बॉलीवुड से सीख लेने की सलाह गुस्ताख़ी नहीं, इज़्ज़तअफ़ज़ाई है क्योंकि कथित समाचार चैनलों की होड़ मुक्ता आर्ट्स, नाडियाडवाला या अब्बास-मस्तान एंड कंपनी से नहीं बल्कि छोटे पर्दे पर चाँदी काटने वाली कंपनी बालाजी टेलीफ़िल्म्स से है.
कथित समाचार चैनलों के कर्ताधर्ता अनेक बार रिकॉर्ड पर कह चुके हैं कि "हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं." डेविड धवन और सुभाष घई इससे अलग क्या कहते हैं?
समाचार चैनलों के आला अफ़सर बार-बार 'कथित' के प्रयोग पर नाराज़ हो सकते हैं लेकिन वे तब तक कथित ही रहेंगे जब तक वे सचमुच समाचार नहीं दिखाते. समाचार-विचार दिखाने का काम फ़िलहाल दूरदर्शन के सिवा हिंदी में कहीं नहीं हो रहा है. मगर वहाँ समाचार और विचार दोनों सरकारी हैं क्योंकि उन्हें एकता कपूर की नहीं, प्रियरंजन दासमुंशी की चिंता है.
व्यावसायिक दबाव की बात तो जायज़ है, घर से पैसा लगाकर कौन समाचार दिखाएगा? पत्रकारों को तनख़्वाह देनी है, मालिक को फ़ायदा चाहिए, ओबी वैन, स्टूडियो और दिल्ली-नोएडा में अच्छी जगह पर दफ़्तर के अपने ख़र्चे हैं... लेकिन जीबी रोड-सोनागाछी-कमाटीपुरा की व्यावसायिकता और पत्रकारिता की व्यावसायिकता का कुछ तो अंतर हो? हिंदी में अभी ये अंतर नहीं दिख रहा है, अपवादों को छोड़कर.
बहरहाल, मुक़ाबला कथित समाचार चैनल के रिपोर्टरों और 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' वाले राम या तुलसी के बीच है. इस मुक़ाबले को जीतने के लिए ज़रूरी है कि याद्दाश्त खो जाए, पुनर्जन्म हो जाए और नागिन पिछले जन्म का बदला ले...कम से कम अपराध-साज़िश या रंजिश तो ज़रूर हो.
दरअसल, भारत का दुर्भाग्य है कि दो बहुत बड़ी घटनाएँ लगभग एकसाथ हुईं, भारत का बाज़ारीकरण और भारतीय टीवी चैनलों का बाज़ारूकरण. निजी समाचार टीवी चैनलों का दौर थोड़ा पहले या कुछ बाद शुरू होता तो स्थिति संभवतः अलग होती. जिस टीवी जैसे सशक्त माध्यम से बदलते समाज पर सार्थक टिप्पणी की अपेक्षा हो सकती थी वही बाज़ार के ताल पर सबसे ज़्यादा नाच रहा है. ख़ैर, रास्ता बाज़ार से बहुत दूर जाकर नहीं, उसी के बीच से निकलेगा.
टीवी टुडे और बालाजी फ़िल्म्स की कमाई के आँकड़ों का अंतर देख लीजिए तो आपको इस बेचैनी की वजह समझ में आ जाएगी. भारत में कथित समाचार चैनलों की सारी आपाधापी की वजह यही है कि वे अपने हर कार्यक्रम के प्रायोजकों की सूची में उतने ही नाम चाहते हैं जितने सास बहू वाले सीरियलों में होते हैं. देश में कुछ गिने-चुने कलाकर हैं जो कबड्डी-कबड्डी से चार गुना तेज़ गति से बोल सकते हैं इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं...
पैसे देने वाले हिंदुस्तान लीवर, कोलगेट-पामोलिव से लेकर बरनाला सरिया जैसे ये नाम यूँ ही नहीं आते, उन्हें इस बात का आश्वासन नहीं चाहिए कि कार्यक्रम अच्छा है, वे जानना चाहते हैं कि इस कार्यक्रम को कितने लोग देख रहे हैं यानी टीआरपी कितनी है. यहीं आकर टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार बॉलीवुड प्रोड्यूसर की भूमिका अख़्तियार कर लेते हैं.
इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें और अस्सी के दशक के बॉलीवुड को देखें तो माहौल वही था जो आज टीवी का है. तब जितेंद्र का हिम्मतवाला चल रहा था आज उनकी बेटी के 'क' वाले सड़ियल चल रहे हैं. सिनेमा के धंधे में बड़ा बदलाव जो आया है उसकी एक वजह मल्टीप्लेक्स थिएटर हैं जहाँ लोग अधिक पैसे देकर भी अपनी पसंद की 'मक़बूल', 'नीली छतरी वाली लड़की' और 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' जैसी छोटे बजट की कुछ समझदारी वाली फ़िल्में देखते हैं.
डेविड धवन, धर्मेश दर्शन, गुड्डू धनोआ, हैरी बावेजा टाइप लोगों के नेतृत्व में चलने वाले अक़ल से पूरी तरह पैदल बॉलीवुड के भीतर भी जगह बनी है 'डोर,' 'खोसला का घोंसला' और 'इक़बाल' जैसी ढेर सारी फ़िल्मों के लिए. बॉलीवुड ने जुडवाँ, प्लास्टिक सर्जरी, हमशक्ल, खोई याद्दाश्त वगैरह के जितने फार्मूलों को भरपूर इस्तेमाल के बाद फेंक दिया उन सबको शरण मिली टीवी सीरियलों और थोड़े अलग अंदाज़ में कथित न्यूज़ चैनलों पर. अक्लमंद लोगों के इस पेशे में सचमुच के समाचार के लिए जगह कैसे और कब निकलेगी यही लाख टके का सवाल है.
टीवी की दुनिया में एक बड़ा बदलाव आ रहा है, महानगरों के ज़्यादातर अपार्टमेंटों में टाटा-स्काई और डिशटीवी ने अपनी पैठ बना ली है. उनके सेट टॉप बॉक्स से मिलने वाले आँकड़े चंद शहरों के कुछ घरों में लगे टीआरपी रेटिंग के बक्सों से अधिक विश्वसनीय हैं. यही नहीं, जिस किसी ने पैसे ख़र्च करके अपने घर में डिजिटल क्वालिटी में टीवी देखने के लिए डिशटीवी या स्काई लगवाया है उसकी क्रयक्षमता भी अधिक है. वह दिन दूर नहीं है जब टीआरपी विज्ञापन देने वालों के लिए कोई भरोसेमंद पैमाना नहीं रह जाएगा क्योंकि उसका आधार तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा है.
