22 मई, 2007

दुनिया के सबसे ताज़ा आम मैंने खाए हैं

आम की ख़ास यादें हैं. हमारे पुराने पुश्तैनी घर में आम के दो पेड़ थे एक मालदा और एक बीजू. मालदा बड़ा था और बीजू छोटा.

मालदा पकने पर भी हरा रहता था, बीजू को बाल्टी में डुबोकर रख दिया जाता था और शाम को चूसा जाता था. जिन्होंने बीजू का रस नहीं लिया है उन्हें बता दें कि वह मैंगो फ्रूटी से बेहतर होता है और बिना स्ट्रॉ के ही चूसा जाता है.

मैं उन चंद ख़ुशक़िस्मत लोगों में हूँ जिन्होंने दुनिया के सबसे ताज़ा आम खाए हैं, इस मामले में हमारा मुक़ाबले सिर्फ़ तोतों से होता था. हम स्कूल का बस्ता फेंककर सीधे पेड़ पर चढ़ते थे. आम को पेड़ की डाल से अलग किए बिना खाते थे, पूरी तरह से ऑर्गेनिक आम, धोने का सवाल कहाँ था?

आँधी में गिरे आमों को गुड़ के साथ पकाकर अम्मा गुड़म्बा बनाती थीं. पड़ोस के लोग भी टिकोले माँगने पहुँच जाते.

घर में आम का पेड़ होने की मुसीबत यह थी कि जिसके यहाँ पूजा होती थी वही पत्ते तोड़ने पहुँच जाता, कई दुकानदार तो दीवाली पर पूरी दुकान सजाने के लिए आम के पत्ते माँगते, हमें लगता इस तरह तो हमारा पेड़ नंगा हो जाएगा.

आम के पेड़ पर कौव्वों के घोंसले थे जो लोहे और अल्युमिनियम के मज़बूत तारों से बने थे, जिनमें चम्मच, जीभी और साइकल के स्पोक भी शामिल थे. कौव्वे पेड़ को अपने बाप का समझते थे, जब उनके घोंसलों में अंडे होते थे तो हमारा पेड़ पर चढ़ना असंभव कर देते थे.पेड़ को अपने बाप का समझकर वे कोई ग़लती नहीं करते थे क्योंकि उस पेड़ पर उनकी कई पुश्तें रहती थीं.

कभी-कभार ऐसे आम भी मिलते थे जो न कच्चे होते, न ही पके हुए. उनमें एक दरार सी पड़ जाती थी और वे सख़्त लेकिन काफ़ी मीठे होते थे, बड़े लोगों ने बताया कि उन्हें कोयलपादा आम कहा जाता है क्योंकि गाते-गाते हर बार आवाज़ कोयल की चोंच से ही नहीं निकलती.

हमारी दादी घर के सामने ठेला लगाने वाले को बचे हुए आम बेचने के लिए दे देती थीं. अपने घर के आमों को सड़क बिकते देखना अजीब अनुभव था, कई बार लगता कि हम क़ितने ख़ुशक़िस्मत हैं और कई बार लगता कि हमारे आम कोई और क्यों खाए.

घर में आम के दो पेड़ हों, दोनों पर मीठे फल लगते हों, ऐसे में किसो को भला क्या शिकायत हो सकती थी? हमारी बुआ को थी, कहती थीं दोनों पेड़ बेकार हैं, ख़ामख्वाह मीठे फल लगते हैं, अचार नहीं बन सकते, उसके लिए बाज़ार से आम लाना पड़ता है.

हम आम खाकर गुठलियाँ लापरवाही से आँगन में फेंक देते थे, मानसून के आने पर पूरे आँगन में 'आम की फ़सल' लहलहाने लगती क्योंकि गुठलियों से अंखुए फूट आते, एक दिन उन सबको बेरहमी से उखाड़कर फेंक दिया जाता, एक आँगन में आम के कितने पेड़ हो सकते थे?

