश है जहाँ अपनी भाषा हिंदी, तमिल, कन्नड़, मराठी, मलयालम... जाने बिना काम चल जाता है, बाइज़्ज़त चल जाता है. वैसे काम तो अँगरेज़ी जाने बिना भी चल जाता है लेकिन बेइज़्ज़त होकर चलता है. अँगरेज़ी जाने बिना तरक्की नहीं हो सकती, अपनी भाषा जाने बिना जितनी चाहें उतनी तरक्की हो सकती है.

भारत में ग्लोबलाइज़ेशन की जो चकाचौंध दिख रही है उसके पीछे भारतीय कामगारों के अँगरेज़ी ज्ञान की भारी भूमिका है. जहाँ चीनी भाई अँगरेज़ी सीखने के लिए बेहाल हैं वहीं भारत में अँगरेज़ी बच्चों को ही नहीं, बल्कि पिल्लों को भी सिखाई जाती है.

ठीक है कि अँगरेज़ी जानने की वजह से शहरी मध्यवर्ग को कुछ हज़ार नई नौकरियाँ मिल गई हैं लेकिन प्रतापगढ़, सिवान, झाँसी-झूँसी के करोड़ों लौंडे बेरोज़गार घूम रहे हैं, ज़्यादा से ज़्यादा 'सिकोरटी गारड' बन सकते हैं. वैसे एक से एक बढ़कर 'इंटलीजेंट' हैं लेकिन "इंगलिस में मार खा जाते हैं."

जॉर्ज बुश भारत आते हैं और बेहिचक कह जाते हैं कि जितनी आबादी अमरीका की है, उतने तो भारत में उपभोक्ता हैं इसलिए वे भारत को इतना महत्व दे रहे हैं. यहाँ बात तकरीबन 30 करोड़ शहरी लोगों की हो रही है जिनके लिए किसी अमरीकी प्रोडक्ट के ऊपर हिंदी में नाम लिखने की भी मशक्कत नहीं करनी है. लेकिन बाकी बचे 70 करोड़ लोगों का क्या?

चीन में ऐसा नहीं हो सकता, बिना चीनी के काम नहीं चल सकता. अब ज़रा ठहरकर सोचिए, यह चीन की ताक़त है या कमज़ोरी?

चीनी अँगरेज़ी सीखने के लिए बेताब हैं वहीं यूरोपीय-अमरीकी लोग भी चीनी भाषा सीख रहे हैं, हिंदी नहीं. माइक्रोसॉफ़्ट ने सबसे पहले चीनी और उसके बाद आइसलैंडिक से हौसा तक पचासों भाषाओं में अपने ऑपरेटिंग सिस्टम लॉन्च किए लेकिन हिंदी की ज़रूरत नहीं समझी, ऐसे देश के लिए जहाँ उसके ग्राहक लाखों में नहीं बल्कि करोड़ो में हैं.

मुझे कई बार लगता है कि भारत की असली ताक़त अँगरेज़ी न जानने वाली बिरादरी है जिनकी वजह से शायद बाज़ार को होश आए. एक मिसाल लीजिए-- ट्रैक्टर, खाद और कीटनाशक बनाने वाली विदेशी कंपनियों के विज्ञापन कभी अँगरेज़ी में नहीं होते. धीरे-धीरे, देर-सबेर जब देश के बहुसंख्यक लोगों के बीच माल बेचने की बात आएगी तब हिंदी, तमिल, गुजराती, असमिया और ओड़िया के बारे में भी कंपनियों को सोचना होगा.

लेकिन यहाँ एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है, वो ये कि अँगरेज़ी जाने बिना कुछ ज़मींदारों-रंगदारों-ठेकेदारों को छोड़कर बाक़ी लोगों के पास पैसा कब तक आएगा, वे दमदार ग्राहक कैसे बन पाएँगे, क्योंकर बन पाएँगे, किसी को नहीं पता. देश में सत्ता की संरचना कुछ ऐसी बन चुकी है कि उसमें अँगरेज़ी के बिना सेंध लगाना असंभव दिखता है.

भारत में हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को वही लोग बचा सकते हैं जो अँगरेज़ी की अग्निजिह्वा से बचे हुए हैं. शायद किसी समानांतर-वैकल्पिक तरीक़े से वे इतनी क्रयशक्ति हासिल कर लें कि उनके बीच माल बेचने के लिए हिंदी, तमिल, गुजराती, असमिया या ओड़िया जैसी भारतीय भाषा अनिवार्य हो जाए. लेकिन क्या उसके पहले सब लोग अँगरेज़ी ही नहीं सीख जाएँगे?

अँगरेज़ी नहीं भी सीखेंगे तो इतना आत्मविश्वास कहाँ से आएगा कि कहें, "हमें नहीं पता क्या लिखा है, हम नहीं ख़रीदते." किसी अधपढ़े से पढ़वा लेंगे और अपनी क़िस्मत को कोस लेंगे लेकिन माल तो वही बिकेगा जो जिसके ख़रीदने में शान हो, वही शान जो शहर में अँगरेज़ी बोलने वाले की है. रामलाल-कुंदनलाल एंड कंपनी की वो इज़्ज़त कैसे हो सकती है जो जॉनसन एंड निकल्सन की होती है.

कुचक्र है कि क्रयशक्ति बिना अँगरेज़ी के सिर्फ़ गुंडागर्दी से आती है. यह कुचक्र कब और कैसे टूट सकता है इसके बारे कुछ सोचिए, बोलिए और बताइए.

26 जुलाई, 2007

कथित न्यूज़ चैनल बॉलीवुड से कुछ सीखें

बॉलीवुड से सीख लेने की सलाह गुस्ताख़ी नहीं, इज़्ज़तअफ़ज़ाई है क्योंकि कथित समाचार चैनलों की होड़ मुक्ता आर्ट्स, नाडियाडवाला या अब्बास-मस्तान एंड कंपनी से नहीं बल्कि छोटे पर्दे पर चाँदी काटने वाली कंपनी बालाजी टेलीफ़िल्म्स से है.

कथित समाचार चैनलों के कर्ताधर्ता अनेक बार रिकॉर्ड पर कह चुके हैं कि "हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं." डेविड धवन और सुभाष घई इससे अलग क्या कहते हैं?

समाचार चैनलों के आला अफ़सर बार-बार 'कथित' के प्रयोग पर नाराज़ हो सकते हैं लेकिन वे तब तक कथित ही रहेंगे जब तक वे सचमुच समाचार नहीं दिखाते. समाचार-विचार दिखाने का काम फ़िलहाल दूरदर्शन के सिवा हिंदी में कहीं नहीं हो रहा है. मगर वहाँ समाचार और विचार दोनों सरकारी हैं क्योंकि उन्हें एकता कपूर की नहीं, प्रियरंजन दासमुंशी की चिंता है.

व्यावसायिक दबाव की बात तो जायज़ है, घर से पैसा लगाकर कौन समाचार दिखाएगा? पत्रकारों को तनख़्वाह देनी है, मालिक को फ़ायदा चाहिए, ओबी वैन, स्टूडियो और दिल्ली-नोएडा में अच्छी जगह पर दफ़्तर के अपने ख़र्चे हैं... लेकिन जीबी रोड-सोनागाछी-कमाटीपुरा की व्यावसायिकता और पत्रकारिता की व्यावसायिकता का कुछ तो अंतर हो? हिंदी में अभी ये अंतर नहीं दिख रहा है, अपवादों को छोड़कर.

बहरहाल, मुक़ाबला कथित समाचार चैनल के रिपोर्टरों और 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' वाले राम या तुलसी के बीच है. इस मुक़ाबले को जीतने के लिए ज़रूरी है कि याद्दाश्त खो जाए, पुनर्जन्म हो जाए और नागिन पिछले जन्म का बदला ले...कम से कम अपराध-साज़िश या रंजिश तो ज़रूर हो.

दरअसल, भारत का दुर्भाग्य है कि दो बहुत बड़ी घटनाएँ लगभग एकसाथ हुईं, भारत का बाज़ारीकरण और भारतीय टीवी चैनलों का बाज़ारूकरण. निजी समाचार टीवी चैनलों का दौर थोड़ा पहले या कुछ बाद शुरू होता तो स्थिति संभवतः अलग होती. जिस टीवी जैसे सशक्त माध्यम से बदलते समाज पर सार्थक टिप्पणी की अपेक्षा हो सकती थी वही बाज़ार के ताल पर सबसे ज़्यादा नाच रहा है. ख़ैर, रास्ता बाज़ार से बहुत दूर जाकर नहीं, उसी के बीच से निकलेगा.

टीवी टुडे और बालाजी फ़िल्म्स की कमाई के आँकड़ों का अंतर देख लीजिए तो आपको इस बेचैनी की वजह समझ में आ जाएगी. भारत में कथित समाचार चैनलों की सारी आपाधापी की वजह यही है कि वे अपने हर कार्यक्रम के प्रायोजकों की सूची में उतने ही नाम चाहते हैं जितने सास बहू वाले सीरियलों में होते हैं. देश में कुछ गिने-चुने कलाकर हैं जो कबड्डी-कबड्डी से चार गुना तेज़ गति से बोल सकते हैं इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं...

पैसे देने वाले हिंदुस्तान लीवर, कोलगेट-पामोलिव से लेकर बरनाला सरिया जैसे ये नाम यूँ ही नहीं आते, उन्हें इस बात का आश्वासन नहीं चाहिए कि कार्यक्रम अच्छा है, वे जानना चाहते हैं कि इस कार्यक्रम को कितने लोग देख रहे हैं यानी टीआरपी कितनी है. यहीं आकर टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार बॉलीवुड प्रोड्यूसर की भूमिका अख़्तियार कर लेते हैं.

इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें और अस्सी के दशक के बॉलीवुड को देखें तो माहौल वही था जो आज टीवी का है. तब जितेंद्र का हिम्मतवाला चल रहा था आज उनकी बेटी के 'क' वाले सड़ियल चल रहे हैं. सिनेमा के धंधे में बड़ा बदलाव जो आया है उसकी एक वजह मल्टीप्लेक्स थिएटर हैं जहाँ लोग अधिक पैसे देकर भी अपनी पसंद की 'मक़बूल', 'नीली छतरी वाली लड़की' और 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' जैसी छोटे बजट की कुछ समझदारी वाली फ़िल्में देखते हैं.

डेविड धवन, धर्मेश दर्शन, गुड्डू धनोआ, हैरी बावेजा टाइप लोगों के नेतृत्व में चलने वाले अक़ल से पूरी तरह पैदल बॉलीवुड के भीतर भी जगह बनी है 'डोर,' 'खोसला का घोंसला' और 'इक़बाल' जैसी ढेर सारी फ़िल्मों के लिए. बॉलीवुड ने जुडवाँ, प्लास्टिक सर्जरी, हमशक्ल, खोई याद्दाश्त वगैरह के जितने फार्मूलों को भरपूर इस्तेमाल के बाद फेंक दिया उन सबको शरण मिली टीवी सीरियलों और थोड़े अलग अंदाज़ में कथित न्यूज़ चैनलों पर. अक्लमंद लोगों के इस पेशे में सचमुच के समाचार के लिए जगह कैसे और कब निकलेगी यही लाख टके का सवाल है.

