ऋतुराज वसंत आता है, चला जाता है, हम अपनी धुन में चले जाते हैं. थोड़ा रुकें तो पता चले, कौन आया, कौन गया. न अपने क़स्बे में, न दिल्ली में पता चला कि वसंत क्या होता है. लंदन में मेरे लिए दस साल से वसंत आता है, ठंड से सिहरे मन की कोंपले खिलती हैं लेकिन नवांकुरों का हर्ष कहीं दर्ज नहीं कर पाता. इस बार इरादा किया कि वसंत में आँखें जो देखें उन्हें उँगलियाँ कागज़ पर उतार लें, कुछ छोटी-छोटी बातें पुर्जियों पर लिख पाया. तस्वीरें वक़्त का नहीं, लम्हों का सच बताती हैं...कुछ ऐसा ही.
19 अप्रैल--खिड़की से आती किरणों ने इस मौसम में पहली बार जगाया है, ठंड है, जैकेट पहननी पड़ेगी लेकिन पीले वसंती डेफ़ोडिल्स कह रहे हैं- बस चंद रोज़ और...आसमान साफ़ है,रोशनी भी है मगर इसे धूप नहीं कहा जा सकता, फिर भी गुनगुने दिनों का आलाप शुरू हो गया है. बालकनी से दिखने वाली घास में हरियाली लौट रही है हालाँकि ज्यादातर पेड़ अब भी सहमे खड़े हैं पत्तों के बिना. जिसने पतझड़ के ठूंठ न देखे हों, उसे इस बहार का उल्लास कैसे समझ में आए, मुझे ही कितने साल लग गए.
20 अप्रैल--हल्की सी बारिश सुबह हुई है लेकिन ठंड नहीं है. हरी घास पर छोटे-छोटे सफ़ेद और पीले फूल खिल आए हैं, लगता है कि छींट वाले कपड़ों का खयाल शायद हरी घास पर खिले फूलों से ही आया होगा. शॉपिंग सेंटर जाते हुए नहर में रहने वाली बत्तखों के तीन छोटे बच्चे दिखाई दिए. पता नहीं बत्तख के बच्चों को बदसूरत (अग्ली डकलिंग) क्यों कहते हैं, मुझे तो ख़ासे सुंदर लग रहे हैं, बच्चे तो सूअर के भी अच्छे लगते हैं बशर्ते नालियों में लोट न लगा रहे हों.
26 अप्रैल--देर से सोकर उठने पर अक्सर दिन कुछ नाराज़ सा लगता है, लेकिन आज जैसे मुस्कुराकर कह रहा है--इतना क्यों सोते है,अच्छा जाने दो, कोई बात नहीं. दिन भी अच्छे मूड में है. खिड़की से दिखने वाले चेरी के पेड़ पर सफेद फूल रातोरात उग आए हैं मानो उनमें रसे भरे फल बनने की बड़ी बेचैनी हो. सिहरे-सहमे नंगे खड़े पेड़ों ने अंगड़ाई ली है, कोंपले दिखने लगी हैं...नेचर के टाइम डिलेड कैमरे का जादू धीरे-धीरे खुल रहा है.
27 अप्रैल--ठंडी हवा बह रही है, आसमान पर बादल हैं, सुबह के नौ बज गए लेकिन पता नहीं चल रहा. वसंत आया है या मौसम ने अपने क़दम सर्दी की तरफ़ वापस खींच लिए हैं. झाड़ी में दुबकी गिलहरी भी शायद मेरी तरह सोच रही है जिसका सर्दियों में जमा किया रसद ख़त्म होने को होगा. गिलहरी ग्लोबल वार्मिंग के बारे में नहीं सोच सकती, हम सोच सकते हैं, न गिलहरी कुछ कुछ कर सकती है,न हम.
