29 जनवरी, 2008

बिहार और बिहारी अच्छे लगने लगेंगे...

बिहारी सिर्फ़ वही हैं जो बिहार में रह गए हैं या बिहार से बाहर निकलकर भी ग़रीब हैं या फिर जिनकी बोली चुगली कर देती है, बाक़ी लोगों का बिहारी होना या न होना स्वैच्छिक है. जिन्होंने पद पा लिया है, पैसा कमा लिया है, अँगरेज़ी साध ली है... उन्हें बिहारी कौन बुलाता है? उनसे कहा जाता है, 'तो आप बिहार से हैं.'

बिहारी होना और बिहारी बुलाया जाना दो अलग-अलग बातें हैं. बिहारी कहा जाना भौगोलिक-सांस्कृतिक-भाषायी पहचान से बढ़कर एक सामाजिक-आर्थिक टिप्पणी है. दिल्ली में छत्तीसगढ़ का मज़दूर, बंगाल का कारीगर, उड़ीसा का मूंगफलीवाला, बंदायूँ का गुब्बारेवाला... सब बिहारी हैं. बिहारी होने का फ़ैसला अक्सर व्यक्ति के पहनावे, रोज़गार और हुलिए से होता है, पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती कि व्यक्ति कहाँ का रहने वाला है.

कुछ लोग अपना 'श' दुरुस्त करके, बस और रेल को 'चल रहा है' की जगह यत्नपूर्वक 'चल रही है' कहकर बिहारी बिरादरी से तुरत-फुरत नाम कटाना चाहते हैं (झारखंड बनने से ढेर सारे लोगों को स्वतः आंशिक मुक्ति मिल गई). दुसरी ओर लाखों-लाख लोग ऐसे हैं जो बिहारी न होकर भी बिहारी होने के 'आरोप' को ग़लत नहीं ठहरा सकते, उसके लिए उन्हें अपनी क़िस्मत बदलनी होगी.

बिहार में जन्मे-पले-बढ़े ज्यादातर लोगों पर उनका प्रांत किसी और राज्य के लोगों के मुक़ाबले कुछ ज्यादा ही सवार रहता है. वजह बहुत साफ़ है, बिहारी होने के साथ जिस सामाजिक-आर्थिक कलंक का भाव जुड़ा है उससे कौन पीछा नहीं छुड़ाना चाहेगा? जो किसी वजह से छुड़ा नहीं पाएगा वह ज़रूर झल्लाएगा और यह झल्लाहट कभी बिहारी होने के उदघोष में, कभी दूसरे राज्यों के लोगों की बुराई करने में और कभी बिहार को ही बढ़-चढ़कर कोसने में प्रकट होती है.

जैसे माँ-बाप की हैसियत से तय होता है कि रिश्तेदार उनके बच्चों से कैसा व्यवहार करेंगे उसी तरह राज्यों की आर्थिक हैसियत से तय होता है कि उसके बाशिंदों से दूसरे राज्य के लोग कैसा व्यवहार करेंगे. ग्लोबल स्तर पर यही सिद्धांत लागू होता है. ग़रीब का कुछ भी अनुकरणीय नहीं होता, न उसकी भाषा, न उसका खान-पान. आग में भुनी हुई नाइजीरियाई मछली को देखकर लोग मुँह बिचकाते हैं और जापान की कच्ची मछली वाली सुशी खाते ही लोगों को जापानी सिंपलिसिटी की ब्यूटी समझ में आ जाती है. लोग फ्रेंच सीखते हैं, स्वाहिली नहीं.

बिहार भारत के लिए वैसा ही है जैसा भारत बाक़ी दुनिया के लिए, बड़ी आबादी, पिछड़ापन, जात-पात, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार वगैरह. मैं जानता हूँ कि जिन्हें भारत पर गर्व है लेकिन बिहार को कलंक मानने का आसान रास्ता अपनाते हैं, उन्हें यह वाक्य पसंद नहीं आएगा. राष्ट्रवाद जैसी अमानवीय और सत्तापोषित अवधारणा का ही विकृत रूप है प्रांतवाद या क्षेत्रवाद, इसकी सबसे बड़ी बुराई यही है कि यह व्यक्ति के ऊपर प्रांत और राष्ट्र को जबरन लाद देती है, जन्म के आधार पर, ठीक जाति की तरह.