टीवी की दुनिया में एक बड़ा बदलाव आ रहा है, महानगरों के ज़्यादातर अपार्टमेंटों में टाटा-स्काई और डिशटीवी ने अपनी पैठ बना ली है. उनके सेट टॉप बॉक्स से मिलने वाले आँकड़े चंद शहरों के कुछ घरों में लगे टीआरपी रेटिंग के बक्सों से अधिक विश्वसनीय हैं. यही नहीं, जिस किसी ने पैसे ख़र्च करके अपने घर में डिजिटल क्वालिटी में टीवी देखने के लिए डिशटीवी या स्काई लगवाया है उसकी क्रयक्षमता भी अधिक है. वह दिन दूर नहीं है जब टीआरपी विज्ञापन देने वालों के लिए कोई भरोसेमंद पैमाना नहीं रह जाएगा क्योंकि उसका आधार तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा है.

मैं मानने को तैयार नहीं हूँ कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई और बंगलौर जैसे शहरों के पढ़े-लिखे और भारी जेब वाले लोग नाग-नागिन या किसी चमत्कार को देखकर रोज़-रोज़ चकित होना चाहते हैं, उनकी ज़्यादा दिलचस्पी मध्यवर्ग से उच्चवर्ग में दाख़िल होने में है. भूत-प्रेत या अंधविश्वास के दूसरे कार्यक्रमों से उनका स्टेटस नहीं सुधरेगा बल्कि उनकी रुचि उन चैनलों में ज़्यादा होगी जो बीबीसी, ब्लूमबर्ग और डिस्कवरी के टक्कर की सामग्री देकर समझदारी के मामले में उन्हें ग्लोबल स्तर पर ले जा सकें.

टीवी के कथित समाचार चैनलों का बाज़ार इतना सीधा-सपाट बहुत दिन तक नहीं रहने वाला है जैसा अभी है. जल्दी ही समाचार चैनलों को संपन्न उपभोक्ता यानी शहरी मध्यवर्ग की असली रुचि का अंदाज़ा टीआरपी से परे जाकर होगा, उसी दिन यह सूरत बदलने लगेगी. शायद लाइफ़स्टाइल, लेटनाइट पार्टी, फ़ैशन और बुटिक की कवरेज़ अब से कई गुना ज़्यादा बढ़ जाएगी लेकिन भूत-प्रेत बेरोज़गार हो जाएँगे.

असली समस्या लेकिन तब भी बनी रहेगी. भारत के 10 करोड़ महानगरीय, शिक्षित, अपव्ययी और उच्चाभिलाषी लोगों की ज़रूरत शायद जल्दी परिभाषित हो जाए लेकिन बाक़ी के 90 करोड़ देहाती-क़स्बाई लोगों की समस्याओं को ख़बरों में लाने के बदले उन्हें तरह-तरह के टोटकों से बहलाने की ठगविद्या चलती रहेगी. इससे बड़ी मिथ्या कोई नहीं हो सकती कि क़स्बों-गाँवों में रहने वाले लोग जड़बुद्धि हैं जो समाचार में सिर्फ़ सस्ती सनसनी खोजते हैं. भूलिए मत कि नीमच, दमोह, खुर्जा से लेकर गुमला-दुमका तक में लोग ख़रीदकर अख़बार और पत्रिकाएँ पढ़ते हैं.

"कान, लोकार्नो और वेनिस जैसे फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में कोई नहीं पूछता, ऑस्कर नहीं मिलता तो क्या हुआ, हम अपने बाज़ार में मस्त हैं, हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं."... ऐसा मेनस्ट्रीम बॉलीवुडीय रवैया जिन टीवी न्यूज़ चैनलों का रहेगा उनको लेकर यही बहस जारी रहेगी. मगर कई और लोग प्रणय रॉय-राजदीप सरदेसाई की भी तरह होंगे जो समाचारों-विचारों और मुद्दों की बात करेंगे जैसा कि किसी भी सभ्य-सुसंस्कृत देश में होता है.

शायद बहस का अगला दौर इस पर केंद्रित होगा कि क्या सिर्फ़ शहर के पढ़े-लिखे समृद्ध लोगों के बाज़ार को मुख्यधारा माना जाए या फिर अधिसंख्य देहाती, हिंदीभाषी और निर्धन लोगों को. दोनों की अपनी जगह रहेगी, अपनी ताक़त और समस्याएँ भी बनी रहेंगी. ऐसा मानना मेरे लिए असंभव है कि देश के सारे लोग वाक़ई वही देखकर ख़ुश हैं जो उन्हें परोसा जा रहा है. भारत में टीवी समाचारों के बाज़ार में अभी बहुत बदलाव बाक़ी है.

20 जुलाई, 2007

हिंदी सम्मेलन हुआ, अँगरेज़ी की बात करें?

मैं बुनियादी तौर पर एक क़स्बाई आदमी हूँ. देश के औपनिवेशिक अतीत ने सबकी तरह मेरे लिए भी अँगरेज़ी को ज़रूरी बना दिया और ज़रूरत की मार ने उसे माँजने पर मजबूर किया.

मैं अँगरेज़ी का भक्त नहीं हूँ, उसका विरोधी था एक ज़माने में, जब भावुक था. अब व्यावहारिक हूँ इसलिए समझता हूँ कि अँगरेज़ी के बिना हिंदी में भी काम नहीं किया जा सकता. मिसाल के तौर पर महाविनाशकारी राजभाषा अधिकारी बनने की योग्यता पर ग़ौर कीजिए-- 'स्नातक स्तर तक हिंदी और
अँगरेज़ी दोनों तथा हिंदी या अँगरेज़ी अथवा दोनों में स्नातकोत्तर...'

मेरी पक्की राय थी कि आदमी अँगरेज़ी जाने बिना भी जानकार और समझदार हो सकता है लेकिन मेरी इस राय से शायद सिर्फ़ फ्रांसीसी या कुछ हद तक रूसी और स्पेनी सहमत हो सकते हैं.

अगर आपको फ्रांसीसी-रूसी या स्पेनिश आती है तो अँगरेज़ी के बिना भी इस हरी-भरी वसुंधरा के बारे में कुछ ज्ञान पा सकते हैं. अगर आप इस ख़ामख्याली में हैं कि साम्राज्यवादी अँगरेज़ी का विरोध करके और हिंदी-हिंदुस्तान गाकर आप अपने हिस्से का ज्ञानार्जन कर लेंगे तो आप अँगरेज़ी में स्टूपिड हैं. हिंदी में अपनी पसंद का कोई नाम च वर्ग से चुन लीजिए...

इस संसार के कटु सत्यों के अनंत कोश में से एक प्रमुख सत्य ये भी है कि पिछले चार सौ वर्षों में दुनिया में सिर्फ़ पाँच-सात भाषाओं का प्रसार हुआ है और सारा प्रसार साम्राज्यवादी ताक़त की बदौलत हुआ है. संस्था, नियम और व्यापार-व्यवस्था बनाने-चलाने की ताक़त और इस ताक़त से उपजा रौब हमारे-आपके ऊपर हावी है. बोलिविया में स्पेनिश, ब्राज़ील में पुर्तगाली, अल्जीरिया में फ्रांसीसी या सूडान में अरबी...आदमी पाँचों महाद्वीपों में ताक़त की भाषा सीखना चाहता है, दासता की नहीं. क्यूबा में क्रांति के नारे स्पैनिश में ही लगते हैं जो स्पेन से कई हज़ार किलोमीटर दूर है.

गाँव-देहात वाले हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं, हिंदी वाले अँगरेज़ी, अँगरेज़ी वाले ऑक्सब्रिज...यह प्रवाह निजी फितूर में उल्टा हो सकता लेकिन सामाजिक स्तर पर ऐसा कोई उदाहरण आज तक देखने को नहीं मिला कि किसी देश के लोगों ने साम्राज्यवादी ताक़त की भाषा को दरकिनार करके अपनी ज़बान को दोबारा वही जगह दी हो जो विदेशी आक़ाओं के काबिज़ होने से पहले थी.

वक़्त गवाह है कि पिछली कई सदियों में इक्का-दुक्का मौक़ों को छोड़कर इस दुनिया में व्यवस्थापक बदले गए हैं, व्यवस्थाएँ नहीं. भारत में व्यवस्था और सत्ता तंत्र की भाषा अँगरेज़ी थी और अब भी वही है. हिंदी हमारी अपनी भाषा है, प्यारी भाषा है, मन-आत्मा की भाषा है लेकिन सत्ता-सम्मान और समृद्धि की भाषा नहीं है.

अँगरेज़ी बोलकर पृष्ठभूमि की खाई को पाटा जा सकता है, अँगरेज़ी न बोलने पर आज के बाज़ार में पैसे देकर भी इज़्ज़त से सामान ख़रीदना मुहाल है. रौब से अँगरेज़ी बोलने पर ही बड़े लोग फ़ोन पर आते हैं. दुनिया का सारा ज्ञान अँगरेज़ी की किताबों में है जिनका जूठन घटिया हिंदी अनुवाद के ज़रिए उन लोगों तक पहुँचता है जिन्हें परिस्थिति की मार की वजह से अँगरेज़ी नहीं आती या जिन्होंने अँगरेज़ी की ताक़त से ऊपर न सीखने की इच्छाशक्ति को रखा है.

भारत में कोई भी ऐसा पेशेवर क्षेत्र नहीं है जहाँ आप अँगरेज़ी जाने बिना ठीक तरीक़े से काम कर सकें, राजनीति पेशा तो है लेकिन वहाँ व्यवस्था के अनुरूप ठीक तरीक़े से काम करना ज़रूरी नहीं है इसलिए उनके उदाहरण यहाँ रहने दीजिए. छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी पत्रकारिता में डेस्क पर काम करने वाले अनेक लोग 'स्टेट ऑफ़ द आर्ट' जैसे जुमले का अनुवाद 'कला की अवस्था' करके पर्याप्त शर्मिंदगी झेलते रहते हैं.

मैंने अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई हिंदी माध्यम से की है, अँगरेज़ी से आतंकित भी रहा हूँ. अँगरेज़ी भारत में निश्चित रूप से आतंक और अलगाव की भाषा है लेकिन वह भारत की अपनी भाषा हो चली है, बहुत हद तक वैसे ही जैसे लातीनी अमरीका में स्पैनिश या उत्तरी अफ्रीका में अरबी.

अँगरेज़ी को रौब की भाषा की तरह इस्तेमाल करने पर मेरे गंभीर एतराज़ हैं, वैसे भारत में हिंदी का ठीक अँगरेज़ी जैसा इस्तेमाल बस्तर-विदर्भ से लेकर उत्कल-कोल्हान तक होता है. यहाँ सवाल भाषा की राजनीति का नहीं बल्कि शोषण की राजनीति का है, उसका तो हर हाल में विरोध होना चाहिए लेकिन अँगरेज़ी का निर्रथक विरोध करके कोई सार्थक काम करने की कोशिश करना समंदर में साइकिल चलाने की कल्पना करने जैसा है.

