30 अक्तूबर, 2007

पहला नशा, उम्र भर का ख़ुमार

मौसम यही था, बस उमर कुछ और थी. दीवाली से पहले की हल्की ठंड, बारिश की टिपिर-टिपिर से राहत. अच्छी-सी धूप, मीठा-मीठा गन्ना बिकने लगा था.

बारिश में जमी काई धूप से सूखकर झड़ गई और सारे काले-भूरे भुए तितलियाँ बनकर उड़ गए, बरसों बाद हासिल ज्ञान से पता चला कि उस एकरंगे मटमैले फड़फड़ाते जीव को तितली कहलाने का गौरव हासिल नहीं, उसे मॉथ कहते हैं.

ऐसे मौसम में 14 साल की उम्र में छत पर पी गई चाय का मज़ा लंदन के किसी बेहतरीन पब की बियर से बेहतर है, उम्र का अपना नशा होता है जिस पर बियर की बोतल की तरह एल्कोहल का परसेंट नहीं लिखा होता.

उम्र का नशा ईरान-सऊदी अरब और वेटिकन में भी होता है जहाँ ज्यादातर ऐसी चीज़ों की मनाही होती है जो अच्छी लगती हैं. मगर भारत के एक क़स्बे में निम्न मध्यवर्गीय परिवेश में जहाँ आपका परिवार दो-तीन पीढ़ियों से रहता है वहाँ या तो दीदियाँ होती हैं या आप भइया होते हैं.

ऐसे ही एक अच्छे से मुहल्ले में, अच्छे से मौसम में एक अच्छी सी लड़की आई, कहीं बाहर से यानी उसके दीदी होने या मेरे भइया होने का कोई अंदेशा नहीं था.

दसवीं क्लास में पढ़ने वाले लड़के ने उसे बालकनी पर खड़े देखा, ख़ुद को देखते हुए देखा, वह अपनी छत पर गया, दोनों ने एक-दूसरे को देखा, बस देखा, खूब देखा. लड़की तो याद है लेकिन उसका चेहरा नहीं.

लड़के ने पहली बार किसी लड़की को लड़की की तरह देखा और शायद लड़की ने भी जाने-अनजाने ऐसा ही किया, दो-तीन सौ फुट की दूरी से.

उसके बाद ब्रश, चाय, नाश्ता, पढ़ाई सब छत पर. सुबह से लेकर सूरज ढलने तक. आँखों-आँखों में भी नहीं, सब दो आकृतियों में. काफ़ी कुछ इंटरनेट के आभासी रोमांस की तरह, बस कोई चैट या ईमेल नहीं, बाक़ी सब वैसा ही, दूर से कल्पना का प्यार.

अपनी सबसे अच्छी कमीज़ पहनकर, किताबें लिए धूप खिलते ही छत पर पहुँचना, उसका बालकनी में आना, मुझे थोड़ी देर देखना, फिर अचानक चले जाना, वापस आना, सूरज ढलने तक बार-बार.

पंद्रह दिन हो गए, घर में पढ़ाई के प्रति मेरे लगन की तारीफ़ हुई, मुझे मैट्रिक पास करने की चिंता हुई. सीढ़ियों पर आहट होते ही मैं किताबों में खो जाता और वह दूसरी ओर देखने लगती.

अफ़सोस कि उसे 'लड़की' लिखना पड़ रहा है जो बीस दिनों तक मेरे लिए सब कुछ थी और आज भी मैं उसे भूल नहीं सकता, बस नाम नहीं जानता.

दीवाली की अगली सुबह घर के सामने से रिक्शा गुज़रा, क्रिकेट का बल्ला हाथ से छूट गया, गेंद का होश नहीं रहा, वह जा रही थी, रिक्शे पर सूटकेस लदे थे, मतलब साफ़ था, उसने मुझे मुड़कर देखा, मैंने उसे पहली बार इतने क़रीब से देखा.

वह कहाँ से आई थी, पता नहीं, कहाँ जा रही थी, मालूम नहीं. फिर कभी नहीं दिखेगी इसका अहसास था. वह सुंदर थी या नहीं, मालूम नहीं. उसका चेहरा याद नहीं, लेकिन एक आकृति याद है जो मेरे मन पर उम्र ने खींची थी.

