11 मार्च, 2008

खिलौना बंदूक और असली ख़ौफ़

हिंसा का पारसी थिएटर हमने आपने ही नहीं, मेरे साढ़े तीन साल के बेटे ने भी खूब देखा है. मगर हिंसा का परिणाम किसने, कहाँ और कितनी बार देखा है.

एक्सीडेंट एंड इमरजेंसी के डॉक्टरों, पुलिसवालों और कुछ दूसरे बदक़िस्मत लोगों को पता है कि गोली लगने पर ख़ून कैसे बलबल करके निकलता है, छुरा जब अँतड़ियाँ बाहर निकाल देता है तो आदमी कैसे हिचकियाँ लेता है. एक विधवा, एक असहाय माँ, एक अनाथ बच्चा...वे अपनी ज़िंदगी में कैसे घिसटते हैं, उसकी फ़िल्में कौन बनाता है, कौन देखता है?

मेरा बेटा पिछले तीन महीने से खिलौना बंदूक यानी गन खरीदने के लिए बेहाल है. गन चाहिए उसे ताकि वह फिश्श फिश्श कर सके, फ़ायर शब्द उसे बताने की ज़रूरत नहीं समझी गई इसलिए उसने ख़ुद ही फिश्श फिश्श गढ़ लिया है. बंदूक न सही, वह चम्मच, पेंसिल या टीवी के रिमोट को गन बनाकर कूद-कूदकर गोलियाँ दाग़ने लगा है.

उसे पुलिसमैन बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनके पास गन होती है जिससे वे फिश्श फिश्श कर सकते हैं. वह बड़ा होकर पुलिसमैन बनना चाहता है ताकि वह भी फिश्श फिश्श कर सके. बंदूक के घोड़े के पीछे की ताक़त उसे समझ में आ गई है जबकि उसे कई बुनियादी काम अभी नहीं आते.

टीवी पर हमने उसे बालजगत टाइप कार्यक्रम दिखाना शुरू किया है और हिंदी फ़िल्मों की डोज़ कम से कम कर दी गई है लेकिन बंदूक के प्रति उसका आकर्षण कम नहीं हुआ है. ख़ून-ख़राबा, मार-पीट के सीन देखने पर वह हमारे रटाए हुए जुमले को दोहराता है, 'दैट्स नॉट वेरी नाइस,' लेकिन साढ़े तीन साल का बच्चा भी शक्ति संतुलन समझता है, उसे सिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि उसे बंदूक के किस तरफ़ रहना चाहिए, पीछे या सामने.

भारत यात्रा से लौटने के बाद बच्चे को हिंदू परंपरा से अवगत कराने के उद्देश्य से बालगणेश और रामायण की वीडियो सीडी ख़रीदी गई थी. बालगणेश के शुरूआती दस मिनट बीतने से पहले ही शिवजी ने बालगणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया...रामायण में भी राम जी तीर से, हनुमान जी गदा से और दूसरे योद्धा तलवार से खून बहाते दिखे...

यानी जिस मुसीबत से बचने की कोशिश कर रहे थे उससे पीछा नहीं छूटा. बताना पड़ा कि पुलिसवाले,गणेशजी, हनुमान जी सिर्फ़ बुरे लोगों को मारते हैं, बात फ़ौरन उसकी समझ में आ गई. उसे खेल-खेल में जिसको भी फिश्श फिश्श करना होता है उसे बुरा आदमी बना लेता है. दुनिया भर में बंदूक के पीछे बैठे जितने लोग ख़ुद को अच्छा आदमी बताते हैं उनका खेल अब समझ में आ रहा है.

हिंसा से मुझे डर लगता है, हिंसा का निशाना बनने की कल्पना से ज्यादा भयावह कुछ नहीं है मेरे लिए, क्योंकि मैं शारीरिक-मानसिक तौर पर हिंसा से निबटने में ख़ुद को अक्षम पाता हूँ, जो ख़ुद को सक्षम पाते हैं वे मूर्ख हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वे दो-तीन लोगों को पीट देंगे, मार देंगे लेकिन हिंसा कितनी बड़ी और कितनी घातक हो सकती है, इसे वे भूल जाते हैं.

हिंसा से हर हाल में डरना चाहिए, बचना चाहिए, वैसे इसके लिए काफ़ी कोशिश करनी पड़ती है, करना या न करना आपकी मर्ज़ी.

मुझे तो बच्चे की बंदूक से भी डर लगता है. सोमालिया, सिएरा लियोन, श्रीलंका, इराक़-फ़लस्तीन और पाकिस्तान के बच्चे आज खिलौना बंदूक से खेल रहे हैं लेकिन उनके लिए एके-47 कोई अप्राप्य खिलौना नहीं है. सामने खड़े साँस लेते आदमी को फिश्श फिश्श कर देना उनके लिए बहुत बड़ी बात नहीं है.

हम अपने बच्चे को स्क्रीन पर हिंसा देखने से रोकना चाहते हैं, उसे बताते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है लेकिन जब उन बच्चों का खयाल आता है जिन्होंने टीवी और सिनेमा के स्क्रीन पर नहीं, अपनी ज़िंदगी में ये सब देखा है तो सिर पकड़कर-आँखें मूँदकर सोफ़े पर धम्म से बैठने के अलावा हमसे कुछ और नहीं हो पाता.

