28 मार्च, 2007

पत्रकारिता के धर्म, मर्म और शर्म को समझिए

पत्रकारों और चिट्ठाकारों में होड़ कैसी? पत्रकारिता चाकरी है जबकि चिट्ठाकारिता स्वतंत्र अभिव्यक्ति का उत्सव.

फिर भी बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, भाषण या ज्ञान बाँटने का आरोप लगने का डर है लेकिन लिखने का मन कर रहा है. चिट्ठाकार उन्मुक्त जी के ब्लॉग (पत्रकार बनाम चिट्ठाकार) के संदर्भ में इसे पढ़ें तो बेहतर रहेगा. संक्षेप में, ब्लॉगरों के लिए पत्रकारों जैसी सुविधाओं की बात उन्होंने उठाई है.

उन्मुक्त जी, बचपन में चौथी कक्षा में एक कविता पढ़ी थी---

हम पंछी 'उन्मुक्त' गगन के
पिंजरबंद ना गा पाएँगे
कनक तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएँगे
हम हैं बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे प्यासे
कहीं भली है कटुक निबौरी (नीम का फल)
कनक कटोरी की मैदा से...

शायद उन्मुक्त जी के नाम की वजह से याद आ गया लेकिन काफ़ी प्रासंगिक है. ख़ैर आइए मुद्दे की बात करें.

धर्म--पत्रकार का धर्म है समाचार पहुँचाना. पत्रकारिता हमारी' चौपाया व्यवस्था' की चौथी टाँग है. इस चौपाया धर्म के निर्वाह में आसानी का ख़याल करके पत्रकारों को भी कुछ नाममात्र की सुविधाएँ दी गई हैं, उसी तरह जैसे नेताओं को, जजों को और सरकारी अधिकारियों को. पत्रकारों ने ऐसा कौन सा कमाल किया है कि उन्हें आम जनता से बेहतर सुविधाएँ मिलें? सवाल वाजिब है, और मैं पत्रकारों का बचाव करने का पक्षधर कतई नहीं हूँ. कर्मठ-कामचोर, ईमानदार-बेईमान, ज़िम्मेदार-ग़ैरज़िम्मेदार का अनुपात जितना हर धंधे में है उतना ही पत्रकारिता में होगा. सांसदों, विधायकों को मिलने वाली सुविधाएँ सवालों के दायरे में रही हैं, हमेशा रहेंगी और रहनी भी चाहिए. पत्रकार भी इस दायरे से बाहर नहीं होने चाहिए. वैसे याद रखिए कि कहीं जाने-आने, बड़ी हस्तियों से मिलने की आज़ादी, कार्यक्रमों में आगे वाली कुर्सी वग़ैरह...पत्रकार को नहीं उसके पत्र या चैनल को मिलती हैं जिसकी वह नौकरी करता है.

अब व्यवस्था की पाँचवी टाँग बनकर चिट्ठाकारी की आज़ादी खोने का क्या तुक है? और चिट्ठाकारी का आनंद यही है कि उसके लिए फ्रंट रो में कुर्सी नहीं चाहिए. सबसे दिलचस्प कमेंट वही करते हैं रामझरोखे बैठकर सबका मुजरा लेते हैं.

मर्म--पत्रकारिता बाज़ारवादी-लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक हिस्सा है जिसका अपना शक्ति संतुलन है. पत्रकारिता की अपनी सत्ता संरचना (हायरआर्किकल ऑर्डर), दबाव, मजबूरियाँ और लोभ-लाभ हैं. यानी आप जो चाहें, जब चाहें, जैसे चाहें जनता तक नहीं पहुँचा सकते. पत्र या चैनल की नीति, हित-अहित, वैचारिक आग्रह-दुराग्रह पत्रकार की वैचारिक स्वतंत्रता की सीमाएँ तय करते हैं. यही वजह है कि पंख पूरी तरह खोलकर उड़ान भरने की हरसत में दूसरे पंछियों के साथ पत्रकार प्रजाति भी चिट्ठाकारिता का रुख़ करती है.

आप मालिक, संपादक, उप-संपादक की क़ैंची से अपने डैने क्यों कटवाएँगे? है किसी की मजाल जो आपके चिट्ठे को एडिट करे, नारद में आप फ्रंट पेज पर छपते हैं, कोई आपकी रचना को कूड़ेदान में नहीं डालता या सातवें पन्ने पर कोने में नहीं धकेलता.

शर्म--अपने पेशे से जुड़ी जनता की उम्मीदों को ठीक से समझने वाले पत्रकार भी उतने ही शर्मिंदा होते हैं जितने ईमानदार पुलिस अधिकारी, नेता या वकील. पत्रकारिता का हाल राजनीति या न्यायपालिका से बहुत अलग नहीं है. पत्रकारिता नौकरी है जिसका निर्वाह करना जीवनयापन के लिए आवश्यक है, पत्रकार परिस्थितियों से बहुत ख़ुश न हों, तो भी. पत्रकारिता एक जटिल नौकरी है क्योंकि उसमें विचार का पक्ष दूसरे धंधों से अधिक प्रबल है.

