21 जुलाई, 2008

निम्न मध्यवर्गीय चौमासे का एक अध्याय

टिप टिप.. टुप टुप...बारिश के दिन कितने सुहाने होते हैं, तवे की तरह तपती ज़मीन के लिए. देश में कितनी छतें टपकती हैं इसके पुख़्ता आंकड़े कहीं उपलब्ध होंगे, ऐसा लगता तो नहीं है. इस बीच कोई राष्ट्रीय टपकन निदेशालय बन गया हो और मुझे पता न हो तो माफ़ी चाहता हूँ.

आंकड़ों का जाल और भी उलझ सकता है क्योंकि छतों से पानी टपकता है, और छप्परों से भी, हमारे घर में दोनों थे और दोनों टपकते थे. कहीं-कहीं दोनों नहीं टपकते थे, और कहीं कहीं दोनों में से कोई नहीं था.

आया सावन झूम के, काली घटा छाई प्रेम रुत आई ...मेरा लाखों का सावन जाए...जैसे गाने सुनकर बड़े होने के बावजूद मेरी समझ में कभी नहीं आया कि घुटनों तक कीचड़, लबालब बहती काली नाली में उतराते टमाटर, साइकिल के सड़े टायर, प्लास्टिक की गुड़िया, छतरी का डंडा और टूटी चप्पल को देखकर हमारा मन गिजगिजा-सा होता था, सलोनी नायिका क्या देखकर झूमने लगती थी.

अधसूखे कपड़ों की गंध, साइकिल के टायर की रिम पर लगी जंग, दीवार पर जमी हरी काई, आँगन में वर्ल्ड क्लास आइसरिंक जैसी फिसलन, पंक-पयोधि में चप्पल पहनकर चलने से पैंट के निचले-पिछले हिस्से पर बने बूंदी शैली की कलाकृति...पूरे घर में जगह-जगह टपके के नीचे रखे बर्तनों में बजता जलतरंग...यही यादें हैं बरसात के दिनों की.

तपिश से निजात का सुख समझ पाते इससे पहले सीली लकड़ी की सी घुँआती उदासी घेर लेती. सड़क पर गलीज़, घर में उसकी गंध और मन में सबसे मिल-जुलकर बनी गुमसाइन घुटन. छप्पर के सिरे पर टपकता पानी, नेनुआ-झींगी की सरपट बढ़ती लत्तर और अनगिनत गीले छछूंदर, तिलचट्टे, कनगोजर और फतिंगे. लहलहाकर फूली मालती, बरसाती अमरूद, अपनी मर्ज़ी से उगे अखज-बलाय पौधे, भुए, घोंघे और काले-पीले मेढ़क एक ख़ास किच-किच, पिच-पिच वाले मौसम के हिस्से थे.

ये तो अब समझ में आता है कि हमारे घर में जैसी जैव विविधता थी उसे देखकर यूरोपीय जीव वैज्ञानिक पूरी किताब लिख डालते.

नींबू-मसाले वाले भुने भुट्टे टाइप की मेरी यादों पर कीचड़ की एक परत जमी हुई है. लगता नहीं है कीचड़ के साथ आपका उनका रसास्वादन करना चाहेंगे, या कीचड़ हटाने की ज़हमत उठाएँगे इसलिए फ़िलहाल रहने दीजिए.

जिनके घरों में पानी न टपकता हो वे अपनी सुहानी यादें छापकर हमें न जलाएँ-लजाएँ तो बड़ी मेहरबानी होगी.

19 जुलाई, 2008

अर्थ की तलाश व्यर्थ की तलाश

अजीब-सा सपना देखा, मैं ज़ोर से बोल रहा था लेकिन अपने ही शब्द सुन नहीं पा रहा था. नींद में मेरे होंठ हिल रहे थे लेकिन कान और दिमाग़ मिलकर कोई अर्थ नहीं, सिर्फ़ बेचैनी रच रहे थे.

यह गिने-चुने सपनों में था जो पूरे दिन याद रहा. रिप्ले कर-करके कितने ही अर्थ ढूँढता रहा.

शब्दों के गुम होते अर्थ पर पिछली शाम एक दोस्त के साथ हुई बहस याद आई, एक फ़िज़ूल लेख का ख़याल आया जिसके बारे में मैंने कहा था- 'पाँच सौ शब्दों की आपराधिक बर्बादी', या फिर फ़ोन रिसीव करने के लिए बेटे का कार्टून चैनल म्यूट कर दिया था जिसकी वजह से ये सपना आया...या कि मेरे मोबाइल पर आज दो-तीन फ़ोन आए जिनमें कोई आवाज़ नहीं आ रही थी...

वजह जो भी हो, सपना था घबराहट भरने वाला. शब्दों में ध्वनि हो लेकिन अर्थ न हों, शब्दों की वर्तनी हो लेकिन कोई मायने न हो. कितनी भयानक बात है न!

रोज़मर्रा के संसार में कुछ घंटे बिताने के बाद लगा कि ऐसी कोई भयानक बात नहीं है. सब तरफ़ सुख-चैन है.

कोई ऐसा शब्द नहीं मिला जिसमें अर्थ हो, कोई ऐसी वर्तनी नहीं मिली जिसमें मायने हों.