11 टिप्‍पणियां:

Yunus Khan ने कहा…

बच्‍चों के नन्‍हें हाथों में खेल खिलौने रहने दो
चार किताबें पढ़कर वो हम जैसे हो जाएंगे ।
भाई साहब कित्‍ती भी कोशिश कर लें हिंसा से कैसे बचाएंगे । वीडियो गेम । फिल्‍में । टी वी । किताबें । समाज । सब पर लहू के छींटे हैं । इब क्‍या होगा

काकेश ने कहा…

बच्चे कहाँ से कैसे क्या सीख जाते हैं यह मेरे लिये अबूझ है..बच्चों के इन्हीं अनुभवों और अपने डर से आजकल मैं भी दो चार हो रहा हूँ.अपनी चिंता में हमें भी शरीक मानें.

बेनामी ने कहा…

What if we could fissh! fissh! all the people who promoted the gun culture?

Would you stand for that?

मनीषा पांडे ने कहा…

हां, यह ख्‍याल सचमुच भयावह है। हम चाहें न चाहें, हमारे बच्‍चे अपने आसपास की दुनिया से बहुत कुछ ऐसा सीख रहे हैं, जिस पर हमारा बस नहीं। अपने परिवार में तो बच्‍चे दो से पांच-छ: साल तक के हैं, उन्‍हें बड़ा होते देखने का ख्‍याल ही मुझे भय से भर देता है। यहां तक कि किसी नए पैदा हो रहे बच्‍चे का ख्‍याल भी। और ये सिर्फ ये है कि हम कौन-सी दुनिया, कौन-सा जीवन देगे अपने बच्‍चों को। ये डर वक्‍त के साथ-साथ बढ़ता ही जा रहा है।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत ही सामयिक समस्या की ओर ध्यान खीचा है।बच्चों में पनपती इस हिसां के बारे में सभी को सोचना चाहिए।

अनिल रघुराज ने कहा…

अच्छा है बेटियां इस तरह फिश्श-फिश्श नहीं करतीं। न जाने क्यों उनमें बंदूकों से खेलने का शौक नहीं पनपता, भले ही उन्हें बचपन से लड़कों के कपड़े पहनाए जाएं।

बेनामी ने कहा…

सच आपकी चिंता बिल्कुल जायज है अपने आसपास की गंदी दुनिया से बच्चे को कैसे बचाया जाए मुझे तो यही लगता है कि यह बच्चों के विकास प्रक्रिया का एक हिस्सा है समय के साथ धीरे-धीरे वो ख़ुद समझ जाएगा कि क्या ग़लत.

अव्यक्त शशि ने कहा…

अनामदास जी,
आपके बेटे की कहानी ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की अपनी बिटिया के बारे में लिखी गई कविता याद दिला दी. बहुत अरसा पहले पढ़ी गई इस कविता को आज ढ़ूँढ़कर निकाला. लिख भेज रहा हूँ.

लड़ाई का इंतजाम

मेरी बिटिया सिल रही है
अपने गुड़्डे के लिए वर्दी
कल से वह फौज़ में भरती हो गया है।

'अचकन और सुथन्ना'
कहती है, 'अब काटकर छोटे करने होंगे
पहनेगा गुड़्डे का नन्हा मुन्ना।
लड़ेगा उसका गुड्डा
चीन और पाकिस्तान से
बन्दूक लेकर खड़ा होगा
लड़ाई में शान से।'
पिचकारी तोड़कर उसने
बना ली है एक टैंक भेदी तोप
धूपबत्ती का खाली पैकेट लेकर पूछती है-
'क्या कहते हैं पापा उसे
जिससे हवाई जहाज मारते हैं।'
घरौंदे पर उसने एक मोटा बोरा डाल दिया है-
'खिलौने अब घर से बाहर नहीं निकलेंगे।
सबसे शैतान है वह भालू का बच्चा
बाहर अगर निकला तो
खा जाऊँगी उसे कच्चा,
बहुत चकरघिन्नी खाता है यह बन्दर
रहेगा आज से घर के अन्दर,

यह जो मूषक है गणेश जी की सवारी-
बस पापा इससे ही मैं हारी
कहना यह बिल्कुल भी मेरा नहीं मानता
कहाँ जाना चाहिए कहाँ नहीं, नहीं जानता;
अगर कहीं पड़ने लगेगा बम,
सबसे पहले इसका ही निकलेगा दम।
मुर्गे के साथ छोटी बिल्ली तक मेरी करती है परेड
जानती है कैसे बचे
जब हो 'एयर रेड';
पप्पू का अब कल से स्कूल जाना बन्द-
उसका बस्ता
बन गया है रेडक्रॉस का बक्स सस्ता।
साइरन के लिए यह गुब्बारे का बाजा
लाया था मेरे लिए बाजार से राजा।
लड़ाई का मेरा तो पूरा हो गया है इंतजाम-
अब तुम जानो पापा, और तुम्हारा काम।

Batangad ने कहा…

सोमालिया, श्रीलंका छोड़िए अनामदासजी। देश के ही कई हिस्सों में फिश्श फिश्श का संस्कार बच्चों को घर से ही मिल रहा है। शादी-ब्याह में फिश्श फिश्श रूतबा दिखाता है। कहां-कहां रोकेंगे।

अजित वडनेरकर ने कहा…

दुनिया भर में बंदूक के पीछे बैठे जितने लोग ख़ुद को अच्छा आदमी बताते हैं उनका खेल अब समझ में आ रहा है

डरिये नहीं बंधु, आपके मेरे बच्चे खिलौने और हथियार में खुद फ़र्क़ कर लेंगे , इतना भरोसा तो रखना ही होगा अपनी परवरिश पर। बाकी हमेशा की तरह आपकी फिक्र वाजिब है।

बेनामी ने कहा…

mere vichar ek naya blog...