ब्लॉगर के कोई तय दायित्व नहीं हैं जो एक आनंददायक स्थिति है, आप स्वांतः सुखाय लिख सकते हैं, दिल खोलकर, दिमाग़ खोलकर और बंद करके भी लिख सकते हैं. चिट्ठाकार के पास गर्व करने की वजहें हो सकती हैं, शर्म करने की नहीं.

पत्रकार को दूसरे पेशेवर इंसान से श्रेष्ठ या हीन मत समझिए. पत्रकारिता में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिसकी चाह ब्लॉगर कर सकते हैं, वहीं चिट्ठाकारिता में एक विशेष आनंद है जो पत्रकार पाना चाहते हैं. मगर इसका ये मतलब भी नहीं है चिट्ठाकार बेहतर हैं और पत्रकार बदतर.

होड़ में अगर चिट्ठाकार पत्रकार बन गए तो पछताएँगे. पत्रकार तो चिट्ठाकार बनकर ख़ुश हैं. फिर पिंजरबंद पंछियों से उन्मुक्त गगन के परिंदों की होड़ और बराबरी की इच्छा का क्या मतलब?

26 मार्च, 2007

नियति है नींबू खरीदकर पत्रकार बन जाना

जैसा गोसांई तुलसीदास ने कहा है--'जीवन, मरण, हानि, लाभ, यश अपयश सब विधि हाथ'...

इसके अलावा जो बचा सब आपके हाथ में है.

नियति को न मानने वालों और कर्म के बूते अपना भविष्य गढ़ने की बात करने वालों की कमी नहीं है, ऐसी बातें करने से आत्मविश्वास झलकता है, आपको कर्मठ और ज़िम्मेदार समझा जाता है यानी कुल मिलाकर यह स्वागतयोग्य विचार है. जवाब में यह ख़ेमा बाबा तुलसीदास को ही कोट कर सकता है--सकल पदारथ यही जग माहिं, करमहीन नर कछु पावत नाहीं.


जबकि नियति की बात करने वाले की नियति ही है कि वह अपने लिए कर्महीन, आलसी और भाग्यवादी जैसी संज्ञाएँ सुनने को तैयार रहे. लेकिन मैं घबराने वाला नहीं हूँ. मैंने अनामदास का चिट्ठा अपने भ्रमों को दर्ज करने के लिए ही शुरू किया है. इसका उद्देश्य भ्रमों से मुक्त होना क़तई नहीं है बल्कि इस मायाजाल का आनंद लेना है. अगर आप समझते हैं कि सृष्टि, स्रष्टा, जीवन, मरण, भाग्य, प्रारब्ध जैसी धारणाओं के बारे भ्रमों से मुक्त हुआ जा सकता है तो आप मुझ से भी ज़्यादा भ्रमित हैं.

ख़ैर, विषय पर लौटते हैं. नियति यानी होइए वही जो राम रचि राखा. आप कह सकते हैं कि हम जैसे कर्म करते हैं वैसा हमारा जीवन होता है. आप कहेंगे कि मैं पत्रकार इसलिए बना क्योंकि मैंने इसके लिए पढ़ाई की और फिर नौकरी ढूँढी लेकिन मैं कहता हूँ कि मैं पत्रकार इसलिए बना क्योंकि मेरी माँ ने मुझे नींबू ख़रीदने के लिए भेजा था.

नींबू वाले ने जिस अख़बार पर बिछाकर नींबू बेचने के लिए रखे थे उसी पर पत्रकारिता के कोर्स का विज्ञापन छपा था...बात 16 वर्ष पुरानी है, आवेदन भेजने की आख़िरी तारीख़ को मेरी उस पर नज़र पड़ी थी. अगर न पड़ी होती तो कहीं सरकारी नौकरी कर रहा होता. आप कहेंगे फिर भी सब कुछ किया तो आपने ही न? नहीं, ऐसा नहीं है, मुझसे अधिक योग्य लोग सड़कों की खाक छान रहे हैं और बहुत अयोग्य लोग चाँदी काट रहे हैं. इसका कर्म और योग्यता से कम और संयोग से अधिक संबंध है, सही जगह पर सही समय पर होना नियति है. ग़लत जगह पर ग़लत समय पर होना भी.

मैं यह नहीं कह रहा कि कर्म की भूमिका नहीं है लेकिन उसकी स्पष्ट सीमाएँ हैं. आपका जन्म जिस परिवार में हुआ है वही हज़ारों चीज़े तय कर देता है जिसे बदलना असंभव है और यह आपके हाथ में क़तई नहीं है. मृत्यु भी आपके हाथ में नहीं है, रोग भी नहीं...

आप रोज़ सड़क पार करते हैं, बसों में, ट्रेनों में चढ़ते-उतरते हैं, गाड़ी चलाते हैं, आग जलाते हैं, एक दिन में हज़ारों ऐसे काम करते हैं जिनमें आपकी जान जा सकती है...कहने की कोशिश ये है कि संभाव्यता (थ्योरी ऑफ़ प्रोबेबिलिटी) के हिसाब से कभी भी कुछ भी हो सकता है. नियति का मतलब है--जो होना है वह पहले से तय है. इसे स्वीकार कर लेना बहुत कठिन है कि क्योंकि यह अपनी निर्थकता को मान लेने जैसा है.