इस तेज़ी से ग्लोबलाइज़ हो रही दुनिया में अगर कोई भाषा है जो आपको बाक़ी संसार से जोड़ सकती है और जिसके सीखने के लिए आपको अपेक्षाकृत बहुत कम प्रयास करना होगा तो वह अँगरेज़ी ही है. यक़ीन मानिए कि आप अँगरेज़ी बोलकर शोषण-दमन का विरोध कर सकते हैं जो हिंदीवालों से नहीं हो रहा, कम से कम ब्रितानी-अमरीका अख़बार अरुंधति रॉय की तरह उनके लेख तो नहीं छाप रहे.

हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ हिंदी संसार ज्ञान के लिए लगभग पूरी तरह अँगरेज़ी पर निर्भर है, ऐसे में अच्छा यही होगा कि अपनी अँगरेज़ी ठीक करें, भले ही काम हिंदी में करते हों लेकिन अँगरेज़ी न सीखने का हठ क़दम-क़दम पर भारी पड़ेगा, अगर करियर बनाने की आकांक्षा न हो, तब भी.

हिंदी में लिखने-पढ़ने का आग्रह बहुत अच्छा-आवश्यक और अर्थपूर्ण है लेकिन अँगरेज़ी को त्याज्य बनाकर जो भी लिखा-पढ़ा जाएगा वह बच्चन, अज्ञेय, फिराक़, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी... जैसा नहीं हो सकेगा. अँगरेज़ी से डरकर, अँगरेज़ी वालों को देखकर हीनता की ग्रंथि सहलाने से बेहतर बेहतर विकल्प है एक सरल-सरस भाषा सीखना.

बाक़ी आपकी मरज़ी, पढ़तन सो भी मरतन, ना पढतन सो भी मरतन...

16 जुलाई, 2007

हिंदी की सेवा मत करिए, प्लीज़

दुनिया भर में हिंदी अकेली बड़ी भाषा है जिसकी सेवा अधिक हो रही है और प्रयोग कम. हिंदी न हुई, मरती हुई गाय है जिसकी सेवा करने के लिए लोग गौशाला में जुट गए हैं और गली-गली चंदा माँग रहे हैं.

जिसने भी हिंदी की सेवा की बात की वो मेरी नज़रों से गिर गया. मैं हिंदी में काम करता हूँ, अधिक से अधिक करना चाहता हूँ, मेरी रोज़ी-रोटी हिंदी से चलती है, मेरा मानना है कि बहुत सारे लोगों के मन की भाषा हिंदी है लेकिन उसके प्रयोग की ज़रूरत है, उसकी सेवा की नहीं. सेवा की बात वही कर रहे हैं जिनकी नज़र हिंदी पर नहीं, मेवा पर है.

न्यूयॉर्क कुछ गए, कुछ नहीं गए, ज़्यादातर बुलाए नहीं गए लेकिन सेवा सब एक-दूसरे से अधिक कर रहे हैं. आगे भी करेंगे जिसने भी कहा वह हिंदी की सेवा कर रहा है, साफ़ समझ लीजिए कि उसे हिंदी नहीं आती, अँगरेज़ी तो क़तई नहीं आती और उसका इरादा भी दोनों में से किसी भाषा को सीखने या तमीज़ से बरतने का नहीं है.

हिंदी की सेवा सत्यनारायण कथा की तरह है जिसमें सत्यनारायण की कथा के अलावा सब कुछ है, उसका महात्म्य है लेकिन कथा नहीं है. महात्म्य है तथाकथित पंडितों, आलोचकों, विद्वानों, साहित्यकारों का. जिसकी वजह से मैंने हिंदी में पहली बार ईमेल लिखा उसका क्या, जिसकी वजह से मैं हिंदी में ब्लॉग लिख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ उसका क्या...जिनकी वजह से हिंदी में टीवी के चैनल और वेबसाइटें चल रही हैं उनका क्या... उन्हें परवाह भी नहीं है. वे अपना काम कर रहे हैं, पैसे कमा रहे हैं, बाज़ार पर उनकी नज़र है, उन्हें सरकारी ख़र्चे पर न्यूयॉर्क जाने की नहीं पड़ी है.

मैं हिंदीवाला हूँ और उसे आसान बनाने वालों का आभारी. मैं हिंदी में काम करता हूँ क्योंकि वह मेरी अपनी भाषा है और मुझे खूब अच्छी तरह आती है, मुझे अँगरेज़ी भी ठीक-ठाक आती है लेकिन वह मेरे मन की भाषा नहीं है, वह ज़रूरत की भाषा है इसलिए पर्याप्त ज्ञान के बावजूद उसमें लय नहीं है, लचक नहीं है, धार नहीं है. अँगरेज़ी में अगर मैं वही असर पैदा कर सकता जो हिंदी में कर लेता हूँ तो मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ जो हिंदी में लिखता, मैं कोई हिंदी सेवक नहीं हूँ. हिंदी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है, मैं हिंदी में सोचता हूँ इसलिए हिंदी में ही अपने आपको बेहतर व्यक्त कर सकता हूँ, बाक़ी सब अनुवाद है.

जिस तरह मैं हिंदी की सेवा नहीं कर रहा हूँ, उसी तरह बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लाखों-लाख लोग नहीं कर रहे हैं, उन्हीं के दम से हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ छप और बिक रही हैं, राजभाषा विभाग या विदेश मंत्रालय की कृपा से वे परे हैं इसलिए जीवित और सार्थक हैं वरना उनका भी अहर्ता, उपरोक्त, कदाचित, कदापि, यथोचित, निर्दिष्ट, तथापि, अधोहस्ताक्षरी वाला हाल हो चुका होता.

हर सरकारी दफ़्तर में मौजूद राजभाषा अधिकारी का काम ही है हिंदी को ऐसा बना देना ताकि अँगरेज़ी में काम करते रहने को जायज़ ठहराया जा सके. आपने कभी सोचा है कि आपको ब्लॉग लिखने में, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने में कोई दिक्क़त नहीं होती तो सरकारी काम करने वालों को क्यों समस्या आती है. सिर्फ़ इसलिए कि हिंदी में काम नहीं हो रहा है, उसकी सेवा हो रही है.

हिंदी का भला किसी के किए हो सकता है इससे ज़्यादा दंभ और मूर्खता की बात कोई और नहीं हो सकती. हिंदी का भला भी उसी तरह होगा जिस तरह अँगरेज़ी, स्पैनिश या किसी और बड़ी भाषा का हुआ है. सेवा करके नहीं बल्कि उसे बोलने-लिखने-पढ़ने की वजहें पैदा करके. इतना बड़ा सम्मेलन हो रहा है, किसी महान हिंदी सेवी की समझ में मामूली बात नहीं अँट रही कि हिंदी के बिना भारत में हर कॉर्पोरेट हाउस का काम चल रहा है जो चीन में नहीं चलता. भारत में हिंदी के बिना शान से काम चलता है और हिंदी वाले शर्मसार हैं, कल्पना कीजिए कि भारत जैसे बड़े बाज़ार में पैठ बनाने के लिए हिंदी आवश्यक होती तो स्थिति क्या होती.

भारत में जितनी हिंदी बची है वही बचा हुआ भारत है, बाक़ी इंडिया है. इंडिया में हिंदी के बिना मज़े में काम चलता है बल्कि वहाँ हिंदी डाउनमार्केट है, सिर्फ़ ड्राइवर, चपरासी, सब्ज़ीवाले और नौकरों से बोली जाने वाली भाषा है जो भारत से आते हैं. महानगरों में वही लोग हिंदी वाले हैं जिनके संस्कार क़स्बाई हैं, जो पैदाइशी या दूसरी पीढ़ी के शहरी हैं उनके लिए हिंदी एक गंवारू, डिफ़िकल्ट या यूज़लेस भाषा है, कम से कम ऐसी भाषा तो नहीं है जिसमें लिखा जाए और पढ़ा जाए, ठीक है टीवी पर चल सकता है.

जो भाषा अपनी ज़मीन पर तिरस्कृत है उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का पोला अभियान चलाने वाले अगर यही कार्यक्रम कर्नाटक या असम कर लेते तो शायद ज़्यादा सार्थकता होती, लेकिन सेवा का मेवा कैसे मिलता, न्यूयॉर्क गए बिना?

हिंदी का जो भी प्रचार-प्रसार हुआ है वह किसी हिंदी सेवक की कृपा या साधना से नहीं हुआ है, वह हुआ है सिर्फ़ बाज़ार की ताक़त की वजह से. मुंबई का सिनेमा हो या देश का हिंदी टीवी उसने हिंदी का प्रसार किया. 14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध करने वालों या न्यूयॉर्क में हिंदी का जश्न मनाने वालों से न पहले कभी हुआ है, न आगे कभी होगा. हिंदी चैनलों की भाषा बहस का मुद्दा हो सकती है, हिंदी सेवकों की भूमिका पर वक़्त ज़ाया करने का कोई तुक नहीं है.

सीधी सी बात है जिसे मानने में लोग बहुत देर लगा रहे हैं, जब तक हिंदी जानने, बोलने और लिखने की वजह से लोगों का जीवन बेहतर नहीं होगा तब हिंदी का यही हाल रहेगा. हिंदीवाला समृद्ध होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित होगी वरना उसकी दरिद्रता की गुदड़ी पहने उसकी भाषा घूमती रहेगी. एक छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी के टीवी समाचार चैनल चले, पत्रकारों के लिए महीने के लाख रूपए की तनख्वाह आम हो गई, हिंदी का मीडिया मार्केट रातोरात अपमार्केट हो गया. अँगरेज़ी में सोचने वाले, आह-उह के बदले आउच करने वाले फटाफट सीखने लगे कि नो कॉन्फिडेंस मोशन को अविश्वास प्रस्ताव कहा जाता है....कू को तख़्तापलट कहते हैं और इमरजेंसी मतलब आपातकाल... वीर संघवी गुलाबी हिंदी बोलने लगे.

जब तक पैसे नहीं थे तब तक हिंदी वर्नाकुलर था, अब मेनस्ट्रीम है. लेकिन यह सिर्फ़ मीडिया में हुआ है, इसे और क्षेत्रों में जो कर दिखाएगा वही हिंदी की सेवा भी करेगा और मेवा भी खाएगा. बाक़ी सब बकबक है या कोरी लालच, ज़्यादा ध्यान मत दीजिए.

12 जुलाई, 2007

सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले संत नहीं होते

इतिहास में किसी आदमी की सही जगह आँकना बहुत कठिन काम होता है, ख़ास तौर पर अगर व्यक्ति अभी-अभी इस संसार से विदा हुआ हो.

आम तौर पर उसे नापसंद करने वाले कम बोलते हैं और पसंद करने वाले भाव-विभोर होकर नए-नए गुण ढूँढ लेते हैं जिनका खंडन करने वाला व्यक्ति (अगर संयोगवश ईमानदार हुआ तो) जा चुका होता है और ज्यादातर सज्जन पुरुष तेरहवीं से पहले मुँह नहीं खोलना चाहते.

