आपका बकलमख़ुद सरकलमख़ुद जैसा ही है. कई लोग हिम्मत जुटा लेते हैं, एक हफ़्ते से चिंता में घुला जा रहा हूँ कि आत्मकथानुमा क्या लिखूँ. आपका रिमाइंडर आने ही वाला होगा, दुनिया में शायद आप ही हैं जिसे मेरे सरकलमख़ुद न करने पर मलाल होगा.
सच मैं लिख नहीं सकता, झूठ भी लिखा नहीं जाएगा, तो फिर बचा क्या लिखने को. क्या आप मुझे इतना मूर्ख समझते हैं कि सब सच-सच लिख दूँ और कहीं मुँह दिखाने के काबिल न रहूँ. ऐसी बातें सबकी ज़िंदगी में होती हैं. जिसके जीवन में नहीं हैं वो झूठ बोल रहा है या फिर उसने जीवन बहुत संभालकर ख़र्च किया है, मानो किसी से माँगकर लाया हो, ज्यों की त्यों लौटानी हो, कबीर की चदरिया की तरह.
एक जीवन जिसे मैंने अपने जीवन की तरह जिया है, किसी और के जीवन की तरह बेलाग होकर उसके बारे में सच-सच कैसे लिख दूँ. इस बात के कोई आसार नहीं हैं कि मैं ये ग़ैर-मामूली काम कर पाऊँ. जो अपने जीवन को किसी और का समझकर जीते हैं वो अगर आत्मकथा लिख दें तो कमाल हो जाता है, माइ कन्फ़ेशंस इसकी सबसे अच्छी मिसाल है.
एक मध्यवर्गीय, सवर्ण, नौकरीपेशा, भीरू क़िस्म का पारिवारिक आदमी क्या खाकर पठनीय आत्मकथा लिख देगा. कुछ देखा हो, कुछ झेला हो, कुछ गुल खिलाए हों तब तो बताए. सोचता हूँ कि मैं कायर नहीं हूँ, कि मैं ईर्ष्यालु नहीं हूँ, कि मैं दंभी नहीं हूँ, कि मैं ढोंगी नहीं हूँ, कि मैं हिपोक्रेट नहीं हूँ...टाइप बातें लिख दूँ लेकिन फिर लगता है कि मैं अगर ये सब नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ.
जो किया वो अच्छा नहीं लगा, जो नहीं किया वही अच्छा लगता है. काम में मन नहीं लगा, मन का काम नहीं किया. ऐसा जीवन हो और कोई प्यार से कहे कि बकलमख़ुद लिखिए तो जी घबराने लगता है.
कई बार लगता है-जिंदगी कुछ भी नहीं, फिर भी जिए जाते हैं, ऐ वक़्त तुझ पे एहसान किए जाते हैं...फिर लगता है- नहीं-नहीं ऐसा नहीं है, जीवन में इज़्ज़त की नौकरी (?) है, अपना घर है, अच्छी सी बीवी है, प्यारा सा बच्चा है, सब तो है. अगर नौकरी, घर, बीवी, बच्चे से आत्मकथा बनती तो पाँच अरब लोग बना चुके होते.
ख़ूबियाँ तो हैं नहीं, खोज-खोजकर अपने सारे ऐब गिना दूँ तो भी नहीं बनेगी पढ़ने लायक आत्मकथा. 37 साल क्या करने में गुज़ार दिए कि एक अदद आत्मकथा लिखने लायक़ नहीं हुए. इस उम्र में करने वाले क्या-क्या कर गुज़रते हैं, हम नौकरी करते रह गए. हर साल कम से कम दो-तीन बार ज़रूर सोचा कि नौकरी छोड़कर दुनिया घूम लें, कुछ लिखने लायक़ अनुभव जुटा लें फिर कुछ ऐसा तगड़ा सा लिखेंगे कि आग लग जाए हिंदी के बाज़ार में. नौकरी तो हम छोड़ने से रहे, अब नौकरी हमें छोड़ दे तो कुछ बात आगे बढ़े.