ज्योतिष में मेरा उथला सा विश्वास है. मेरी दो जन्मकुंडलियाँ, जो मेरे जन्म के तुरंत बाद ददिहाल और ननिहाल में बनाई गई थीं, कहती हैं कि मैं लिखने-पढ़ने के धंधे में लगूँगा...और भी बहुत कुछ...जो काफ़ी हद तक सही है. अब अगर आप इसे तुक्का कहते हैं तो ज़रा ग़ौर से सोचिए...एक नवजात शिशु के जीवित रहने से लेकर...उसके पढ़ने-लिखने, आगे बढ़ने, विदेश जाने की भविष्यवाणी करना दसियों हज़ार संभावनाओं में से सही विकल्प चुनना है...बच्चा कुछ दिनों बाद मर क्यों नहीं सकता, मंद बुद्धि क्यों नहीं हो सकता...पढ़ने के बदले खेल में रूचि लेने वाला क्यों नहीं हो सकता...वग़ैरह-वगैरह हर साँस के साथ अनेक विकल्प हैं.

यानी कुछ विधियाँ हैं जिनकी मदद से कुछ हद तक भविष्यवाणी की जा सकती है. अगर किसी भी हद तक भविष्यवाणी की जा सकती है इसका मतलब है कि चीज़ें पूर्वनिर्धारित हैं, अगर पूर्वनिर्धारित नहीं है तो भविष्यवाणी बिल्कुल नहीं हो सकती.

इस तर्क की अगली कड़ी ये है कि अगर नियति है तो उसका कोई नियंता भी होगा. सोचिए ज़रा.

23 मार्च, 2007

पत्रकार बाज़ार के लिए, चिट्ठाकार अपने लिए

पत्रकार चिट्ठा क्यों लिख रहे हैं, सवाल अच्छा है. अगर मैं ठीक समझा हूँ तो प्रश्न के मूल में शायद ये बात है कि जब नौकरी के क्रम में ही इतना लिखते, छपते, दिखते और बकते हैं तो फिर चिट्ठाकारिता में टाँग अड़ाने की क्या ज़रूरत है.

जो टीवी पर लाखों ड्राइंगरूमों में नज़र आ रहे हैं, जो लाखों सर्कुलेशन वाले अख़बारों या पत्रिकाओं में छप रहे हैं, उन्हें ब्लॉग लिखने की क्यों सूझी? यह सवाल ऐसा नहीं है जिसे आप "हम लिखेंगे, तेरा क्या?" कहकर टाल दें. सवाल में दम है लेकिन पत्रकारों की तड़प का आभास नहीं है.

हमारे मुहल्ले का सबसे सफल हलवाई मिठाइयाँ, समोसे-कचौरी बनाने के बीच समय निकालकर अपने लिए रोज़ तवे पर चार फुल्के ज़रूर सेंकता था, बचपन में हम सोचते थे कि यह पागल तो नहीं, ढेर सारी तरह-तरह की मज़ेदार खाने-पीने की चीज़ें बनाता है और अलग से मेहनत करके सूखी रोटियाँ क्यों खाता है.

बात अब समझ में आती है, बेचारा हलवाई मिठाइयाँ तो बाज़ार की ज़रूरत पूरी करने के लिए बनाता था लेकिन उसे संतुष्टि फुल्के खाकर ही होती थी. अब पड़ोस की किसी चाची ने तो उससे कभी नहीं कहा, "फुल्के हम घर की औरतें बनाती हैं, तू तो अपनी कचौरियाँ ही खा."

नई पीढ़ी के ग्लैमर के मारे बंटियों और बबलियों को छोड़कर ज्यादातर पत्रकार, ख़ास तौर पर हिंदी वाले, हिंदी-पट्टी के क़स्बों से मध्यम और निम्म मध्यमवर्ग से आए हैं. जब वे इस पेशे में आए थे तब न चमक-दमक थी, न पैसा. ज़्यादातर आए सिर्फ़ इसलिए क्योंकि दिमाग़ के कीड़े ने बेहाल कर रखा था, कुछ रचनात्मक करना है, कुछ लिखना-पढ़ना है, समाज को समझना और बदलना है वग़ैरह...

बहरहाल, उन्हें कुछ समय बाद समझ में आया कि वे तो समाचारों की फैक्ट्री में काम करते हैं, उनके पास ख़बर को समझने-परखने, लिखने-छाँटने-सँवारने का हुनर भले हो लेकिन जिस ब्रांड-चैनल के लिए वे काम करते हैं उसके तौर-तरीक़े बाज़ार तय करता है या वे लोग तय करते हैं जो पूंजी और सत्ता के खेल में आगे रहने के लिए बाक़ी धंधों के अलावा मीडिया का चाबुक भी अपने हाथ में रखना चाहते हैं. बात मुख़्तसर इतनी कि वह सब कुछ करता है लेकिन जो करने का अरमान लेकर आया था वही धरा रह जाता है.

बहुत से पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लेखन की शुरूआत अख़बारों में संपादक के नाम पत्र लिखने से की है. ब्लॉग उसी का एक बेहतर रूप है, बेहतर इसलिए कि संपादक के पास भी हक़ नहीं है आपके चिट्ठे को छापने या न छापने का, अपने ब्लॉग के मालिक आप हैं. अगर आप क्रिएटिव हैं, सवाल खदबदाते हैं, मन बेचैन रहता है तो उस तड़प से राहत पाने का ब्लॉग एक सुगम रास्ता है.