मैं बहुत रोया लेकिन सिर्फ़ थोड़ी देर के लिए जब तक भाई ने क्रिकेट खेलने के लिए बुला नहीं लिया.
एक लड़की, जो मेरी ज़िंदगी में न आई थी, न कभी मेरी ज़िंदगी से गई.

19 अक्तूबर, 2007

नवरात्र में शेर और स्कूटर पर सवार माताएँ

नवरात्र चल रहा पुण्यभूमि भारत में. नारी शक्ति की अराधना उत्कर्ष पर है. एक ऐसे देश में जहाँ शाम ढलने के बाद बाहर निकलने में महिलाओं को डर लगता है.

भारत विडंबनाओं और विरोधाभासों का देश है, इसकी सबसे अच्छी मिसाल नवरात्र में देखने को मिलती है जब लोग हाथ जोड़कर माता की प्रतिमा को प्रणाम करते हैं और हाथ खुलते ही पूजा पंडाल की भीड़ का फ़ायदा उठाने में व्यस्त हो जाते हैं.

भारत का कमाल हमेशा से यही रहा है कि संदर्भ, आदर्श, दर्शन, विचार, संस्कार सब भुला दो लेकिन प्रतीकों को कभी मत भुलाओ.

जिस देश की अधिसंख्य जनता नारीशक्ति की इतनी भक्तिभाव से अर्चना करती है उसी देश में कन्या संतान को पैदा होने से पहले ही दोबारा भगवान के पास बैरंग वापस भेज दिया जाता है, 'हमें नहीं चाहिए यह लड़की, कोई गोपाल भेजो, कन्हैया भेजो, ठुमक चलने वाले रामचंद्र भेजो, लक्ष्मी जी को अपने पास ही रखो'.

अदभुत देश है जहाँ 'जय माता की' और 'तेरी माँ की'...एक जैसे उत्साह के साथ उच्चारे जाते हैं. माता का यूनिवर्सल सम्मान भी है, यूनिवर्सल अपमान भी.

नौ दिन तक जगराते होंगे, पूजा होगी, हवन होंगे, मदिरापान-माँसभक्षण तज दिया जाएगा और देवी प्रतिमा की भक्ति होगी, मगर साक्षात नारी के सामने आते ही प्रौढ़ देवीभक्त की आँखें भी वहीं टिक जाएँगी जहाँ पैदा होते ही टिकी थीं.

भारत में पूजा करने का अर्थ यही होता है कि रोज़मर्रा के जीवन से उस देवी-देवता का कोई वास्ता नहीं है, हमारे यहाँ सरस्वती पूजा में वही नौजवान सबसे उत्साह से चंदा उगाहते रहे हैं जिनका विद्यार्जन से कोई रिश्ता नहीं होता.

स्त्रीस्वरूप की पूजा तभी हो सकती है जब वह शेर पर सवार हो, उसके हाथों में तलवार-कृपाण-धनुष-वाण हो या फिर उसे जीते-जी जलाकर सती कर दिया गया हो, दफ़्तर जाने वाली, घर चलाने वाली, बच्चे पालने वाली, मोपेड चलाने वाली औरतें तो बस सीटी सुनने या कुहनी खाने के योग्य हैं.

भक्तिभाव से नवरात्र की पूजा में संलग्न कितने लाख लोग हैं जिन्होंने अपनी पत्नी को पीटा है, अपनी बेटी और बहन को जकड़ा है, अपनी माँ को अपने बाप की जागीर माना है. वे लोग न जाने किस देवी की पूजा कर रहे हैं.

भवानी प्रकृति हैं और शिव पुरूष हैं, यह हिंदू धर्म की आधारभूत अवधारणा है. दोनों बराबर के साझीदार हैं इस सृष्टि को रचने और चलाने में. मगर पुरुष का अहंकार पशुपतिनाथ को पशु बनाए रखता है इसका ध्यान कितने भक्तों को है.

