30 अगस्त, 2007

मन रे तू काहे न धीर धरे

असमंजस, उधेड़बुन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, उलझन, सशोपंज, कश्मकश, अंतर्द्वंद्व, डाइलेमा....कितने सारे शब्द हैं एक मनोभाव को प्रकट करने के लिए. शायद इसीलिए कि हम सब अक्सर जीवन के दोराहे, तिराहे या चौराहे पर खड़े सोचते हैं किधर जाएँ.

ये दोराहा, तिराहा और चौराहा भविष्य और वर्तमान का हो सकता है, अतीत का भी. यूँ हो तो क्या हो, यूँ हो रहा है तो क्यों हो रहा है, यूँ हुआ होता क्या होता.

मन का द्वंद्व है जो इस संसार का सारा साहित्य रचता है, यही द्वंद्व है जो हमें पतन और उत्कर्ष के अंनत में जाने से रोकता है, इस संसार के संतुलन में बनाए रखता है. अगर अर्जुन के मन में कोई द्वंद्व नहीं होता तो गीता क्योंकर होती?

मन में सवाल उठते हैं तो द्वंद्व होता है, मन में संवेदना होती है तो द्वंद्व होता है, मन में भावनाएँ होती हैं तो द्वंद्व होता है, हमारी सीमाएँ हैं इसलिए द्वंद्व हैं, समाज-नियम, रीति-रिवाज़, आशा-अपेक्षा है इसलिए द्वंद्व हैं, ज़रूरत-फ़ितरत, अपने-सपने हैं इसलिए द्वंद्व हैं. एक होता है तो दूसरा नहीं हो सकता इसलिए द्वंद्व है, दोनों हो तों भी द्वंद्व है.

द्वंद्व एक अदभुत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो हमें पागल होने से बचा लेती है और बहुत बढ़ जाए तो पागल बना देती है. द्वंद्व एक अदभुत खगोलीय प्रक्रिया है जो अपने अपने-अपने दायरे घूमते लोगों की धुरी तय करती है, तरह-तरह के खिंचाव का काउंटर बैलेंस.

द्वंद्व अच्छी चीज़ है या बुरी इसको लेकर मेरे मन में कोई द्वंद्व नहीं है. द्वंद्व अच्छा-बुरा नहीं होता वह हमारे सॉफ़्टवेयर का हिस्सा है. वही हमें बनाता है जो हम होते हैं, कुछ लोग निर्द्वंद्व होते हैं. उन्हें पता होता है कि वो जो कर रहे हैं सब सही कर रहे हैं, जो वो नहीं कर रहे हैं सब ग़लत है. द्वंद्व दुख देता है, लेकिन क्या आपने कोई संवेदनशील व्यक्ति देखा है जो निर्द्वंद्व हो? अगर आप जानते हों तो ज़रूर बताइगा.

15 टिप्‍पणियां:

debashish ने कहा…

आपकी पोस्ट पढ़कर तो मैं ट्राईलेमा में फंस गया :)

अनूप शुक्ल ने कहा…

द्वद अच्छा है।

Udan Tashtari ने कहा…

क्या आपने कोई संवेदनशील व्यक्ति देखा है जो निर्द्वंद्व हो?

---आप तो हमें जानते हैं फिर भी ऐसी बात कर रहे हैं. नाराज हैं क्या?? :)

अनिल रघुराज ने कहा…

अनामदास जी, माफ कीजिएगा। आपका नाम तो बहुत देखा था, लेकिन आज आपको पहली बार पढ़ा। यकीन हो गया कि आपका इतना नाम क्यों है। बिलकुल सही कहा है - द्वंद्व अच्छा-बुरा नहीं होता, वह तो हमारे सॉफ्टवेयर का हिस्सा होता है।

ALOK PURANIK ने कहा…

असमंजस, उधेड़बुन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, उलझन, सशोपंज, कश्मकश, अंतर्द्वंद्व, डाइलेमा में हूं कि कमेंट करुं या ना करुं। इससे निपटकर फिर सोचता हूं।

अभय तिवारी ने कहा…

टिप्पणी करूँ कि ना करूँ?

