26 जुलाई, 2007

कथित न्यूज़ चैनल बॉलीवुड से कुछ सीखें

बॉलीवुड से सीख लेने की सलाह गुस्ताख़ी नहीं, इज़्ज़तअफ़ज़ाई है क्योंकि कथित समाचार चैनलों की होड़ मुक्ता आर्ट्स, नाडियाडवाला या अब्बास-मस्तान एंड कंपनी से नहीं बल्कि छोटे पर्दे पर चाँदी काटने वाली कंपनी बालाजी टेलीफ़िल्म्स से है.

कथित समाचार चैनलों के कर्ताधर्ता अनेक बार रिकॉर्ड पर कह चुके हैं कि "हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं." डेविड धवन और सुभाष घई इससे अलग क्या कहते हैं?

समाचार चैनलों के आला अफ़सर बार-बार 'कथित' के प्रयोग पर नाराज़ हो सकते हैं लेकिन वे तब तक कथित ही रहेंगे जब तक वे सचमुच समाचार नहीं दिखाते. समाचार-विचार दिखाने का काम फ़िलहाल दूरदर्शन के सिवा हिंदी में कहीं नहीं हो रहा है. मगर वहाँ समाचार और विचार दोनों सरकारी हैं क्योंकि उन्हें एकता कपूर की नहीं, प्रियरंजन दासमुंशी की चिंता है.

व्यावसायिक दबाव की बात तो जायज़ है, घर से पैसा लगाकर कौन समाचार दिखाएगा? पत्रकारों को तनख़्वाह देनी है, मालिक को फ़ायदा चाहिए, ओबी वैन, स्टूडियो और दिल्ली-नोएडा में अच्छी जगह पर दफ़्तर के अपने ख़र्चे हैं... लेकिन जीबी रोड-सोनागाछी-कमाटीपुरा की व्यावसायिकता और पत्रकारिता की व्यावसायिकता का कुछ तो अंतर हो? हिंदी में अभी ये अंतर नहीं दिख रहा है, अपवादों को छोड़कर.

बहरहाल, मुक़ाबला कथित समाचार चैनल के रिपोर्टरों और 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' वाले राम या तुलसी के बीच है. इस मुक़ाबले को जीतने के लिए ज़रूरी है कि याद्दाश्त खो जाए, पुनर्जन्म हो जाए और नागिन पिछले जन्म का बदला ले...कम से कम अपराध-साज़िश या रंजिश तो ज़रूर हो.

दरअसल, भारत का दुर्भाग्य है कि दो बहुत बड़ी घटनाएँ लगभग एकसाथ हुईं, भारत का बाज़ारीकरण और भारतीय टीवी चैनलों का बाज़ारूकरण. निजी समाचार टीवी चैनलों का दौर थोड़ा पहले या कुछ बाद शुरू होता तो स्थिति संभवतः अलग होती. जिस टीवी जैसे सशक्त माध्यम से बदलते समाज पर सार्थक टिप्पणी की अपेक्षा हो सकती थी वही बाज़ार के ताल पर सबसे ज़्यादा नाच रहा है. ख़ैर, रास्ता बाज़ार से बहुत दूर जाकर नहीं, उसी के बीच से निकलेगा.

टीवी टुडे और बालाजी फ़िल्म्स की कमाई के आँकड़ों का अंतर देख लीजिए तो आपको इस बेचैनी की वजह समझ में आ जाएगी. भारत में कथित समाचार चैनलों की सारी आपाधापी की वजह यही है कि वे अपने हर कार्यक्रम के प्रायोजकों की सूची में उतने ही नाम चाहते हैं जितने सास बहू वाले सीरियलों में होते हैं. देश में कुछ गिने-चुने कलाकर हैं जो कबड्डी-कबड्डी से चार गुना तेज़ गति से बोल सकते हैं इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं...

पैसे देने वाले हिंदुस्तान लीवर, कोलगेट-पामोलिव से लेकर बरनाला सरिया जैसे ये नाम यूँ ही नहीं आते, उन्हें इस बात का आश्वासन नहीं चाहिए कि कार्यक्रम अच्छा है, वे जानना चाहते हैं कि इस कार्यक्रम को कितने लोग देख रहे हैं यानी टीआरपी कितनी है. यहीं आकर टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार बॉलीवुड प्रोड्यूसर की भूमिका अख़्तियार कर लेते हैं.

इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें और अस्सी के दशक के बॉलीवुड को देखें तो माहौल वही था जो आज टीवी का है. तब जितेंद्र का हिम्मतवाला चल रहा था आज उनकी बेटी के 'क' वाले सड़ियल चल रहे हैं. सिनेमा के धंधे में बड़ा बदलाव जो आया है उसकी एक वजह मल्टीप्लेक्स थिएटर हैं जहाँ लोग अधिक पैसे देकर भी अपनी पसंद की 'मक़बूल', 'नीली छतरी वाली लड़की' और 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' जैसी छोटे बजट की कुछ समझदारी वाली फ़िल्में देखते हैं.

डेविड धवन, धर्मेश दर्शन, गुड्डू धनोआ, हैरी बावेजा टाइप लोगों के नेतृत्व में चलने वाले अक़ल से पूरी तरह पैदल बॉलीवुड के भीतर भी जगह बनी है 'डोर,' 'खोसला का घोंसला' और 'इक़बाल' जैसी ढेर सारी फ़िल्मों के लिए. बॉलीवुड ने जुडवाँ, प्लास्टिक सर्जरी, हमशक्ल, खोई याद्दाश्त वगैरह के जितने फार्मूलों को भरपूर इस्तेमाल के बाद फेंक दिया उन सबको शरण मिली टीवी सीरियलों और थोड़े अलग अंदाज़ में कथित न्यूज़ चैनलों पर. अक्लमंद लोगों के इस पेशे में सचमुच के समाचार के लिए जगह कैसे और कब निकलेगी यही लाख टके का सवाल है.

