19 अक्तूबर, 2007

नवरात्र में शेर और स्कूटर पर सवार माताएँ

नवरात्र चल रहा पुण्यभूमि भारत में. नारी शक्ति की अराधना उत्कर्ष पर है. एक ऐसे देश में जहाँ शाम ढलने के बाद बाहर निकलने में महिलाओं को डर लगता है.

भारत विडंबनाओं और विरोधाभासों का देश है, इसकी सबसे अच्छी मिसाल नवरात्र में देखने को मिलती है जब लोग हाथ जोड़कर माता की प्रतिमा को प्रणाम करते हैं और हाथ खुलते ही पूजा पंडाल की भीड़ का फ़ायदा उठाने में व्यस्त हो जाते हैं.

भारत का कमाल हमेशा से यही रहा है कि संदर्भ, आदर्श, दर्शन, विचार, संस्कार सब भुला दो लेकिन प्रतीकों को कभी मत भुलाओ.

जिस देश की अधिसंख्य जनता नारीशक्ति की इतनी भक्तिभाव से अर्चना करती है उसी देश में कन्या संतान को पैदा होने से पहले ही दोबारा भगवान के पास बैरंग वापस भेज दिया जाता है, 'हमें नहीं चाहिए यह लड़की, कोई गोपाल भेजो, कन्हैया भेजो, ठुमक चलने वाले रामचंद्र भेजो, लक्ष्मी जी को अपने पास ही रखो'.

अदभुत देश है जहाँ 'जय माता की' और 'तेरी माँ की'...एक जैसे उत्साह के साथ उच्चारे जाते हैं. माता का यूनिवर्सल सम्मान भी है, यूनिवर्सल अपमान भी.

नौ दिन तक जगराते होंगे, पूजा होगी, हवन होंगे, मदिरापान-माँसभक्षण तज दिया जाएगा और देवी प्रतिमा की भक्ति होगी, मगर साक्षात नारी के सामने आते ही प्रौढ़ देवीभक्त की आँखें भी वहीं टिक जाएँगी जहाँ पैदा होते ही टिकी थीं.

भारत में पूजा करने का अर्थ यही होता है कि रोज़मर्रा के जीवन से उस देवी-देवता का कोई वास्ता नहीं है, हमारे यहाँ सरस्वती पूजा में वही नौजवान सबसे उत्साह से चंदा उगाहते रहे हैं जिनका विद्यार्जन से कोई रिश्ता नहीं होता.

स्त्रीस्वरूप की पूजा तभी हो सकती है जब वह शेर पर सवार हो, उसके हाथों में तलवार-कृपाण-धनुष-वाण हो या फिर उसे जीते-जी जलाकर सती कर दिया गया हो, दफ़्तर जाने वाली, घर चलाने वाली, बच्चे पालने वाली, मोपेड चलाने वाली औरतें तो बस सीटी सुनने या कुहनी खाने के योग्य हैं.

भक्तिभाव से नवरात्र की पूजा में संलग्न कितने लाख लोग हैं जिन्होंने अपनी पत्नी को पीटा है, अपनी बेटी और बहन को जकड़ा है, अपनी माँ को अपने बाप की जागीर माना है. वे लोग न जाने किस देवी की पूजा कर रहे हैं.

भवानी प्रकृति हैं और शिव पुरूष हैं, यह हिंदू धर्म की आधारभूत अवधारणा है. दोनों बराबर के साझीदार हैं इस सृष्टि को रचने और चलाने में. मगर पुरुष का अहंकार पशुपतिनाथ को पशु बनाए रखता है इसका ध्यान कितने भक्तों को है.

जिस दिन पंडाल में बैठी प्रतिमा का नहीं, दफ़्तर में बैठी साँस लेती औरत का सच्चा सम्मान होगा, जिस दिन शेर पर बैठी दुर्गा को नहीं, साइकिल पर जा रही मोहल्ले की लड़की को भविष्य की गरिमामयी माँ के रूप में देखा जाएगा, उस दिन भारत में नवरात्र के उत्सव में भक्ति के अलावा सार्थकता भी रंग होगा.