जो लोग सत्ता के शीर्ष पर पहुँच चुके होते हैं उन्हें कड़ी परीक्षा से गुज़रना होता है. गांधी या लोहिया को कभी उस परीक्षा से नहीं गुज़रना होगा जिससे नेहरू, इंदिरा जैसे दूसरे नेता गुज़रे. चंद्रशेखर बहुत कोशिश करके अल्पकाल के लिए सत्ता सुख भोगने वालों की श्रेणी में पहुँचे थे, वरना उनके मूल्यांकन में भी बिनोबा-जेपी वाली रहमदिली बरती जाती. उन्हें जॉर्ज फर्नांडिस से बहुत बेहतर साबित करने के लिए राजनीतिक शोध के धरातल पर जाने की ज़रूरत पड़ेगी. बिना पड़ताल के महान की श्रेणी में आने के दावेदार वे नहीं हो सकते.

जैसा कि अक्सर होता है, सत्ता में उनके कुछ महीने उनकी विपक्ष की शानदार पारी पर भारी पड़े. उन्होंने बहुत संघर्ष किया, युवा तुर्क कहलाए, विपक्ष और सत्ता की राजनीति दोनों की. उन्होंने हमेशा दिखाया कि वे भारत की रग-रग से वाकिफ़ हैं, सियासत और समाज की नब्ज़ पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है. वे ज़मीन से जुड़े नेता थे, जनता की भाषा बोलते थे और साथ ही बड़े आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर उनकी समझ काफ़ी साफ़ थी. मगर...

भूलना नहीं चाहिए कि वे चंद्रास्वामी जैसे पापी और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कपटी के निकटतम थे, भूलना नहीं चाहिए कि वे सूरजदेव सिंह जैसे जालिम कोयला माफ़िया के सरपरस्त थे...भूलना नहीं चाहिए कि उन्होंने अपने ख़ासम-ख़ास लोगों के लिए पर्याप्त निर्लज्जता से (जिसे उनके चाहने वाले निर्भीकता कहेंगे) सभी नियमों-मर्यादाओं-परंपराओं की हेठी की जिनकी बात वे गरज-गरजकर करते थे.

मेरा इरादा चंद्रशेखर के बहाने एक दूसरी बात कहने का है, उनका दिन-तारीख़-घटना के हिसाब से मूल्यांकन करने का नहीं है. मेरा अनुरोध सिर्फ़ इतना है कि अगर किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु से दुख पहुँचा हो तो अपने दर्द को झेलें-बाँटें, लेकिन जब सार्वजनिक स्तर पर किसी के राजनीतिक-सामाजिक मूल्यांकन की बात आए तो ध्रुवों पर जाने से बचें. यह चंद्रशेखर के साथ भी अन्याय है.

तमाम तरह की जोड़-तोड़ की राजनीति करके सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले व्यक्ति को संत महात्मा आदि कहना भावातिरेक की अतिशयोक्ति है. सत्ता की संरचना को समझने वाला कोई भी आदमी जानता है कि वहाँ ऊपर चढ़ने के लिए क्या-क्या करतब करने पड़ते हैं. संत-महात्मा ऐसे करतब नहीं करते और जो करते हैं वे संत-महात्मा नहीं होते.

लालू के गाय दुहने और कर्पूरी बाबू के हजामत बनाने की तस्वीरें जो मीडिया में दिखीं थीं वो अनायास नहीं थीं. वाजपेयी का कवि एक योजना के तहत झाड़-पोंछकर ज़िंदा किया गया और राजा वीपी सिंह की चित्रकारी में नए रंग भरे गए. वाजपेयी और राजा दोनों ऐसी अदा दिखाते हैं कि हम तो कवि और चित्रकार थे, ग़लती से राजनीति में आ गए.

सबकी अपनी-अपनी छवि होती है, चंद्रशेखर की छवि जो विपक्ष के विद्रोही नेता की थी उसी के तौर पर उनका सम्मान था, और रहेगा. राजनीति के बाज़ार में इमेज का सबसे ज्यादा मोल होता है. चंद्रशेखर बागी, विद्रोही, बेलाग होने की छवि को खाद-पानी देते रहे लेकिन उन्होंने सत्ता में आने के लिए हर वो काम किया जो कोई दूसरे घाघ नेता करते हैं.

चंद्रशेखर बड़े नेता थे, खाँटी थे, ऑरिजनल थे, जुझारू थे, अपना अलग तेवर था, बाद के दौर में जब अकेले रह गए थे तो काफ़ी स्टेट्समैन की तरह हो गए थे. वे निश्चित तौर पर असाधारण नेता थे क्योंकि वे कोई ख़ानदानी नेता नहीं थे, न ही देवेगौड़ा की तरह भाग्यवान. उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि मगर...

इस असहमति के साथ कि वे कोई संत नहीं थे, समझदार सियासतदाँ ज़रूर थे. अंतिम बड़े नेता थे समाजवादी धारा के शायद इसलिए कुछ लोग अधिक भावुक हो रहे हैं. दुखी तो मैं भी हूँ.

10 जुलाई, 2007

परत-दर-परत, चक्कर-पर-चक्कर

जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो परतदार न हो. जीवन की अपनी परतें हैं. अवस्था की परतें, दुरावस्था की परतें, व्यवस्था की परतें, चीज़ों के होने की परतें, उनके न होने की परतें.

इन सबसे बढ़कर इन परतों को लट्टू की तरह घुमाने वाला चक्र...लट्टू की रंग-बिरंगी धारियाँ जब घूमती हैं तो कुछ और होती हैं, जब रूकती हैं तो कुछ और. लट्टू के खेल में जीवन का आनंद लेने वाले भी हैं और उसकी गति को समझने में सिर खपाने वाले भी...यह फ़ितरत की बात है, इस फ़ितरत की भी परतें हैं. कुछ चीज़ों की परतें हमें दिखती हैं कुछ की नहीं दिखतीं, लेकिन होती ज़रूर हैं.

दुकानदार का लालच दिखता है, उसकी बिन-ब्याही बेटी दिखती है, उसकी जवानी दिखती है, उसका दहेज नहीं दिखता, उसके रिश्तेदारों के ताने नहीं दिखते...सब एक ही चीज़ की परतें हैं, कुछ दिखती हैं, कुछ नहीं दिखतीं, कुछ किसी को दिखती हैं तो कुछ किसी और को, सब कुछ सबके लिए अंधों का हाथी है.

ग्राहक की भी अपनी परतें हैं, उसकी भी बेटी है, उसके लिए सबसे बड़ा सवाल रोटी है..उसके लिए दुकानदार पापी है लेकिन उसके अपने पाप भी हैं, वह पीड़ित भी है लेकिन वह अपनी पत्नी का सामंत भी है मगर उन गायों का मालिक कोई और है जिन्हें वह चराता है...

...इच्छा हो तो गाय से घास तक की परतों पर जाइए. भूलिए मत कि बीच में दूध, मलाई, हलवाई, गोबर, गोचर, धर्म, संवेदना, सांप्रदायिकता, वगैरह भी परतों की शक्ल में मौजूद हैं, जिनकी अगली परतें हैं---दही, रोज़गार, गंदगी, गृहप्रवेश की रस्म, भूसा, चरवाहा, बाज़ार, पैसा, राजनीति और दुकान पर खड़ा गाँव से भागा लड़का वगैरह... हर चीज़ की तरह लड़के के जीवन की भी परतें हैं--गाँवों की बदहाली, शहरीकरण, अशिक्षा, बेरोज़गारी, माँ-बाप की लाचारी...चाहे-अनचाहे गाँव अमलाकोट से अटलांटिस तक सब परतें एक दूसरे जुड़ जाती हैं. और ध्यान रहे सब कुछ घूमता भी है.

बहरहाल, घास के नीचे मिट्टी है जिसके नीचे केंचुए हैं और उसके नीचे पानी और फिर खनिज-लवण, गाय के मालिक के ऊपर भी देखिए ज़रा-- बीडीओ-सीएम-पीएम-यूएस-यूएन...प्लैनेट अर्थ...उसका वायुमंडल, उपग्रह चाँद, सौरमंडल...उसके बाद...थोड़ा-थोड़ा पता है...उसके बाद कुछ पता नहीं...इन सबके आपस के रिश्ते और उन सबकी परतें और फिर उन परतों का घूमता लट्टू...

सपनों, भावनाओं, ज़रूरतों, मजबूरियों, बेचैनियों, उम्मीदों, आशाओं...की अपनी परतें हैं. ये सब परतें एक-दूसरे से लिपट जाती हैं और उसके बाद घूमती हैं...हम भी घूमते हैं उस लट्टू के रंगों को पढ़ने की कोशिश करते हुए.

हम से कुछ नहीं बन पड़ा, हमने डींगें बहुत हाँकी, न सबसे छोटा हमारे पल्ले पड़ा, न सबसे बड़ा. कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि परमाणु से छोटी कोई चीज़ नहीं, न ही पता कि ब्रह्मांड से बड़ा क्या है, कैसा है... है भी या नहीं...ब्रह्मांड का ही कहाँ पता है? ठहरिए, आप भूल गए कि कर्षण, गुरुत्वाकर्षण, चुंबकीय बल से घूम रहा है सब कुछ लट्टू की तरह. वाक़ई आश्चर्य होता है कि इतना कम जानते हुए अगर आदमी वाक़ई सफल है, तो इतना सफल कैसे है?

इस धरती से चार हज़ार गुना बड़ा पिंड जिसकी ब्रह्मांड के स्केल पर कोई औक़ात नहीं, गिर सकता है अचानक और कर सकता है सारी परतों को एक-बराबर, और माइक्रोस्कोप से भी न दिखने वाला अब तक अनजान रहा वायरस भी कर सकता है यही कारनामा.

हमारी सारी उछलकूछ बीच में कहीं है, जानने-समझने की होड़ लगी है--एक दूसरे से भी और अनंत से भी. हम हमेशा अपना दायरा खींचते हैं और उसके बीच सबसे अक्लमंद, दूसरे या तीसरे बड़े अक्लमंद होने की बात करते हैं लेकिन अगर हम सचमुच अक्लमंद होते हैं तो अपना दायरा भी जानते हैं कि वह पाँच सौ लोगों का है, पाँच हज़ार लोगों का.

अक्लमंद होने की निशानी यही है कि बेवकूफ़ होने का एहसास बना रहे ताकि जानने की प्यास बनी रहे, इसका ठीक उल्टा भी सही है कि अक्लमंद होने का एहसास बना रहे कि जानने की ज़रूरत न महसूस हो और हम वही बने रहें जो हमें पसंद है. वैसे जानने की प्यास बनी रहने में भी कोई खुश होने की बात नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी परतें हैं जो घूम रही हैं.

अब घूमती धरती का नक्शा बन सकता है तो इस धरती पर घूम रहे 'श्रेष्ठतम जीव' के ज्ञान का भी नक्शा बन सकता है, उसमें कुछ लोग लगे हैं... उनकी अपनी परतें हैं...लगे हैं ज्ञान का नक्शा बनाने में. सूचना, जानकारी, अनुभव, इन सबसे मिलकर बनता है ज्ञान, ज्ञान के परिमार्जन और विश्लेषण से बनती है बुद्धिमत्ता और उसके बाद यह आभास कि सारे ज्ञान तो पोले हैं.