मैं मानने को तैयार नहीं हूँ कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई और बंगलौर जैसे शहरों के पढ़े-लिखे और भारी जेब वाले लोग नाग-नागिन या किसी चमत्कार को देखकर रोज़-रोज़ चकित होना चाहते हैं, उनकी ज़्यादा दिलचस्पी मध्यवर्ग से उच्चवर्ग में दाख़िल होने में है. भूत-प्रेत या अंधविश्वास के दूसरे कार्यक्रमों से उनका स्टेटस नहीं सुधरेगा बल्कि उनकी रुचि उन चैनलों में ज़्यादा होगी जो बीबीसी, ब्लूमबर्ग और डिस्कवरी के टक्कर की सामग्री देकर समझदारी के मामले में उन्हें ग्लोबल स्तर पर ले जा सकें.
टीवी के कथित समाचार चैनलों का बाज़ार इतना सीधा-सपाट बहुत दिन तक नहीं रहने वाला है जैसा अभी है. जल्दी ही समाचार चैनलों को संपन्न उपभोक्ता यानी शहरी मध्यवर्ग की असली रुचि का अंदाज़ा टीआरपी से परे जाकर होगा, उसी दिन यह सूरत बदलने लगेगी. शायद लाइफ़स्टाइल, लेटनाइट पार्टी, फ़ैशन और बुटिक की कवरेज़ अब से कई गुना ज़्यादा बढ़ जाएगी लेकिन भूत-प्रेत बेरोज़गार हो जाएँगे.
असली समस्या लेकिन तब भी बनी रहेगी. भारत के 10 करोड़ महानगरीय, शिक्षित, अपव्ययी और उच्चाभिलाषी लोगों की ज़रूरत शायद जल्दी परिभाषित हो जाए लेकिन बाक़ी के 90 करोड़ देहाती-क़स्बाई लोगों की समस्याओं को ख़बरों में लाने के बदले उन्हें तरह-तरह के टोटकों से बहलाने की ठगविद्या चलती रहेगी. इससे बड़ी मिथ्या कोई नहीं हो सकती कि क़स्बों-गाँवों में रहने वाले लोग जड़बुद्धि हैं जो समाचार में सिर्फ़ सस्ती सनसनी खोजते हैं. भूलिए मत कि नीमच, दमोह, खुर्जा से लेकर गुमला-दुमका तक में लोग ख़रीदकर अख़बार और पत्रिकाएँ पढ़ते हैं.
"कान, लोकार्नो और वेनिस जैसे फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में कोई नहीं पूछता, ऑस्कर नहीं मिलता तो क्या हुआ, हम अपने बाज़ार में मस्त हैं, हम वही दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं."... ऐसा मेनस्ट्रीम बॉलीवुडीय रवैया जिन टीवी न्यूज़ चैनलों का रहेगा उनको लेकर यही बहस जारी रहेगी. मगर कई और लोग प्रणय रॉय-राजदीप सरदेसाई की भी तरह होंगे जो समाचारों-विचारों और मुद्दों की बात करेंगे जैसा कि किसी भी सभ्य-सुसंस्कृत देश में होता है.
शायद बहस का अगला दौर इस पर केंद्रित होगा कि क्या सिर्फ़ शहर के पढ़े-लिखे समृद्ध लोगों के बाज़ार को मुख्यधारा माना जाए या फिर अधिसंख्य देहाती, हिंदीभाषी और निर्धन लोगों को. दोनों की अपनी जगह रहेगी, अपनी ताक़त और समस्याएँ भी बनी रहेंगी. ऐसा मानना मेरे लिए असंभव है कि देश के सारे लोग वाक़ई वही देखकर ख़ुश हैं जो उन्हें परोसा जा रहा है. भारत में टीवी समाचारों के बाज़ार में अभी बहुत बदलाव बाक़ी है.
26 जुलाई, 2007
20 जुलाई, 2007
हिंदी सम्मेलन हुआ, अँगरेज़ी की बात करें?
मैं बुनियादी तौर पर एक क़स्बाई आदमी हूँ. देश के औपनिवेशिक अतीत ने सबकी तरह मेरे लिए भी अँगरेज़ी को ज़रूरी बना दिया और ज़रूरत की मार ने उसे माँजने पर मजबूर किया.
मैं अँगरेज़ी का भक्त नहीं हूँ, उसका विरोधी था एक ज़माने में, जब भावुक था. अब व्यावहारिक हूँ इसलिए समझता हूँ कि अँगरेज़ी के बिना हिंदी में भी काम नहीं किया जा सकता. मिसाल के तौर पर महाविनाशकारी राजभाषा अधिकारी बनने की योग्यता पर ग़ौर कीजिए-- 'स्नातक स्तर तक हिंदी और
अँगरेज़ी दोनों तथा हिंदी या अँगरेज़ी अथवा दोनों में स्नातकोत्तर...'
मेरी पक्की राय थी कि आदमी अँगरेज़ी जाने बिना भी जानकार और समझदार हो सकता है लेकिन मेरी इस राय से शायद सिर्फ़ फ्रांसीसी या कुछ हद तक रूसी और स्पेनी सहमत हो सकते हैं.
अगर आपको फ्रांसीसी-रूसी या स्पेनिश आती है तो अँगरेज़ी के बिना भी इस हरी-भरी वसुंधरा के बारे में कुछ ज्ञान पा सकते हैं. अगर आप इस ख़ामख्याली में हैं कि साम्राज्यवादी अँगरेज़ी का विरोध करके और हिंदी-हिंदुस्तान गाकर आप अपने हिस्से का ज्ञानार्जन कर लेंगे तो आप अँगरेज़ी में स्टूपिड हैं. हिंदी में अपनी पसंद का कोई नाम च वर्ग से चुन लीजिए...
इस संसार के कटु सत्यों के अनंत कोश में से एक प्रमुख सत्य ये भी है कि पिछले चार सौ वर्षों में दुनिया में सिर्फ़ पाँच-सात भाषाओं का प्रसार हुआ है और सारा प्रसार साम्राज्यवादी ताक़त की बदौलत हुआ है. संस्था, नियम और व्यापार-व्यवस्था बनाने-चलाने की ताक़त और इस ताक़त से उपजा रौब हमारे-आपके ऊपर हावी है. बोलिविया में स्पेनिश, ब्राज़ील में पुर्तगाली, अल्जीरिया में फ्रांसीसी या सूडान में अरबी...आदमी पाँचों महाद्वीपों में ताक़त की भाषा सीखना चाहता है, दासता की नहीं. क्यूबा में क्रांति के नारे स्पैनिश में ही लगते हैं जो स्पेन से कई हज़ार किलोमीटर दूर है.