टीवी की दुनिया में एक बड़ा बदलाव आ रहा है, महानगरों के ज़्यादातर अपार्टमेंटों में टाटा-स्काई और डिशटीवी ने अपनी पैठ बना ली है. उनके सेट टॉप बॉक्स से मिलने वाले आँकड़े चंद शहरों के कुछ घरों में लगे टीआरपी रेटिंग के बक्सों से अधिक विश्वसनीय हैं. यही नहीं, जिस किसी ने पैसे ख़र्च करके अपने घर में डिजिटल क्वालिटी में टीवी देखने के लिए डिशटीवी या स्काई लगवाया है उसकी क्रयक्षमता भी अधिक है. वह दिन दूर नहीं है जब टीआरपी विज्ञापन देने वालों के लिए कोई भरोसेमंद पैमाना नहीं रह जाएगा क्योंकि उसका आधार तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा है.

मैं मानने को तैयार नहीं हूँ कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई और बंगलौर जैसे शहरों के पढ़े-लिखे और भारी जेब वाले लोग नाग-नागिन या किसी चमत्कार को देखकर रोज़-रोज़ चकित होना चाहते हैं, उनकी ज़्यादा दिलचस्पी मध्यवर्ग से उच्चवर्ग में दाख़िल होने में है. भूत-प्रेत या अंधविश्वास के दूसरे कार्यक्रमों से उनका स्टेटस नहीं सुधरेगा बल्कि उनकी रुचि उन चैनलों में ज़्यादा होगी जो बीबीसी, ब्लूमबर्ग और डिस्कवरी के टक्कर की सामग्री देकर समझदारी के मामले में उन्हें ग्लोबल स्तर पर ले जा सकें.

टीवी के कथित समाचार चैनलों का बाज़ार इतना सीधा-सपाट बहुत दिन तक नहीं रहने वाला है जैसा अभी है. जल्दी ही समाचार चैनलों को संपन्न उपभोक्ता यानी शहरी मध्यवर्ग की असली रुचि का अंदाज़ा टीआरपी से परे जाकर होगा, उसी दिन यह सूरत बदलने लगेगी. शायद लाइफ़स्टाइल, लेटनाइट पार्टी, फ़ैशन और बुटिक की कवरेज़ अब से कई गुना ज़्यादा बढ़ जाएगी लेकिन भूत-प्रेत बेरोज़गार हो जाएँगे.

असली समस्या लेकिन तब भी बनी रहेगी. भारत के 10 करोड़ महानगरीय, शिक्षित, अपव्ययी और उच्चाभिलाषी लोगों की ज़रूरत शायद जल्दी परिभाषित हो जाए लेकिन बाक़ी के 90 करोड़ देहाती-क़स्बाई लोगों की समस्याओं को ख़बरों में लाने के बदले उन्हें तरह-तरह के टोटकों से बहलाने की ठगविद्या चलती रहेगी. इससे बड़ी मिथ्या कोई नहीं हो सकती कि क़स्बों-गाँवों में रहने वाले लोग जड़बुद्धि हैं जो समाचार में सिर्फ़ सस्ती सनसनी खोजते हैं. भूलिए मत कि नीमच, दमोह, खुर्जा से लेकर गुमला-दुमका तक में लोग ख़रीदकर अख़बार और पत्रिकाएँ पढ़ते हैं.

"कान, लोकार्नो और वेनिस जैसे फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में कोई नहीं पूछता, ऑस्कर नहीं मिलता तो क्या हुआ, हम अपने बाज़ार में मस्त हैं, हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं."... ऐसा मेनस्ट्रीम बॉलीवुडीय रवैया जिन टीवी न्यूज़ चैनलों का रहेगा उनको लेकर यही बहस जारी रहेगी. मगर कई और लोग प्रणय रॉय-राजदीप सरदेसाई की भी तरह होंगे जो समाचारों-विचारों और मुद्दों की बात करेंगे जैसा कि किसी भी सभ्य-सुसंस्कृत देश में होता है.

शायद बहस का अगला दौर इस पर केंद्रित होगा कि क्या सिर्फ़ शहर के पढ़े-लिखे समृद्ध लोगों के बाज़ार को मुख्यधारा माना जाए या फिर अधिसंख्य देहाती, हिंदीभाषी और निर्धन लोगों को. दोनों की अपनी जगह रहेगी, अपनी ताक़त और समस्याएँ भी बनी रहेंगी. ऐसा मानना मेरे लिए असंभव है कि देश के सारे लोग वाक़ई वही देखकर ख़ुश हैं जो उन्हें परोसा जा रहा है. भारत में टीवी समाचारों के बाज़ार में अभी बहुत बदलाव बाक़ी है.

20 जुलाई, 2007

हिंदी सम्मेलन हुआ, अँगरेज़ी की बात करें?

मैं बुनियादी तौर पर एक क़स्बाई आदमी हूँ. देश के औपनिवेशिक अतीत ने सबकी तरह मेरे लिए भी अँगरेज़ी को ज़रूरी बना दिया और ज़रूरत की मार ने उसे माँजने पर मजबूर किया.

मैं अँगरेज़ी का भक्त नहीं हूँ, उसका विरोधी था एक ज़माने में, जब भावुक था. अब व्यावहारिक हूँ इसलिए समझता हूँ कि अँगरेज़ी के बिना हिंदी में भी काम नहीं किया जा सकता. मिसाल के तौर पर महाविनाशकारी राजभाषा अधिकारी बनने की योग्यता पर ग़ौर कीजिए-- 'स्नातक स्तर तक हिंदी और
अँगरेज़ी दोनों तथा हिंदी या अँगरेज़ी अथवा दोनों में स्नातकोत्तर...'

मेरी पक्की राय थी कि आदमी अँगरेज़ी जाने बिना भी जानकार और समझदार हो सकता है लेकिन मेरी इस राय से शायद सिर्फ़ फ्रांसीसी या कुछ हद तक रूसी और स्पेनी सहमत हो सकते हैं.