जो कच्चे आम टपक जाते थे उन्हें टपका कहा जाता, उन्हें भूसे में लपेटकर बोरियों की कई तहों के नीचे रख दिया जाता, इस तरह गर्मी से आम दो-तीन दिन में पक जाते थे. यह इंतज़ाम अक्सर दादी की खटिया के नीचे होता था, जब दोपहर में वे सो रही होती थीं तो हम कच्चे-पक्के आम निकालकर आधा खाते-आधा फेंकते. पाँच-सात दिन में जब वे बोरियाँ खुलवातीं तो उन्हें पके हुए लेकिन चंद बचे हुए आम ही मिलते.

शहर के बीचो-बीच मकान और उसके अहाते में आम के दो पेड़, यह ऐसा कॉम्बिनेशन है जो ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता था. कई दशक तक चला. वह जितने दिन रहा सरकार की लापरवाही से. सड़क चौड़ी करने के मास्टर प्लान की चपेट में आम जनता भी आई और आम के पेड़ भी लेकिन मास्टर प्लान की घोषणा होने के तीस वर्ष बाद.

आम के एक फलदार पेड़ का मुआवज़ा मिला दो सौ रूपया जिसमें उसे कटवाने की मजदूरी भी शामिल थी. हमारे आँखों के सामने आम के पेड़ को ढेर कर दिया गया, जब उन्हें काटा गया बस उन पर मंजर लगने ही वाले थे. बात 16 साल पुरानी है लेकिन आज भी आँखें भर आती हैं.

कटे हुए आम के पेड़ से हरे पत्तों के बीच से कौव्वों के पाँच घोंसले निकाले गए, किसी चतुरसुजान ने कहा कि इसे कबाड़ी के यहाँ बेच दो, ख़ालिस लोहा है, हमने कौव्वों की बरसों की चोरी और अनूठे शिल्प को 23 रुपए में बेच दिया. उस पैसे से हमने मद्रास कॉफ़ी हाउस में डोसा खाया.

पेड़ कटने के बाद से ख़रीदकर आम खाने का मन कभी नहीं हुआ, जब कहीं मालदा दिखता है अपना दर्द हरा हो जाता है.

5 टिप्‍पणियां:

azdak ने कहा…

क्‍या रस की धार बहा दी आपने.. सुंदर! गुडम्‍बा, कौव्‍वों के बाप का पेड़ और कोयलपादा की दरार सबसे हमारा ज्ञानधन बढ़ा. घोंसलों के 23 रुपये से मद्रास कॉफ़ी हाउस में डोसा खाने और मालदा देखकर आपके दिल के दर्द के हरे होने की बात से हम आपकी तस्‍वीर खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं..
पेड़ अपने घर में भी तीन थे, मगर असल स्‍वाद पड़ोस के मलयाली घर के पेड़ के ऑर्गेनिक भक्षण में ही आता था. बहुत बार भक्षण-क्रिया मध्‍यावस्‍था में ही रहती कि आंगन का दरवाज़ा खुलता और सीधी-शरीफ़ मलयाली आंटी हमारे रोज़-रोज़ की थेथरई से एक बार फिर दंग होतीं.. और ताबड़तोड़ अड़कड़-गड़कड़ हमारी शान में गालियों का महल खड़ा हो जाता! वह लुत्‍फ जीवन में दुबारा नहीं आया!

अभय तिवारी ने कहा…

इस सुन्दर प्रसंग का अंत कैसे दुख से हुआ..भीतर बैठ गया.. और घोसला बेच कर आप्ने अच्छा नहीं किया.. कोऎ किसी दिन हिसाब माँगेंगे..

mamta ने कहा…

अंडमान मे हमारे घर मे आम का एक पेड था और जैसा आपने लिखा है खुद से आम तोड़कर खाने का मजा ही कुछ
और है।

बेनामी ने कहा…

पेड़ आपके . रसदार और गूदेदार आम खाए आपने . उनके मृत्युभोज के रूप में दुख का दोसा खाया आपने . इसलिए वृक्ष-द्वय के देहावसान पर आपका दुखी होना लाज़िमी था .

पर मेरी आंखें क्यों डबडबा रही हैं ?

चंद्रभूषण ने कहा…

pramod bhai ne aamon ke baare me jitna manga tha usase kuchh jyada hi de diya aapne. kya baat hai. mureed hue aapke. uge hue aamon ki guthaliyan ghiskar ham log pipihari banaate the. vah aap logon ne kabhi nahin banaai kya?