जो प्रहसन है उसे लोग गंभीर राजनीतिक चर्चा बता रहे हैं, जिन बातों पर चिंता होनी चाहिए उन पर मनोरंजन हो रहा है...लेकिन किसी को वैसी घबराहट नहीं हो रही जैसी मुझे कल आधी रात को हुई थी.

आधी रात की नीम बेहोशी का सच या भरी दोपहरी की भागदौड़ का झूठ. सच कितना झूठा है, झूठ कितना सच्चा है. आप ही बताइए!

02 जुलाई, 2008

पोते के नाम थर्डवर्ल्ड के अम्मा-बाबा का संदेश

अगले शनिवार को मेरा बेटा चार साल का हो जाएगा, हम ख़ुश हैं कि वीकेंड है, बच्चों की कोई छोटी सी पार्टी कर लेंगे. बच्चे के बाबा-अम्मा (दादा-दादी) कई हज़ार किलोमीटर दूर बैठे तीन हफ़्ते से हलक़ान हो रहे हैं कि पोते का जन्मदिन आ रहा है, टाइम पर कार्ड मिलना चाहिए, पहुंचने में पता नहीं कितना वक़्त लगे.

सत्तर पार कर चुके बाबा मानसून के मौसम में कितने सरोवरों से गुज़रकर, पता नहीं कहाँ गए होंगे ग्रीटिंग कार्ड ख़रीदने. अम्मा-बाबा ने टिप-टिप करती दुपहरी पोते के लिए संदेश लिखने में ख़र्च की होगी. घर के पास कोई पोस्ट बॉक्स भी नहीं है, वे रिक्शे से जीपीओ गए होंगे, लाइन में लगकर लिफ़ाफ़ा रवाना किया होगा, इस आस के साथ कि मिल जाए और वक़्त पर मिल जाए. पिछले पाँच दिन से जब फ़ोन करो, एक ही सवाल होता है--"कार्ड मिला कि नहीं".

रुपए के नींबू तीन कि चार, इसी पर दस मिनट तक बहस करने वाले रिटायर्ड बाबा ने एक पल नहीं सोचा कि इस कार्ड के तीस रूपए क्यों. पोता ख़ुश होगा, कार्ड पर फुटबॉल बना है और दो गोरे लड़के खुश दिख रहे हैं, पोता उनके साथ आइडेंटिफाई कर सकता है. अपने इलाक़े के बच्चे भी फुटबॉल खेलते हैं लेकिन उनके फोटो वाला कार्ड थोड़े न छपता और बिकता है.

अम्मा-बाबा आपकी मेहनत सफल हो गई है, पोते का 'हैप्पी बर्थडे कार्ड' मिल गया है, जन्मदिन से तीन दिन पहले. पोते को कार्ड पढ़कर सुना दिया गया है. सुविधा के लिए बाबा ने अँगरेज़ी में लिखा है, प्यार से अम्मा ने हिंदी में. मज़मून एक ही है.

अनुवाद अम्मा ने कर दिया है, या फिर बाबा ने अम्मा वाले का अनुवाद अँगरेज़ी में किया है. वैसे तो बहुत फ़र्क़ पड़ता है कि अनुवाद अँगरेज़ी से हिंदी में किया गया है या हिंदी से अँगरेज़ी में. मगर इस मामले में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता.

बाबा-अम्मा का पत्र शब्दशः
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ऊँ नमः शिवाय
दिनाँक 26-06-2008

परम प्रिय चिरंजीव कृष्णाजी,
अम्मा-बाबा की ओर से ढेर सारा प्यार और शुभ आशीर्वाद, जन्मदिन मुबारक. तुम्हारा चौथा दिन है, तुम खूब खुश रहो, पूर्ण स्वस्थ और निरोग रहो. अपने पापा मम्मी की सब बातें मानना और उनको खुश रखना. पढ़ाई में मन लगाना. तुम जब लिखना सीख जाओगे तब हमें चिट्ठी लिखना. ईश्वर तुम्हें सारी प्रसन्नता और दीर्घायु प्रदान करें. जीवन में खूब उन्नति करो.
ढेर सारे प्यार के साथ
तुम्हारे अम्मा-बाबा
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पूरी चिट्ठी सुनने और कार्ड उलट-पलटकर देखने के बाद अनपढ़ पोते ने कहा है--थैंक यू.

बाबा को ठीक-ठीक पता नहीं है, उनका जन्मदिन मकरसंक्राति के एक दिन पहले होता है या एक दिन बाद. कार्ड भेजने, केक काटने का सिलसिला उनके लिए कभी नहीं हुआ, हमारा जन्मदिन मनाया गया और अब पोते का.

मैं कुछ ज्यादा भावुक हो रहा हूँ. रहने दीजिए, इतना बता दीजिए कि पीढ़ियों का यह प्यार ऊपर से नीचे ही क्यों चलता है, नीचे से ऊपर क्यों नहीं.

क्या यही वह जेनेटिक कोडिंग है जो हर अगली पीढ़ी को सींचती जाती है ताकि मानवीय जीवन धरती पर क़ायम रहे. क्या पलटकर उस प्यार को आत्मसात करने और महसूस करने का कोई गुणसूत्र हममें नहीं हैं, अगर हैं तो इतने क्षीण क्यों हैं?