किस मीडिया हाउस का मालिक होगा जो कहेगा, "बेटा, अपनी बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए जो सही लगता है लिखो, दिखाओ". बेचैन होना सबका जन्मसिद्ध अधिकार है. कोई भी बेचैन हो सकता है लेकिन पत्रकार थोड़ा ज्यादा हो सकता है क्योंकि दुख-दर्द, पीड़ा-उत्पीड़न, हिंसा-प्रतिहिंसा, साज़िश-वहशत सब उसके लिए महज ख़बर है जिन्हें वह रोज़ थोक के भाव रिपोर्ट, पैकेज, पीटीसी, पैराडब, एंकर स्क्रिप्ट...दो कॉलम, चार कॉलम और बॉटम जैसे नामों से प्रॉसेस करता है. मजबूरियाँ कई तरह की हैं, वह सचमुच क्या सोचता है उसे पूरी ईमानदारी से दिखाने-सुनाने की गुंजाइश कतई नहीं है.

यही वजह है कि लगभग सभी गंभीर पत्रकार 40 तक पहुँचते-पहुँचते पत्रकारिता को कोसते हुए किताब लिखने के मंसूबे बनाते हैं जिनमें से दो से पाँच प्रतिशत तक कामयाब होते हैं, बाक़ी कुढ़ते हैं या शराब में बूड़ते हैं.

कुछ लोग इस बात से चकित हैं कि इतने पत्रकार क्यों ब्लॉग लिख रहे हैं लेकिन मैं तो सोच रहा हूँ जिन्हें नाज़ है क़लम पर वो कहाँ हैं. बहुत कम पत्रकार ब्लॉग लिख रहे हैं, शायद उन्हें मालिक की चक्की पीसने से फ़ुरसत नहीं है या फिर उन्हें अभी माध्यम के तौर पर ब्लॉग की ताक़त और उसके मज़े का अंदाज़ा नहीं है. ब्लॉग लिखने की ज़रूरत शायद हर दूसरे पत्रकार को देर-सवेर महसूस होगी.

जिन रवीश कुमार को भारत के लाखों लोग स्पेशल प्रोग्राम करते हुए प्राइम टाइम पर देखते हैं उनके ब्लॉग सिर्फ़ 30-35 लोग पढ़ रहे हैं फिर भी वे लिख रहे हैं तो उसकी वजह यही है कि बाज़ार-चालित जनसंचार का एजेंडा और उसके सरोकार अलग भी हैं और शायद संकरे भी. ऐसे में जिनको मालिक की पूरियाँ तलने के बाद अपनी संतुष्टि के लिए अपना फुल्का सेंकना है वे और क्या करें.

21 मार्च, 2007

रोम-रोम नहीं, जीन में बसे हैं राम?

ईश्वर के अस्तित्व के सवाल पर वैज्ञानिकों को कायल करना उतना ही कठिन है जितना जॉर्ज बुश को इस्लाम स्वीकार करने के लिए राज़ी करना.

ईश्वर आस्था के ईंधन से चलता है और विज्ञान तर्क की टुटही बैसाखी पर, टुटही इसलिए कि तर्क वहीं तक साथ देता है जहाँ तक आप जानते हैं. जानने की सबसे बड़ी निशानी यही जानना है कि आप क्या-क्या नहीं जानते. ईश्वर क्या है, है या नहीं है, कैसा है... इसके बारे हम कितना जानते हैं?

हालाँकि ऐसे सफल वैज्ञानिक भी हैं जिनका ईश्वर में विश्वास रहा है जिनमें अल्बर्ट आइंस्टाइन से लेकर अब्दुल कलाम तक शामिल हैं लेकिन ईश्वर में आस्था रखने वाले लगभग सभी वैज्ञानिक जानते हैं कि विज्ञान के तर्कों से ईश्वर का अस्तित्व साबित करना लगभग असंभव काम है.

अमरीका के एक नामी-गिरामी वैज्ञानिक हैं डॉक्टर डीन हेमर जिनका कहना है कि ईश्वर के अस्तित्व की बहस को थोड़ी देर के लिए किनारे रखकर यह देखना चाहिए कि क्या इंसान के अंदर ऐसे जीन मौजूद हैं जो उसे आध्यात्मिक या धार्मिक बनाते हैं.

उनका कहना है कि हमारे भीतर होने वाली हर क्रिया-प्रतिक्रिया का आधार जैव-रासायनिक है और उसके परिणाम भी जैव-रासायनिक होते हैं. शराब-सिगरेट की लत, समलैंगिकता, आपराधिक मनोवृत्ति, मानसिक रोग इन सबका मनुष्य की जेनेटिक संरचना से सीधा संबंध वैज्ञानिक स्थापित कर चुके हैं.

अगर हमारी क़द-काठी, रंग-रूप और व्यवहार जैसी चीज़ें हमारी जेनेटिक संरचना का परिणाम हो सकती हैं तो धर्म को लेकर हमारे रूझान क्यों नहीं?

डॉक्टर हेमर का दावा है कि उन्होंने ऐसे जीन की तलाश भी कर ली है जिनकी वजह से कोई व्यक्ति धार्मिक होता है और जिनकी अनुपस्थिति किसी को नास्तिक बनाती है.