अनामदास का सूत्र बस इतना है कि परत-दर-परत अनवरत और चक्कर-पर-चक्कर जब तक चक्कर न आ जाए, जिसने अपने-आपको समझदार समझा वह ज़रूर किसी परत पर ठहर गया है या किसी चक्कर पर चकरा गया है.

अब बनाइए नक्शा और इसकी सूचना फ़ौरन भेजिए मुझे या मेरे प्रिय प्रमोद सिंह जी को, बीच में परत या चक्कर मेरी जानकारी के मुताबिक़ कोई और नहीं है.

01 जुलाई, 2007

गालियों के बारे में सोचो #!$%^&*()+#

गालियाँ देना अँगरेज़ी बोलने की तरह है, अभ्यास होना बहुत ज़रूरी है. पूरा नेसफ़ील्ड ग्रामर रट जाने के बाद भी अँगरेज़ी नहीं बोल पाते हैं कुछ लोग. कितना भी ज़हर भरा हो कुछ लोग गालियाँ नहीं दे पाते.

मैं भी गालियाँ नहीं दे पाता, मगर मैं गालियाँ देने वाले को बुरा और गालियाँ न देने वाले संस्कारवान व्यक्ति मानने के लिए तैयार नहीं हूँ. इससे बुरा सामान्यीकरण शायद कोई दूसरा नहीं है.

सदियों से गालियाँ सर्वव्यापी हैं, मुंगेर से लेकर मैनहैटन तक कमोबेश एक जैसे भाव लिए हवा में तैरती हैं. सिर्फ़ आरामदेह सत्य का संधान करने की सभ्य समाज की आदत ने गालियों को हमेशा दायरे से बाहर रखा. गालियाँ सुनना किसी को अच्छा नहीं लगता इसलिए एक आम सहमति है कि कोई उनकी बात न करे. इसी आम सहमति के कारण गालियों की भूमिका और उनकी आवश्यकता स्थापित नहीं हो सकी, मगर देखिए कि उनका सहज प्रवाह भी किसी के रोके नहीं रुका.

अच्छी-अच्छी किताबों और अच्छे घरों से झाड़-पोंछकर गालियों को निकाल दिया गया हो लेकिन म्युनिसापालिटी के नल पर गालियाँ देने से एक कनस्तर पानी ज्यादा मिलता है, फुटपाथ पर एक फुट जगह निकल आती है, नहर का पानी अपने खेत की ओर मोड़ा जा सकता है... अनंत रूप, गुण, आकार-प्रकार, उपयोग-दुरुपयोग हैं गालियों के. आपको नहीं लगता कि सोचने की ज़रूरत है उनके बारे में.

हम और आप सभ्य लोग हैं, हम चाहते हैं कि हमारे आसपास कोई गंदगी न हो लेकिन चाय की दुकान पर काम करने वाले लौंडे का पूरा जीवन ही गाली है. सभ्य लोग न तो उस लौंडे के बारे में बात करते हैं और न ही उन गालियों के बारे में जो उस पर अनवरत बरसती रहती हैं.

गालियाँ कौन दे रहा है, किसे दे रहा है, क्यों दे रहा है...इन सवालों पर गालियों का गाली होना छा जाता है. यहीं गाली देने वाला हार जाता है, अपना केस ख़राब कर बैठता है, भले मुद्दा कितना भी जायज़ क्यों न हो. होशमंद लोगों को क्या एक पल ठहरकर देश-काल-परिस्थिति पर विचार नहीं करना चाहिए? इस बारिश में कोई कारवाला किसी को कीचड़ से सराबोर करके चला जाए तो नहाने वाला क्या देगा?

दुरुपयोग धर्मग्रंथों का होता है तो गालियों का क्यों नहीं होगा, आख़िर उनमें दम है. जिस चीज़ में दम है उसका उपयोग-दुरुपयोग दोनों होता है. मार्क ट्वेन ने कहा था--'कई बार गालियाँ देकर आत्मा को जो सुकून मिलता है वह प्रार्थना से भी नहीं मिलता.' मैं गालियों के दुरुपयोग के उतना ही ख़िलाफ़ हूँ जितना धर्मग्रंथों के दुरुपयोग के. मैं न धर्मग्रंथों के ख़िलाफ़ हूँ, न गालियों के, सारा सवाल संदर्भ का है.

मध्यवर्गीय संस्कार कहते हैं गालियाँ हर हाल में बुरी हैं. ठीक वैसे ही जैसे कई बुरी चीज़ें हर हाल में अच्छी बताई जाती हैं.

जब एक तादाद में लोग एक गाली पर सहमत हो जाते हैं तो नारा बन जाता है. इस लिहाज से दुनिया में कोई परिवर्तन गालियों के बिना नहीं हुआ. किसी आदमी को कुत्ता कहना गाली है इसलिए नहीं कहना चाहिए, यह बात सभी बच्चों को बताई गई है. पाकिस्तान में आजकल एक बड़ा दिलचस्प नारा लग रहा है--'अमरीका ने कुत्ता पाला, वर्दी वाला, वर्दी वाला.' पाकिस्तान में बच्चा-बच्चा यह नारा लगा रहा है, कोई नहीं कह रहा कि 'बंद करो ये गाली है.'

गालियों का समर्थक नहीं हूँ लेकिन अंधविरोधी भी नहीं. जो गालियाँ खाने का हक़दार है, वह खाएगा और उसे बचाना शायद अधर्म हो.

एक गंभीर एतराज़ ज़रूर है, माँ-बहन की गालियों को लेकर. ग़ौर से देखिए तो समझ में आएगा कि ये गालियाँ महिलाओं को नहीं बल्कि सभी पुरूषों को दी जा रही हैं जिन्होंने महिलाओं को अपनी दौलत समझा और उनके शरीर को अपनी जायदाद. औरतों के नाम से दी जाने वाली सभी गालियाँ पुरुषवादी समाज पर पड़ रही हैं, एक ऐसे समाज पर जिसने महिलाओं का सम्मान नहीं किया बल्कि उसे अपने सम्मान का सामान बनाया. गाली देने वाले का उद्देश्य आपके सम्मान को ही तो आहत करना है तो वह किसे गाली देगा?

मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा करने वालों के ख़िलाफ़ न्यूनतम हिंसा है गालियाँ. गालियों में आह-कराह-हेठी-हिकारत-हिमाकत-साहस-दुस्साहस सब है. गालियों में टुच्चापन-लुच्चापन-बेहूदगी-बेहयाई-बदतमीज़ी भी है. गालियों के बारे में सोचिए, आप-हम नहीं रहेंगे लेकिन गालियाँ रहेंगी, तब तक जब तक दुनिया में दर्द, बेचैनी, अन्याय, शोषण, अनाचार, कदाचार, ग़ैरबराबरी...रहेगी.

कुछ ऐसे भी होते हैं जो कारक की तरह वाक्य को पूरा करने के लिए गालियाँ देते हैं, शहर, धूप साइकिल और बिल्डिंग से लेकर अपने आप तक को. ऐसे निर्गुन संतों की बात और है, आप संयोगवश उनकी ज़द मे आ जाते हैं तो बुरा न मानिए. उनकी गारी, गारी नहीं तरकारी होती है. भावशून्य गाली में धार कहाँ.

भूलिए मत, गालियाँ प्यार और अपनापे के इज़हार के लिए भी होती हैं, शादी के शुभ अवसर पर भी गाई जाती हैं. गालियाँ अच्छी-बुरी नहीं होंतीं, परिस्थिति और पात्र पर ग़ौर करके ही उचित-अनुचित का निर्णय संभव है.

(चौपटस्वामी और अफ़लातून जी के भड़काने पर दी गई हैं ये गालियाँ.)

22 जून, 2007

मुहल्ले, क़स्बे और महानगर में भटकता अनामदास

अचानक वो सब अच्छा लगने लगा है जो पीछे छूट गया, मैंने कुछ भी रौंदा नहीं मगर पीछे छूट गई चीज़ों को न उठा पाने का अफ़सोस सालता है. रेला आगे जा रहा है जहाँ छूट गई चीज़ को पलटकर उठाना मुमकिन नहीं है.

मैंने नहीं उठाया इसीलिए सब रौंदे गए, हाथ से गिरे गली, मुहल्ले, आँगन, कुएँ, आम-अमरूद, गिल्ली डंडे, लट्टू, पतंग, कंचे... वक़्त के क़दमों तले. अपराध बोध है जो जाता ही नहीं.

नॉस्टेलजिया एक रोमैंटिक चीज़ हुआ करती थी, आजकल स्क्रित्ज़ोफिनिया की तरह एक मनोविकार है, कम से कम बुढ़ा रहे आदमी का प्रलाप तो ज़रूर.

क़स्बे में निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार पैदा होकर पहले भारत और उसके बाद दुनिया के महानगरों को देखने वाले चालीस के करीब पहुँच रहे आदमी की त्रासदी बड़ी विचित्र है, न बताते बनती है, न छिपाते. वह पूरी तरह वस्तुहारा है, न इधर का न उधर का. उसकी प्यास कहीं नहीं बुझती, उसकी बेचैनी कभी नहीं मिटती.

सैटेलाइट टीवी के सैकड़ों चैनल मिलकर घुर्र-घुर्र करने वाले आकाशवाणी जैसा सुकून नहीं दे रहे, महँगे से महँगे रेस्तराँ नंदू की कचौड़ी-जिलेबी का सुख नहीं दे रहे, फ्रिज की आइसकोल्ड बियर से वह तरावट नहीं मिल रही जो सौंफ या बेल के शर्बत से मिलती थी...

गर्मी की दुपहरी में दाल-भात-सब्ज़ी के ऊपर से आम खाकर सफ़ेद गंजी-पजामा पहनकर छह नंबर पर पंखा चलाकर डेढ़ घंटे सोने का स्वर्गतुल्य सुख अब कहाँ है. उसके लिए वही घर चाहिए, अपने पेड़ का आम चाहिए और शायद वही उम्र चाहिए...और किसी तरह की नौकरी कतई नहीं चाहिए.

घर था, फ्लैट नहीं, आँगन था, बालकनी नहीं, मालती, हेना, गुलाब सब पसरे थे, आँगन में आम-अमरूद तो थे ही ओल (सूरन,जिमीकंद) न जाने कैसे अपने-आप ज़मीन के नीचे आ बैठता था. नालियों में छछूंदर रेंगते थे, दीवारों पर काई जमती थी, पूरी बारिश भुए रेंगते थे जो धूप निकलने पर भूरी-धूसर-काली तितलियाँ बनकर उड़ने लगते थे, चार-पाँच तरह के मेढ़क, पाँच-सात तरह के फतिंगे, दस-बीस तरह के कीड़े सब अपने-अपने चक्र के अनुरूप दर्शन देते. जिसे आजकल इकॉलॉजी कहा जाता है वह सब हमारे घर में था.