गाँव-देहात वाले हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं, हिंदी वाले अँगरेज़ी, अँगरेज़ी वाले ऑक्सब्रिज...यह प्रवाह निजी फितूर में उल्टा हो सकता लेकिन सामाजिक स्तर पर ऐसा कोई उदाहरण आज तक देखने को नहीं मिला कि किसी देश के लोगों ने साम्राज्यवादी ताक़त की भाषा को दरकिनार करके अपनी ज़बान को दोबारा वही जगह दी हो जो विदेशी आक़ाओं के काबिज़ होने से पहले थी.
वक़्त गवाह है कि पिछली कई सदियों में इक्का-दुक्का मौक़ों को छोड़कर इस दुनिया में व्यवस्थापक बदले गए हैं, व्यवस्थाएँ नहीं. भारत में व्यवस्था और सत्ता तंत्र की भाषा अँगरेज़ी थी और अब भी वही है. हिंदी हमारी अपनी भाषा है, प्यारी भाषा है, मन-आत्मा की भाषा है लेकिन सत्ता-सम्मान और समृद्धि की भाषा नहीं है.
अँगरेज़ी बोलकर पृष्ठभूमि की खाई को पाटा जा सकता है, अँगरेज़ी न बोलने पर आज के बाज़ार में पैसे देकर भी इज़्ज़त से सामान ख़रीदना मुहाल है. रौब से अँगरेज़ी बोलने पर ही बड़े लोग फ़ोन पर आते हैं. दुनिया का सारा ज्ञान अँगरेज़ी की किताबों में है जिनका जूठन घटिया हिंदी अनुवाद के ज़रिए उन लोगों तक पहुँचता है जिन्हें परिस्थिति की मार की वजह से अँगरेज़ी नहीं आती या जिन्होंने अँगरेज़ी की ताक़त से ऊपर न सीखने की इच्छाशक्ति को रखा है.
भारत में कोई भी ऐसा पेशेवर क्षेत्र नहीं है जहाँ आप अँगरेज़ी जाने बिना ठीक तरीक़े से काम कर सकें, राजनीति पेशा तो है लेकिन वहाँ व्यवस्था के अनुरूप ठीक तरीक़े से काम करना ज़रूरी नहीं है इसलिए उनके उदाहरण यहाँ रहने दीजिए. छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी पत्रकारिता में डेस्क पर काम करने वाले अनेक लोग 'स्टेट ऑफ़ द आर्ट' जैसे जुमले का अनुवाद 'कला की अवस्था' करके पर्याप्त शर्मिंदगी झेलते रहते हैं.
मैंने अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई हिंदी माध्यम से की है, अँगरेज़ी से आतंकित भी रहा हूँ. अँगरेज़ी भारत में निश्चित रूप से आतंक और अलगाव की भाषा है लेकिन वह भारत की अपनी भाषा हो चली है, बहुत हद तक वैसे ही जैसे लातीनी अमरीका में स्पैनिश या उत्तरी अफ्रीका में अरबी.
अँगरेज़ी को रौब की भाषा की तरह इस्तेमाल करने पर मेरे गंभीर एतराज़ हैं, वैसे भारत में हिंदी का ठीक अँगरेज़ी जैसा इस्तेमाल बस्तर-विदर्भ से लेकर उत्कल-कोल्हान तक होता है. यहाँ सवाल भाषा की राजनीति का नहीं बल्कि शोषण की राजनीति का है, उसका तो हर हाल में विरोध होना चाहिए लेकिन अँगरेज़ी का निर्रथक विरोध करके कोई सार्थक काम करने की कोशिश करना समंदर में साइकिल चलाने की कल्पना करने जैसा है.
इस तेज़ी से ग्लोबलाइज़ हो रही दुनिया में अगर कोई भाषा है जो आपको बाक़ी संसार से जोड़ सकती है और जिसके सीखने के लिए आपको अपेक्षाकृत बहुत कम प्रयास करना होगा तो वह अँगरेज़ी ही है. यक़ीन मानिए कि आप अँगरेज़ी बोलकर शोषण-दमन का विरोध कर सकते हैं जो हिंदीवालों से नहीं हो रहा, कम से कम ब्रितानी-अमरीका अख़बार अरुंधति रॉय की तरह उनके लेख तो नहीं छाप रहे.
हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ हिंदी संसार ज्ञान के लिए लगभग पूरी तरह अँगरेज़ी पर निर्भर है, ऐसे में अच्छा यही होगा कि अपनी अँगरेज़ी ठीक करें, भले ही काम हिंदी में करते हों लेकिन अँगरेज़ी न सीखने का हठ क़दम-क़दम पर भारी पड़ेगा, अगर करियर बनाने की आकांक्षा न हो, तब भी.
हिंदी में लिखने-पढ़ने का आग्रह बहुत अच्छा-आवश्यक और अर्थपूर्ण है लेकिन अँगरेज़ी को त्याज्य बनाकर जो भी लिखा-पढ़ा जाएगा वह बच्चन, अज्ञेय, फिराक़, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी... जैसा नहीं हो सकेगा. अँगरेज़ी से डरकर, अँगरेज़ी वालों को देखकर हीनता की ग्रंथि सहलाने से बेहतर बेहतर विकल्प है एक सरल-सरस भाषा सीखना.
बाक़ी आपकी मरज़ी, पढ़तन सो भी मरतन, ना पढतन सो भी मरतन...
मैं अँगरेज़ी का भक्त नहीं हूँ, उसका विरोधी था एक ज़माने में, जब भावुक था. अब व्यावहारिक हूँ इसलिए समझता हूँ कि अँगरेज़ी के बिना हिंदी में भी काम नहीं किया जा सकता. मिसाल के तौर पर महाविनाशकारी राजभाषा अधिकारी बनने की योग्यता पर ग़ौर कीजिए-- 'स्नातक स्तर तक हिंदी और
अँगरेज़ी दोनों तथा हिंदी या अँगरेज़ी अथवा दोनों में स्नातकोत्तर...'
मेरी पक्की राय थी कि आदमी अँगरेज़ी जाने बिना भी जानकार और समझदार हो सकता है लेकिन मेरी इस राय से शायद सिर्फ़ फ्रांसीसी या कुछ हद तक रूसी और स्पेनी सहमत हो सकते हैं.