पता नहीं कितनी पचासों बातें हैं जो मैं ख़ुद से छिपाता रहा हूँ अगर मैं उन्हें लिखूँ तो पढ़ने वालों को बहुत मज़ा आएगा मगर वो बातें मन के अंधेरे कोनों में दफ़न होती हैं जहाँ ख़ुद जाने की हिम्मत नहीं होती है. कभी कोई घटना, कोई सपना बता देता है कि अंधेरे कोने में क्या-क्या दबा है, हमारा मन ढेर सारी इच्छाओं-कुंठाओं और वेदनाओं की कब्र है. शायद इसीलिए हम इतना कठिन जीवन फिर भी जी लेते हैं.
अजित भाई, आप नहीं कह रहे हैं कि जो लिखूँ वह सच ही हो, आप कह रहे हैं जो अच्छा लगे लिखिए, जैसे अच्छा लगे लिखिए...बस अपने बारे में लिखिए. लेकिन बकलमख़ुद इतना डरावना नाम है कि मेरी हिम्मत पस्त हो रही है. रोचक संस्मरण, यादगार पल, प्रेरक प्रसंग टाइप कोई नाम नहीं सोच सकते थे आप. आपके प्रस्ताव पर बहुत विचार किया लेकिन डरा-सहमा सा हूँ, क्या लिखूँ, क्यों लिखूँ, कोई क्यों पढ़ेगा? ब्लॉग पर तो कुछ भी अल्लम-गल्लम लिखते रहते हैं, बकलमख़ुद में कैसे लिखेंगे?
अपने ढेर सारे ऐबों में एक ये भी है कि बहुत इमेज कॉन्शस हैं, इसी इमेज के भूत से बचने के लिए अनामदास नाम रखा, अब आप लोगों ने अनामदास की भी इमेज बना दी है इसलिए डर लग रहा है. कुछ बचपन की फुटकर मज़ेदार बातें लिखने का इरादा है, चलेगा क्या? फिर भी आप उसे बकलमखुद कहने का इसरार करेंगे?
29 मार्च, 2008
11 मार्च, 2008
खिलौना बंदूक और असली ख़ौफ़
हिंसा का पारसी थिएटर हमने आपने ही नहीं, मेरे साढ़े तीन साल के बेटे ने भी खूब देखा है. मगर हिंसा का परिणाम किसने, कहाँ और कितनी बार देखा है.
एक्सीडेंट एंड इमरजेंसी के डॉक्टरों, पुलिसवालों और कुछ दूसरे बदक़िस्मत लोगों को पता है कि गोली लगने पर ख़ून कैसे बलबल करके निकलता है, छुरा जब अँतड़ियाँ बाहर निकाल देता है तो आदमी कैसे हिचकियाँ लेता है. एक विधवा, एक असहाय माँ, एक अनाथ बच्चा...वे अपनी ज़िंदगी में कैसे घिसटते हैं, उसकी फ़िल्में कौन बनाता है, कौन देखता है?
मेरा बेटा पिछले तीन महीने से खिलौना बंदूक यानी गन खरीदने के लिए बेहाल है. गन चाहिए उसे ताकि वह फिश्श फिश्श कर सके, फ़ायर शब्द उसे बताने की ज़रूरत नहीं समझी गई इसलिए उसने ख़ुद ही फिश्श फिश्श गढ़ लिया है. बंदूक न सही, वह चम्मच, पेंसिल या टीवी के रिमोट को गन बनाकर कूद-कूदकर गोलियाँ दाग़ने लगा है.
उसे पुलिसमैन बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनके पास गन होती है जिससे वे फिश्श फिश्श कर सकते हैं. वह बड़ा होकर पुलिसमैन बनना चाहता है ताकि वह भी फिश्श फिश्श कर सके. बंदूक के घोड़े के पीछे की ताक़त उसे समझ में आ गई है जबकि उसे कई बुनियादी काम अभी नहीं आते.
टीवी पर हमने उसे बालजगत टाइप कार्यक्रम दिखाना शुरू किया है और हिंदी फ़िल्मों की डोज़ कम से कम कर दी गई है लेकिन बंदूक के प्रति उसका आकर्षण कम नहीं हुआ है. ख़ून-ख़राबा, मार-पीट के सीन देखने पर वह हमारे रटाए हुए जुमले को दोहराता है, 'दैट्स नॉट वेरी नाइस,' लेकिन साढ़े तीन साल का बच्चा भी शक्ति संतुलन समझता है, उसे सिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि उसे बंदूक के किस तरफ़ रहना चाहिए, पीछे या सामने.