बारिश की बूंदे पूरी रात छप्पर से स्विस घड़ी की तरह सेंकेंड-दर-सेकेंड गिरती थीं, मुंडेर पर बिल्लियाँ और चौराहे पर कुत्ते लड़ते थे, चौकी के नीचे चूहे दौड़ लगाते थे और मोड़ पर शराबी एक-दूसरे को पहले गालियाँ देते और बाद मे गले मिलते थे. सुबह हम गन्ना चूसते थे, दोपहर में झेंगरी (हरा चना) और शाम को फुचका (गोलगप्पा). लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकता जिसमें शामिल थी अधगिरी छप्पर पर उगी तुरई की तरकारी.

यह गया वक़्त है जो लौटकर आ नहीं सकता. क़स्बे तो कुओं को पाट चुके हैं, आम-अमरूदों को काट चुके हैं, वे उन लड़कों की तरह हैं जो जवान होने की जल्दी में उगने से पहले ही दाढ़ी बनाने लगते हैं. मैं जिस क़स्बे को याद करके आँखें गीली करता हूँ आज का गाँव वहाँ आ पहुँचा होगा.

मैं सोचता हूँ मेरे पिता कितने निर्द्वंद्व थे कि ख़ानदानी घर है, बच्चे यहीं रहेंगे, सब कुछ ऐसा ही रहेगा आम-अमरूद, आँगन-कुआँ...जैसा उनकी जवानी में था लेकिन कुछ भी नहीं रहा. मैं सोचकर डरता हूँ और दावे से नहीं कह सकता कि मेरा बेटा चाँद पर नहीं रहेगा.

ऐसे में कोई खवनई की बात करे, कोई आकाशवाणी ट्यून करे, कोई कोंहडौरी की याद दिलाए, कोई पेटकुनिए लेटने की मुद्रा बताए, कोई बिल्लू के बचपन का ज़िक्र छेड़ दे, कोई घर में पहली बार रखे गए दर्शनीय फ्रिज की तस्वीर पेश करे, कोई दरंभगा के माटसाब की तस्वीर खींचे, कोई बनारस के क़िस्से छेड़े दे (कई और हैं...) तो ऐसा लगता है कि किसी ने ज़ख़्मों पर नरम फाहा रख दिया हो.

हम बदलते वक़्त के शरणार्थी हैं. कश्मीरी पंडित से चिनार और गुश्ताबा की बात दिल्ली में करो या न्यूयॉर्क में, आहें भरने के अलावा उसके पास चारा क्या है. वह कश्मीर नहीं लौट सकता, हम भी प्री-ग्लोबलाइज़ेशन दौर में नहीं जा सकते, बस आहें भर सकते हैं.

एक नया भरम है, आभासी दुनिया में अपने जैसे लोगों की खोज में भटक सकते हैं. ऐसे लोग जिनका अतीत हो, जो उन्हें याद हो, और भविष्य के सुनहरे सपनों से उनकी मेमरी चिप फुल न हो गई हो. उनसे गले मिल लें, हँस लें, रो लें, झूठ-मूठ ही एक बार फिर उस दौर को जी लें.

20 जून, 2007

जो न हो सका उसकी तलाश है मुझे

आभासी लोक में विचर रहे दो जीवों ( प्र1 प्र2) ने सवाल सामने रखा कि कोई यहाँ क्यों आया, क्या चाहता है. ठीक वैसे ही जैसे लोग पूछते हैं--'आपके जीवन का उद्देश्य क्या है?'

जवाब तो नहीं है, बस एक सवाल है, अरे भाई जब पैदा होने का उद्देश्य नहीं था, मरने का कोई उद्देश्य नहीं है तो वक़्फ़े का उद्देश्य क्यों होना चाहिए? अगर होगा तो वही जाने जिसने हमारी इच्छा के बिना हमें बनाया और हमारी इच्छा के बग़ैर मार डालेगा.

कुछ लोग दावा करते हैं कि उन्हें उनके जीवन का उद्देश्य मिल गया है--देशसेवा, गौसेवा, जनसेवा, हिंदीसेवा से लेकर कारसेवा और अब नेटसेवा तक. मुझे कोई उद्देश्य नहीं मिला है, जिस तरह जीता हूँ उसे उद्देश्य कहने का हौसला मुझमें नहीं है.


मुझे जीवन का उद्देश्य तो नहीं पता लेकिन जिसे आभासी दुनिया कहा जाता है वहाँ मैंने स्वेच्छा से जन्म लिया. स्वयंभू हूँ, हर्मोफ़र्डाइट हूँ--एककोशीय जीव, जो ख़ुद से टूटकर बना है.

आभासी दुनिया का उल्टा क्या हो सकता है, सोचता रहा मगर कोई ठीक शब्द नहीं मिला-स्पर्शी दुनिया? जीवन इहलोक है तो आप जिसे आभासी दुनिया कह रहे हैं वह शायद उहलोक. आभासी दुनिया में उतरने का सादा सा लेकिन बहुत बड़ा सा आकर्षण है, इहलोक में रहते हुए उहलोक में विचरण करना.

मैं वह सब कुछ चाहता हूँ जो इहलोक में नहीं मिल पाया, इहलोक में नौकरी है तो उहलोक में आज़ादी, इहलोक में सीमाएँ हैं तो उहलोक में स्वच्छंदता. उहलोक में जीने का आनंद उठाने के लिए सबसे ज़रूरी था नाम, काम, दाम आदि का त्याग इसलिए अनामदास का चोला पहना और निकल लिए ऐसा जीवन जीने जिसकी सीमाएँ नहीं मालूम, इहलोक वाले बंदे की सब सीमाएँ समय रहते मालूम हो गईं इसलिए चाकरी खोजी और लग गए नून तेल लकड़ी में.

जो उहलोक वाला था हमेशा से कसमसाता था, एक और जीवन जीने के लिए. उसके लिए एक और जन्म तक इंतज़ार करना पड़ता और इस जन्म को इतने बोरिंग तरीक़े से गुज़ारना पड़ता कि अगले जन्म में भी मनुष्य बनना नसीब हो. तभी अचानक 'सेंकेड लाइफ़' जैसा आइडिया आया, हमने कहा जो कुछ तनख़्वाह देने वाले ने नहीं ख़रीदा है वह उहलोक वाले के नाम. अनामदास गरियाता है कि साले ने कुछ नहीं दिया, एक-सवा घंटा देता है हफ़्ते में एकाध बार एहसान करके...

क्या-क्या बिक गया है ठीक-ठीक नहीं पता, क्या-क्या बचा है, नहीं मालूम. शायद यही पता लगाने की कोशिश है आभासी दुनिया की मटरगश्ती. जब तक यही पता न हो कि खींसे में क्या है तब कैसे पता चलेगा कि झोले में क्या आएगा. आभासी दुनिया में कई जीव भटकते हैं अपनी तरह के, दूसरी तरह के भी, वही बता पाएँगे कि मेरे पास कुछ खरा है या बाउंस होने वाला चेक लिए घूम रहा हूँ.

बात ये है कि इहलोक में रहते हुए उहलोक की रेकी कर रहे हैं, देख रहे हैं कि अगर इधर से निकलकर उधर गए तो कोई आसन-पाटी मिलेगी या लतिया दिए जाएँगे.

हर आदमी के अंदर कई-कई जीव रहते हैं, अभी तक दो का सस्ता-मद्दा इंतज़ाम हो पाया है, बाक़ियों को टरका दिया गया है.

समानांतर जीवन जीने की इस युक्ति से मुझे सचमुच निर्मल आनंद मिल रहा है लेकिन कई लोग हैं जो लगातार धमकाते रहते हैं कि पोल खोल देंगे. जो भाई इहलोक वाले को किसी भी तरह से जानते हैं उनसे अनुरोध है कि उहलोक वाले के असमय अवसान के पाप का भागी न बनें.

उहलोक में क्योंकर विचरण हो रहा है यह बताने की कोशिश की है, आगे सोचकर बताता हूँ कि धूप-छाँव, शहर-गाँव, ध्वनि-प्रतिध्वनि, आलाप-विलाप-प्रलाप क्या सुनना चाहता हूँ, क्या सुनकर मन खुश होता है और क्यों... फूड फॉर थॉट के लिए आप दोनों का आभार...

18 जून, 2007

नारद के सभी ईस्वामियों के समर्थन में

शीतल छाँव है, कलियाँ खिली हैं, खुशियाँ बिखरी हैं, भ्रमर गुंजन कर रहे हैं, गीत-संगीत का माहौल है, सब कुशल-मंगल है, शांति-शांति है, छेड़छाड़ थोड़ी-सी है जैसे शादियों में गालियाँ गाई जाती हैं. समधी मिलन जैसा समाँ है, सब एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं. अहा! कितना सुंदर आयोजन है, आप धन्य हैं, अरे आप भी धन्य हैं.

दिन भर के थके-हारे योद्धा यहाँ कहानियों, कविताओं और चुटकुलों के चंदोवे में विश्राम करते हैं. भोमियो, जावा, ड्रीमवीवर, विस्टा जैसे-जैसे अग्रगामी पात्र हैं जो पूरी दुनिया के दुख-दर्द मिटाकर आनंदवर्षा कर रहे हैं. पूरी दुनिया एक दूसरे से जुड़ी है, जो नहीं जुड़े हैं वे चूहड़े हैं, पहले भी थे आगे भी रहेंगे.

हम इस हरी-हरी वसुंधरा की स्वस्थ-समृद्ध संतानें हैं, हमने अपना भाग्य अपनी मेहनत से रचा है, जो नीचे से कराहते हैं उनकी बात करने के लिए नेता लोग हैं, टुटपुंजिए पत्रकार हैं.

यह हमारी दुनिया है, हमने बनाई है, यहाँ हमारी प्रगति की ललक है, यहाँ हमारी समझ की चमक है, यहाँ हमारी शक्ति की दमक है, हमारे पास इसका पासवर्ड है. यहाँ उन लोगों की बात क्यों करते हो जो किसी कैम्प-वैम्प में अपनी करनी का फल भोग रहे हैं.

हवाई बातों के पवनपुत्र हमारी इस अ-शोक वाटिका में उत्पात मचाने आ गए हैं, हँसते-खेलते सरल परिवार में गरल लेकर 'विषराज' आ गए हैं, लेकिन सुन लो अब कलियामर्दन के लिए बाल-गोपाल तैयार हैं. अधरों पर मीठी-मीठी वंशी है लेकिन सुदर्शन चक्र को न भूलो, वह भी है हमारे पास.

प्रगति हो रही है, शेयर बाज़ार आसमान छू रहा है, अमरीका-यूरोप लोहा मान रहे हैं, जीडीपी उठान पर है...यह सब आपके दलित-गलित, वामपंथी-दामपंथी विचारों की वजह से नहीं हो रहा है, यह हमारी प्रतिभा है, योग्यता है...विचारों से न कुछ हुआ है, न होगा, ज़रूरत है मेहनत, लगन और सबसे बढ़कर बहसबाज़ी में समय बर्बाद न करने की.

पसीना बहाकर, सॉफ्टवेयर उड़ाकर, लिंक लगाकर, रातों की नींद गँवाकर...हमने एक कुनबा बनाया जिसमें सब समानधर्मा लोग थे, सबको विश्वास था कि--लेकर हाथों में हाथ, हम चलेंगे साथ-साथ, हम होंगे कामयाब एक दिन...सबसे बड़ी पंगत-संगत-रंगत अपनी होगी, सब लोग एक क़तार में बैठकर भंडारा खाएँगे और जयकारे लगाएँगे.