जिस दिन पंडाल में बैठी प्रतिमा का नहीं, दफ़्तर में बैठी साँस लेती औरत का सच्चा सम्मान होगा, जिस दिन शेर पर बैठी दुर्गा को नहीं, साइकिल पर जा रही मोहल्ले की लड़की को भविष्य की गरिमामयी माँ के रूप में देखा जाएगा, उस दिन भारत में नवरात्र के उत्सव में भक्ति के अलावा सार्थकता भी रंग होगा.

फ़िलहाल यह उत्सव है जो नारी शक्ति की आराधना के नाम पर पुरुष मना रहे हैं.

06 अक्तूबर, 2007

भारत की नैतिकता गई तेल लेने

किसी भी देश की विदेश नीति में कोई नैतिकता नहीं होती, कुछ ज़्यादा नंगे होते हैं, कुछ कम नंगे. नग्नता एक सांस्कृतिक प्रश्न है. अमरीका वाले जितने नंगई कर सकते हैं ब्रितानी उतना नहीं करते, लेकिन हैं सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे.

भारत चट्टा है या बट्टा आप तय कर लीजिए, मगर है तो उसी थैली में.


सबको अगर अपना फ़ायदा देखना है तो नैतिकता कौन देखे?

'मेरे पिया गए रंगून' पर भारत आज भी थिरक रहा है, रीमिक्स के साथ. कितने लोगों को इसका ख़याल है कि बर्मा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हमसाया है. वहाँ सैनिक शासक लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, इंटरनेट सहित हर संचार माध्यम पर रोक लगाकर, बौद्ध भिक्षुओं के सिर में गोली मारकर.....

भारत चुप है.

संयुक्त राष्ट्र से लेकर चीन तक के बोलने के बावजूद भारत चुप है क्योंकि उसके मुताबिक़ यह बर्मा का आंतरिक मामला है, आंतरिक मामला इसलिए है क्योंकि बर्मा के पास प्राकृतिक गैस का प्रचुर भंडार है जिस पर अमरीका, फ्रांस के अलावा भारत की भी नज़र है. पड़ोसी है इसलिए पाइपलाइन आ सकती है.

पाइपलाइन राष्ट्रहित में है. किसकी नैतिकता कब उसके अपने हित में हुई है?

जब से दुनिया ग्लोबलाइज़ हुई है, भारत सहित सबको समझ में आता है कि अमरीका ही रोल मॉडल है जिसने कंबोडिया, सऊदी अरब, चिली, इराक़ से लेकर बर्मा तक में तानाशाहियों को पाला-पोसा और भरपूर दुहा है. भारत भी उसी राह पर चल रहा है.

नैतिकता की परीक्षा हमेशा लालच के परिप्रेक्ष्य में होती है, भिखारी के कटोरे से उछली चवन्नी वापस दे देना ईमानदारी नहीं है. ईमानदारी नोटों का बंडल लौटाने पर होती है.

अमरीका की विदेश नीति के नैतिकता-निरपेक्ष होने पर भारत के लोगों ने वक़्तन-फवक़्तन शोर मचाया लेकिन अपने देश की विदेश नीति के बारे में उनका रवैया आम अमरीकी से कहाँ अलग है?

क्या यह भी याद दिलाना होगा कि नैतिकता एक उच्च मानवीय आदर्श है जिसकी वजह से दुनिया अब भी कुछ हद तक रहने लायक़ है.

अगर सिर्फ़ फ़ायदा ही देखना है तो 'अल क़ायदा' और 'अल फ़ायदा' में से कौन कम बुरा है, तय करना मुश्किल है.

01 अक्तूबर, 2007

कृषि प्रधान देश की सेवा प्रधान संस्कृति

मैं एक क़स्बाई आदमी हूँ. मेरे शहरी दोस्तों को मुझसे देहाती बू आती है, वे बू के साथ 'बद' उपसर्ग नहीं लगाते मगर 'खुश' भी नहीं. देहाती सहकर्मी भी पूरी तरह नहीं अपनाते क्योंकि उन्हें मुझसे शहरी बू आती है.