अगर आपको फ्रांसीसी-रूसी या स्पेनिश आती है तो अँगरेज़ी के बिना भी इस हरी-भरी वसुंधरा के बारे में कुछ ज्ञान पा सकते हैं. अगर आप इस ख़ामख्याली में हैं कि साम्राज्यवादी अँगरेज़ी का विरोध करके और हिंदी-हिंदुस्तान गाकर आप अपने हिस्से का ज्ञानार्जन कर लेंगे तो आप अँगरेज़ी में स्टूपिड हैं. हिंदी में अपनी पसंद का कोई नाम च वर्ग से चुन लीजिए...
इस संसार के कटु सत्यों के अनंत कोश में से एक प्रमुख सत्य ये भी है कि पिछले चार सौ वर्षों में दुनिया में सिर्फ़ पाँच-सात भाषाओं का प्रसार हुआ है और सारा प्रसार साम्राज्यवादी ताक़त की बदौलत हुआ है. संस्था, नियम और व्यापार-व्यवस्था बनाने-चलाने की ताक़त और इस ताक़त से उपजा रौब हमारे-आपके ऊपर हावी है. बोलिविया में स्पेनिश, ब्राज़ील में पुर्तगाली, अल्जीरिया में फ्रांसीसी या सूडान में अरबी...आदमी पाँचों महाद्वीपों में ताक़त की भाषा सीखना चाहता है, दासता की नहीं. क्यूबा में क्रांति के नारे स्पैनिश में ही लगते हैं जो स्पेन से कई हज़ार किलोमीटर दूर है.
गाँव-देहात वाले हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं, हिंदी वाले अँगरेज़ी, अँगरेज़ी वाले ऑक्सब्रिज...यह प्रवाह निजी फितूर में उल्टा हो सकता लेकिन सामाजिक स्तर पर ऐसा कोई उदाहरण आज तक देखने को नहीं मिला कि किसी देश के लोगों ने साम्राज्यवादी ताक़त की भाषा को दरकिनार करके अपनी ज़बान को दोबारा वही जगह दी हो जो विदेशी आक़ाओं के काबिज़ होने से पहले थी.
वक़्त गवाह है कि पिछली कई सदियों में इक्का-दुक्का मौक़ों को छोड़कर इस दुनिया में व्यवस्थापक बदले गए हैं, व्यवस्थाएँ नहीं. भारत में व्यवस्था और सत्ता तंत्र की भाषा अँगरेज़ी थी और अब भी वही है. हिंदी हमारी अपनी भाषा है, प्यारी भाषा है, मन-आत्मा की भाषा है लेकिन सत्ता-सम्मान और समृद्धि की भाषा नहीं है.
अँगरेज़ी बोलकर पृष्ठभूमि की खाई को पाटा जा सकता है, अँगरेज़ी न बोलने पर आज के बाज़ार में पैसे देकर भी इज़्ज़त से सामान ख़रीदना मुहाल है. रौब से अँगरेज़ी बोलने पर ही बड़े लोग फ़ोन पर आते हैं. दुनिया का सारा ज्ञान अँगरेज़ी की किताबों में है जिनका जूठन घटिया हिंदी अनुवाद के ज़रिए उन लोगों तक पहुँचता है जिन्हें परिस्थिति की मार की वजह से अँगरेज़ी नहीं आती या जिन्होंने अँगरेज़ी की ताक़त से ऊपर न सीखने की इच्छाशक्ति को रखा है.
भारत में कोई भी ऐसा पेशेवर क्षेत्र नहीं है जहाँ आप अँगरेज़ी जाने बिना ठीक तरीक़े से काम कर सकें, राजनीति पेशा तो है लेकिन वहाँ व्यवस्था के अनुरूप ठीक तरीक़े से काम करना ज़रूरी नहीं है इसलिए उनके उदाहरण यहाँ रहने दीजिए. छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी पत्रकारिता में डेस्क पर काम करने वाले अनेक लोग 'स्टेट ऑफ़ द आर्ट' जैसे जुमले का अनुवाद 'कला की अवस्था' करके पर्याप्त शर्मिंदगी झेलते रहते हैं.
मैंने अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई हिंदी माध्यम से की है, अँगरेज़ी से आतंकित भी रहा हूँ. अँगरेज़ी भारत में निश्चित रूप से आतंक और अलगाव की भाषा है लेकिन वह भारत की अपनी भाषा हो चली है, बहुत हद तक वैसे ही जैसे लातीनी अमरीका में स्पैनिश या उत्तरी अफ्रीका में अरबी.
अँगरेज़ी को रौब की भाषा की तरह इस्तेमाल करने पर मेरे गंभीर एतराज़ हैं, वैसे भारत में हिंदी का ठीक अँगरेज़ी जैसा इस्तेमाल बस्तर-विदर्भ से लेकर उत्कल-कोल्हान तक होता है. यहाँ सवाल भाषा की राजनीति का नहीं बल्कि शोषण की राजनीति का है, उसका तो हर हाल में विरोध होना चाहिए लेकिन अँगरेज़ी का निर्रथक विरोध करके कोई सार्थक काम करने की कोशिश करना समंदर में साइकिल चलाने की कल्पना करने जैसा है.
इस तेज़ी से ग्लोबलाइज़ हो रही दुनिया में अगर कोई भाषा है जो आपको बाक़ी संसार से जोड़ सकती है और जिसके सीखने के लिए आपको अपेक्षाकृत बहुत कम प्रयास करना होगा तो वह अँगरेज़ी ही है. यक़ीन मानिए कि आप अँगरेज़ी बोलकर शोषण-दमन का विरोध कर सकते हैं जो हिंदीवालों से नहीं हो रहा, कम से कम ब्रितानी-अमरीका अख़बार अरुंधति रॉय की तरह उनके लेख तो नहीं छाप रहे.
हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ हिंदी संसार ज्ञान के लिए लगभग पूरी तरह अँगरेज़ी पर निर्भर है, ऐसे में अच्छा यही होगा कि अपनी अँगरेज़ी ठीक करें, भले ही काम हिंदी में करते हों लेकिन अँगरेज़ी न सीखने का हठ क़दम-क़दम पर भारी पड़ेगा, अगर करियर बनाने की आकांक्षा न हो, तब भी.
हिंदी में लिखने-पढ़ने का आग्रह बहुत अच्छा-आवश्यक और अर्थपूर्ण है लेकिन अँगरेज़ी को त्याज्य बनाकर जो भी लिखा-पढ़ा जाएगा वह बच्चन, अज्ञेय, फिराक़, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी... जैसा नहीं हो सकेगा. अँगरेज़ी से डरकर, अँगरेज़ी वालों को देखकर हीनता की ग्रंथि सहलाने से बेहतर बेहतर विकल्प है एक सरल-सरस भाषा सीखना.