भारत यात्रा से लौटने के बाद बच्चे को हिंदू परंपरा से अवगत कराने के उद्देश्य से बालगणेश और रामायण की वीडियो सीडी ख़रीदी गई थी. बालगणेश के शुरूआती दस मिनट बीतने से पहले ही शिवजी ने बालगणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया...रामायण में भी राम जी तीर से, हनुमान जी गदा से और दूसरे योद्धा तलवार से खून बहाते दिखे...
यानी जिस मुसीबत से बचने की कोशिश कर रहे थे उससे पीछा नहीं छूटा. बताना पड़ा कि पुलिसवाले,गणेशजी, हनुमान जी सिर्फ़ बुरे लोगों को मारते हैं, बात फ़ौरन उसकी समझ में आ गई. उसे खेल-खेल में जिसको भी फिश्श फिश्श करना होता है उसे बुरा आदमी बना लेता है. दुनिया भर में बंदूक के पीछे बैठे जितने लोग ख़ुद को अच्छा आदमी बताते हैं उनका खेल अब समझ में आ रहा है.
हिंसा से मुझे डर लगता है, हिंसा का निशाना बनने की कल्पना से ज्यादा भयावह कुछ नहीं है मेरे लिए, क्योंकि मैं शारीरिक-मानसिक तौर पर हिंसा से निबटने में ख़ुद को अक्षम पाता हूँ, जो ख़ुद को सक्षम पाते हैं वे मूर्ख हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वे दो-तीन लोगों को पीट देंगे, मार देंगे लेकिन हिंसा कितनी बड़ी और कितनी घातक हो सकती है, इसे वे भूल जाते हैं.
हिंसा से हर हाल में डरना चाहिए, बचना चाहिए, वैसे इसके लिए काफ़ी कोशिश करनी पड़ती है, करना या न करना आपकी मर्ज़ी.
मुझे तो बच्चे की बंदूक से भी डर लगता है. सोमालिया, सिएरा लियोन, श्रीलंका, इराक़-फ़लस्तीन और पाकिस्तान के बच्चे आज खिलौना बंदूक से खेल रहे हैं लेकिन उनके लिए एके-47 कोई अप्राप्य खिलौना नहीं है. सामने खड़े साँस लेते आदमी को फिश्श फिश्श कर देना उनके लिए बहुत बड़ी बात नहीं है.
हम अपने बच्चे को स्क्रीन पर हिंसा देखने से रोकना चाहते हैं, उसे बताते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है लेकिन जब उन बच्चों का खयाल आता है जिन्होंने टीवी और सिनेमा के स्क्रीन पर नहीं, अपनी ज़िंदगी में ये सब देखा है तो सिर पकड़कर-आँखें मूँदकर सोफ़े पर धम्म से बैठने के अलावा हमसे कुछ और नहीं हो पाता.
एक्सीडेंट एंड इमरजेंसी के डॉक्टरों, पुलिसवालों और कुछ दूसरे बदक़िस्मत लोगों को पता है कि गोली लगने पर ख़ून कैसे बलबल करके निकलता है, छुरा जब अँतड़ियाँ बाहर निकाल देता है तो आदमी कैसे हिचकियाँ लेता है. एक विधवा, एक असहाय माँ, एक अनाथ बच्चा...वे अपनी ज़िंदगी में कैसे घिसटते हैं, उसकी फ़िल्में कौन बनाता है, कौन देखता है?
मेरा बेटा पिछले तीन महीने से खिलौना बंदूक यानी गन खरीदने के लिए बेहाल है. गन चाहिए उसे ताकि वह फिश्श फिश्श कर सके, फ़ायर शब्द उसे बताने की ज़रूरत नहीं समझी गई इसलिए उसने ख़ुद ही फिश्श फिश्श गढ़ लिया है. बंदूक न सही, वह चम्मच, पेंसिल या टीवी के रिमोट को गन बनाकर कूद-कूदकर गोलियाँ दाग़ने लगा है.