मैं शहरियों की बुनावट में छिपी बनावट देखता हूँ, देहातियों की सादगी से उपजी नाकामी की कुंठाएँ भी. मैं कहीं फिट नहीं होता, मगर इसका कोई मलाल नहीं है क्योंकि 'ऑब्ज़र्वर स्टेटस' का मज़ा ही कुछ और है.

भारत के जो भी रस-रूप-गंध-सुर-स्वाद मैंने जाने हैं (बॉलीवुड को छोड़कर) उनकी जड़ें हमारे खेतों में हैं. 'भारत एक कृषि प्रधान देश है,' इस बेहद घिसे हुए वाक्य में नई किताब के अनुसार व्याकरण की एक गंभीर भूल है. 'भारत एक कृषि प्रधान देश था,' या ज्यादा सही वाक्य है--'भारत एक सेवा प्रधान देश है.'

सर्विस सेक्टर के उभार के दौर में जब खेत श्मशान बन रहे हैं तो उनसे उपजी संस्कृति की गत क्या होगी? मैं पूरी निर्ममता के साथ विकासवादियों की बात मान सकता हूँ कि भारत में तेज़ी से विकास हुआ और वह इंडिया बन गया है, मॉल-मल्टीप्लेक्स हैं, फ्लाइओवर हैं, होम डिलिवरी सर्विस है, पित्ज़ा हट है, क्या नहीं है?

डोरहारे नहीं हैं, डफाली नहीं हैं, बहरुपिए नहीं हैं, नट नहीं, मदारी नहीं हैं, चाकू पर सान देने वाले नहीं हैं, सिल पर छेनी से रेखाएँ खींचने वाले नहीं हैं, कलई करने वाले नहीं हैं... जाने दीजिए, इन गंदे-मंदे लोगों के लिए ज्यादा भावुक होने की ज़रूरत नहीं है. टीवी पर एंकर हैं, कॉरपोरेट सेक्टर में एमबीए हैं, बोर्डरूम में सीईओ हैं, मैनेजिंग बोर्ड में स्ट्रेटिजिस्ट हैं, सरकार के पास टेक्नोक्रैट्स हैं...ये पहले तो नहीं थे. संस्कृति कोई ठहरा हुआ तालाब नहीं है, वह तो बहता हुआ दरिया है, परिवर्तन ही स्थायी है.

मेरी आँखों को सामने असंख्य अवसान हुए लेकिन श्राद्ध-तर्पण-तेरहवीं नहीं. जितने नए पैदा हुए उनकी छट्ठी और सोहर के गीत तो बहुत गाए गए लेकिन जो गुज़र गए उनके नाम पर आँसू बहाने का मतलब है विकासविरोधी होने का बिल्ला पहनना. जो कृषि प्रधान समाज में फ़सल कटने के मौसम में दराँती पर सान देते थे, जो होली-दीवाली पर नाप लेकर कपड़े सिलते थे, जो मकर-संक्राति पर तिलकुट बनाते थे, जो हर मेले में सिंदूर-टिकुली बेचते थे वो अब कहाँ हैं, क्या करते हैं? यह सांस्कृतिक सवाल से ज़्यादा एक मानवीय प्रश्न है. लाखों लाख लोग गुमशुदा हैं, जब आप गाज़ियाबाद में रिक्शे पर बैठें तो इन लोगों के बारे में पूछिएगा.

जिन लोगों ने भारत की संस्कृति बनाई, बचाई और चलाई वे कभी मध्यवर्गीय शहरी लोग नहीं रहे. बुनकर मुसलमान थे, चर्मकार दलित, काष्ठकार, ठठेरे, लुहार और ज्यादातर शिल्पकार पिछड़े. गीत-संगीत को चलाए रखने में हरिप्रसाद चौरसिया, बिसमिल्लाह ख़ान से लेकर तीजन बाई, लोकसंगीत में बलेसर यादव जैसों का हाथ ज्यादा रहा, नाम के आगे लगे पंडित या उस्ताद पर मत जाइएगा. गली-गली में रामलीला कौन करता है, होलिका दहन के लिए लकड़ियाँ कौन जुटाता है? ज़रा ग़ौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि शहरी मध्य वर्ग हमेशा से एक ही संस्कृति जीता रहा है, उच्च वर्ग में दाख़िल होने की योग्यता हासिल करने का रिहर्सल.