बिहारी होना एक लांछन है, यह हर बिहारी जानता है, अलग-अलग लोग इससे अपने-अपने तरीक़े से निबटते हैं. बिहारी होने की अपनी कुंठाएँ भी हैं, हीनभावना भी है. इसका ये मतलब नहीं है कि बिहार के लोग अपनी करनी के लिए जवाबदेह नहीं हैं, उन्हें बिहारी होने के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता लेकिन बिहार की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक अनीति-कुनीति का जवाब तो उन्हें नागरिक और मतदाता के रुप में देना ही होगा, उसे स्वीकार करना होगा, उसे ठीक करना होगा.

पंजाब की दरियादिली पाँच नदियों की देन और हरित क्रांति की उपज है तो बिहार का संयम और संघर्ष सूखे और सामंतवाद की पैदाइश. सबका अपना इतिहास, भूगोल, समाज, अर्थतंत्र और संस्कृति है और उसे पूर्णता में समझना चाहिए. बिहार की तरह सारे ऐब कमोबेश देश के सारे राज्यों में हैं लेकिन वे उनकी बेहतर आर्थिक स्थिति, कम आबादी वग़ैरह के कारण छिप जाते हैं.

बिहार का संकट सिर्फ़ छवि का नहीं बल्कि एक जटिल संकट है, क्या भारत का संकट पिछले दशक तक जटिल नहीं था. अब लोगों को लगने लगा है कि सारे संकट टल गए हैं और देश प्रगति के स्वर्णिम पथ पर अग्रसर है. इसकी वजह सिर्फ़ मध्यवर्ग का जीवनस्तर सुधरना है जिससे दुनिया में भारत की छवि पर लगा ग्रहण छँटता दिखने लगा है हालांकि वास्तविक समस्याएं अपनी जगह बनी हुई हैं.

बिहार की समस्या भी वैसे ही सुझलेगी और उतनी ही सुलझेगी जैसे भारत की सुलझ रही है. पूंजीनिवेश, उद्योग, बाज़ार और रोज़गार के अवसर उपलब्ध होंगे, मित्तल, जिंदल, अंबानियों को करोड़ों की ख़रीदार आबादी दिखेगी तो छोटे-मोटे सियासी लुच्चों की ज़मीन अपने-आप खिसक जाएगी. करोड़ो की पूंजी का खेल छवि की समस्याएँ दूर कर देगा.यह सब कब और कैसे होगा, देखना काफ़ी दिलचस्प होगा, लेकिन यह होगा ज़रूर.

यह निष्कर्ष भी उतना ही सिंपलिस्टिक है जितना भारत में विकास की अवधारणा. जहाँ से विकास का आइडिया आया है वहीं से एक मिसाल भी लीजिए. अठारहवीं सदी में किसने सोचा था कि अमरीका में मरुस्थल का मारा-हारा बेचारा 'नेवाडा वाला' होना शर्मनाक नहीं रह जाएगा, इज़्ज़त जुआ खिलवाने से भी मिल सकती है. बिहार के लिए विकल्पों की क्या कमी हो सकती है.

जब देश के दूसरे हिस्सों के लोग मोटी तनख्वाह पर कार्पोरेट नौकरी के लिए बिहार जाएँगे तो सच मानिए, बिहार और बिहारी उतने बुरे नहीं लगेंगे. ऐसा होने में जिन्हें शक है क्या उन्होंने सोचा था कि भारत में अंगरेज़ और अमरीकी वर्क परमिट लेकर नौकरी करने आएँगे, उनसे पूछिए भारत और भारतीय कितने अच्छे लग रहे हैं आजकल.

8 टिप्‍पणियां:

azdak ने कहा…

जिय बाबू.. केतना अच्‍छा सुर साधे हैं! कहंवा से टिरेनिंग पाये हैं? बीहार से?