बाक़ी आपकी मरज़ी, पढ़तन सो भी मरतन, ना पढतन सो भी मरतन...
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
blog,
blogger,
hindi
16 जुलाई, 2007
हिंदी की सेवा मत करिए, प्लीज़
दुनिया भर में हिंदी अकेली बड़ी भाषा है जिसकी सेवा अधिक हो रही है और प्रयोग कम. हिंदी न हुई, मरती हुई गाय है जिसकी सेवा करने के लिए लोग गौशाला में जुट गए हैं और गली-गली चंदा माँग रहे हैं.
जिसने भी हिंदी की सेवा की बात की वो मेरी नज़रों से गिर गया. मैं हिंदी में काम करता हूँ, अधिक से अधिक करना चाहता हूँ, मेरी रोज़ी-रोटी हिंदी से चलती है, मेरा मानना है कि बहुत सारे लोगों के मन की भाषा हिंदी है लेकिन उसके प्रयोग की ज़रूरत है, उसकी सेवा की नहीं. सेवा की बात वही कर रहे हैं जिनकी नज़र हिंदी पर नहीं, मेवा पर है.
न्यूयॉर्क कुछ गए, कुछ नहीं गए, ज़्यादातर बुलाए नहीं गए लेकिन सेवा सब एक-दूसरे से अधिक कर रहे हैं. आगे भी करेंगे जिसने भी कहा वह हिंदी की सेवा कर रहा है, साफ़ समझ लीजिए कि उसे हिंदी नहीं आती, अँगरेज़ी तो क़तई नहीं आती और उसका इरादा भी दोनों में से किसी भाषा को सीखने या तमीज़ से बरतने का नहीं है.
हिंदी की सेवा सत्यनारायण कथा की तरह है जिसमें सत्यनारायण की कथा के अलावा सब कुछ है, उसका महात्म्य है लेकिन कथा नहीं है. महात्म्य है तथाकथित पंडितों, आलोचकों, विद्वानों, साहित्यकारों का. जिसकी वजह से मैंने हिंदी में पहली बार ईमेल लिखा उसका क्या, जिसकी वजह से मैं हिंदी में ब्लॉग लिख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ उसका क्या...जिनकी वजह से हिंदी में टीवी के चैनल और वेबसाइटें चल रही हैं उनका क्या... उन्हें परवाह भी नहीं है. वे अपना काम कर रहे हैं, पैसे कमा रहे हैं, बाज़ार पर उनकी नज़र है, उन्हें सरकारी ख़र्चे पर न्यूयॉर्क जाने की नहीं पड़ी है.
मैं हिंदीवाला हूँ और उसे आसान बनाने वालों का आभारी. मैं हिंदी में काम करता हूँ क्योंकि वह मेरी अपनी भाषा है और मुझे खूब अच्छी तरह आती है, मुझे अँगरेज़ी भी ठीक-ठाक आती है लेकिन वह मेरे मन की भाषा नहीं है, वह ज़रूरत की भाषा है इसलिए पर्याप्त ज्ञान के बावजूद उसमें लय नहीं है, लचक नहीं है, धार नहीं है. अँगरेज़ी में अगर मैं वही असर पैदा कर सकता जो हिंदी में कर लेता हूँ तो मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ जो हिंदी में लिखता, मैं कोई हिंदी सेवक नहीं हूँ. हिंदी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है, मैं हिंदी में सोचता हूँ इसलिए हिंदी में ही अपने आपको बेहतर व्यक्त कर सकता हूँ, बाक़ी सब अनुवाद है.
जिस तरह मैं हिंदी की सेवा नहीं कर रहा हूँ, उसी तरह बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लाखों-लाख लोग नहीं कर रहे हैं, उन्हीं के दम से हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ छप और बिक रही हैं, राजभाषा विभाग या विदेश मंत्रालय की कृपा से वे परे हैं इसलिए जीवित और सार्थक हैं वरना उनका भी अहर्ता, उपरोक्त, कदाचित, कदापि, यथोचित, निर्दिष्ट, तथापि, अधोहस्ताक्षरी वाला हाल हो चुका होता.
हर सरकारी दफ़्तर में मौजूद राजभाषा अधिकारी का काम ही है हिंदी को ऐसा बना देना ताकि अँगरेज़ी में काम करते रहने को जायज़ ठहराया जा सके. आपने कभी सोचा है कि आपको ब्लॉग लिखने में, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने में कोई दिक्क़त नहीं होती तो सरकारी काम करने वालों को क्यों समस्या आती है. सिर्फ़ इसलिए कि हिंदी में काम नहीं हो रहा है, उसकी सेवा हो रही है.
हिंदी का भला किसी के किए हो सकता है इससे ज़्यादा दंभ और मूर्खता की बात कोई और नहीं हो सकती. हिंदी का भला भी उसी तरह होगा जिस तरह अँगरेज़ी, स्पैनिश या किसी और बड़ी भाषा का हुआ है. सेवा करके नहीं बल्कि उसे बोलने-लिखने-पढ़ने की वजहें पैदा करके. इतना बड़ा सम्मेलन हो रहा है, किसी महान हिंदी सेवी की समझ में मामूली बात नहीं अँट रही कि हिंदी के बिना भारत में हर कॉर्पोरेट हाउस का काम चल रहा है जो चीन में नहीं चलता. भारत में हिंदी के बिना शान से काम चलता है और हिंदी वाले शर्मसार हैं, कल्पना कीजिए कि भारत जैसे बड़े बाज़ार में पैठ बनाने के लिए हिंदी आवश्यक होती तो स्थिति क्या होती.
भारत में जितनी हिंदी बची है वही बचा हुआ भारत है, बाक़ी इंडिया है. इंडिया में हिंदी के बिना मज़े में काम चलता है बल्कि वहाँ हिंदी डाउनमार्केट है, सिर्फ़ ड्राइवर, चपरासी, सब्ज़ीवाले और नौकरों से बोली जाने वाली भाषा है जो भारत से आते हैं. महानगरों में वही लोग हिंदी वाले हैं जिनके संस्कार क़स्बाई हैं, जो पैदाइशी या दूसरी पीढ़ी के शहरी हैं उनके लिए हिंदी एक गंवारू, डिफ़िकल्ट या यूज़लेस भाषा है, कम से कम ऐसी भाषा तो नहीं है जिसमें लिखा जाए और पढ़ा जाए, ठीक है टीवी पर चल सकता है.