बस बात इतनी है कि देहाती, ग़रीब, अँगरेज़ी शिक्षा से वंचित व्यक्ति इस बुरी तरह से तिरस्कृत-बहिष्कृत,दीन-हीन-मलिन पहले शायद कभी नहीं रहा इसलिए जो उसकी संस्कृति है वह किस तरह बचेगी, क्योंकि सवाल यही है कि उसका तबक़ा किस तरह बचेगा?

'ज़माना बहुत बदल गया है,' यह हर ज़माने का सबसे प्रिय डॉयलॉग रहा है. मगर जाते हुए ज़माने की विदाई इतनी बेरुख़ी से पहले कभी नहीं हुई. किसी ने भर्राए गले से इतना तो कहा होता--जाओ शिकंजी-लस्सी-आमरस तुमने बहुत साथ दिया फ़िलहाल पेप्सी पीने दो, या जाओ मोचीराम तुमने बहुत जूते गाँठें लेकिन अब रीबॉक-एडिडैस-नाइके ही जमते है या जाओ टेलर मास्टर अब तो हम पीटर इंग्लैंड पहनते हैं...इंडिया के इस विकास में कितने लोगों को फोन सुनने का काम मिला और कितनों की आख़िरी पुकार अनसुनी रह गई, यह एक गंभीर बहस का मुद्दा है.

दस-पंद्रह वर्षों में मेलों का देश मॉलों का देश, कारीगरों का देश एसईज़ेड का देश, किसानों का देश कॉलसेंटर का देश बन गया. इस पूरे प्रक्रिया का जो हिस्सा नहीं है, वह कहीं नहीं है. इस प्रक्रिया ने एक झटके में महानगरों की विकासोन्मुख परिधि से बाहर जो कुछ भी है सबको निंदनीय, शर्मनाक और डाउनमार्केट बना दिया.

डाउनमार्केट समाज के खान-पान, तीज-त्योहार, बोली-बचन, गीत-संगीत, रीति-रिवाज़ सब ऐसे हो गए कि उससे किसी तरह का रिश्ता रखना अपमानजनक-सा हो गया है. किसान से किसी तरह का संबंध ग्लोबल हाइट्स से गिराकर कीचड़ में लथेड़ देता है. किसान को व्यवस्थित तरीक़े से मिटाया जा रहा है. खाद और ट्रैक्टर के विज्ञापन के अलावा आपने टीवी पर आख़िरी बार किसान कब देखा है? अगर देखा होगा तो प्रधानमंत्री के दौरे की वजह से विदर्भ का किसान देखा होगा जिसका भाई आत्महत्या कर चुका है.

संस्कृति, वह भी भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ भी दावे से कहने की हिम्मत मुझमें नहीं है. मगर इतना तो तर्जुबे से समझ में आता है कि जो हेय, तिरस्कृत, पिछड़ा हो वह 'कल्चर्ड' नहीं होता, उसकी कोई संस्कृति होती होगी लेकिन वह अपनाने लायक़ नहीं होती, सीखने-समझने-सराहने लायक़ नहीं होती. अगर ऐसा नहीं होता तो लोगों को सोमालियाई, भूटानी, लात्वियाई या चिलियन संस्कृति के बारे में कुछ पता होता. संस्कृति सिर्फ़ सफलता की होती है.

देश 'सफलता की राह' पर है इसलिए इंडियन कल्चर पहले से कहीं ज्यादा वाइब्रेंट है क्योंकि वह उन तीस करोड़ लोगों का कल्चर है जो फादर्स डे, मदर्स डे, वेलेन्टाइंस डे, फ्रेंडशिप डे, परंपरागत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. हैप्पी होली, हैप्पी दीपावली, हैप्पी दशहरा, हैप्पी राखी के एसएमएस और कार्ड भेजते हैं. अगर अगले कुछ वर्षों में भारत में हैलोवीन और थैंक्सगिविंग डे नहीं मनाए गए तो मुझे आश्चर्य अधिक होगा और थोड़ी खुशी भी.

