अनगिनत रंगो-बू का देश, अनेकता में एकता का देश, रंग-बिरंगे फूलों का गुलदस्ता, इंद्रधनुष की छटा बिखेरना वाला भारत अचानक ब्लैक एंड व्हाइट हो गया है.
तुलसी, सूर, तानसेन, कबीर, रसखान, खुसरो के देश में सिर्फ़ दो छंद, दो सुर, दो ही बातें...या तो ऐसा या फिर वैसा.
शिवरंजनी और मियाँ की मल्हार एक साथ नहीं सुने जा सकते, या तो इसकी बात कर लें या फिर उसकी.
डागर बंधुओं का ध्रुपद, हबीब पेंटर का 'कन्हैया का बालपन' और शंकर-शंभू का 'मन कुंतो मौला'...इन सबके लिए कोई जगह नहीं दिख रही है.
भारत को भारत बनाए रखने के लिए एक संघर्ष की ज़रूरत दिखने लगी है, भारत का अमरीका, ईरान या इसराइल होना कितना आसान हो गया है.
इस समय भारत दो ध्रुवों पर बसा दिख रहा है, आर्कटिक और अंटार्टिक की बर्फ़ पर जा पहुँचे लोगों से अनुरोध है कि वे छह ऋतुओं वाले देश में लौट आएँ. हेमंत, शरद, पावस...सबका आनंद लें.
भारत के अनूठेपन पर ही तो नाज़ है वरना लाख आईटी और नाइन परसेंट ग्रोथ की बात कर लें, असल में आप भी जानते हैकि ग़रीबी की कोढ़ में भ्रष्टाचार की खाज से ज्यादा अगर कुछ है तो बस पैंतीस करोड़ उपभोक्ता.
यह अनूठापन किसी एक रंग, किसी एक रूप, किसी एक रास्ते चलकर नहीं पाया जा सकता, जब सब साथ आते हैं तो पूरी दुनिया उसे मैजिकल इंडिया कहती है.
इस मैजिकल इंडिया में लाल क़िला है, जैन लाल मंदिर है, चिड़ियों का अस्पताल है, सीसगंज गुरुद्वारा है, घंटेवाला का सोहन हलवा है, क़रीम के कबाब हैं, चंदगीराम का अखाड़ा है, सुलेमान मालिशवाला है, वैद्यजी भी हैं और चाँदसी-यूनानी हक़ीम भी हैं, सबके लिए जगह है, दाँत के चीनी डॉक्टर के लिए भी...
दिल्ली, अहमदाबाद में और पहले भी कई शहरों में बम फटे हैं, इन बमों ने कई जानें ली हैं मगर पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता के परखच्चे उड़ाने की ताक़त इन बमों में नहीं है.
डर लग रहा है. बम इस-उस चौराहे पर फटे थे, उन्हें रेडक्लिफ़ लाइन मत बनाइए.
जिन लोगों ने बम फोड़ा होगा उन्होंने ऐसी सफलता की कल्पना कभी न की होगी, उन्हें सफल बनाने के लिए आपने तो कुछ नहीं किया है न?
26 सितंबर, 2008
15 सितंबर, 2008
गाय खाने वाले हिंदू, सूअर खाने वाले मुसलमान
ब्रैंडिंग बी स्कूलों की उपज नहीं है, सबसे पहले आदमी की ही ब्रैंडिंग हुई. वह हिंदू बना, मुसलमान बना, ईसाई बना, यहूदी बना...फिर सब-ब्रांडिंग हुई, शिया-सुन्नी, कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट...
धर्म के नियमों का पालन करना ज़रूरी नहीं, पहला धर्म यही कि आदमी जल्द से जल्द किसी न किसी खाँचे में फिट हो जाए ताकि कम सोचने वालों को अधिक असुविधा न हो.