अजित वडनेरकर ने कहा…

भावुकता का संतुलन से रिश्ता थोड़ा विरल होता है मगर आपने दोनों को साध लिया। मगर अभी इसकी पड़ताल होनी बाकी है कि मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा बिहारियों से चिढ़ की नौबत क्यों आई। मैं बार बार यही पूछ रहा हूं कि नौबत क्यों आई। श्रमिक पक्ष तो बीच में कहीं है ही नहीं। उससे बिरले ही किसी को चिढ़ हो। आपकी पोस्ट भी इसका जवाब नहीं देती अलबत्ता बहुत मधुर ,और भावुक अंदाज़ में स्थिति को संभाल लेती है।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

भारत बिहार के बावजूद भी नहीं; बिहार के साथ विकास करेगा।

बेनामी ने कहा…

बिहारियों को लेकर यदा-कदा छिड़ जाती ये बहस लगता है, सर्वदा चलती रहेगी। लेकिन क्या बिहारीपन के नाम पर छिड़ी इस श्रेष्ठ भावना और हीन भावना की इस बहस से कुछ निकलेगा भी कभी? गर्व से गर्दन अकड़ ही गई तो क्या और शर्म से झुक ही गई तो क्या? कौन संपन्न बिहारी किसी ग़रीब बिहारी को सीधे बिहार के नाम पर अपने घर में मेहमान बनाकर पुआ तो दूर, ठेकुआ तक खिलाता है? और मान लें खिला ही दे तो उससे क्या भला, या बुरा हो जाएगा? मामला दरअसल अर्थहीन अहं-युद्ध का है. पर ध्रुवसत्य तो यही है कि दर्प उसी का भारी पड़ता है जिसके पास बल हो ,जिसके पास ना हो वो तो खिसियाकर खंभा नोचेंगे ही, वो चाहें बिहारी हों या पंजाबी या मराठी या अमरीकन या फ़्रेंच या ब्रितानी. वैसे क्षेत्रवाद-भाषावाद-जातिवाद-संप्रदायवाद सब धरे रह जाते हैं अगर कोई ज़रूरत के समय काम ना आए तो.मानववाद के साथ चाहे बिहारी दिल्ली में रहे, या देल्हाइट बिहार में, दोनों का निभ जाएगा. प्रेम से निभ जाएगा.बंगाली टोला हर छोटे-बड़े शहर में होता है कि नहीं? बहस अंतहीन है, मगर मनोरंजन और बौद्धिक जुगाली के लिए बेबात बहसियाने में कोई हर्ज़ नहीं.अब मज़ा तो आया ही भज्जी कांड में, भूँजा में हरिहर मरचाई और निम्बू का रस के तरह:)

PD ने कहा…

आपसे पूर्णतया सहमत हूं.. अगर आप मेरा ही उदाहरण लें तो आज से कुछेक साल पहले लोग मुझे बिहारी बुलाते थे पर आज जब मैं सक्षम हूं और किसी को भी मुंह तोड़ जवाब दे सकता हूं तो "आप बिहार से हैं" कहा जाता है..

वैसे आप बहुत इंतजार कराते हैं..

अफ़लातून ने कहा…

वाह ! कॉर्पॉरेट नौकरियों के लिए बिहार नहीं जाना पड़ रहा है , इसलिए बिहार जिन्दा है - वहाँ नन्दीग्राम नहीं होगा ।

Unknown ने कहा…

आप शायद सही कह रहे है।

वैसे मुझे तो पहले से ही बिहारी पसंद है।
हिंदी में शायद कभी लिखती नहीं अगर मेरे दोस्तों में बिहारी नहीं होता।

मेरी एक राँची में जन्मी पढ़ी मलयाली दोस्त खुद को बिहारी कहलाना ज्यादा पसंद करती है।

सूरत में इन्टर्नशिप के दौरान सब भैया लोगों ने ही चिकित्सक होने का विश्वास दिलाया।

दीदी भाभी बुलाकर आम का अचार, अपनापन और बिल्कुल खालिस देसी अहसास का मजा भी इन्ही के साथ आया।
बाकी लोगों को भी देरसबेर पसंद आ ही जायेंगे।

बेनामी ने कहा…

"बिहार की समस्या भी वैसे ही सुझलेगी और उतनी ही सुलझेगी जैसे भारत की सुलझ रही है....देखना काफ़ी दिलचस्प होगा, लेकिन यह होगा ज़रूर."

अगले पाँच -दस साल और देखिये, काफी कुछ बदल जायेगा। आज की तारीख में बिहार और उत्तर प्रदेश बहुत बडे "मार्केट" बन कर उभर रहे हैं..जहाँ पर्याप्त पात्रा में संसाधन मौजूद हैं और काम करने के लिये लोग मौजूद हैं...कई कंपनियां अपने पायलट प्रोजेक्ट्स बिहार से शुरू कर रही हैं, बस थोडा सा इंतजार और....