जो नास्तिक हैं (पता नहीं डॉक्टर हेमर के खोजे हुए कथित जीन की कमी की वजह से या वामपंथी साथियों के संगत की वजह से) वे कहेंगे कि ईश्वर नहीं है लेकिन एक जीन की वजह से लोगों को ईश्वर के होने का भ्रम होता है.

जो आस्तिक हैं (डॉक्टर हेमर के कथित जीन की मौजूदगी की वजह से या घर में बचपन से पिलाई गई घुट्टी के कारण) वे कहेंगे कि ईश्वर है और उसी ने यह जीन बनाया है ताकि मनुष्य को उसका आभास हो सके.

मुझ जैसे भ्रमित लोगों के बारे में डॉक्टर हेमर ने कुछ नहीं कहा है. मेरे जैसे लोगों में वह जीन शायद आधा होता है या फिर भ्रमित करने वाला जीन अलग होता है.

डॉक्टर हेमर का दावा कितना सही है या कितना ग़लत इस पर कोई पक्की वैज्ञानिक राय उपलब्ध नहीं है, मैं तो हूँ ही भ्रमित, आप क्या कहते हैं?

(अगर आप गूगल पर जाकर god gene कीवर्ड से सर्च करें तो आपको टाइम पत्रिका की कवर स्टोरी मिलेगी जो डॉक्टर हेमर के दावे पर आधारित है.)

18 मार्च, 2007

प्रभु हैं तो प्रेत भी होंगे

दुनिया के सभी धर्मों के एक बात समान है--आत्मा है और परमात्मा है. बाक़ी सब डिटेल है... स्वर्ग-नरक भी लगभग हर धर्म में है.. हाँ, जन्म-पुनर्जन्म को लेकर मतभेद है. दुनिया में कोई ऐसा समाज नहीं है चाहे वह कितना भी विकसित हो या पिछड़ा, जहाँ भूत-प्रेत न हों. यह बहुत स्वाभाविक भी है. अगर आत्मा है, परमात्मा है तो प्रेतात्मा की संभावना को नकारना बहुत मुश्किल काम है. प्रेत भी तर्क के उतने ही परे हैं जितना कि ईश्वर, प्रेत भी इंसान के अनुभव संसार का हिस्सा उतना ही हैं (या ज्यादा ही) जितना कि ईश्वर.

यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि ईश्वर आस्था का प्रश्न है और भूत-प्रेत अंधविश्वास. यह वैसी ही बात है कि आप कहें कि स्वास्थ्य सच है और रोग झूठ, अगर मानव शरीर है तो दोनों होंगे. अगर मानव शरीर नहीं है तो दोनों नहीं हैं.

आस्तिकों की एक बड़ी बिरादरी है जो कहती है ईश्वर तो है लेकिन भूत नहीं होते. भूत़-प्रेत की एक शाश्वत परिभाषा है कि वे शरीर छोड़ चुकी भटकती हुई आत्माएँ हैं. ऐसी आत्माएँ जिनका केस पेंडिग है, जिनकी इच्छाएँ अतृप्त हैं या जो किसी कारण से न तो स्वर्ग जा सकती हैं न ही नरक और उनका पुनर्जन्म भी नहीं हो सकता. मौजूदा दौर में पाँच अरब की आबादी वाली दुनिया में इतनी ही आत्माएँ हैं (इससे मैं पूरी तरह सहमत नहीं, पिछले पोस्ट्स देखें) तो यह बहुत संभव है कि उनमें से कुछ लाख ऐसी होंगी जिनका केस पेंडिंग होगा. ईश्वर की व्यवस्था कितनी भी अच्छी हो उसमें अनेक खामियों की बात हम सब जानते हैं, आस्तिकों को भी मानना पड़ता है कि 'प्रभु की माया है'. ऐसे में अगर सिस्टम एरर का रेट 0.5 प्रतिशत हो तो सोच लीजिए कितने भूत होंगे जिनको ईश्वर की व्यवस्था में कुछ समय के लिए जगह नहीं मिल पाएगी...ढाई करोड़ भूत तो इसी तरह होंगे. बाक़ी भूत़-प्रेत बनने के जितने आधार हैं उनके बारे में भी सोचिए. ख़ैर, मज़ाक रहने दीजिए.

ज़रा ग़ौर से सोचिए...ईसाई तो गॉड, हिज़ सन (यीशु) एंड 'होली घोस्ट' की बात बाईबल में करते हैं. आस्तिकों और नास्तिकों अंतिम वाक्य में एक बार फिर स्पष्ट कर दूँ कि मैंने अपनी तरफ़ से सिर्फ़ एक सवाल रखा है, आत्मा-परमात्मा को मानना और प्रेतात्मा को न मानना कितना वस्तुपरक है? मैं तो भ्रमित हूँ.

प्रतिक्रिया दें.

16 मार्च, 2007

कहीं डायनासोर की आत्मा तो नहीं?

हिंदू शास्त्र यही कहते हैं कि आत्मा न पैदा होती है, न मरती है, वह उसी तरह शरीर बदलती है जैसे हम कपड़े बदलते हैं. जन्म और मृत्यु एक शाश्वत चक्र है जो चलता रहता है,इस चक्र के केंद्र में आत्मा है जो परमात्मा का अंश है.

