इतिहास में किसी आदमी की सही जगह आँकना बहुत कठिन काम होता है, ख़ास तौर पर अगर व्यक्ति अभी-अभी इस संसार से विदा हुआ हो.
आम तौर पर उसे नापसंद करने वाले कम बोलते हैं और पसंद करने वाले भाव-विभोर होकर नए-नए गुण ढूँढ लेते हैं जिनका खंडन करने वाला व्यक्ति (अगर संयोगवश ईमानदार हुआ तो) जा चुका होता है और ज्यादातर सज्जन पुरुष तेरहवीं से पहले मुँह नहीं खोलना चाहते.
जो लोग सत्ता के शीर्ष पर पहुँच चुके होते हैं उन्हें कड़ी परीक्षा से गुज़रना होता है. गांधी या लोहिया को कभी उस परीक्षा से नहीं गुज़रना होगा जिससे नेहरू, इंदिरा जैसे दूसरे नेता गुज़रे. चंद्रशेखर बहुत कोशिश करके अल्पकाल के लिए सत्ता सुख भोगने वालों की श्रेणी में पहुँचे थे, वरना उनके मूल्यांकन में भी बिनोबा-जेपी वाली रहमदिली बरती जाती. उन्हें जॉर्ज फर्नांडिस से बहुत बेहतर साबित करने के लिए राजनीतिक शोध के धरातल पर जाने की ज़रूरत पड़ेगी. बिना पड़ताल के महान की श्रेणी में आने के दावेदार वे नहीं हो सकते.
जैसा कि अक्सर होता है, सत्ता में उनके कुछ महीने उनकी विपक्ष की शानदार पारी पर भारी पड़े. उन्होंने बहुत संघर्ष किया, युवा तुर्क कहलाए, विपक्ष और सत्ता की राजनीति दोनों की. उन्होंने हमेशा दिखाया कि वे भारत की रग-रग से वाकिफ़ हैं, सियासत और समाज की नब्ज़ पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है. वे ज़मीन से जुड़े नेता थे, जनता की भाषा बोलते थे और साथ ही बड़े आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर उनकी समझ काफ़ी साफ़ थी. मगर...
भूलना नहीं चाहिए कि वे चंद्रास्वामी जैसे पापी और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कपटी के निकटतम थे, भूलना नहीं चाहिए कि वे सूरजदेव सिंह जैसे जालिम कोयला माफ़िया के सरपरस्त थे...भूलना नहीं चाहिए कि उन्होंने अपने ख़ासम-ख़ास लोगों के लिए पर्याप्त निर्लज्जता से (जिसे उनके चाहने वाले निर्भीकता कहेंगे) सभी नियमों-मर्यादाओं-परंपराओं की हेठी की जिनकी बात वे गरज-गरजकर करते थे.
मेरा इरादा चंद्रशेखर के बहाने एक दूसरी बात कहने का है, उनका दिन-तारीख़-घटना के हिसाब से मूल्यांकन करने का नहीं है. मेरा अनुरोध सिर्फ़ इतना है कि अगर किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु से दुख पहुँचा हो तो अपने दर्द को झेलें-बाँटें, लेकिन जब सार्वजनिक स्तर पर किसी के राजनीतिक-सामाजिक मूल्यांकन की बात आए तो ध्रुवों पर जाने से बचें. यह चंद्रशेखर के साथ भी अन्याय है.
तमाम तरह की जोड़-तोड़ की राजनीति करके सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले व्यक्ति को संत महात्मा आदि कहना भावातिरेक की अतिशयोक्ति है. सत्ता की संरचना को समझने वाला कोई भी आदमी जानता है कि वहाँ ऊपर चढ़ने के लिए क्या-क्या करतब करने पड़ते हैं. संत-महात्मा ऐसे करतब नहीं करते और जो करते हैं वे संत-महात्मा नहीं होते.
लालू के गाय दुहने और कर्पूरी बाबू के हजामत बनाने की तस्वीरें जो मीडिया में दिखीं थीं वो अनायास नहीं थीं. वाजपेयी का कवि एक योजना के तहत झाड़-पोंछकर ज़िंदा किया गया और राजा वीपी सिंह की चित्रकारी में नए रंग भरे गए. वाजपेयी और राजा दोनों ऐसी अदा दिखाते हैं कि हम तो कवि और चित्रकार थे, ग़लती से राजनीति में आ गए.
सबकी अपनी-अपनी छवि होती है, चंद्रशेखर की छवि जो विपक्ष के विद्रोही नेता की थी उसी के तौर पर उनका सम्मान था, और रहेगा. राजनीति के बाज़ार में इमेज का सबसे ज्यादा मोल होता है. चंद्रशेखर बागी, विद्रोही, बेलाग होने की छवि को खाद-पानी देते रहे लेकिन उन्होंने सत्ता में आने के लिए हर वो काम किया जो कोई दूसरे घाघ नेता करते हैं.
चंद्रशेखर बड़े नेता थे, खाँटी थे, ऑरिजनल थे, जुझारू थे, अपना अलग तेवर था, बाद के दौर में जब अकेले रह गए थे तो काफ़ी स्टेट्समैन की तरह हो गए थे. वे निश्चित तौर पर असाधारण नेता थे क्योंकि वे कोई ख़ानदानी नेता नहीं थे, न ही देवेगौड़ा की तरह भाग्यवान. उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि मगर...