हमने सपनों की कोमल दुनिया बसाई थी लेकिन यहाँ भी रुखे-सूखे-भूखे लोगों की बात करने वाले आ धमके. अकाल पीड़ित-बाढ़ पीड़ित और तो और दंगा पीड़ितों की बात करने वाले आ पहुँचे. इसके कहते हैं रंग में भंग करना.

जो गुजर चुका है वह गुजरात इनके लिए गुजरता ही नहीं है...चलता ही जा रहा है. गांधी के राज्य को जिस मोदी ने गौरव दिलाया उसे ये लोग रौरव बता रहे हैं, हद होती है नासमझी की. यहाँ आने से पहले तक इन्हें कोई पूछता न था और अब रंग देखिए कि एक बदज़बान आदमी की ज़बान काटे जाने पर छोड़कर जाने की धमकियाँ दे रहे हैं. जहाँ नौकरी करते हो वहाँ दो न ये धमकी, अगर हिम्मत है तो...

हम रात-दिन एक करते हैं, गैजेट्स, सॉफ़्टवेयर्स, एप्लिकेशंस के बारे में पढ़ते हैं ताकि देश का विकास हो, हिंदी फले-फूले...और लोग हैं कि चले आते हैं दो चार उलजलूल वाद-प्रतिवाद-संवाद-चर्चा-परिचर्चा वाली किताबें पढ़कर वही घिसापिटा राग लिए... लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक और साम्राज्यवाद का रोना लेकर, एक ही सॉफ्टवेयर है जिसका पिछले दो जेनरेशन से कोई अपग्रेड नहीं आया है.

राजनीति से हमारा क्या लेना-देना, हम तो शांतिप्रिय-प्रतिभाशाली लोग हैं जो देश, भाषा, संस्कृति और सबसे बढ़कर इंटरनेट क्रांति में योगदान दे रहे हैं. हाय! क्या वक़्त आ गया है, हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ कर रही है, एक बार कोड का एक कैरेक्टर बदल दिया तो जीवन भर एरर में गुज़रेगा.

(इसे कृपया व्यंग्य न समझें, यह पिछले कुछ दिनों में नारद पर लिखे गए सच्चे पोस्टों और टिप्पणियों पर आधारित है. यह एक शांतिप्रिय कुनबे का घोषणापत्र है इसे उसी तरह देखने में सबकी भलाई निहित है. नारद के सभी इलेक्ट्रॉनिक स्वामियों को सादर समर्पित. )

17 जून, 2007

नारद पर ज़बानदराज़ी चल सकती है ज़बानतराशी नहीं

मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब एक ग़लती को दूसरी बड़ी ग़लती से ठीक करने की कोशिश की जाती है.

जिस वाद-विवाद की वजह से बात यहाँ तक पहुँची उसकी क्रमबद्ध 'आपराधिक जाँच' (क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन) का कोई मतलब नहीं है क्योंकि मुद्दा अब वह नहीं रह गया है.

नारद के प्रबंधकों ने जो 'कड़ी कार्रवाई' की और उसके बाद जिस हर्षोल्लास के साथ उसका स्वागत किया गया उससे एक लकीर खिंच गई है. अब हर किसी पर यह बताने का दबाव-सा बन गया है कि वह लकीर के किस तरफ़ है.

ऐसी लकीरें हमेशा वही खींचते हैं जिनकी चर्चा-बहस-संवाद की परंपरा में कोई आस्था नहीं है, यह परंपरा सिर्फ़ लोकतांत्रिक नहीं बल्कि 'आर्गुमेंटेटिव इंडियन' वाली भारतीय परंपरा है. ख़ैर, जाने दीजिए...अनेक विवादों के संदर्भ में यह बात-बात कई बार कही जा चुकी है.

बहकता-चहकता पोस्ट 'शाबास नारद' आया जिसमें गिरिराज जोशी ने रणभेरी बजाते हुए कहा, "नारद से ऐसे सभी चिट्ठों को निकाल फैंको जो इसका विरोध करते हैं..."

इस हिसाब से मैं निकाले जाने का पात्र बन चुका हूँ. मैंने अपनी पात्रता का प्रमाणपत्र फ़ौरन ही गिरिराज जी को भेज दिया था. मुझे लगा कि अब चुप रहना ग़लत होगा, मैंने लिखा-- "आपके विचारों का विरोध न करना और उसे ग़लत न कहना अधर्म होगा, पाप होगा."

लकीर खींचने वाले साहब वही कर गुज़रे जो श्रीमान बुश ने किया था, "या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे ख़िलाफ़"..

मुझे बताना पड़ा कि मैं लकीर के दूसरी तरफ़ हूँ, उनकी तरफ़ नहीं. इसका ये मतलब क़तई नहीं है कि मैं ओसामा के साथ था, लेकिन लकीर खींचकर आपने मुझे दूसरी तरफ़ धकिया दिया है.

मुझे अगर बदज़बानी करने वाले और ज़बान काटने का फ़रमान सुनाने वाले में से एक को चुनना ही पड़ेगा तो मैं राजा के ख़िलाफ़ हूँ.

दुखद बात ये है कि नारद को अपने सक्रिय सहयोग से चलाने वाले भाई श्री संजय जी बेंगाणी को गिरिराज जोशी की पोस्ट का मतलब समझ में नहीं आया, उनकी प्रतिक्रिया थी-- "क्या लय में लिखा है, खुब. मुझे तो लगा था आज नारद केवल गालियाँ ही खाने वाला है. शाबास."

संजय जी और अन्य कई चिट्ठाकार दोस्त इस बात से परेशान रहते हैं कि सांप्रदायिकता, हिंदू-मुसलमान, आरक्षण, दलित आदि विषयों पर चर्चा करके कुछ लोग चिट्ठाकारों में फूट डाल रहे हैं. संजय जी की नज़र उस दरार पर नहीं गई जो गिरिराज जी और कुछ अन्य साथियों ने डाली है.

महाशक्ति जी की शक्तिशाली टिप्पणियाँ भी कम विचारणीय नहीं हैं जिनमें 'मक्‍कार पत्रकारों', 'हिन्‍दू‍ विरोधी तालीबानी लेखों', 'दीमकों' और 'विषराजों' का फन कुचलने के साथ-साथ 'मुहल्‍ले को भी सर्वाजनिक रूप से निष्‍क‍ासित एवं बहिष्‍कृत' करने की अनुशंसा की गई है.

अंत में एक निर्णायक उदघोष--"आज समय आ गया है कि इन सॉंपों की पूरी नस्‍ल को कुचल दिया जाना चाहिए." वाक़ई बहुत ज़हर है.

इस पर भी बेंगाणी जी की 'बहुत खुब' वाली टिप्पणी दर्ज है, ढेर सारे साथी हैं जिन्होंने महाशक्ति जी के विचारपरक लेखन का करतल ध्वनि से स्वागत किया है.

विचार, सरोकार, हिंदुत्व, इस्लाम, न्याय, उदारता, लोकतंत्र, सांप्रदायिकता, आरक्षण, गुजरात, मोदी... जैसे कुल दस-पंद्रह शब्द हैं जिनका ज़िक्र आते ही कुछ दोस्तों को सचमुच तकलीफ़ होने लगती है. ये शब्द मुझे भी बहुत तकलीफ़ देते हैं इसलिए उन पर चर्चा ज़रूरी लगती है वह चाहे मुहल्ले वाले अविनाश करें या समाजवादी जन परिषद वाले अफ़लातून जी.

बेंगाणी जी को गालियाँ देने वाले राहुल के कृत्य के ख़िलाफ़ कोई निंदा प्रस्ताव लाया जाता तो अफ़लातून, धुरविरोधी, मसिजीवी, अभय तिवारी, प्रमोद सिंह जैसे अनेक लोग उसका समर्थन करते जो आज नारद के फ़ैसले के विरोध में खड़े हैं. सीधी सी वजह है कि आपने लकीर खींच दी है.

'कड़ी कार्रवाई' और उसके बाद के जश्न में गाए गए विजयगान और प्रयाणगीत से स्पष्ट हो गया है कि अब भीष्म और द्रोण भी तटस्थ नहीं हो सकते, उन्हें बताना होगा कि वे किधर हैं.

यह पोस्ट व्यक्तियों के विरोध या समर्थन में नहीं बल्कि प्रवृत्तियों के बारे में है. विचारहीनता और असहिष्णुता भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है जिसका सम्मान करते हुए इससे ज़्यादा कुछ लिखना ठीक नहीं होगा.

14 जून, 2007

मन का काम, मन ही जाने

अपने मन का काम, इससे बढ़कर कोई और माँग आप ख़ुद से नहीं कर सकते.

अपने मन का काम वही होता है जो आप इस समय नहीं कर रहे या करने की स्थिति में नहीं हैं. इससे ज़्यादा रूमानी ख़याल कोई और होता भी नहीं.

जब तक मौत की आहट सुनाई न देने लगे ज़्यादातर लोग ऐसे ही ख़यालों में जीते हैं, कुछ लोग पक्की कोशिश करते हैं और कुछ लोग कसमसा कर रह जाते हैं. अपना अभी तय होना है कि किस खाँचे में फिट होंगे.

अपनी नज़र में सफल आदमी वही है जो अपने मन की करता है. यह सफलता कई बार भगीरथ प्रयत्न से मिलती है और कई बार सहज प्रारब्ध से.

मेरी नज़र में जंगीलाल चौधरी सबसे सफल आदमी था जो हमारे मुहल्ले में कोयले की टाल चलाता था. सफ़ेद धोती और नीले कुर्ते में गद्दी पर बैठकर सौंफ-सुपारी खाता था, उसके आदिवासी मज़दूर कोयला तौलते थे, ग्राहक को दो-चार किलो ज़्यादा भी दे दें तो टन-मन के हिसाब में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था जंगीलाल को. उसने जीवन भर कोयला बेचने के अलावा कभी कुछ और करने की कुलबुलाहट नहीं पाली.

कोयला बेचकर या काग़ज़ काला करके, थोड़ा ऐसे या वैसे, घर सबका चलता है लेकिन ज़्यादातर लोग फेंस के उधर जाने के लिए छटपटाते हैं. जो पत्रकार नहीं हैं वे पत्रकार बनना चाहते हैं, जो पत्रकार हैं वे कार्यकर्ता बनना चाहते हैं या फिर लेखक, जो दुकानदार हैं वे कलमकार बनना चाहते हैं और कलमकार चाहते हैं कि दुकान चल निकले.

मेरे एक पुराने परिचित के पिता कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो में थे, बेटा बाप से बढ़कर निकला, माले का पर्ची काटने वाला कार्यकर्ता बन गया. जब मूँछे पकने लगीं तब घर बसाने का ख़याल आया तो पत्रकार बना, मगर संयोगवश एक संघी संपादक की अर्दल में. संपादक जी मकान मालिकों से तंग आए तो भाजपाई मुख्यमंत्री की कृपा से कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनी जिसके कोषाध्यक्ष बने माले वाले भाई. अपार्टमेंट बना और माले वाले भाई मालामाल हुए, उसके बाद पूरे प्रॉपर्टी डीलर बन गए.