अगर आपको फ्रांसीसी-रूसी या स्पेनिश आती है तो अँगरेज़ी के बिना भी इस हरी-भरी वसुंधरा के बारे में कुछ ज्ञान पा सकते हैं. अगर आप इस ख़ामख्याली में हैं कि साम्राज्यवादी अँगरेज़ी का विरोध करके और हिंदी-हिंदुस्तान गाकर आप अपने हिस्से का ज्ञानार्जन कर लेंगे तो आप अँगरेज़ी में स्टूपिड हैं. हिंदी में अपनी पसंद का कोई नाम च वर्ग से चुन लीजिए...

इस संसार के कटु सत्यों के अनंत कोश में से एक प्रमुख सत्य ये भी है कि पिछले चार सौ वर्षों में दुनिया में सिर्फ़ पाँच-सात भाषाओं का प्रसार हुआ है और सारा प्रसार साम्राज्यवादी ताक़त की बदौलत हुआ है. संस्था, नियम और व्यापार-व्यवस्था बनाने-चलाने की ताक़त और इस ताक़त से उपजा रौब हमारे-आपके ऊपर हावी है. बोलिविया में स्पेनिश, ब्राज़ील में पुर्तगाली, अल्जीरिया में फ्रांसीसी या सूडान में अरबी...आदमी पाँचों महाद्वीपों में ताक़त की भाषा सीखना चाहता है, दासता की नहीं. क्यूबा में क्रांति के नारे स्पैनिश में ही लगते हैं जो स्पेन से कई हज़ार किलोमीटर दूर है.

गाँव-देहात वाले हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं, हिंदी वाले अँगरेज़ी, अँगरेज़ी वाले ऑक्सब्रिज...यह प्रवाह निजी फितूर में उल्टा हो सकता लेकिन सामाजिक स्तर पर ऐसा कोई उदाहरण आज तक देखने को नहीं मिला कि किसी देश के लोगों ने साम्राज्यवादी ताक़त की भाषा को दरकिनार करके अपनी ज़बान को दोबारा वही जगह दी हो जो विदेशी आक़ाओं के काबिज़ होने से पहले थी.

वक़्त गवाह है कि पिछली कई सदियों में इक्का-दुक्का मौक़ों को छोड़कर इस दुनिया में व्यवस्थापक बदले गए हैं, व्यवस्थाएँ नहीं. भारत में व्यवस्था और सत्ता तंत्र की भाषा अँगरेज़ी थी और अब भी वही है. हिंदी हमारी अपनी भाषा है, प्यारी भाषा है, मन-आत्मा की भाषा है लेकिन सत्ता-सम्मान और समृद्धि की भाषा नहीं है.

अँगरेज़ी बोलकर पृष्ठभूमि की खाई को पाटा जा सकता है, अँगरेज़ी न बोलने पर आज के बाज़ार में पैसे देकर भी इज़्ज़त से सामान ख़रीदना मुहाल है. रौब से अँगरेज़ी बोलने पर ही बड़े लोग फ़ोन पर आते हैं. दुनिया का सारा ज्ञान अँगरेज़ी की किताबों में है जिनका जूठन घटिया हिंदी अनुवाद के ज़रिए उन लोगों तक पहुँचता है जिन्हें परिस्थिति की मार की वजह से अँगरेज़ी नहीं आती या जिन्होंने अँगरेज़ी की ताक़त से ऊपर न सीखने की इच्छाशक्ति को रखा है.

भारत में कोई भी ऐसा पेशेवर क्षेत्र नहीं है जहाँ आप अँगरेज़ी जाने बिना ठीक तरीक़े से काम कर सकें, राजनीति पेशा तो है लेकिन वहाँ व्यवस्था के अनुरूप ठीक तरीक़े से काम करना ज़रूरी नहीं है इसलिए उनके उदाहरण यहाँ रहने दीजिए. छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी पत्रकारिता में डेस्क पर काम करने वाले अनेक लोग 'स्टेट ऑफ़ द आर्ट' जैसे जुमले का अनुवाद 'कला की अवस्था' करके पर्याप्त शर्मिंदगी झेलते रहते हैं.

मैंने अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई हिंदी माध्यम से की है, अँगरेज़ी से आतंकित भी रहा हूँ. अँगरेज़ी भारत में निश्चित रूप से आतंक और अलगाव की भाषा है लेकिन वह भारत की अपनी भाषा हो चली है, बहुत हद तक वैसे ही जैसे लातीनी अमरीका में स्पैनिश या उत्तरी अफ्रीका में अरबी.

अँगरेज़ी को रौब की भाषा की तरह इस्तेमाल करने पर मेरे गंभीर एतराज़ हैं, वैसे भारत में हिंदी का ठीक अँगरेज़ी जैसा इस्तेमाल बस्तर-विदर्भ से लेकर उत्कल-कोल्हान तक होता है. यहाँ सवाल भाषा की राजनीति का नहीं बल्कि शोषण की राजनीति का है, उसका तो हर हाल में विरोध होना चाहिए लेकिन अँगरेज़ी का निर्रथक विरोध करके कोई सार्थक काम करने की कोशिश करना समंदर में साइकिल चलाने की कल्पना करने जैसा है.

इस तेज़ी से ग्लोबलाइज़ हो रही दुनिया में अगर कोई भाषा है जो आपको बाक़ी संसार से जोड़ सकती है और जिसके सीखने के लिए आपको अपेक्षाकृत बहुत कम प्रयास करना होगा तो वह अँगरेज़ी ही है. यक़ीन मानिए कि आप अँगरेज़ी बोलकर शोषण-दमन का विरोध कर सकते हैं जो हिंदीवालों से नहीं हो रहा, कम से कम ब्रितानी-अमरीका अख़बार अरुंधति रॉय की तरह उनके लेख तो नहीं छाप रहे.

हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ हिंदी संसार ज्ञान के लिए लगभग पूरी तरह अँगरेज़ी पर निर्भर है, ऐसे में अच्छा यही होगा कि अपनी अँगरेज़ी ठीक करें, भले ही काम हिंदी में करते हों लेकिन अँगरेज़ी न सीखने का हठ क़दम-क़दम पर भारी पड़ेगा, अगर करियर बनाने की आकांक्षा न हो, तब भी.

हिंदी में लिखने-पढ़ने का आग्रह बहुत अच्छा-आवश्यक और अर्थपूर्ण है लेकिन अँगरेज़ी को त्याज्य बनाकर जो भी लिखा-पढ़ा जाएगा वह बच्चन, अज्ञेय, फिराक़, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी... जैसा नहीं हो सकेगा. अँगरेज़ी से डरकर, अँगरेज़ी वालों को देखकर हीनता की ग्रंथि सहलाने से बेहतर बेहतर विकल्प है एक सरल-सरस भाषा सीखना.

बाक़ी आपकी मरज़ी, पढ़तन सो भी मरतन, ना पढतन सो भी मरतन...

16 जुलाई, 2007

हिंदी की सेवा मत करिए, प्लीज़

दुनिया भर में हिंदी अकेली बड़ी भाषा है जिसकी सेवा अधिक हो रही है और प्रयोग कम. हिंदी न हुई, मरती हुई गाय है जिसकी सेवा करने के लिए लोग गौशाला में जुट गए हैं और गली-गली चंदा माँग रहे हैं.

जिसने भी हिंदी की सेवा की बात की वो मेरी नज़रों से गिर गया. मैं हिंदी में काम करता हूँ, अधिक से अधिक करना चाहता हूँ, मेरी रोज़ी-रोटी हिंदी से चलती है, मेरा मानना है कि बहुत सारे लोगों के मन की भाषा हिंदी है लेकिन उसके प्रयोग की ज़रूरत है, उसकी सेवा की नहीं. सेवा की बात वही कर रहे हैं जिनकी नज़र हिंदी पर नहीं, मेवा पर है.

न्यूयॉर्क कुछ गए, कुछ नहीं गए, ज़्यादातर बुलाए नहीं गए लेकिन सेवा सब एक-दूसरे से अधिक कर रहे हैं. आगे भी करेंगे जिसने भी कहा वह हिंदी की सेवा कर रहा है, साफ़ समझ लीजिए कि उसे हिंदी नहीं आती, अँगरेज़ी तो क़तई नहीं आती और उसका इरादा भी दोनों में से किसी भाषा को सीखने या तमीज़ से बरतने का नहीं है.

हिंदी की सेवा सत्यनारायण कथा की तरह है जिसमें सत्यनारायण की कथा के अलावा सब कुछ है, उसका महात्म्य है लेकिन कथा नहीं है. महात्म्य है तथाकथित पंडितों, आलोचकों, विद्वानों, साहित्यकारों का. जिसकी वजह से मैंने हिंदी में पहली बार ईमेल लिखा उसका क्या, जिसकी वजह से मैं हिंदी में ब्लॉग लिख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ उसका क्या...जिनकी वजह से हिंदी में टीवी के चैनल और वेबसाइटें चल रही हैं उनका क्या... उन्हें परवाह भी नहीं है. वे अपना काम कर रहे हैं, पैसे कमा रहे हैं, बाज़ार पर उनकी नज़र है, उन्हें सरकारी ख़र्चे पर न्यूयॉर्क जाने की नहीं पड़ी है.

मैं हिंदीवाला हूँ और उसे आसान बनाने वालों का आभारी. मैं हिंदी में काम करता हूँ क्योंकि वह मेरी अपनी भाषा है और मुझे खूब अच्छी तरह आती है, मुझे अँगरेज़ी भी ठीक-ठाक आती है लेकिन वह मेरे मन की भाषा नहीं है, वह ज़रूरत की भाषा है इसलिए पर्याप्त ज्ञान के बावजूद उसमें लय नहीं है, लचक नहीं है, धार नहीं है. अँगरेज़ी में अगर मैं वही असर पैदा कर सकता जो हिंदी में कर लेता हूँ तो मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ जो हिंदी में लिखता, मैं कोई हिंदी सेवक नहीं हूँ. हिंदी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है, मैं हिंदी में सोचता हूँ इसलिए हिंदी में ही अपने आपको बेहतर व्यक्त कर सकता हूँ, बाक़ी सब अनुवाद है.

जिस तरह मैं हिंदी की सेवा नहीं कर रहा हूँ, उसी तरह बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लाखों-लाख लोग नहीं कर रहे हैं, उन्हीं के दम से हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ छप और बिक रही हैं, राजभाषा विभाग या विदेश मंत्रालय की कृपा से वे परे हैं इसलिए जीवित और सार्थक हैं वरना उनका भी अहर्ता, उपरोक्त, कदाचित, कदापि, यथोचित, निर्दिष्ट, तथापि, अधोहस्ताक्षरी वाला हाल हो चुका होता.

हर सरकारी दफ़्तर में मौजूद राजभाषा अधिकारी का काम ही है हिंदी को ऐसा बना देना ताकि अँगरेज़ी में काम करते रहने को जायज़ ठहराया जा सके. आपने कभी सोचा है कि आपको ब्लॉग लिखने में, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने में कोई दिक्क़त नहीं होती तो सरकारी काम करने वालों को क्यों समस्या आती है. सिर्फ़ इसलिए कि हिंदी में काम नहीं हो रहा है, उसकी सेवा हो रही है.