हालाँकि ये बहस अब भी जारी है कि आत्मा नाम की कोई चीज़ होती है या नहीं,वैज्ञानिक तो कहते हैं कि आत्मा जैसी किसी चीज़ के अस्तित्व का कोई साक्ष्य नहीं है लेकिन वैज्ञानिक सिर्फ़ कुछ सौ वर्ष पहले तक नहीं जानते थे कि धरती गोल है और सूर्य के चारों ओर घूमती है. बहरहाल, हो सकता है कि वैज्ञानिक सही हों या फिर ग़लत हों.वैज्ञानिकों की बात रहने दीजिए लेकिन एक बात जो समझ में नहीं आई कि अगर आत्मा न पैदा होती है न मरती है तो दुनिया की आबादी कैसे बढ़ रही है? क्या भगवान के पास आत्माओं का स्टॉक है जो वह वक़्त ज़रूरत के हिसाब से रिलीज़ करता रहता है, क्या उसने तय किया है चीन और भारत के लिए सबसे अधिक आत्माएँ एलोकेट की जानी चाहिए?

बाबा लोग मुझसे ख़ासे परेशान रहते हैं, मेरा परिवार काफ़ी धार्मिक-अध्यात्मिक है इसलिए बाबाओं से अक्सर मिलना होता है. मैंने एक बाबाजी से यही सवाल पूछ लिया. वे चकराए ज़रूर, लेकिन पहुँचे हुए बाबा थे, बोले--"बच्चा, तुमने ये कैसे समझ लिया कि जन्म-पुनर्जन्म सिर्फ़ मनुष्य की परिधि में है, इसमें इस नश्वर जगत के सभी जीव आते हैं.अन्य जीव-जंतुओं की संख्या कम हो रही है और इसलिए मानव संख्या बढ़ रही है."

बाबा से अधिक बहस करने पर घर के बड़े लोग नाराज़ हो जाते हैं, बाबा ने समझा दिया तो समझ लो. लेकिन यह मूरख मन कहाँ मानता है. बाबा ने जो बताया उससे दो दिलचस्प निष्कर्ष निकलते हैं--एक तो ये कि जानवर बहुत तेज़ी से पुण्य कर्म कर रहे हैं जिसकी वजह से वे मनुष्य जैसी श्रेष्ठ योनि प्राप्त कर रहे हैं और दूसरे ये कि जो जीव लुप्त हो रहे हैं उनके बारे वन्य जीव कोष को अधिक चिंता करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वे सब अपग्रेड होकर आदमी बन रहे हैं.

अब कोई ऐसी विधि सामने आनी चाहिए जिससे पता लग सके कि आपके भीतर डायनासोर या डोडो जैसे लु्प्त हो चुके किसी जीव की आत्मा तो नहीं है. अगर आप समझते हैं कि आपके भीतर किसी भी तरह की आत्मा है तो अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर लिखिएगा.

शेष अगले ब्लॉग में...

15 मार्च, 2007

पुत्र चरणचंपन और पितृऋण

आत्मा-परमात्मा की चर्चा को थोड़ी देर के लिए विराम देते हैं, कल रात जो हुआ उसकी बात करना मेरे लिए ज़रूरी है.

मेरा बेटा दो साल का है, कल आधी रात बिलख-बिलखकर रोने लगा,वह थोड़ी बहुत हिंदी-अँगरेज़ी बोलता है लेकिन बाक़ी बातें ग्रीक, हिब्रू और लैटिन में करता है. उसका रोना सुनकर मेरे हाथ-पाँव फूल गए. मैंने उसके शरीर के हर हिस्से को दबाकर पूछा--कहाँ दर्द हो रहा है, अंत में पता चला कि साहब के पैर दुख रहे हैं. मैंने उनके पैरों की मालिश की और वे बड़े आराम से सो गए,घंटे भर बाद उनके रोने की आवाज़ से मेरी नींद खुली, मैंने पैर दबाया और साहब फिर सो गए...यह सिलसिला पूरी रात चलता रहा. मैं भी नींद में पैर दबाता रहा और साहब जागते-सोते रहे...दिन में उन्होंने पार्क में बहुत धमाचौकड़ी की थी.

एक धुंधली सी याद अचानक फ्लैशबैक की तरह आई,दुर्गापूजा के मेले से लौटकर तक़रीबन तीस साल पहले मेरे पैरों में ऐसा ही दर्द हुआ था और मेरे पापा ने रात को मेरे पैरों की मालिश की थी. यह बात मैं भूल चुका था लेकिन कल रात की घटना से धुंधली सी याद जैसे दोबारा रेखांकित हो गई. मैं नींद में डूबता-उतराता रहा और सोचता रहा कि मैं पापा के पैर दबा रहा हूँ.मैंने पापा के पैर कभी नहीं दबाए हैं, मैं उनसे हज़ारों किलोमीटर दूर हूँ. बुढ़ापे में उन्हें शायद मेरी उतनी ही ज़रूरत है जितना बचपन में मेरे बेटे को.