संस्कृति के बारे में कोई वैल्यू जजमेंट कभी नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है कि जो कुछ देहाती है वह सब अदभुत और अनुकरणीय है और जो महानगरीय है वह निकृष्ट है. मिलने से पहले फ़ोन करके सुविधा पूछ लेना, सॉरी-थैंक यू, एक्सयूज़ मी बोलना, मुँह खोलकर डकार न लेना, जम्हाई लेते समय मुँह पर हाथ रखना, नाक में ऊंगली न घुसेड़ना, इधर-उधर न खुजाना...ये तो अच्छी बाते हैं. मुद्दे की बात सिर्फ़ इतनी है कि क्या ग्रामीण-खेतिहर परिवेश से आने वाले व्यक्ति को तमाम गुणों के बावजूद वह सम्मान मिलेगा जो उससे कम योग्य-कुशल-ज्ञानी-सक्षम शहरी व्यक्ति को मिलता है.

हमारे समाज में जातिवाद, रुढ़िवादिता, अंधविश्वास कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो आधुनिक मानवीय मूल्यों के ख़िलाफ़ हैं और हर तरह से निंदनीय हैं. मगर और भी बहुत है जो इस देश को भारत बनाता है, सबसे जुदा, सबसे ख़ास. हमारी दार्शनिक अदा (भोग के दर्शन के अलावा भी), हमारी श्रृंगारिक रुमानियत (बॉलीवुड के परे भी), आत्मा को छूने वाली वास्तु-मूर्ति-चित्र कला, हृदय को झंकृत करने वाला संगीत, नदियों-पेड़ों-जानवरों को पूजनीय बना लेने वाली हमारी सबके प्रति कृतज्ञता, काटने वाली चींटियों को भी आटा खिलाने वाली सह-अस्तित्व की संस्कृति. यह सब पूरी तरह से ख़तरे में है क्योंकि ये ग्लोबल कल्चर में कहीं फिट नहीं होता.

फिट तो वही होगा जो मशीन के नाप का हो. फैक्ट्री और एसेंबलीलाइन वाले सिस्टम में अलग होना किसी काम नहीं, बहुत बड़ी मुसीबत है. मैकडॉनल्डस पित्ज़ा हट और बर्गर किंग को शेफ की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि हर बर्गर एक ही स्पेसिफ़िकेशन का होता है, किसी दिन ज़रा करारा बर्गर माँगकर देखिए.

बहरहाल, मैं कोई अलबेला आदमी नहीं हूँ, रेडीमेड कपड़े पहनता हूँ, कोक-पेप्सी पीता हूँ, देहाती लोग कहीं टकरा जाएँ तो इज़्ज़त से पेश आता हूँ लेकिन गाँव-देहात से कोई सीधा सरोकार नहीं है. मगर मन में एक टीस है, दर्द है, बेचैनी है, भारत के 60 करोड़ से ज्यादा लोगों के बारे में सोचकर दिल दुखता है. उनके बारे में टीवी से नहीं, पत्रिकाओं से नहीं, अख़बारों से नहीं बल्कि उन लोगों से पता चलता है जो नई सेवा प्रधान वर्ण व्यवस्था के शूद्र हैं. ड्राइवर, अपार्टमेंट के सिक्युरिटी गार्ड, सुबह-सुबह बालकनी में अख़बार फेंकने वाले...वे बताते हैं कि गाँव में क्या हो रहा है, वे बताते हैं कि तीन भाई झुग्गी में रहते हैं, माँ-बाप सूखे खेत अगोरते हैं. आपको हो न हो, मुझे तो दुख होता है.

लोगों के मन में कल-कल बहती विकास की इस धारा के प्रति अपार श्रद्धा है लेकिन वह जिन तटबंधों को तोड़ आई है, जिन लोगों को बहा ले गई है उनके प्रति कोई संवेदना नहीं है. यह मेरे दुख को दोहरा कर देता है, ग्लोबलाइज़ेशन के हर सुंदर फल का आस्वादन मैं करता हूँ लेकिन वह मुझे आह्लाद के बदले अवसाद से भर देता है. क्या ये मेरी व्यक्तिगत समस्या है?