उसे पुलिसमैन बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनके पास गन होती है जिससे वे फिश्श फिश्श कर सकते हैं. वह बड़ा होकर पुलिसमैन बनना चाहता है ताकि वह भी फिश्श फिश्श कर सके. बंदूक के घोड़े के पीछे की ताक़त उसे समझ में आ गई है जबकि उसे कई बुनियादी काम अभी नहीं आते.
टीवी पर हमने उसे बालजगत टाइप कार्यक्रम दिखाना शुरू किया है और हिंदी फ़िल्मों की डोज़ कम से कम कर दी गई है लेकिन बंदूक के प्रति उसका आकर्षण कम नहीं हुआ है. ख़ून-ख़राबा, मार-पीट के सीन देखने पर वह हमारे रटाए हुए जुमले को दोहराता है, 'दैट्स नॉट वेरी नाइस,' लेकिन साढ़े तीन साल का बच्चा भी शक्ति संतुलन समझता है, उसे सिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि उसे बंदूक के किस तरफ़ रहना चाहिए, पीछे या सामने.
भारत यात्रा से लौटने के बाद बच्चे को हिंदू परंपरा से अवगत कराने के उद्देश्य से बालगणेश और रामायण की वीडियो सीडी ख़रीदी गई थी. बालगणेश के शुरूआती दस मिनट बीतने से पहले ही शिवजी ने बालगणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया...रामायण में भी राम जी तीर से, हनुमान जी गदा से और दूसरे योद्धा तलवार से खून बहाते दिखे...
यानी जिस मुसीबत से बचने की कोशिश कर रहे थे उससे पीछा नहीं छूटा. बताना पड़ा कि पुलिसवाले,गणेशजी, हनुमान जी सिर्फ़ बुरे लोगों को मारते हैं, बात फ़ौरन उसकी समझ में आ गई. उसे खेल-खेल में जिसको भी फिश्श फिश्श करना होता है उसे बुरा आदमी बना लेता है. दुनिया भर में बंदूक के पीछे बैठे जितने लोग ख़ुद को अच्छा आदमी बताते हैं उनका खेल अब समझ में आ रहा है.
हिंसा से मुझे डर लगता है, हिंसा का निशाना बनने की कल्पना से ज्यादा भयावह कुछ नहीं है मेरे लिए, क्योंकि मैं शारीरिक-मानसिक तौर पर हिंसा से निबटने में ख़ुद को अक्षम पाता हूँ, जो ख़ुद को सक्षम पाते हैं वे मूर्ख हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वे दो-तीन लोगों को पीट देंगे, मार देंगे लेकिन हिंसा कितनी बड़ी और कितनी घातक हो सकती है, इसे वे भूल जाते हैं.
हिंसा से हर हाल में डरना चाहिए, बचना चाहिए, वैसे इसके लिए काफ़ी कोशिश करनी पड़ती है, करना या न करना आपकी मर्ज़ी.
मुझे तो बच्चे की बंदूक से भी डर लगता है. सोमालिया, सिएरा लियोन, श्रीलंका, इराक़-फ़लस्तीन और पाकिस्तान के बच्चे आज खिलौना बंदूक से खेल रहे हैं लेकिन उनके लिए एके-47 कोई अप्राप्य खिलौना नहीं है. सामने खड़े साँस लेते आदमी को फिश्श फिश्श कर देना उनके लिए बहुत बड़ी बात नहीं है.
हम अपने बच्चे को स्क्रीन पर हिंसा देखने से रोकना चाहते हैं, उसे बताते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है लेकिन जब उन बच्चों का खयाल आता है जिन्होंने टीवी और सिनेमा के स्क्रीन पर नहीं, अपनी ज़िंदगी में ये सब देखा है तो सिर पकड़कर-आँखें मूँदकर सोफ़े पर धम्म से बैठने के अलावा हमसे कुछ और नहीं हो पाता.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
hindi blog
09 मार्च, 2008
क्या करें, कहाँ जाएँ, क्या बन जाएँ?
मैं एक भूरा आदमी हूँ. गोरों के देश में कुछ लोग मुझसे नफ़रत करते हैं, मुझे अल क़ायदा वाला समझते हैं, पाकिस्तानी मान लेते हैं, जबकि मैं भारत का हूँ.