हिंदी का भला किसी के किए हो सकता है इससे ज़्यादा दंभ और मूर्खता की बात कोई और नहीं हो सकती. हिंदी का भला भी उसी तरह होगा जिस तरह अँगरेज़ी, स्पैनिश या किसी और बड़ी भाषा का हुआ है. सेवा करके नहीं बल्कि उसे बोलने-लिखने-पढ़ने की वजहें पैदा करके. इतना बड़ा सम्मेलन हो रहा है, किसी महान हिंदी सेवी की समझ में मामूली बात नहीं अँट रही कि हिंदी के बिना भारत में हर कॉर्पोरेट हाउस का काम चल रहा है जो चीन में नहीं चलता. भारत में हिंदी के बिना शान से काम चलता है और हिंदी वाले शर्मसार हैं, कल्पना कीजिए कि भारत जैसे बड़े बाज़ार में पैठ बनाने के लिए हिंदी आवश्यक होती तो स्थिति क्या होती.

भारत में जितनी हिंदी बची है वही बचा हुआ भारत है, बाक़ी इंडिया है. इंडिया में हिंदी के बिना मज़े में काम चलता है बल्कि वहाँ हिंदी डाउनमार्केट है, सिर्फ़ ड्राइवर, चपरासी, सब्ज़ीवाले और नौकरों से बोली जाने वाली भाषा है जो भारत से आते हैं. महानगरों में वही लोग हिंदी वाले हैं जिनके संस्कार क़स्बाई हैं, जो पैदाइशी या दूसरी पीढ़ी के शहरी हैं उनके लिए हिंदी एक गंवारू, डिफ़िकल्ट या यूज़लेस भाषा है, कम से कम ऐसी भाषा तो नहीं है जिसमें लिखा जाए और पढ़ा जाए, ठीक है टीवी पर चल सकता है.

जो भाषा अपनी ज़मीन पर तिरस्कृत है उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का पोला अभियान चलाने वाले अगर यही कार्यक्रम कर्नाटक या असम कर लेते तो शायद ज़्यादा सार्थकता होती, लेकिन सेवा का मेवा कैसे मिलता, न्यूयॉर्क गए बिना?

हिंदी का जो भी प्रचार-प्रसार हुआ है वह किसी हिंदी सेवक की कृपा या साधना से नहीं हुआ है, वह हुआ है सिर्फ़ बाज़ार की ताक़त की वजह से. मुंबई का सिनेमा हो या देश का हिंदी टीवी उसने हिंदी का प्रसार किया. 14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध करने वालों या न्यूयॉर्क में हिंदी का जश्न मनाने वालों से न पहले कभी हुआ है, न आगे कभी होगा. हिंदी चैनलों की भाषा बहस का मुद्दा हो सकती है, हिंदी सेवकों की भूमिका पर वक़्त ज़ाया करने का कोई तुक नहीं है.

सीधी सी बात है जिसे मानने में लोग बहुत देर लगा रहे हैं, जब तक हिंदी जानने, बोलने और लिखने की वजह से लोगों का जीवन बेहतर नहीं होगा तब हिंदी का यही हाल रहेगा. हिंदीवाला समृद्ध होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित होगी वरना उसकी दरिद्रता की गुदड़ी पहने उसकी भाषा घूमती रहेगी. एक छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी के टीवी समाचार चैनल चले, पत्रकारों के लिए महीने के लाख रूपए की तनख्वाह आम हो गई, हिंदी का मीडिया मार्केट रातोरात अपमार्केट हो गया. अँगरेज़ी में सोचने वाले, आह-उह के बदले आउच करने वाले फटाफट सीखने लगे कि नो कॉन्फिडेंस मोशन को अविश्वास प्रस्ताव कहा जाता है....कू को तख़्तापलट कहते हैं और इमरजेंसी मतलब आपातकाल... वीर संघवी गुलाबी हिंदी बोलने लगे.

जब तक पैसे नहीं थे तब तक हिंदी वर्नाकुलर था, अब मेनस्ट्रीम है. लेकिन यह सिर्फ़ मीडिया में हुआ है, इसे और क्षेत्रों में जो कर दिखाएगा वही हिंदी की सेवा भी करेगा और मेवा भी खाएगा. बाक़ी सब बकबक है या कोरी लालच, ज़्यादा ध्यान मत दीजिए.

12 जुलाई, 2007

सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले संत नहीं होते

इतिहास में किसी आदमी की सही जगह आँकना बहुत कठिन काम होता है, ख़ास तौर पर अगर व्यक्ति अभी-अभी इस संसार से विदा हुआ हो.

आम तौर पर उसे नापसंद करने वाले कम बोलते हैं और पसंद करने वाले भाव-विभोर होकर नए-नए गुण ढूँढ लेते हैं जिनका खंडन करने वाला व्यक्ति (अगर संयोगवश ईमानदार हुआ तो) जा चुका होता है और ज्यादातर सज्जन पुरुष तेरहवीं से पहले मुँह नहीं खोलना चाहते.

जो लोग सत्ता के शीर्ष पर पहुँच चुके होते हैं उन्हें कड़ी परीक्षा से गुज़रना होता है. गांधी या लोहिया को कभी उस परीक्षा से नहीं गुज़रना होगा जिससे नेहरू, इंदिरा जैसे दूसरे नेता गुज़रे. चंद्रशेखर बहुत कोशिश करके अल्पकाल के लिए सत्ता सुख भोगने वालों की श्रेणी में पहुँचे थे, वरना उनके मूल्यांकन में भी बिनोबा-जेपी वाली रहमदिली बरती जाती. उन्हें जॉर्ज फर्नांडिस से बहुत बेहतर साबित करने के लिए राजनीतिक शोध के धरातल पर जाने की ज़रूरत पड़ेगी. बिना पड़ताल के महान की श्रेणी में आने के दावेदार वे नहीं हो सकते.

जैसा कि अक्सर होता है, सत्ता में उनके कुछ महीने उनकी विपक्ष की शानदार पारी पर भारी पड़े. उन्होंने बहुत संघर्ष किया, युवा तुर्क कहलाए, विपक्ष और सत्ता की राजनीति दोनों की. उन्होंने हमेशा दिखाया कि वे भारत की रग-रग से वाकिफ़ हैं, सियासत और समाज की नब्ज़ पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है. वे ज़मीन से जुड़े नेता थे, जनता की भाषा बोलते थे और साथ ही बड़े आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर उनकी समझ काफ़ी साफ़ थी. मगर...

