28 मई, 2007

मायावती का हाथी और डोमटोली के सूअर

मेरे ख़ानदानी घर के संडास का मुँह जहाँ खुलता था वहाँ से एक बस्ती शुरू होती थी-डोमटोली. नाम यही था लेकिन वह बैनरों और तख़्तियों पर शोभता नहीं था इसलिए उसे हरिजन कॉलोनी या वाल्मीकि नगर लिखा जाता था. यह वैसा ही नाम था जैसे आजकल यौनकर्मी, जो सिर्फ़ लिखे हुए शब्दों में होता है, बोले हुए शब्दों में नहीं.

उस बस्ती के बोले हुए शब्द ऐसे थे जो लिखे नहीं जा सकते, जो लिखे हुए शब्द होते हैं उन्हें बोलने के लिए स्कूल जाना होता है. उस बस्ती के सौ में से पाँच लड़के स्कूल जाते थे जिन्हें 'अ' से अनार पढ़ाया जाता था जो उन्होंने कभी नहीं खाया, उनके लिए 'स' से सूअर होता था, हमारे लिए सरौता.

कोस-कोस पर पानी और बानी बदलने का मुहावरा ग़लत लगता है क्योंकि गज़ भर में मैंने उसे पूरी तरह बदलते देखा था. उनकी भाषा उन्हीं की तरह नंगी थी. उनका एक एक-एक शब्द हमारे घर में अछूत था. आज़ादलोक उनकी लड़ाइयों पर कुर्बान क्योंकि लिखे हुए शब्दों का सबसे अश्लील साहित्य उसके पासंग में नहीं. लेकिन उनकी गालियाँ उनके जीवन के मुक़ाबले बहुत शालीन थीं.

उनकी औरतें सबकी आँखों के सामने रगड़-रगड़कर नहाती थीं फिर भी उनसे गंदा कोई न था. वे किसी से बात नहीं करते थे लेकिन सबसे बदतमीज़ वही थे.

चंपक-बालभारती-मधुमुस्कान की उम्र में उनकी संतति को संतानोत्पत्ति की बारीकियाँ मालूम थीं लेकिन उन्हें किसी ने समझदार नहीं माना.

एक हज़ार लोगों के लिए कोई स्कूल और दवाख़ाना नहीं था लेकिन सरकार के दुलारे वही थे. भगवान की उन पर असीम कृपा थी इसलिए उन्होंने अपना एक अलग मंदिर बनाया था, उनका भगवान से सीधा नाता था क्योंकि वहाँ कोई पुजारी नहीं था.

सारे शहर की चोरियाँ वही करते थे क्योंकि हर दूसरे दिन डोमटोली में हवलदार आता था लेकिन चोरी कभी इतनी बड़ी नहीं होती थी कि थानेदार साहब आएँ.

उनमें से इक्का-दुक्का लोग बाइज़्ज़त सरकारी नौकरी करते थे, मुनसिपालटी की. सारे शहर की गंदगी के लिए वही ज़िम्मेदार थे क्योंकि झाड़ू लगाने के लिए उन्हें रिश्वत कोई नहीं देता था.

उनका अपना एक वोट था और एक नेता भी, जो हर चुनाव में वह खड़ा होता, नारे लगते, उसके पोस्टर सिर्फ़ डोमटोली में चिपकते और नामांकन वापस लेने के अंतिम दिन वह बैठ जाता ऐसे व्यक्ति के समर्थन में जो उन्हें उनका हक़ दिला देता, भुना सूअर और टंच ठर्रा.

दादी ने हमेशा माना कि इनरा गान्ही ने शह दी है वर्ना वे इतने बुरे नहीं थे. दादी अब नहीं हैं, डोमटोली वहीं है और मायावती लखनऊ में हैं. ताज़ा हाल देखने के लिए वहाँ जाना होगा, पता नहीं मायावती ने उन्हें और कितना बिगाड़ दिया होगा.

8 टिप्‍पणियां:

azdak ने कहा…

लगता है टंच ठर्रा और भुने सूअर की तश्‍तरी सामने सजाकर बैठे हैं!.. बड़ा झमेला है इस देश में.. वाल्मिकी नगर ढेरों बने होंगे मगर डोमटोली है कि गायब नहीं होती!.. महक ताज़ा कर दी आपने.. हद है!

काकेश ने कहा…

दो टूक बात दो टूक शब्दों में....आपको जितना पढ़ता हूं उतना ही प्रभावित होता हूं..

SHASHI SINGH ने कहा…

क्या खुब कही।

Arun Arora ने कहा…

सच बहुत पास से देखा है आपने और शायद अब थॊडा बहुत बदल चुका हो,कोई क्यो बदलना चाहेगा,जब तक ये खुद नही उठ खडे होगे,मेरे साथ पाचंवी मे एक लडका पढता था वो मेरे घर मे आने वाली भंगन( यही कहते थे ना उसे अनाम जी)का बेटा था वोह ,मुझे तब पता चल जब वह मेरे उस कोट को पहन कर आया जो मेरी मा ने उस की मा को दिया था, जब घर पर पता चल तो बैन लग गया मेरे उपर,जब की उससे पहले वो मेरे घर भी आ चुका था और हम साथ खेलेते थे,कुछ दिन बाद हम फ़िर साथ हो गये उम्मीद करता हू कम से कम वह और उसका परिवार तो टोले से बाहर होगा

बेनामी ने कहा…

ये और बिगड़े, खूब बिगड़ें, इतना बिगड़े कि सारी दुनियां संभल जाय

azdak ने कहा…

काकेश की बात के समर्थन में हम फिर से 'सही' का साईन लगाने आ गए.. बार-बार आना मना तो नहीं है न?

विजेंद्र एस विज ने कहा…

कम शब्द वह भी एसे कि नगाडे बज उठेँ..यथार्थवादी चित्रण...
धन्यवाद.

बेनामी ने कहा…

तारीफ करने के मामले में गालिब हूँ ( प्रतिभा में नही )और प्रतिक्रिया लिखने के मामले में रैक्व मगर आपके लिखे ने बेबस कर दिया ।आपके लिखे को देखकर अपनी भाषा पर फिर फिर प्यार उमड़ आता है जैसे कोई माँ जवान बेटे को बचपन वाले वात्सल्य और जवानी वाले गौरव की आभा में एक साथ देखती है ।
वैसे एक बात याद आई उन भंगनों में हर छठवीं आठवीं गज़ब की खूबसूरत हुआ करती थीं अभंगियों के भंगी प्रेम की अभंग गाथा ।