PD ने कहा…

आपने जो द्वंद की परिभाषा दी है उसे मैं कभी खूबसूरत तो कभी मार्मिक पाता हूं, कभी सत्य के करीब तो कभी इस धरती से दूर पाता हूं। पर एक बात तो निश्चित है कि द्वंद हर किसी के मन में उठता है, चाहे वो उसका रूप कोई सा भी हो।
द्वंद ही मनुष्य को कुछ नया करने को प्रेरित करता है तो यही वो द्वंद है जो हमें कुछ बुरा करने से रोकता भी है।
द्वंद की इतनी अच्छी परिभाषा देने के लिये आपको बहुत-बहुत साधुवाद...

Unknown ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट। सभी बातों से सहमत हूँ।
सिवाय...
यही द्वंद्व है जो हमें पतन और उत्कर्ष के अंनत में जाने से रोकता है।

इस द्वन्द्व में विजयी होने पर उत्कर्ष और पराजित होने पर पतन। मन धैर्य नहीं रखता इसलिये अक्सर पराजित हो जाता है। मन परिभाषायें नहीं समझता इसलिये अक्सर सीमाओं की परिभाषा से मात खा जाता है। सही और गलत का दृष्टिकोण जो समाज से मिलता है मन उसको अक्सर चुनौती देता है।

धैर्य से इस द्वन्द्व में विजय पाई जा सकती है...तलाश ऐसे संवेदनशील व्यक्ति की मुझे भी है...मिले तो हमें भी मिलाइये।

ghughutibasuti ने कहा…

ये द्वंद ! बहुत कठिन है इसकी थाह पाना । बहुत कठिन है निरद्वंद होना । शायद यह द्वंद ही मनुष्य की परिणति है ।
घुघूती बासूती

इरफ़ान ने कहा…

एक बार रामसनेही ने रामपदारथ से पूछा "गुरू!सोचना एक विवशता है या आवश्यकता?"

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

जैसा शेक्सपियर के हीरो ने कहा था," टु बी ओर नोट टु बी ..थेट इस ध क़्वेस्चन ! "

बेनामी ने कहा…

लगता है अगर यही स्तर ब्लोग का रहा तो दुनिया मान लेगी कि हिन्दी ब्लोग बनारस और इलाहबाद के पण्डो के नाती पोते चला रहे है....अनामदास कही एक और बम्हन तो नही है? प्रिन्ट और ईलेक्त्रोनिक के बाद अब सालो नेट को भी कब्जे मे करोगे !!

बेनामी ने कहा…

दुविधा और उहापोह रह गये हैं, जोड़ लीजिए। वैसे लिखते आप लिखते बेहतरीन हैं।
समीर आचार्य

tanivi ने कहा…

गजब की रवानगी है आपकी भाषा में .अच्छा लिखा है आपने.सच बड़ा मुश्किल है
द्वंद के बिना रह पाना .हो तो क्या करें क्या न करें की उलझन .न हो तो स्थयी किस्म की उदासीनता जीवन में घर कर जाती है .द्वंद उसी के मन में होता है .जिसके पास बहुत सारे विकल्प हो चुनने को.एक छोटे सी बात है .मेरी बेटी रोज नहाने से पहले अपनी अलमारी के पास खडी हो कर खीजती रहती है कि समझ में नही आता कि क्या पहनू ? तो एक रोज मैने उससे कहा इतने सारे कपड़ों से अलमारी भरी है फिर भी इतनी परेशनी .हमारे पास सिर्फ दो जोडी कपडे हुआ करते थे .फिर भी हम कभी क्या पहनूं को रोना नही रोते थे .
तब मेरी बेटी ने हँसते हुए कहा ज्यादा हैं तभी तो इतनी दिक्कत होती है ।
यही है द्वंद मन में द्वंद न हो तो सभी साधू हो जायं .

अजित वडनेरकर ने कहा…

द्वन्द्व पर निर्द्वन्द्व चिन्तन बढ़िया रहा। बधाई......
द्वन्द्व जब होता है तो वह भी चिन्तन ही होता है। आपने ठीक कहा 'द्वंद्व अच्छा-बुरा नहीं होता वह हमारे सॉफ़्टवेयर का हिस्सा है'यानी द्वन्द्व चिरंतन है।