हम सब उस दुकानदार की तरह हैं जो सिर्फ़ ब्रैंड जानता है. वह साबुन माँगने पर साबुन नहीं दे सकता, उसे निरमा, सनलाइट, उजाला या रिन जैसा कुछ सुनना होता है तभी उसका हाथ अपने-आप एक ख़ास शेल्फ़ की तरफ़ जाता है.
"आप कौन हैं?"
"मैं आदमी हूँ."
इस तरह का संवाद कई सदियों से संभव नहीं है क्योंकि आदमी अपनी ब्रैंडिग 'महापरिनिर्वाण' से काफ़ी पहले कर चुका था.
जिसकी ब्रैंडिग होश संभालने के सदियों पहले हो चुकी हो वह भला कैसे समझ सकता है कि इस दुनिया के पाँच अरब लोगों को 12 राशियों में बाँटकर जितनी सही भविष्यवाणी की जा सकती है, उतने ही सटीक तरीके से दूसरे ब्रैंड के लोगों को समझा जा सकता है.
गोमांस का ज़ायका कोई हिंदू नहीं बता सकता, क्रिस्पी बेकन की लज्ज़त मुसलमान को क्या पता, सरदारों को विल्स नेवीकट की क्या कद्र...ऐसे जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.
लाइब्रेरी, कैटलॉग, सुपरस्टोर...हर जगह चीज़ें इसी तरह रखी होती हैं कि जो आदमी के खाँचेदार दिमाग़ में फौरन अँट जाए.
हमारे लिए कितना श्रमसाध्य है खाँचे से बाहर देखना, मैनेजमेंट गुरू की ज़रूरत होती है हमें बताने के लिए--थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स.
सबसे आसान है यह मान लेना कि--गाँव में रहने वालों को कुछ पता नहीं होता, सभी सिंधी व्यापारी होते हैं, हरेक बंगाली मछली खाता है, महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले सभी मद्रासी हैं...
आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों.
धर्म के नियमों का पालन करना ज़रूरी नहीं, पहला धर्म यही कि आदमी जल्द से जल्द किसी न किसी खाँचे में फिट हो जाए ताकि कम सोचने वालों को अधिक असुविधा न हो.
हम सब उस दुकानदार की तरह हैं जो सिर्फ़ ब्रैंड जानता है. वह साबुन माँगने पर साबुन नहीं दे सकता, उसे निरमा, सनलाइट, उजाला या रिन जैसा कुछ सुनना होता है तभी उसका हाथ अपने-आप एक ख़ास शेल्फ़ की तरफ़ जाता है.
"आप कौन हैं?"
"मैं आदमी हूँ."
इस तरह का संवाद कई सदियों से संभव नहीं है क्योंकि आदमी अपनी ब्रैंडिग 'महापरिनिर्वाण' से काफ़ी पहले कर चुका था.
जिसकी ब्रैंडिग होश संभालने के सदियों पहले हो चुकी हो वह भला कैसे समझ सकता है कि इस दुनिया के पाँच अरब लोगों को 12 राशियों में बाँटकर जितनी सही भविष्यवाणी की जा सकती है, उतने ही सटीक तरीके से दूसरे ब्रैंड के लोगों को समझा जा सकता है.
गोमांस का ज़ायका कोई हिंदू नहीं बता सकता, क्रिस्पी बेकन की लज्ज़त मुसलमान को क्या पता, सरदारों को विल्स नेवीकट की क्या कद्र...ऐसे जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.
लाइब्रेरी, कैटलॉग, सुपरस्टोर...हर जगह चीज़ें इसी तरह रखी होती हैं कि जो आदमी के खाँचेदार दिमाग़ में फौरन अँट जाए.
हमारे लिए कितना श्रमसाध्य है खाँचे से बाहर देखना, मैनेजमेंट गुरू की ज़रूरत होती है हमें बताने के लिए--थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स.
सबसे आसान है यह मान लेना कि--गाँव में रहने वालों को कुछ पता नहीं होता, सभी सिंधी व्यापारी होते हैं, हरेक बंगाली मछली खाता है, महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले सभी मद्रासी हैं...
आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों.
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