माले वाले इस मालदार परिचित को मैं सचमुच सफल आदमी मानता हूँ क्योंकि उन्होंने हर दौर में अपने मन का काम किया, जब मन किया तब सर्वहारा के संगी बने और जब मन किया तो ज़ार के संगी बनकर चौथेपन में नवाबी आनंद लिया. जंगीलाग और माले वाले मालामाल, दोनों सफल हैं, एक प्रारब्ध से और दूसरा प्रयत्न से.

एक दोस्त हैं जो एम्स की नौकरी छोड़कर असम में ग़रीब लोगों का मुफ़्त इलाज कर रहे हैं, दूसरे हैं जो बिहार पुलिस की राह में बारूद बिछाने जैसा दिलेरी भरा काम बरसों करने के बाद अब पटना में पीसीओ चला रहे हैं. तरह-तरह के लोग हैं, सबकी अपनी-अपनी पिनक है, मेरी भी पिनक है लेकिन कई बार लगता है कि मन की करने के लिए जो मनमानी करनी पड़ती है उसके लायक़ कलेजा नहीं है अपने पास.

जब आप अपने मन की करते हैं तो बाक़ी लोगों के लिए मनमानी ही कर रहे होते हैं. ख़ानदानी नौकरीपेशा परिवार में पैदा हुए नाचीज़ ने जब ऐलान किया कि सरकारी नौकरी नहीं करूँगा तो घर में स्यापा पसर गया, ये नहीं कहा था कि नौकरी नहीं करूँगा. मन का काम तब यही था कि बाप जो कहें वह नहीं करना है. बस यहीं तक मन का काम किया.

मन करता है किताब लिख मारूँ जो मास्टरपीस हो जाए, मन करता है फ़िल्म बनाऊँ जो कुरोसावा और फेलिनी की श्रेणी में रखी जाए, मन करता है कोलंबस और कैप्टन कुक की तरह पूरी दुनिया छान मारूँ, मन करता है कि घूम-घूमकर दुनिया भर के जनसंघर्षों का गवाह बनूँ, मन करता है कि सिर्फ़ मन की करूँ. लेकिन करता क्या हूँ, सिर्फ़ नौकरी.

मकान की किस्त भरनी है, बुढ़ापा आरामदेह बनाना है, बच्चे की सही परवरिश करनी है. कई बार दिल में आया कि नौकरी छोड़ दूँ और करूँ अपने मन की. किसी तरह जुगाड़ हो जाएगा रोज़ी-रोटी का, सिर्फ़ नौकरी करना भी कोई जीवन है, ज़रा पढूँ-लिखूँ, दुनिया देखूँ. बीवी ने एक सादा सा सवाल पूछा, 'बेटे से जब स्कूल में लोग पूछेंगे कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो वह क्या जवाब देगा.'

मैं सोचता हूँ क्या वह यह नहीं कह सकता 'जो मन करता है, करते हैं.' क्या आपको मेरा यह परिचय स्वीकार्य है कि मैं वही करता हूँ जो मेरा मन कहता है.

माँ-बाप, बीवी-बच्चे, दफ़्तर-समाज, दीन-दुनिया के हिसाब से काम न करके अपने मन से चलूँगा तो क्या मुझे एक 'अच्छा आदमी' माना जाएगा? लेकिन अपने मन से नहीं चलूँगा तो क्या अपनी नज़र में सफल आदमी बन पाऊँगा? एक साथ 'अच्छा और सफल आदमी' बनने की उधेड़बुन है सारी ज़िंदगी.

कहिए उधेड़ूँ या बुनूँ?

(प्रमोद सिंह और अभय तिवारी के परस्पर संवाद की प्रेरणा से लिखे गए इस चिट्ठे पर अपनी राय देकर इसे सफल बनाएँ.)

07 जून, 2007

माले मॉल दिले बेरहम

जिनके पास माल है उनके लिए मॉल है, मॉल वो जगह है जहाँ सुख और सुविधा का एक साथ वास है.

ग़रीब पहले भी थे, आज भी हैं, वे पहले भी दुखी थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे. फिर इतना मॉल-विरोधी-माहौल क्यों बना रहे हैं कुछ लोग?

इस सवाल पर विचार करना उतना ही ज़रूरी है जितना मॉल से माल ख़रीदना. मॉल से सुख मिल रहा है लोगों को. ऐसे में उस पर सवाल उठाने को सुखी व्यक्ति को कठघरे में लाने जैसा माना जाता है. मगर मेरी राय में सुखी आदमी कठघरे में खड़ा किए जाने का पहला पात्र है, न कि सूखा आदमी.

नुक़्ते की बात ये है कि किसानों के खेत उजाड़कर उद्योगों के रमण के लिए सेज़ बिछाई जा रही है, अच्छा नाम दिया है सेज़ यानी एसईज़ेड (स्पेशल इकॉनॉमिक ज़ोन). मॉल भी सेज़ है, सोशल एक्सक्लूज़न ज़ोन यानी समाज के एक हिस्से को बाहर रखने वाला ज़ोन.

हर मॉल के बाहर वर्दी डाटकर कुछ गार्ड खड़े होते हैं जिन्हें पता होता है कि उन्हें ख़ुद से थोड़ा कमतर दिखने वाले आदमी से कैसे पेश आना है. कोई बेचारा अच्छी तेल-कंघी-इस्तरी की मदद से घुस भी गया तो ग़लत अँगरेज़ी बोलकर डराने वाले सेल्समैन मौजूद हैं. वह ज़्यादा से ज़्यादा रौनक़ देखकर लौट आता है. समझ जाता है कि यह जगह उसके लिए नहीं बनाई गई है.

ज़्यादातर लोग इतने भोले हैं कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्हें मॉल से शॉपिंग में अधिक आनंद क्यों आता है. इसलिए कि वहाँ सिर्फ़ उनके जैसे लोग शॉपिंग करते हैं या फिर वे जिनके जैसा बनने की वे तमन्ना रखते हैं. मॉल ने शॉपिंग को एक शानदार एक्सपिरियंस बनाने के लिए उन लोगों को पूरी तरह एलिमिनेट कर दिया है जो आपको देश की दशा की याद दिलाकर दुखी करते हैं.

बाज़ार में जाओ तो साला हर ऐरा-ग़ैरा चला आ रहा है, मैनर्स तो हैं ही नहीं. आप माल पसंद कर रहे हैं कि कोई भिखमंगा आ गया, क़ीमती सामान लेकर चले हैं कि किसी ने साँड़ की पूँछ उमेठ दी...नालियों-गड्ढों से तो किसी तरह बच जाएँगे लेकिन शोर-धूल-धुआँ वग़ैरह-वग़ैरह... यू नो शॉपिंग हैज़ टू बी फ़न.

आपके इस अँगरेज़ी के फ़न को रूपए में बदलने का उर्दू वाला फ़न जिनके पास है उन्हें और भी कई बातें पता हैं. वे घाटा उठाने की योजना बनाकर आपसे मोहब्बत साध रहे हैं, वे जानते हैं कि आपका प्यार अटूट है. 'बाई वन गेट वन फ्री' ज़रा गुप्ता जी से लेकर दिखाइए, रीजेंसी मॉल वाले देते हैं और वजह भी बताते हैं-....बीकॉज़ वी केयर फॉर यू.

गुड़गाँव के एक पाँच मंज़िला शॉपिंग सेंटर में घुसा तो लोगों के चीख़ने की आवाज़ आई, मैं घबराया, ऊपर नज़र गई तो नौजवान पाँचवी मंज़िल पर बने प्लेटफॉर्म से कमर में रस्सी बाँधकर बंजी जंपिग कर रहे थे, फुल सेफ़्टी किट और इंस्ट्रक्टर के साथ, मुफ़्त में. लाइव बैंड था और बच्चों के लिए घूमता-फिरता मिकी माउस भी. चाट-पकौड़ी की दुकानें और अमरीकन बेगल भी. अब शॉपिंग करने यहाँ नहीं आएँगे तो क्या दरीबा और चावड़ी बाज़ार जाएँगे.

ग्लोबलाइज़ेशन का सबसे सुंदर प्रतीक है मॉल, जब आप मॉल के अंदर जाते हैं तो बिना टिकट-पासपोर्ट-वीज़ा के फौरन फॉरेन पहुँच जाते हैं. जैसे ही घुसते हैं मैनहट्टन में मछरहट्टा बाहर रह जाता है, शॉपिंग न भी करनी हो तो बीच-बीच में फॉरेन टूर का आनंद लेते रहना चाहिए, ट्रेंड्स पता रहते हैं. नाली-गंदगी-झोड़पपट्टी-ग़रीबी-बीमारी-भिखारी सबसे दूर जो आपके जीवन को स्थायी तौर पर मैनहट्टन नहीं बनने दे रहे.

मॉल वाले इतना कुछ कर रहे हैं आपके लिए, मज़ा भी आ रहा है, फिर क्यों पूछना कि 'क्यों कर रहे हो', 'कैसे कर रहे हो', 'किसके ख़र्चे पर कर रहे हो', 'क्या ज़रूरी है यह सब करना'? सवाल तो तब करना चाहिए जब आपको कोई तकलीफ़ हो, आनंद में क्या सवाल करना?

अच्छे माहौल में, अच्छा माल, अच्छी क़ीमत पर मिल रहा है तो फिर बाक़ी बातें फिज़ूल हैं. ये सब कैसे हो रहा है, आगे कैसे होगा, ये किसकी क़ीमत पर हो रहा है, सबके लिए क्यों नहीं हो रहा, यह एक अकादमिक बहस है जिसका ग्राहक से कोई सरोकार नहीं है.

ग्राहक देखता है कि उसने कितने पैसे दिए, पैसे के अलावा क़ीमतें और भी चुकाई जाती हैं. वो दूसरे लोग हैं जो अपनी अलग करेंसी में यह क़ीमत चुकाते हैं, मॉल के माल को पैक करने वाले, चढ़ाने-उतारने वाले, उगाने-धोने वाले से लेकर न जाने कौन-कौन...चीन में बैठे मज़दूर तक...जो बेहद दयनीय हालत में जीते हैं अगर उनको ज्यादा पैसा मिलेगा तो आपको सस्ता माल मिल चुका, भूलिए मत- बीकॉज़ वी केयर फ़ॉर यू (नॉट फॉर देम.)

लोकतंत्र में ख़रीदने-बेचने पर कोई रोकटोक नहीं है, साथ ही, सोचने-समझने से रोकने की साज़िशों पर भी पाबंदी नहीं है. सोचने-विचारने की भी स्वतंत्रता है मगर मॉल जैसी सुविधाजनक चीज़ या ग़रीबी जैसी दुविधाजनक चीज़ के बारे क्या सोचना. लेकिन आप मेरी तरह अड़ियल हैं तो ईपीडब्ल्यू (इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली) में छपा यह शोधपत्र पढ़ सकते हैं, उसके बाद जब मॉल में जाएँ तो मेरी तरह आपके दिल में भी थोड़ा अपराध-बोध हो.