फ़िलहाल यह उत्सव है जो नारी शक्ति की आराधना के नाम पर पुरुष मना रहे हैं.

18 टिप्‍पणियां:

Manish Kumar ने कहा…

वाह भाई..बहुत सही ..दिल की बात कह दी आपने तो। आपकी बातों से अक्षरशः सहमत हूँ।
वैसे इस पोस्ट के इतर आपसे एक शिकायत है यहीं कह देते हैं आपने हमारी मेल का कोई जवाब नहीं दिया ?

अनिल रघुराज ने कहा…

बड़ी सार्थक बात कही है आपने। लेकिन ये महज नैतिकता का प्रश्न नहीं है। ऐसा है, इसके बजाय ऐसा क्यों है, अगर इस पर सोचा जाए तो ज्यादा अच्छा होगा। जीवन स्थितियों के वो कौन से खड्ढे हैं जहां पुराने नाले का पानी आकर जमा हो जा रहा है, इसे तलाशने की जरूरत है।

काकेश ने कहा…

मारक,सटीक और सार्थक लेख.

रवि रतलामी ने कहा…

मगर साक्षात नारी के सामने आते ही प्रौढ़ देवीभक्त की आँखें भी वहीं टिक जाएँगी जहाँ पैदा होते ही टिकी थीं.

:), एक कहावत है, या शायद मरफियाना नियम:

व्हाई मेन केननॉट मेक आई कॉन्टेक्ट्स विद वीमन? - बिकॉज ब्रेस्ट्स हैव नो आईज!

बेनामी ने कहा…

जिस दिन पंडाल में बैठी प्रतिमा का नहीं, दफ़्तर में बैठी साँस लेती औरत का सच्चा सम्मान होगा, जिस दिन शेर पर बैठी दुर्गा को नहीं, साइकिल पर जा रही मोहल्ले की लड़की को भविष्य की गरिमामयी माँ के रूप में देखा जाएगा, उस दिन भारत में नवरात्र के उत्सव में भक्ति के अलावा सार्थकता भी रंग होगा.सत्यवचन!

इन्दु ने कहा…

अष्टमी के दिन आपकी ये पोस्ट पढ़ना कुछ सोचने को मजबूर कर रहा है । आज सुबह से ही नहाई-धोई लाल टीका लगाई हुई बच्चियों को घर-घर जाते देख रही हूँ और सोच रही हूँ क्या सचमुच हमारा समाज कन्याओं का इतना ही सम्मान करता है? एक ओर देवी की उपासना, दूसरी ओर बाज़ार में नंगा करके खडा कर देना, इन दोनों के बीच एक इंसान के बतौर अभी तक भी कहाँ देख पा रहे हैं हम लड़कियों को . घर से निकलते ही सड़कों, बसों, दफ्तरों, बाजारों तक लगातार जिस तरह छीलती हुई नज़रों से सामना होता है, ज़रा से छू देने, कंधे टकराने, अश्लील हरकतें करने से लेकर चिकोटी काटने तक रोज़ ब रोज़ जिस तरह सिर्फ कन्या होने का इनाम पाती हैं लड़कियां, उससे कन्या पूजन की हमारी परम्परा कितनी गौरवान्वित होती है ! औरतों की सफलताओं के किस्से जब बढा-चढाकर सुनाये जाते हैं, कन्या पूजन की महान परम्पराओं का पालन पूरे धार्मिक भाव से किया जाता है, तब क्या हम इन तमाम विरोधाभासों को समझ पाते हैं !

tanivi ने कहा…

दशहरा और दुर्गा पूजा की हार्दिक शुभकामनाए .
आपने बिलकुल सही लिखा है.भारत में कुछ भी हो सकता है.हमारी संस्कृति जाने कितने ही विरोधाभासों से भरी है और सबसे मज़े की बात यह है कि लोगों को इन बातों से कोई फर्क नही पड़ता।.एक तरफ शाम ढलने के बाद पेड़-पौधों को छूना वर्जित माना जाता है कि कहीं उनकी नींद में खलल न पड़ न जाए.दूसरी ओर बलि प्रथा को महिमा मंडित किया जाता है। हमारे संस्कारों में रचे-बसे
यही विरोधाभास हमें दोहरे मानदंड अपनाने को प्रेरित करते हैं .