किसी ने कहा परदेस जाकर क्यों बसे, अपने देश में रहते तो अच्छा था. कहाँ रहता, आप ही बताइए, बिहारी हूँ, मुंबई जाकर रहूँ कि असम जाऊँ? हिंदू हूँ, कश्मीर चला जाऊँ?
एक संघी संगी कहते हैं हिंदू होना ही भारी समस्या है, मैंने कहा कि बौद्ध होने में बड़ा आराम है लेकिन वो आप बनने नहीं देते.
मुसलमान बनकर शायद अरब दुनिया में अमन-चैन से गुज़ारा हो जाए लेकिन उसके लिए वहीं पैदा होना पड़ेगा वर्ना शेख़ ताउम्र बेगार ही कराते रहेंगे, लेकिन अगर अरब दुनिया में फ़लस्तीन में पैदा हो गए तो?
काला बनने की तो ख़ैर सोच भी नहीं सकते, गोरे भी मारते हैं और भूरे भी.
शायद सबसे अच्छा गोरा बनना है. मिस्टर व्हाइट ने बताया कि मैं मुग़ालते में हूँ, ब्रिटेन और अमरीका की ट्रेवल एडवाइज़री देखी तो समझ में आया कि वे सूडान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक कहीं सुरक्षित नहीं हैं.
उर्दू में चमड़ी के लिए एक बेहतरीन शब्द है, ज़िल्द. ज़िल्द के रंग से ही लोग किताब का हिसाब कर देते हैं.
लेकिन जैसा आप देख ही रहे हैं मसला सिर्फ़ ज़िल्द का नहीं है, कहीं ज़बान का है, कहीं कुरआन का, कहीं जीसस का, कहीं भगवान का. कहीं कुछ और...
मुंबई में मराठी, गुजरात में गुजराती हिंदू, पाकिस्तान में पंजाबी सुन्नी टाइप जीने के अलावा... अगर दुनिया में कहीं आदमी की तरह जीना हो तो कहाँ जाया जाए, ज़रा मार्गदर्शन करिए.
किसी ने कहा परदेस जाकर क्यों बसे, अपने देश में रहते तो अच्छा था. कहाँ रहता, आप ही बताइए, बिहारी हूँ, मुंबई जाकर रहूँ कि असम जाऊँ? हिंदू हूँ, कश्मीर चला जाऊँ?
एक संघी संगी कहते हैं हिंदू होना ही भारी समस्या है, मैंने कहा कि बौद्ध होने में बड़ा आराम है लेकिन वो आप बनने नहीं देते.
मुसलमान बनकर शायद अरब दुनिया में अमन-चैन से गुज़ारा हो जाए लेकिन उसके लिए वहीं पैदा होना पड़ेगा वर्ना शेख़ ताउम्र बेगार ही कराते रहेंगे, लेकिन अगर अरब दुनिया में फ़लस्तीन में पैदा हो गए तो?
काला बनने की तो ख़ैर सोच भी नहीं सकते, गोरे भी मारते हैं और भूरे भी.
शायद सबसे अच्छा गोरा बनना है. मिस्टर व्हाइट ने बताया कि मैं मुग़ालते में हूँ, ब्रिटेन और अमरीका की ट्रेवल एडवाइज़री देखी तो समझ में आया कि वे सूडान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक कहीं सुरक्षित नहीं हैं.
उर्दू में चमड़ी के लिए एक बेहतरीन शब्द है, ज़िल्द. ज़िल्द के रंग से ही लोग किताब का हिसाब कर देते हैं.
लेकिन जैसा आप देख ही रहे हैं मसला सिर्फ़ ज़िल्द का नहीं है, कहीं ज़बान का है, कहीं कुरआन का, कहीं जीसस का, कहीं भगवान का. कहीं कुछ और...
मुंबई में मराठी, गुजरात में गुजराती हिंदू, पाकिस्तान में पंजाबी सुन्नी टाइप जीने के अलावा... अगर दुनिया में कहीं आदमी की तरह जीना हो तो कहाँ जाया जाए, ज़रा मार्गदर्शन करिए.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
hindi blog
सदस्यता लें
संदेश (Atom)