भूलना नहीं चाहिए कि वे चंद्रास्वामी जैसे पापी और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कपटी के निकटतम थे, भूलना नहीं चाहिए कि वे सूरजदेव सिंह जैसे जालिम कोयला माफ़िया के सरपरस्त थे...भूलना नहीं चाहिए कि उन्होंने अपने ख़ासम-ख़ास लोगों के लिए पर्याप्त निर्लज्जता से (जिसे उनके चाहने वाले निर्भीकता कहेंगे) सभी नियमों-मर्यादाओं-परंपराओं की हेठी की जिनकी बात वे गरज-गरजकर करते थे.

मेरा इरादा चंद्रशेखर के बहाने एक दूसरी बात कहने का है, उनका दिन-तारीख़-घटना के हिसाब से मूल्यांकन करने का नहीं है. मेरा अनुरोध सिर्फ़ इतना है कि अगर किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु से दुख पहुँचा हो तो अपने दर्द को झेलें-बाँटें, लेकिन जब सार्वजनिक स्तर पर किसी के राजनीतिक-सामाजिक मूल्यांकन की बात आए तो ध्रुवों पर जाने से बचें. यह चंद्रशेखर के साथ भी अन्याय है.

तमाम तरह की जोड़-तोड़ की राजनीति करके सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले व्यक्ति को संत महात्मा आदि कहना भावातिरेक की अतिशयोक्ति है. सत्ता की संरचना को समझने वाला कोई भी आदमी जानता है कि वहाँ ऊपर चढ़ने के लिए क्या-क्या करतब करने पड़ते हैं. संत-महात्मा ऐसे करतब नहीं करते और जो करते हैं वे संत-महात्मा नहीं होते.

लालू के गाय दुहने और कर्पूरी बाबू के हजामत बनाने की तस्वीरें जो मीडिया में दिखीं थीं वो अनायास नहीं थीं. वाजपेयी का कवि एक योजना के तहत झाड़-पोंछकर ज़िंदा किया गया और राजा वीपी सिंह की चित्रकारी में नए रंग भरे गए. वाजपेयी और राजा दोनों ऐसी अदा दिखाते हैं कि हम तो कवि और चित्रकार थे, ग़लती से राजनीति में आ गए.

सबकी अपनी-अपनी छवि होती है, चंद्रशेखर की छवि जो विपक्ष के विद्रोही नेता की थी उसी के तौर पर उनका सम्मान था, और रहेगा. राजनीति के बाज़ार में इमेज का सबसे ज्यादा मोल होता है. चंद्रशेखर बागी, विद्रोही, बेलाग होने की छवि को खाद-पानी देते रहे लेकिन उन्होंने सत्ता में आने के लिए हर वो काम किया जो कोई दूसरे घाघ नेता करते हैं.

चंद्रशेखर बड़े नेता थे, खाँटी थे, ऑरिजनल थे, जुझारू थे, अपना अलग तेवर था, बाद के दौर में जब अकेले रह गए थे तो काफ़ी स्टेट्समैन की तरह हो गए थे. वे निश्चित तौर पर असाधारण नेता थे क्योंकि वे कोई ख़ानदानी नेता नहीं थे, न ही देवेगौड़ा की तरह भाग्यवान. उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि मगर...

इस असहमति के साथ कि वे कोई संत नहीं थे, समझदार सियासतदाँ ज़रूर थे. अंतिम बड़े नेता थे समाजवादी धारा के शायद इसलिए कुछ लोग अधिक भावुक हो रहे हैं. दुखी तो मैं भी हूँ.

10 जुलाई, 2007

परत-दर-परत, चक्कर-पर-चक्कर

जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो परतदार न हो. जीवन की अपनी परतें हैं. अवस्था की परतें, दुरावस्था की परतें, व्यवस्था की परतें, चीज़ों के होने की परतें, उनके न होने की परतें.

इन सबसे बढ़कर इन परतों को लट्टू की तरह घुमाने वाला चक्र...लट्टू की रंग-बिरंगी धारियाँ जब घूमती हैं तो कुछ और होती हैं, जब रूकती हैं तो कुछ और. लट्टू के खेल में जीवन का आनंद लेने वाले भी हैं और उसकी गति को समझने में सिर खपाने वाले भी...यह फ़ितरत की बात है, इस फ़ितरत की भी परतें हैं. कुछ चीज़ों की परतें हमें दिखती हैं कुछ की नहीं दिखतीं, लेकिन होती ज़रूर हैं.

दुकानदार का लालच दिखता है, उसकी बिन-ब्याही बेटी दिखती है, उसकी जवानी दिखती है, उसका दहेज नहीं दिखता, उसके रिश्तेदारों के ताने नहीं दिखते...सब एक ही चीज़ की परतें हैं, कुछ दिखती हैं, कुछ नहीं दिखतीं, कुछ किसी को दिखती हैं तो कुछ किसी और को, सब कुछ सबके लिए अंधों का हाथी है.

ग्राहक की भी अपनी परतें हैं, उसकी भी बेटी है, उसके लिए सबसे बड़ा सवाल रोटी है..उसके लिए दुकानदार पापी है लेकिन उसके अपने पाप भी हैं, वह पीड़ित भी है लेकिन वह अपनी पत्नी का सामंत भी है मगर उन गायों का मालिक कोई और है जिन्हें वह चराता है...

...इच्छा हो तो गाय से घास तक की परतों पर जाइए. भूलिए मत कि बीच में दूध, मलाई, हलवाई, गोबर, गोचर, धर्म, संवेदना, सांप्रदायिकता, वगैरह भी परतों की शक्ल में मौजूद हैं, जिनकी अगली परतें हैं---दही, रोज़गार, गंदगी, गृहप्रवेश की रस्म, भूसा, चरवाहा, बाज़ार, पैसा, राजनीति और दुकान पर खड़ा गाँव से भागा लड़का वगैरह... हर चीज़ की तरह लड़के के जीवन की भी परतें हैं--गाँवों की बदहाली, शहरीकरण, अशिक्षा, बेरोज़गारी, माँ-बाप की लाचारी...चाहे-अनचाहे गाँव अमलाकोट से अटलांटिस तक सब परतें एक दूसरे जुड़ जाती हैं. और ध्यान रहे सब कुछ घूमता भी है.

