"मैं अकेला नहीं है, मेरे साथ 'ठोक रे' जी की सशक्त विचारधारा है, हमारे साथ तोड़फोड़कर है, काँचफोड़े है, माचिसमारे है, भाईतोड़े है. हमने बहुत अन्याय सहा है, अब नहीं सहेंगे, झुनका-भाखर आधा पेट खाके हम पहले ढोकला-थेपला वालों से लड़े, फिर इडली-सांभर वालों से, उसका बाद लिट्ठी-चोखा वालों से भी लड़ेंगे.
हमारे साथ शुरू से अन्याय हुआ है. अँगरेज़ों से भी पहले मुगलों के जमाने में कोल्हापुर-सोलापुर-ग्वालियर-इंदौर तक हमारा राज रहा है लेकिन हमें आज़ादी के बाद गुजरातियों के ताबे में ला दिया, मुंबई का चीफ़ मिनिस्टर वलसाड़ का गुजराती मूत्रपायी देसाई को बनाया, मराठवाड़ा में कोई मरद माणूस नहीं था मुख्यमंत्री बनने के लिए. कहने को स्टेट का नाम मुंबई था लेकिन आज़ादी के तेरह साल बाद तक हमने भाऊ की जगह भाई को, पाटील के बदले पटेल को झेला. 1960 में जाकर हमें अलग स्टेट मिला माझा महाराष्ट्र.
आमची मुंबई अब स्टेट से कैपिटल बना, ठोक रे साहब ने देखा कि मराठी मानूस कार्टून बन गया है वो कार्टून बनाना छोड़ दिया और बाघ छाप का लाकेट बनाया जो हमने अपना गला में लटकाया. पहले सब सापड़-उडुपी बंद करा दिया, हमारा इधर का नौकरी में कोई दामले नहीं, कांबले नहीं, तांबे नहीं, पुणतांबेकर नहीं, सब वरदराजन, अय्यर, पिल्लै, अयंगार...उनको गुस्सा ऐसे नहीं आया. जो 'सामना' नहीं पढ़ता उसको कइसा समझ आएगा इतना बड़ा साजीश?
साजीश तो बहुत हुआ मराठियों के खिलाफ, दाऊद,शकील और अबू सालेम भाई लोग सब मुसलमान है, शेयर मार्केट हमारा है लेकिन उधर सोपारीवाला-खोराकीवाला-चूड़ीवाला है, फिल्म इंडस्ट्री हमारा है लेकिन उधर भी खान-कपूर है, क्रिकेट खेलता है तेंदुलकर-कांबली मगर कप्तान बनता है अज़रुद्दीन-गंगोली, मराठी पार्टी बनाई उसमें भी रायगढ़ का नहीं, रोहतास का बिहारी भइया संजय निरूपम एमपी बन गया, तांबे-खरे-खोटे सब किधर जाएँगे? उनके पास भिड़े होने के सिवा उपाय क्या है बोलो.
बोलते हैं कि भइया लोग नहीं होंगे तो दूध नहीं मिलेगा, टैक्सी नहीं चलेगा, सब्ज़ी नहीं मिलेगा, मैं कहता हूँ झुग्गी नहीं रहेगा, कचरा नहीं रहेगा, बास नहीं रहेगा...हम म्हाडा वन बेडरूम फ्लेट में गाय बाँधेंगे, टैक्सी नहीं बेस्ट का बस में जाएँगे, अमिताभ बच्चन नहीं श्रेयस तलपड़े का सिनेमा देखेंगे...
इन्हीं मराठी विरोधी प्रवृत्तियों और लोकशाही विरोधी पत्रकारों से निबटने के लिए हमारे ठोक रे साहब ने शिवाजी की प्रेरणा से सेना बनाई. हमारी सरकार बनी लेकिन दुर्भाग्य है कि बालासाहेब का भतीजा उनके बेटे जैसा दिखता है और बेटा किसी और के जैसा...इस पर भी हमारे दुश्मन ठोक रे साहेब का चरित्रहनन करते हैं.
उन्होंने देश का कितना काम किया, भारत-पाकिस्तान मैच का विरोध किया, कितना फ़िल्म का मातुश्री में स्पेशल स्क्रीनिंग कराके राष्ट्रविरोधी सीन कटवा दिया, कितनी मराठी मुल्गियों को रोल दिला दिया.
घर की बात है, मैं बाहर नहीं बोल सकता लेकिन उद्धव ठंडा है, इसीलिए ठोक रे साहब ने अपना ट्रेनिंग,आशीर्वाद और पार्टी का कमान राज को दिया था लेकिन घर का झगड़ा में उद्धव ने ठोक रे साहब को ठग लिया. राज ने सिद्धांत वही रखा है जो ठोक रे साहेब से सीखा है, बोलने का लोकशाही-करने का ठोकशाही. ठोक रे साहब को आज तक किसी ने नहीं ठोका, राज का राज नहीं है तो क्या हुआ एक दिन ज़रूर आएगा, तब तक उसका राज हमारे दिल पर है".
इतना कहकर मनोज तिवारी के घर से आ रहा मंदबुद्धि मुंबईकर भोजपुरी के दूसरे स्टार रविकिशन के घर की ओर रवाना हो गया है.
मेरा इतना ही कहना है कि मंदबुद्धि मुंबईकर कम ही मिलते हैं, ठीक वैसे ही जैसे वाघमारे ने कभी बाघ नहीं मारा होता, पोटदुखे के पेट में दर्द शायद ही होता है और हर पांचपुते से पाँच बेटे हों यह ज़रूरी नहीं है. मराठियों का जेनरलाइज़ेशन करने का इरादा बहुत ख़तरनाक है, उसके बारे में सोचना भी पाप है, इरादा सिर्फ़ उन मुंबईकरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का है जिनकी भावनाएँ निर्मल नहीं हैं.
शिव सेना और उसके मानस पुत्र महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से सहानुभूति न रखने वाले सभी मराठियों से क्षमा याचना सहित, ख़ास तौर पर जिनके सरनेम का यहाँ इस्तेमाल हुआ है, सिर्फ़ प्रांतवादी मानसिकता का उपहास करने के लिए. राज ठाकरे का समर्थक होने के लिए मराठी होना ज़रूरी नहीं है, आप जहाँ हैं वहाँ राज ठाकरे टाइप लोगों को टाइट रखें वर्ना आप भी पाप के भागी होंगे.
06 फ़रवरी, 2008
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