जो भाषा अपनी ज़मीन पर तिरस्कृत है उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का पोला अभियान चलाने वाले अगर यही कार्यक्रम कर्नाटक या असम कर लेते तो शायद ज़्यादा सार्थकता होती, लेकिन सेवा का मेवा कैसे मिलता, न्यूयॉर्क गए बिना?
हिंदी का जो भी प्रचार-प्रसार हुआ है वह किसी हिंदी सेवक की कृपा या साधना से नहीं हुआ है, वह हुआ है सिर्फ़ बाज़ार की ताक़त की वजह से. मुंबई का सिनेमा हो या देश का हिंदी टीवी उसने हिंदी का प्रसार किया. 14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध करने वालों या न्यूयॉर्क में हिंदी का जश्न मनाने वालों से न पहले कभी हुआ है, न आगे कभी होगा. हिंदी चैनलों की भाषा बहस का मुद्दा हो सकती है, हिंदी सेवकों की भूमिका पर वक़्त ज़ाया करने का कोई तुक नहीं है.
सीधी सी बात है जिसे मानने में लोग बहुत देर लगा रहे हैं, जब तक हिंदी जानने, बोलने और लिखने की वजह से लोगों का जीवन बेहतर नहीं होगा तब हिंदी का यही हाल रहेगा. हिंदीवाला समृद्ध होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित होगी वरना उसकी दरिद्रता की गुदड़ी पहने उसकी भाषा घूमती रहेगी. एक छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी के टीवी समाचार चैनल चले, पत्रकारों के लिए महीने के लाख रूपए की तनख्वाह आम हो गई, हिंदी का मीडिया मार्केट रातोरात अपमार्केट हो गया. अँगरेज़ी में सोचने वाले, आह-उह के बदले आउच करने वाले फटाफट सीखने लगे कि नो कॉन्फिडेंस मोशन को अविश्वास प्रस्ताव कहा जाता है....कू को तख़्तापलट कहते हैं और इमरजेंसी मतलब आपातकाल... वीर संघवी गुलाबी हिंदी बोलने लगे.
जब तक पैसे नहीं थे तब तक हिंदी वर्नाकुलर था, अब मेनस्ट्रीम है. लेकिन यह सिर्फ़ मीडिया में हुआ है, इसे और क्षेत्रों में जो कर दिखाएगा वही हिंदी की सेवा भी करेगा और मेवा भी खाएगा. बाक़ी सब बकबक है या कोरी लालच, ज़्यादा ध्यान मत दीजिए.
जिसने भी हिंदी की सेवा की बात की वो मेरी नज़रों से गिर गया. मैं हिंदी में काम करता हूँ, अधिक से अधिक करना चाहता हूँ, मेरी रोज़ी-रोटी हिंदी से चलती है, मेरा मानना है कि बहुत सारे लोगों के मन की भाषा हिंदी है लेकिन उसके प्रयोग की ज़रूरत है, उसकी सेवा की नहीं. सेवा की बात वही कर रहे हैं जिनकी नज़र हिंदी पर नहीं, मेवा पर है.
न्यूयॉर्क कुछ गए, कुछ नहीं गए, ज़्यादातर बुलाए नहीं गए लेकिन सेवा सब एक-दूसरे से अधिक कर रहे हैं. आगे भी करेंगे जिसने भी कहा वह हिंदी की सेवा कर रहा है, साफ़ समझ लीजिए कि उसे हिंदी नहीं आती, अँगरेज़ी तो क़तई नहीं आती और उसका इरादा भी दोनों में से किसी भाषा को सीखने या तमीज़ से बरतने का नहीं है.
हिंदी की सेवा सत्यनारायण कथा की तरह है जिसमें सत्यनारायण की कथा के अलावा सब कुछ है, उसका महात्म्य है लेकिन कथा नहीं है. महात्म्य है तथाकथित पंडितों, आलोचकों, विद्वानों, साहित्यकारों का. जिसकी वजह से मैंने हिंदी में पहली बार ईमेल लिखा उसका क्या, जिसकी वजह से मैं हिंदी में ब्लॉग लिख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ उसका क्या...जिनकी वजह से हिंदी में टीवी के चैनल और वेबसाइटें चल रही हैं उनका क्या... उन्हें परवाह भी नहीं है. वे अपना काम कर रहे हैं, पैसे कमा रहे हैं, बाज़ार पर उनकी नज़र है, उन्हें सरकारी ख़र्चे पर न्यूयॉर्क जाने की नहीं पड़ी है.
मैं हिंदीवाला हूँ और उसे आसान बनाने वालों का आभारी. मैं हिंदी में काम करता हूँ क्योंकि वह मेरी अपनी भाषा है और मुझे खूब अच्छी तरह आती है, मुझे अँगरेज़ी भी ठीक-ठाक आती है लेकिन वह मेरे मन की भाषा नहीं है, वह ज़रूरत की भाषा है इसलिए पर्याप्त ज्ञान के बावजूद उसमें लय नहीं है, लचक नहीं है, धार नहीं है. अँगरेज़ी में अगर मैं वही असर पैदा कर सकता जो हिंदी में कर लेता हूँ तो मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ जो हिंदी में लिखता, मैं कोई हिंदी सेवक नहीं हूँ. हिंदी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है, मैं हिंदी में सोचता हूँ इसलिए हिंदी में ही अपने आपको बेहतर व्यक्त कर सकता हूँ, बाक़ी सब अनुवाद है.
जिस तरह मैं हिंदी की सेवा नहीं कर रहा हूँ, उसी तरह बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लाखों-लाख लोग नहीं कर रहे हैं, उन्हीं के दम से हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ छप और बिक रही हैं, राजभाषा विभाग या विदेश मंत्रालय की कृपा से वे परे हैं इसलिए जीवित और सार्थक हैं वरना उनका भी अहर्ता, उपरोक्त, कदाचित, कदापि, यथोचित, निर्दिष्ट, तथापि, अधोहस्ताक्षरी वाला हाल हो चुका होता.
हर सरकारी दफ़्तर में मौजूद राजभाषा अधिकारी का काम ही है हिंदी को ऐसा बना देना ताकि अँगरेज़ी में काम करते रहने को जायज़ ठहराया जा सके. आपने कभी सोचा है कि आपको ब्लॉग लिखने में, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने में कोई दिक्क़त नहीं होती तो सरकारी काम करने वालों को क्यों समस्या आती है. सिर्फ़ इसलिए कि हिंदी में काम नहीं हो रहा है, उसकी सेवा हो रही है.