preeti ने कहा…

purush hokar aapki easi soch hai hairani hai. sabse mahatvpurn hoker bhi aurat ki kitni durdasha hai eske bare mein kuch bhi kehna bekaar hai. kher aapka rochak aur gyanverdhak lekh path ker kuch logon ki bhi soch badle to behtar hoga.
preeti

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

हमारे समाज की यही टू विशिष्टता है. हम हमेशा विरोधाभासों में जीते रहे हैं. जीते जी बाप की ऎसी-तैसी करते रहते हैं और मरने के बाद तमाम रस्में निभाते हैं. कबीर से लेकर आज तक हम-आप इसके खिलाफ काफी कुछ बकते आए हैं, फिर भी हिंदुस्तान जहाँ से चला था वहीं है. क्या होगा इसका?

Udan Tashtari ने कहा…

एकदम सटीक एवं सार्थक आलेख. आनन्द आ गया. बधाई.

Unknown ने कहा…

कुदाली को कुदाली कहा....( calling a spade a spade :)) )

फिर भी....चोली के नये फैशन, लड़कियों की उकसाने वाली हरकतें, देर रात तक किसी भी जगह किसी के भी साथ जा सकने की स्वतंत्रता...क्या यह सब भी जिम्मेदार नहीं है ?!
डिस्को डाँडिया.... यह भी डिस्को का कल्चर भारत की संस्कृति में घुसने का प्रतीक है...

हाँ फिर भी
"जिस दिन पंडाल में बैठी प्रतिमा का नहीं, दफ़्तर में बैठी साँस लेती औरत का सच्चा सम्मान होगा, जिस दिन शेर पर बैठी दुर्गा को नहीं, साइकिल पर जा रही मोहल्ले की लड़की को भविष्य की गरिमामयी माँ के रूप में देखा जाएगा, उस दिन भारत में नवरात्र के उत्सव में भक्ति के अलावा सार्थकता भी रंग होगा"
से पूर्णतया सहमत हूँ।

Third Eye ने कहा…

बहुत दिनों बाद लिखा. बहुत खूब लिखा. बहुत लोगों को सुलगाने वाला लिखा. लेकिन वो चुप क्यों हैं. इतने सारे लोग वाह वाह कर रहे हैं, लेकिन वो कहाँ गए जो माता के जागरण में बुक्का फाड़ गा रहे थे.

बेनामी ने कहा…

आपके लेख के 'मच-अक्लेम्ड' उपसंहार से कुछ याद आ गया है. साल-दो साल पहले आई एक मराठी फ़िल्म 'अग बाई अरेच्या' के एक सीन के द्वारा,जिसके पार्श्व में देवी दुर्गा की मराठी आरती चल रही है, निर्देशक यही कहना चाहता है.यू-ट्यूब लिंक नीचे दे रहा हूँ;गौर फ़रमाएँ.

http://www.youtube.com/watch?v=BjSHNLztQEo

बोधिसत्व ने कहा…

कहीं रह गया था......देर से आया हूँ पर भरपूर आन्न्द पाया हूँ....

बोधिसत्व ने कहा…

कहीं रह गया था......देर से आया हूँ पर भरपूर आन्न्द पाया हूँ....

Neelima ने कहा…

बहुत सही कहा आपने !

Batangad ने कहा…

दोगले चरित्र का सलीके से किया गया चित्रण। हो सकता है कुछ लोग मंदिरों में कुहनियां चलाना बंद कर दें।

अजित वडनेरकर ने कहा…

कई दिनों बाद चक्कर लगा है। बहुत कुछ सार्थक , विचारोत्तेजक चिंतन हुआ है इस बीच। लगभग सभी आलेख पढ़ डाले हैं और हमेशा की तरह सहमत हूं।