जब मेरा बेटा पैदा होने के बाद पहली बार मेरे हाथों में आया था तो मुझे लगा था कि किसी ने मेरे पापा को मिनीमाइज़ करके मेरे हाथों में दे दिया है. वर्षों तक पिता के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजाने वाले मेरे मन ने अचानक पलटी मारी और मैं उनके हर सही-ग़लत काम को गहरी सहानुभूति के साथ देखने लगा.बाप बनने पर पितृत्व के वरदान से वंचित कई दोस्तों ने पूछा, "कैसा लग रहा है?" मैंने इतना ही कहा कि "लाखों की साल से चली आ रही कड़ी को तोड़ने के इल्ज़ाम से बरी हो गया हूँ,पितृऋण से मुक्त हो गया हूँ."

मगर कल रात जब अपने बेटे के पैर दबाते हुए मुझे महसूस हुआ कि मैं अपने पिता के ही पैर दबा रहा हूँ तो सचमुच लगा कि यह पितृऋण ही तो है जो मैं चुका रहा हूँ. मेरे पिता ने मेरे पैर दबाए, मेरा बेटा शायद मेरे पैर कभी नहीं दबाएगा लेकिन अपने बेटे के पैर नहीं दबाएगा इसके आसार कम ही हैं. यह शायद पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली मानवता की सेवा है जो ऊपर से नीचे की ओर चलती है, शायद ही कभी नीचे से ऊपर जाती है. काश ऐसा नहीं होता.

प्रार्थना मत कर, मत कर

प्रार्थना मत कर, मत कर
मनुज पराजय के स्मारक हैं मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर

प्रार्थना मत कर, मत कर
हरिवंश राय बच्चन

ईश्वर के बारे में दो और चिढ़े हुए चिंतकों की उल्लेखनीय उक्तियाँ, इन दोनों महानुभावों के नाम मुझे याद नहीं, अगर आपको याद हों तो बताइएगा.
1. इंसान महान है, उसने पहले ईश्वर को बनाया फिर कहा ईश्वर ने इंसान को बनाया है.

2. ईश्वर ने यह दुनिया बनाई और ऐसी बनाई कि इंसान को मुँह दिखाने के लायक़ नहीं रहा इसीलिए छिपा-छिपा फिरता है.

बच्चन जी के लिए संभव रहा होगा प्रार्थना न करना, मेरे लिए नहीं है, जैसा पिछले ब्लॉग में लिखा है, दुख में सुमिरन करता हूँ, सुख में शास्त्रार्थ.

मेरा मन हमेशा सवाल पूछता है कि कलावती कन्या के प्रसाद न लेने पर नाव डुबो देने वाला भगवान पूजने योग्य है?(संदर्भः सत्यनारायणकथा) क्या लाखों लोगों को भूख-महामारी से मारने वाला भगवान पूजने के योग्य है? क्या दुनिया भर के करोड़ों बच्चों, औरतों ने ऐसा पाप किया है कि उन्हें ऐसा जीवन और ऐसी मौत देना परमपिता, परमदयालु, पालनहारा कहलाने वाले भगवान की मजबूरी है?

लेकिन भगवान शायद न सिर्फ़ अहंकारी है जो तुच्छ प्राणी की अनदेखी पर नाराज़ होकर उसे दंडित कर सकता है बल्कि वह स्वार्थी भी है, शायद इसीलिए दुनिया में इतना दुख-दर्द का इंतज़ाम किया है ताकि मेरे जैसे भ्रमित लोग भी उसे याद करते रहें. मगर जो बात समझ से परे है, वह ये कि भक्तों की और बुरी गत बनाता है भगवान. भगवान को न मानने वाले अधिकांश यूरोपियन मौज में हैं. अब वही पिटी हुई बात मत कहिएगा कि भक्तों की परीक्षा लेता है भगवान.

ईश्वर है या नहीं, उसका रूप क्या है, वह निराकार है, साकार है, एक है, अनेक है, सवाल तो सैकड़ों हैं, आत्मा-परमात्मा की गुत्थियाँ सुलझाने में बड़े-बड़े डूब गए लेकिन गधों को पूछते रहना चाहिए--कितना पानी?

अपनी राय ज़रूर लिखिएगा. अगला ब्लॉग कल...

13 मार्च, 2007

ब्रह्म और भ्रम के बीच झूलते हम

अभय तिवारी के उछाले सवाल--आप नास्तिक हैं या आस्तिक--का आसान जवाब है कि मैं भ्रमित हूँ, और जो भ्रमित नहीं हैं वे पूरी दुनिया को भ्रमित कर रहे हैं.
अस्ति (संस्कृत-है), नास्ति (नहीं है) के मत-मतांतर पर बहुत मंथन हो चुका है लेकिन बेचारे भ्रमित के पास भी बहुत कुछ कहने को है ईश्वर के बारे में, मगर उसकी सुनता कौन है? फ़ितरतन लोग अपनी पसंद का जवाब चाहते हैं, आस्तिक सुनना चाहता है ईश्वर है और नास्तिक उसका उल्टा. मैं बिना किसी भ्रम के कहना चाहता हूँ कि मैं भ्रमित हूँ क्योंकि मुझ जैसों को भरमाने में कोई क़सर बाक़ी नहीं छोड़ी है शास्त्रों, शास्त्रियों और अनीश्वरवादियों ने भी. मौजूदा स्थिति ये है कि जब मुसीबत होती है तो भगवान याद आता है वर्ना उसके होने और न होने के तर्क दिमाग़ को मथते हैं.
एक शायर ने कहा--'कोई तो है जो निज़ामे हस्ती चला रहा है, वही ख़ुदा है.' शायद ठीक बात है, हम सिर्फ़ पाँच इंद्रियों से (जिनकी बड़ी स्पष्ट सीमाएँ हैं) इस दुनिया को देखते-जानते-समझते हैं इसलिए भ्रमित हैं. यहीं से एक तर्क पनपता है कि ईश्वर को तर्क-वितर्क से नहीं पाया जा सकता क्योंकि हमें उसी ईश्वर ने इतनी क्षमता नहीं दी है कि हम उसे यूँ ही समझ लें.