हिंदी का भला किसी के किए हो सकता है इससे ज़्यादा दंभ और मूर्खता की बात कोई और नहीं हो सकती. हिंदी का भला भी उसी तरह होगा जिस तरह अँगरेज़ी, स्पैनिश या किसी और बड़ी भाषा का हुआ है. सेवा करके नहीं बल्कि उसे बोलने-लिखने-पढ़ने की वजहें पैदा करके. इतना बड़ा सम्मेलन हो रहा है, किसी महान हिंदी सेवी की समझ में मामूली बात नहीं अँट रही कि हिंदी के बिना भारत में हर कॉर्पोरेट हाउस का काम चल रहा है जो चीन में नहीं चलता. भारत में हिंदी के बिना शान से काम चलता है और हिंदी वाले शर्मसार हैं, कल्पना कीजिए कि भारत जैसे बड़े बाज़ार में पैठ बनाने के लिए हिंदी आवश्यक होती तो स्थिति क्या होती.
भारत में जितनी हिंदी बची है वही बचा हुआ भारत है, बाक़ी इंडिया है. इंडिया में हिंदी के बिना मज़े में काम चलता है बल्कि वहाँ हिंदी डाउनमार्केट है, सिर्फ़ ड्राइवर, चपरासी, सब्ज़ीवाले और नौकरों से बोली जाने वाली भाषा है जो भारत से आते हैं. महानगरों में वही लोग हिंदी वाले हैं जिनके संस्कार क़स्बाई हैं, जो पैदाइशी या दूसरी पीढ़ी के शहरी हैं उनके लिए हिंदी एक गंवारू, डिफ़िकल्ट या यूज़लेस भाषा है, कम से कम ऐसी भाषा तो नहीं है जिसमें लिखा जाए और पढ़ा जाए, ठीक है टीवी पर चल सकता है.
जो भाषा अपनी ज़मीन पर तिरस्कृत है उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का पोला अभियान चलाने वाले अगर यही कार्यक्रम कर्नाटक या असम कर लेते तो शायद ज़्यादा सार्थकता होती, लेकिन सेवा का मेवा कैसे मिलता, न्यूयॉर्क गए बिना?
हिंदी का जो भी प्रचार-प्रसार हुआ है वह किसी हिंदी सेवक की कृपा या साधना से नहीं हुआ है, वह हुआ है सिर्फ़ बाज़ार की ताक़त की वजह से. मुंबई का सिनेमा हो या देश का हिंदी टीवी उसने हिंदी का प्रसार किया. 14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध करने वालों या न्यूयॉर्क में हिंदी का जश्न मनाने वालों से न पहले कभी हुआ है, न आगे कभी होगा. हिंदी चैनलों की भाषा बहस का मुद्दा हो सकती है, हिंदी सेवकों की भूमिका पर वक़्त ज़ाया करने का कोई तुक नहीं है.
सीधी सी बात है जिसे मानने में लोग बहुत देर लगा रहे हैं, जब तक हिंदी जानने, बोलने और लिखने की वजह से लोगों का जीवन बेहतर नहीं होगा तब हिंदी का यही हाल रहेगा. हिंदीवाला समृद्ध होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित होगी वरना उसकी दरिद्रता की गुदड़ी पहने उसकी भाषा घूमती रहेगी. एक छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी के टीवी समाचार चैनल चले, पत्रकारों के लिए महीने के लाख रूपए की तनख्वाह आम हो गई, हिंदी का मीडिया मार्केट रातोरात अपमार्केट हो गया. अँगरेज़ी में सोचने वाले, आह-उह के बदले आउच करने वाले फटाफट सीखने लगे कि नो कॉन्फिडेंस मोशन को अविश्वास प्रस्ताव कहा जाता है....कू को तख़्तापलट कहते हैं और इमरजेंसी मतलब आपातकाल... वीर संघवी गुलाबी हिंदी बोलने लगे.
जब तक पैसे नहीं थे तब तक हिंदी वर्नाकुलर था, अब मेनस्ट्रीम है. लेकिन यह सिर्फ़ मीडिया में हुआ है, इसे और क्षेत्रों में जो कर दिखाएगा वही हिंदी की सेवा भी करेगा और मेवा भी खाएगा. बाक़ी सब बकबक है या कोरी लालच, ज़्यादा ध्यान मत दीजिए.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
blog,
hindi
12 जुलाई, 2007
सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले संत नहीं होते
इतिहास में किसी आदमी की सही जगह आँकना बहुत कठिन काम होता है, ख़ास तौर पर अगर व्यक्ति अभी-अभी इस संसार से विदा हुआ हो.
आम तौर पर उसे नापसंद करने वाले कम बोलते हैं और पसंद करने वाले भाव-विभोर होकर नए-नए गुण ढूँढ लेते हैं जिनका खंडन करने वाला व्यक्ति (अगर संयोगवश ईमानदार हुआ तो) जा चुका होता है और ज्यादातर सज्जन पुरुष तेरहवीं से पहले मुँह नहीं खोलना चाहते.
जो लोग सत्ता के शीर्ष पर पहुँच चुके होते हैं उन्हें कड़ी परीक्षा से गुज़रना होता है. गांधी या लोहिया को कभी उस परीक्षा से नहीं गुज़रना होगा जिससे नेहरू, इंदिरा जैसे दूसरे नेता गुज़रे. चंद्रशेखर बहुत कोशिश करके अल्पकाल के लिए सत्ता सुख भोगने वालों की श्रेणी में पहुँचे थे, वरना उनके मूल्यांकन में भी बिनोबा-जेपी वाली रहमदिली बरती जाती. उन्हें जॉर्ज फर्नांडिस से बहुत बेहतर साबित करने के लिए राजनीतिक शोध के धरातल पर जाने की ज़रूरत पड़ेगी. बिना पड़ताल के महान की श्रेणी में आने के दावेदार वे नहीं हो सकते.
जैसा कि अक्सर होता है, सत्ता में उनके कुछ महीने उनकी विपक्ष की शानदार पारी पर भारी पड़े. उन्होंने बहुत संघर्ष किया, युवा तुर्क कहलाए, विपक्ष और सत्ता की राजनीति दोनों की. उन्होंने हमेशा दिखाया कि वे भारत की रग-रग से वाकिफ़ हैं, सियासत और समाज की नब्ज़ पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है. वे ज़मीन से जुड़े नेता थे, जनता की भाषा बोलते थे और साथ ही बड़े आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर उनकी समझ काफ़ी साफ़ थी. मगर...