इस असहमति के साथ कि वे कोई संत नहीं थे, समझदार सियासतदाँ ज़रूर थे. अंतिम बड़े नेता थे समाजवादी धारा के शायद इसलिए कुछ लोग अधिक भावुक हो रहे हैं. दुखी तो मैं भी हूँ.
12 जुलाई, 2007
सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले संत नहीं होते
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10 टिप्पणियां:
ऐसे व्यक्ति के विषय में मरणोपरांत लिखने में यही मुश्किल है. आप किंतु-परंतु के साथ ही लिख पाते हैं - एक कदम आगे जाते है, एक कदम पीछे आते हैं. बस वहीं रहते हैं.
ठीक कहा। प्रभाष जोशी ने भी अपने संस्मरण में लिखा साफ तो नहीं कहा कि वे राजपूतों के नेता बनने लगे थे मगर कुछ जगह पर राजपूत शब्द का इस्तमाल किया है। पता नहीं क्या मतलब है।
अनामदास जी मेरा एक पंक्ति का संस्मरण भी आपके सवालों से मेल खाता है। चंद्रशेखर एक महान नेता थे।
बात ठीक कही। राजनीति में ईमानदार नहीं थे। और यह भी ठीक है कि समझौते के बिना राजनीति में नहीं हो सकते थे। एक खांटी नेता का जाना दुखी तो करता है मगर मूल्यांकन की भावुकता ठीक नहीं।
आपने उससे उबारने की कोशिश की है।
सत्य वचन महाराज
सही है गुरु..
भैया उनका बही-खाता तो देखा नहीं.
लेकिन थोड़े दिनों पहले की एक घटना बताता हूं. एक स्कूल के प्रिंसिपल आये थे कोई सिफारिश लेकर. चंद्रशेखर जी ने कहा कि मौखिक मत कहिए, लिखकर लाईये. प्रिंसिपल साहब लिखकर लाये. चंद्रेशेखर जी ने देखा, खुद कलम उठा उसकी भाषा को प्रशासनिक बनाया. एडिट किया और कहां जाईये अब इसको फिर से टाईप कराकर लाईये. साथ ही जमीन पर खड़े होने का परिचय भी दिया- आप प्रिंसिपल हैं, और एक अप्लीकेशन भी नहीं लिख सकते. उन बच्चों का क्या भविष्य होगा जिसके आप प्रिंसिपल हैं.
ऐसी अनेको घटनाएं हैं. प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद भी वे पूर्व प्रधानमंत्री की जगह लोकसभा सांसद की भूमिका में ही रहते थे. जब भोड़सी का सरकार ने अधिग्रहण किया तो उन्होंने अपने एक सहयोगी से कहा कि डीसी से समय मांगो उससे चलके मिलते हैं. केन्द्र किसी के पास रहे इसकी व्यवस्था नहीं बिगड़नी चाहिए.
जमीन से उठा आदमी शक्ति का भूखा होता है. लेकिन संत वही है जो शक्ति पाने के बाद भी जमीन नहीं छोड़ता. चंद्रशेखर जी ने जमीन नहीं छोड़ी थी.
यह अलग बात है कि कुछ लोगों की नज़र में ऐसे मूल्यांकन के लिए यह समय मुफीद न हो, लेकिन मूल्यांकन आपने सही किया है. इसमें कोई दो राय नहीं है. हालांकि यह भी सही है कि एक ऐसे समय में जबकि पूरी भारतीय राजनीति स्काईलैबों और रंगे सियारों से भरी पडी हो, चंद्रशेखर का होना सिर्फ महत्वपूर्ण ही नहीं, जरूरी भी था.
बिल्कुल सटीक.
राजीव गाँधी के समर्थन से कुछ दिनों के लिए प्रधान मन्त्री बनना चन्द्रशेखर की सबसे बड़ी भूल थी। स्वर्ण मन्दिर पर सैनिक कार्रवाई की उनके द्वारा बेबाक आलोचना हमेशा याद रहेगी।
भोंडसी के बाबा अस्सी साल में गए लेकिन जीवन भरपूर जिया. प्रभाष जोशी ने उन्हें राजपूतों का नेता....अरे औरतखोर तक लिखा.
चंद्रास्वामी जैसे पापी की बात करते हैं आप, चंद्रशेखर ने तो अदनान खशोगी जैसे हथियारों के अंतरराष्ट्रीय दलाल (वो हथियार जिनसे इराक और अफगानिस्तान में निर्दोष औरतें, आदमी और बच्चे मारे जाते हैं) को दिल्ली में डिनर तब दिया जब खशोगी बदनामी के शिखर पर था और चंद्रशेखर महान भारत भूमि के प्रधानमंत्री पद पर सुशोभित थे.
चंद्रशेखर चोरों के मौसेरे भाई रहे. वो सीना ठोंक कर कहते थे कि हाँ फलनवा माफिया हमारा दोस्त है. इसी पर उनके चाटुकार खीसें निपोर कहा करते थे -- देखा आपने, अध्यच्छ जी कितने महान हैं.
जब चंद्रास्वामी फँसा था राजेश पायलट के चक्कर में तो अध्यच्छ जी क्या बयान दिए -- अरे चंद्रास्वामी में एक चूहा मारने की हिम्मत हो है नहीं, वो गलत काम कैसे करेंगे.
अध्यच्छ जी को इस तुच्छ जी की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि.
अच्छा लेख लिखा है। इसी बहाने कुछ अच्छी प्रतिक्रियायें भी पढ़ने को मिलीं।
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