बहरहाल, घास के नीचे मिट्टी है जिसके नीचे केंचुए हैं और उसके नीचे पानी और फिर खनिज-लवण, गाय के मालिक के ऊपर भी देखिए ज़रा-- बीडीओ-सीएम-पीएम-यूएस-यूएन...प्लैनेट अर्थ...उसका वायुमंडल, उपग्रह चाँद, सौरमंडल...उसके बाद...थोड़ा-थोड़ा पता है...उसके बाद कुछ पता नहीं...इन सबके आपस के रिश्ते और उन सबकी परतें और फिर उन परतों का घूमता लट्टू...

सपनों, भावनाओं, ज़रूरतों, मजबूरियों, बेचैनियों, उम्मीदों, आशाओं...की अपनी परतें हैं. ये सब परतें एक-दूसरे से लिपट जाती हैं और उसके बाद घूमती हैं...हम भी घूमते हैं उस लट्टू के रंगों को पढ़ने की कोशिश करते हुए.

हम से कुछ नहीं बन पड़ा, हमने डींगें बहुत हाँकी, न सबसे छोटा हमारे पल्ले पड़ा, न सबसे बड़ा. कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि परमाणु से छोटी कोई चीज़ नहीं, न ही पता कि ब्रह्मांड से बड़ा क्या है, कैसा है... है भी या नहीं...ब्रह्मांड का ही कहाँ पता है? ठहरिए, आप भूल गए कि कर्षण, गुरुत्वाकर्षण, चुंबकीय बल से घूम रहा है सब कुछ लट्टू की तरह. वाक़ई आश्चर्य होता है कि इतना कम जानते हुए अगर आदमी वाक़ई सफल है, तो इतना सफल कैसे है?

इस धरती से चार हज़ार गुना बड़ा पिंड जिसकी ब्रह्मांड के स्केल पर कोई औक़ात नहीं, गिर सकता है अचानक और कर सकता है सारी परतों को एक-बराबर, और माइक्रोस्कोप से भी न दिखने वाला अब तक अनजान रहा वायरस भी कर सकता है यही कारनामा.

हमारी सारी उछलकूछ बीच में कहीं है, जानने-समझने की होड़ लगी है--एक दूसरे से भी और अनंत से भी. हम हमेशा अपना दायरा खींचते हैं और उसके बीच सबसे अक्लमंद, दूसरे या तीसरे बड़े अक्लमंद होने की बात करते हैं लेकिन अगर हम सचमुच अक्लमंद होते हैं तो अपना दायरा भी जानते हैं कि वह पाँच सौ लोगों का है, पाँच हज़ार लोगों का.

अक्लमंद होने की निशानी यही है कि बेवकूफ़ होने का एहसास बना रहे ताकि जानने की प्यास बनी रहे, इसका ठीक उल्टा भी सही है कि अक्लमंद होने का एहसास बना रहे कि जानने की ज़रूरत न महसूस हो और हम वही बने रहें जो हमें पसंद है. वैसे जानने की प्यास बनी रहने में भी कोई खुश होने की बात नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी परतें हैं जो घूम रही हैं.

अब घूमती धरती का नक्शा बन सकता है तो इस धरती पर घूम रहे 'श्रेष्ठतम जीव' के ज्ञान का भी नक्शा बन सकता है, उसमें कुछ लोग लगे हैं... उनकी अपनी परतें हैं...लगे हैं ज्ञान का नक्शा बनाने में. सूचना, जानकारी, अनुभव, इन सबसे मिलकर बनता है ज्ञान, ज्ञान के परिमार्जन और विश्लेषण से बनती है बुद्धिमत्ता और उसके बाद यह आभास कि सारे ज्ञान तो पोले हैं.

अनामदास का सूत्र बस इतना है कि परत-दर-परत अनवरत और चक्कर-पर-चक्कर जब तक चक्कर न आ जाए, जिसने अपने-आपको समझदार समझा वह ज़रूर किसी परत पर ठहर गया है या किसी चक्कर पर चकरा गया है.

अब बनाइए नक्शा और इसकी सूचना फ़ौरन भेजिए मुझे या मेरे प्रिय प्रमोद सिंह जी को, बीच में परत या चक्कर मेरी जानकारी के मुताबिक़ कोई और नहीं है.

01 जुलाई, 2007

गालियों के बारे में सोचो #!$%^&*()+#

गालियाँ देना अँगरेज़ी बोलने की तरह है, अभ्यास होना बहुत ज़रूरी है. पूरा नेसफ़ील्ड ग्रामर रट जाने के बाद भी अँगरेज़ी नहीं बोल पाते हैं कुछ लोग. कितना भी ज़हर भरा हो कुछ लोग गालियाँ नहीं दे पाते.

मैं भी गालियाँ नहीं दे पाता, मगर मैं गालियाँ देने वाले को बुरा और गालियाँ न देने वाले संस्कारवान व्यक्ति मानने के लिए तैयार नहीं हूँ. इससे बुरा सामान्यीकरण शायद कोई दूसरा नहीं है.

सदियों से गालियाँ सर्वव्यापी हैं, मुंगेर से लेकर मैनहैटन तक कमोबेश एक जैसे भाव लिए हवा में तैरती हैं. सिर्फ़ आरामदेह सत्य का संधान करने की सभ्य समाज की आदत ने गालियों को हमेशा दायरे से बाहर रखा. गालियाँ सुनना किसी को अच्छा नहीं लगता इसलिए एक आम सहमति है कि कोई उनकी बात न करे. इसी आम सहमति के कारण गालियों की भूमिका और उनकी आवश्यकता स्थापित नहीं हो सकी, मगर देखिए कि उनका सहज प्रवाह भी किसी के रोके नहीं रुका.

