समझदार होना सहज है और कठिन भी, जैसी फ़ितरत वैसी समझदारी. मैं समझता हूँ कि समझदार हूँ, आप भी होंगे, किसी से ज्यादा, किसी से कम. समझदारी इसी में है कि नासमझी को भी समझा जाए.
'समझ समझ के जो न समझे वही नासमझ है...' को फ़िल्मी मानकर मामूली न समझिए. अपनी नासमझी को भी समझिए, उसी प्यार से, जैसे समझदार अपनी समझदारी को सहलाते हैं.
समझ इत्ती सी क्यों होती है कि उसमें फ़ायदे के अलावा किसी चीज़ की जगह नहीं, यह भेद कोई समझदार क्यों नहीं समझा पाता, यह बात मुझ नासमझ की समझ से परे नहीं है.
दुनिया को समझने में नाकाम रहने पर ख़ुदकुशी कर लेने वाले गोरख पांडे जो समझा गए हैं वह चकित करता है कि इतना समझते थे तो फिर जान क्यों दी? शायद इसलिए कि समझ लेना और समझदारी पर अमल करना कई बार बिल्कुल विपरीतार्थक हो सकता है, नहीं समझे?
दो साल में पहला मौक़ा है जब मैं किसी और के लिखे शब्द अपने ब्लॉग पर छाप रहा हूँ, ब्लॉग शुरू ही किया था ख़ुद लिखने के लिए, ख़ुद को छापने के लिए मगर समझ, समझदारी, समझाने वाले, समझ का फेर, समझ के झगड़े, नासमझी... के बारे में बहुत सारी बातें लिखीं और मिटाईं, बहुत जूझने के बाद समझ में आया कि लिखने की ज़रूरत थी ही नहीं, यह काम बरसों पहले गोरख पांडे कर गए हैं.
समझदारों का गीत
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कविः गोरख पांडे
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं.
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं
बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं.
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं कि वह समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं क्योंकि वह भेड़ियाधसान होती है.
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं.
वैसे हम अपने को
किसी से कम नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद
और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते
यह भी हम समझते हैं.
पोस्ट का शीर्षक निदा फ़ाज़ली की अनुमति के बिना उधार लिया गया है, उनसे समझदारी की उम्मीद के साथ.
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12 टिप्पणियां:
यह "पब्लिश" बटन है ही खुराफाती। लिख दो और फिर सोचते रहो कि क्यों लिखा!
बहुत सही बात लिखी आपने।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
" great expressions, hum smejtyn hain fir bhee nahee smejhty.."
Regards
बहुत सुन्दर लिखा है।
सुन्दर! नादानी मौला के पास कहीं कम न पड़ जाये!
लिख कर मिटा कर बड़ी समझदारी से किसी और के शब्दों की बैसाखी से चलने की कोशिश की है...इतना समझ रही हूँ.....सोच भी रही हूँ कब होती है हमें कोट अनकोट की जरूरत...
बूझत बूझत रैन भई अनामदास जी...समझदार तो दिखा नहीं कोई...ज्यादातर नासमझ खुद को मूर्ख कहलाने से बचते हैं। हमे कुछ नासमझ नादान नजर आते हैं।
मौला ने सिर्फ मशीन को समझदार बनाया है। इन्सान का किरदार तो नादानी के लिए ही बना है।
अच्छी पोस्ट...
जब बड़े-बड़े नप गए तो हम नाम-अनाम क्या सुलझा पाएँगे समझ-असमझ को। आपने गोरख पांडेय को पढ़ाया, मैं भी सुकरात की एक उक्ति चेपता हूँ -"मैं केवल एक चीज़ समझता हूँ, कि मैं कुछ नहीं समझता"
जिसने भी कही क्या खुब कही !! वैसे ये लिखने वाले ने कैसे लिखा वो तो वही समझते है !!
Reading Gorakh is always an interesting as well as a disturbing affair. Amitabh Bachchan has put this poem on his blog and also translated it. I request you to put his translation also here on your blog.
I am sorry to write my comment in English since I donot know how to type in Hindi here. If possible You can put the Hindi version of my comment.
Thanks for your blogs.
Prakash Kumar Ray
JNU, new Delhi.
Amitabh bacchan ke blog mein aapke blog ka jikr dekhkar,maine aapke blog ki taraf rukh kiya aur bahut hi accha anubhav raha. Main aapki lekhan shaili se kaafi prabhavit hua hoon.
Gorakh pandey ki kavita ne is post mein char chand laga diye hain..
दो महिने होने को आ रहे हैं...
कोई तो नादानी इस बीत की होगी...या...कोई समझदारी...
उसी पर पोस्ट बना डालिये...
याद आ रही है....
नए साल की शुभकामनाएं...
thanks for sharing this poem ...
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