मैंने एक पहुँचे हुए स्वामीजी से पूछा कि "अगर ईश्वर ही सब तय करता है तो हमें पाप-पुण्य क्यों होता है, उसके आधार पर जन्म-पुनर्जन्म क्यों होता है." उनका जवाब था--"बच्चा, ईश्वर ने मनुष्य को विवेक दिया है जो अन्य जंतुओं को नहीं दिया है इसलिए वह पाप-पुण्य का ज़िम्मेदार है." मैंने पूछा-- "तो फिर उसने सबको बराबर-बराबर विवेक क्यों नहीं दिया." उन्होंने कहा, "यह तो ईश्वर पूर्वजन्म के कर्मों के हिसाब से तय करता है."

यानी ईश्वरप्रदत्त विवेक के हिसाब से कर्म हम करें, कई जन्मों तक उसके फल भी हम ही भोगें, वह हर जन्म में विवेक की वोल्टेज फ्लकच्युयेट करता रहे और उसकी पूजा भी जारी रहे. ये क्या बात हुई.

अस्तु, न मैं आस्तिक हूँ, न नास्तिक हूँ, भ्रमित हूँ. मुझे मेरे भ्रम से ईश्वर ही निकाल सकता है, और वह ऐसा करेगा इसके आसार नहीं हैं.

आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार है.

अगला प्रश्न ये है कि क्या ईश्वर पूजनीय है? अगले ब्लॉग में....

12 मार्च, 2007

धन्यवाद भाइयों

प्यारे ब्लॉगर भाइयों
जिस खुले और खिले दिल से आपने स्वागत किया है उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ.
सृजनशिल्पी जी ने जिस तपाक से स्वागत किया वह ज़रा भावुक करने वाला है.
शशि जी को बरकाकाना और झुमरी तिलैया के नामों का इस्तेमाल अच्छा लगा, शिकारपुर और रामगढ़ कैंट वालों का नाम तो रह ही गया...धन्यवाद.
अभिषेक जी, बहुत आभारी हूँ, आपकी टिप्पणी के लिए. झुमरी तिलैया और बरकाकाना दो क़स्बे हैं जो पहले बिहार में थे, अब झारखंड में हैं, दोनों ही हज़ारीबाग़ ज़िले का हिस्सा हैं और उनके रेडियो श्रोताओं के बीच अपने क़स्बे का नाम अधिक बार प्रसारित कराने की होड़ लगी रहती थी. बरकाकाना रेलवे स्टेशन भी है और वहाँ कोयले की बड़ी खदान है जबकि झुमरी तिलैया में एक मशहूर सैनिक स्कूल है.
यह तो धन्यवाद है, अगला ब्लॉग जल्द ही....

10 मार्च, 2007

ब्लॉगरों को बारंबार नमस्कार

सभी ब्लॉगर भाइयों को नमस्कार.
अगर कोई निरा पाठक हो तो उसे भी नमस्कार, संभावना कम ही है मगर नमस्कार कर लेने में क्या हर्ज़ है. मैं अक्सर सोचता हूँ इतने ब्लॉग क्यों लिखे जा रहे हैं, आकाशवाणी के मनचाहे गीत कार्यक्रम में फ़रमाइश भेजकर झुमरी तलैया और बरकाकाना के साथ-साथ अपना नाम भी रोशन करने वाले लोगों में और ब्लॉग लिखने वालों में कितना फ़र्क़ है....बुरा मत मानिएगा...मैं भी उसी श्रेणी में हूँ, तभी तो ब्लॉग लिख रहा हूँ. हाँ तो मैं कह रहा था...आप लिखें, आप ही पढ़ें या काक-कोकिल परस्पर प्रशंसा क्लब चलाएँ...अहो रूपं-महो ध्वनि. बताइए कि लोग ब्लॉग क्यों पढ़ें, सिवाए उसके जिसने लिखा हो या जो लिखने वाले का मित्र हो या जो बिल्कुल बेकार बैठा हो. आजकल हर चैनल कहता है---हमारे पत्रकार बनिए, हमारे फोटोग्राफ़र बनिए...यूज़र जेनरेटेड कॉन्टेट की बात हो रही है...लेकिन जिस यूज़र ने जेनरेट किया है उसके अलावा उसमें किसी और की भी रुचि होगी या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है. मैं अपना समय किसी रामपुर के रामलाल की राय सुनने में व्यर्थ नहीं करना चाहता...क्या आप चाहते हैं? ब्लॉग के ज़रिए जो विचार-वमन हो रहा है उस पर आप क्या सोचते हैं अनामदास को ज़रुर बताइए, बहुत इंतज़ार है.