अच्छी-अच्छी किताबों और अच्छे घरों से झाड़-पोंछकर गालियों को निकाल दिया गया हो लेकिन म्युनिसापालिटी के नल पर गालियाँ देने से एक कनस्तर पानी ज्यादा मिलता है, फुटपाथ पर एक फुट जगह निकल आती है, नहर का पानी अपने खेत की ओर मोड़ा जा सकता है... अनंत रूप, गुण, आकार-प्रकार, उपयोग-दुरुपयोग हैं गालियों के. आपको नहीं लगता कि सोचने की ज़रूरत है उनके बारे में.

हम और आप सभ्य लोग हैं, हम चाहते हैं कि हमारे आसपास कोई गंदगी न हो लेकिन चाय की दुकान पर काम करने वाले लौंडे का पूरा जीवन ही गाली है. सभ्य लोग न तो उस लौंडे के बारे में बात करते हैं और न ही उन गालियों के बारे में जो उस पर अनवरत बरसती रहती हैं.

गालियाँ कौन दे रहा है, किसे दे रहा है, क्यों दे रहा है...इन सवालों पर गालियों का गाली होना छा जाता है. यहीं गाली देने वाला हार जाता है, अपना केस ख़राब कर बैठता है, भले मुद्दा कितना भी जायज़ क्यों न हो. होशमंद लोगों को क्या एक पल ठहरकर देश-काल-परिस्थिति पर विचार नहीं करना चाहिए? इस बारिश में कोई कारवाला किसी को कीचड़ से सराबोर करके चला जाए तो नहाने वाला क्या देगा?

दुरुपयोग धर्मग्रंथों का होता है तो गालियों का क्यों नहीं होगा, आख़िर उनमें दम है. जिस चीज़ में दम है उसका उपयोग-दुरुपयोग दोनों होता है. मार्क ट्वेन ने कहा था--'कई बार गालियाँ देकर आत्मा को जो सुकून मिलता है वह प्रार्थना से भी नहीं मिलता.' मैं गालियों के दुरुपयोग के उतना ही ख़िलाफ़ हूँ जितना धर्मग्रंथों के दुरुपयोग के. मैं न धर्मग्रंथों के ख़िलाफ़ हूँ, न गालियों के, सारा सवाल संदर्भ का है.

मध्यवर्गीय संस्कार कहते हैं गालियाँ हर हाल में बुरी हैं. ठीक वैसे ही जैसे कई बुरी चीज़ें हर हाल में अच्छी बताई जाती हैं.

जब एक तादाद में लोग एक गाली पर सहमत हो जाते हैं तो नारा बन जाता है. इस लिहाज से दुनिया में कोई परिवर्तन गालियों के बिना नहीं हुआ. किसी आदमी को कुत्ता कहना गाली है इसलिए नहीं कहना चाहिए, यह बात सभी बच्चों को बताई गई है. पाकिस्तान में आजकल एक बड़ा दिलचस्प नारा लग रहा है--'अमरीका ने कुत्ता पाला, वर्दी वाला, वर्दी वाला.' पाकिस्तान में बच्चा-बच्चा यह नारा लगा रहा है, कोई नहीं कह रहा कि 'बंद करो ये गाली है.'

गालियों का समर्थक नहीं हूँ लेकिन अंधविरोधी भी नहीं. जो गालियाँ खाने का हक़दार है, वह खाएगा और उसे बचाना शायद अधर्म हो.

एक गंभीर एतराज़ ज़रूर है, माँ-बहन की गालियों को लेकर. ग़ौर से देखिए तो समझ में आएगा कि ये गालियाँ महिलाओं को नहीं बल्कि सभी पुरूषों को दी जा रही हैं जिन्होंने महिलाओं को अपनी दौलत समझा और उनके शरीर को अपनी जायदाद. औरतों के नाम से दी जाने वाली सभी गालियाँ पुरुषवादी समाज पर पड़ रही हैं, एक ऐसे समाज पर जिसने महिलाओं का सम्मान नहीं किया बल्कि उसे अपने सम्मान का सामान बनाया. गाली देने वाले का उद्देश्य आपके सम्मान को ही तो आहत करना है तो वह किसे गाली देगा?

मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा करने वालों के ख़िलाफ़ न्यूनतम हिंसा है गालियाँ. गालियों में आह-कराह-हेठी-हिकारत-हिमाकत-साहस-दुस्साहस सब है. गालियों में टुच्चापन-लुच्चापन-बेहूदगी-बेहयाई-बदतमीज़ी भी है. गालियों के बारे में सोचिए, आप-हम नहीं रहेंगे लेकिन गालियाँ रहेंगी, तब तक जब तक दुनिया में दर्द, बेचैनी, अन्याय, शोषण, अनाचार, कदाचार, ग़ैरबराबरी...रहेगी.

कुछ ऐसे भी होते हैं जो कारक की तरह वाक्य को पूरा करने के लिए गालियाँ देते हैं, शहर, धूप साइकिल और बिल्डिंग से लेकर अपने आप तक को. ऐसे निर्गुन संतों की बात और है, आप संयोगवश उनकी ज़द मे आ जाते हैं तो बुरा न मानिए. उनकी गारी, गारी नहीं तरकारी होती है. भावशून्य गाली में धार कहाँ.

भूलिए मत, गालियाँ प्यार और अपनापे के इज़हार के लिए भी होती हैं, शादी के शुभ अवसर पर भी गाई जाती हैं. गालियाँ अच्छी-बुरी नहीं होंतीं, परिस्थिति और पात्र पर ग़ौर करके ही उचित-अनुचित का निर्णय संभव है.

(चौपटस्वामी और अफ़लातून जी के भड़काने पर दी गई हैं ये गालियाँ.)