3 मई--पता नहीं सर्दियों में ये चिड़िया कहाँ छिप जाती है, या गूंगी हो जाती है...सुबह पानी पीने उठा, दो-एक घंटे और सोने का इरादा लेकर, ऐसा गाने लगी कि सोने का खयाल गुम हो गया. मगर मैं तो मैं हूं, कोई और होता तो घूमने निकल पड़ता, कलरव सुनने के बदले कीपैड की पिटपिट शुरु कर दी. पहली बार बालकनी का दरवाज़ा खोलकर बैठा हूँ, हीटिंग ऑफ़ है और गर्म कपड़ों की ज़रूरत नहीं. ऐसा लग रहा है जैसे भारी कर्ज़ उतर गया हो.
4 मई--शायद वसंत की अपनी ऊर्जा होती है जिससे फूल खिलते हैं, पेड़ हरियाते हैं, अंडों में से चूज़े निकलते हैं, एक अदभुत सृजनात्मक ऊर्जा. मन हो रहा है कि टहलता हूआ कहीं दूर तक निकल जाऊँ. अपने पोर खुलते हुए से लग रहे हैं, एक अजीब सा उत्साह है, भूरे मटमैले गंदले से माहौल से चटक हरे रंग की ओर जाने का हुलास.
10 मई--हर ओर फूल दिख रहे हैं, ऐसी वाहियात दिखने वाली डालों पर कैसे लहलहाकर फूल खिल सकते हैं, सोचना भी मुश्किल है. सफ़ेद,पीले ही नहीं,बैंगनी,नीले और हरे रंग के फूल भी दिख रहे हैं. कितना कुछ है इस हवा,पानी,मिट्टी और धूप में, मेरा कौतूहल कुछ बचकाना सा हो रहा है, छिपाना पड़ता है लोगों से, लोग कहते हैं कि इसमें ऐसी कौन सी बात है...क्या वे सही कहते हैं?
17 मई--शाम के आठ बजे हैं, रात के नहीं..उजाला अब भी है, रात कैसे कहें. पड़ोसियों ने बारबीक्यू के लिए चारकोल सुलगाई है, बियर खोली है और शायद मौसम पर बात नहीं कर रहे हैं, और अच्छी बातें हैं करने को जो इस मौसम की ही बदौलत है. पड़ोसी ने पिछले साल शादी की है, बरसों से खर-पतवार का मेहमान बने उसके लॉन में नए फूलों की क्यारियाँ दिख रही हैं. बच्चे गार्डन से वापस घर नहीं आना चाहते, बालकनी में खड़ी माँ ज़्यादा ज़ोर नहीं दे रही, कितना इंतज़ार था इन दिनों का...
वसंत बहुत सुंदर है, सप्ताह के सातों दिन लेकिन मेरे लिए सिर्फ़ वीकेंड पर.
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9 टिप्पणियां:
bahut khoobsoorat..
देर आए दुरुस्त आए। काफी दिनों बाद आपको पड़ना बहुत सुखद लगा। उतना ही जितना बेसब्री से आपको फिरंगी देश के बसंत का इंतज़ार था। आपकी क़लम के जरिए हमने भी वहां के बसंत का लुत्फ उठा लिया।
कितने वसन्त निकल गये, कोई ढ़ंग का वीकेण्ड नहीं मिला! कभी कभी तो वार भी पता नहीं चलता।
मोनोटोनी भी मोनोटोनस हो गयी है!
वसन्त की डायरी लिखने में ब्लॉग जगत से लापता रहे....!!
आखिर बसँत आया तो सही ..हम भी शामिल हो लिये अगुवानी मेँ..
सुँदर वृताँत !
- लावण्या
आपके तन-मन में ताउम्र वसंत का यही स्पंदन बना रहे।
आपके लिए इसके अलावा भी बहुत सी दुआएं निकलती रहती हैं।
अरे सर..बहुत दिनों के बाद दर्शन हुए...कहां चले गए थे...
बहुत देर से आँखें, दर पर लगी थी...हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी....रोज़ आता था...एक बार....देखने। हमारे अनामदास आए कि नहीं।
बेहतरीन शब्द चित्र खींचा आपने वसंत का..बहुत खूब
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