भूलना नहीं चाहिए कि वे चंद्रास्वामी जैसे पापी और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कपटी के निकटतम थे, भूलना नहीं चाहिए कि वे सूरजदेव सिंह जैसे जालिम कोयला माफ़िया के सरपरस्त थे...भूलना नहीं चाहिए कि उन्होंने अपने ख़ासम-ख़ास लोगों के लिए पर्याप्त निर्लज्जता से (जिसे उनके चाहने वाले निर्भीकता कहेंगे) सभी नियमों-मर्यादाओं-परंपराओं की हेठी की जिनकी बात वे गरज-गरजकर करते थे.
मेरा इरादा चंद्रशेखर के बहाने एक दूसरी बात कहने का है, उनका दिन-तारीख़-घटना के हिसाब से मूल्यांकन करने का नहीं है. मेरा अनुरोध सिर्फ़ इतना है कि अगर किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु से दुख पहुँचा हो तो अपने दर्द को झेलें-बाँटें, लेकिन जब सार्वजनिक स्तर पर किसी के राजनीतिक-सामाजिक मूल्यांकन की बात आए तो ध्रुवों पर जाने से बचें. यह चंद्रशेखर के साथ भी अन्याय है.
तमाम तरह की जोड़-तोड़ की राजनीति करके सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले व्यक्ति को संत महात्मा आदि कहना भावातिरेक की अतिशयोक्ति है. सत्ता की संरचना को समझने वाला कोई भी आदमी जानता है कि वहाँ ऊपर चढ़ने के लिए क्या-क्या करतब करने पड़ते हैं. संत-महात्मा ऐसे करतब नहीं करते और जो करते हैं वे संत-महात्मा नहीं होते.
लालू के गाय दुहने और कर्पूरी बाबू के हजामत बनाने की तस्वीरें जो मीडिया में दिखीं थीं वो अनायास नहीं थीं. वाजपेयी का कवि एक योजना के तहत झाड़-पोंछकर ज़िंदा किया गया और राजा वीपी सिंह की चित्रकारी में नए रंग भरे गए. वाजपेयी और राजा दोनों ऐसी अदा दिखाते हैं कि हम तो कवि और चित्रकार थे, ग़लती से राजनीति में आ गए.
सबकी अपनी-अपनी छवि होती है, चंद्रशेखर की छवि जो विपक्ष के विद्रोही नेता की थी उसी के तौर पर उनका सम्मान था, और रहेगा. राजनीति के बाज़ार में इमेज का सबसे ज्यादा मोल होता है. चंद्रशेखर बागी, विद्रोही, बेलाग होने की छवि को खाद-पानी देते रहे लेकिन उन्होंने सत्ता में आने के लिए हर वो काम किया जो कोई दूसरे घाघ नेता करते हैं.
चंद्रशेखर बड़े नेता थे, खाँटी थे, ऑरिजनल थे, जुझारू थे, अपना अलग तेवर था, बाद के दौर में जब अकेले रह गए थे तो काफ़ी स्टेट्समैन की तरह हो गए थे. वे निश्चित तौर पर असाधारण नेता थे क्योंकि वे कोई ख़ानदानी नेता नहीं थे, न ही देवेगौड़ा की तरह भाग्यवान. उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि मगर...
इस असहमति के साथ कि वे कोई संत नहीं थे, समझदार सियासतदाँ ज़रूर थे. अंतिम बड़े नेता थे समाजवादी धारा के शायद इसलिए कुछ लोग अधिक भावुक हो रहे हैं. दुखी तो मैं भी हूँ.
आम तौर पर उसे नापसंद करने वाले कम बोलते हैं और पसंद करने वाले भाव-विभोर होकर नए-नए गुण ढूँढ लेते हैं जिनका खंडन करने वाला व्यक्ति (अगर संयोगवश ईमानदार हुआ तो) जा चुका होता है और ज्यादातर सज्जन पुरुष तेरहवीं से पहले मुँह नहीं खोलना चाहते.
जो लोग सत्ता के शीर्ष पर पहुँच चुके होते हैं उन्हें कड़ी परीक्षा से गुज़रना होता है. गांधी या लोहिया को कभी उस परीक्षा से नहीं गुज़रना होगा जिससे नेहरू, इंदिरा जैसे दूसरे नेता गुज़रे. चंद्रशेखर बहुत कोशिश करके अल्पकाल के लिए सत्ता सुख भोगने वालों की श्रेणी में पहुँचे थे, वरना उनके मूल्यांकन में भी बिनोबा-जेपी वाली रहमदिली बरती जाती. उन्हें जॉर्ज फर्नांडिस से बहुत बेहतर साबित करने के लिए राजनीतिक शोध के धरातल पर जाने की ज़रूरत पड़ेगी. बिना पड़ताल के महान की श्रेणी में आने के दावेदार वे नहीं हो सकते.
जैसा कि अक्सर होता है, सत्ता में उनके कुछ महीने उनकी विपक्ष की शानदार पारी पर भारी पड़े. उन्होंने बहुत संघर्ष किया, युवा तुर्क कहलाए, विपक्ष और सत्ता की राजनीति दोनों की. उन्होंने हमेशा दिखाया कि वे भारत की रग-रग से वाकिफ़ हैं, सियासत और समाज की नब्ज़ पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है. वे ज़मीन से जुड़े नेता थे, जनता की भाषा बोलते थे और साथ ही बड़े आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर उनकी समझ काफ़ी साफ़ थी. मगर...
भूलना नहीं चाहिए कि वे चंद्रास्वामी जैसे पापी और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कपटी के निकटतम थे, भूलना नहीं चाहिए कि वे सूरजदेव सिंह जैसे जालिम कोयला माफ़िया के सरपरस्त थे...भूलना नहीं चाहिए कि उन्होंने अपने ख़ासम-ख़ास लोगों के लिए पर्याप्त निर्लज्जता से (जिसे उनके चाहने वाले निर्भीकता कहेंगे) सभी नियमों-मर्यादाओं-परंपराओं की हेठी की जिनकी बात वे गरज-गरजकर करते थे.
मेरा इरादा चंद्रशेखर के बहाने एक दूसरी बात कहने का है, उनका दिन-तारीख़-घटना के हिसाब से मूल्यांकन करने का नहीं है. मेरा अनुरोध सिर्फ़ इतना है कि अगर किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु से दुख पहुँचा हो तो अपने दर्द को झेलें-बाँटें, लेकिन जब सार्वजनिक स्तर पर किसी के राजनीतिक-सामाजिक मूल्यांकन की बात आए तो ध्रुवों पर जाने से बचें. यह चंद्रशेखर के साथ भी अन्याय है.
तमाम तरह की जोड़-तोड़ की राजनीति करके सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वाले व्यक्ति को संत महात्मा आदि कहना भावातिरेक की अतिशयोक्ति है. सत्ता की संरचना को समझने वाला कोई भी आदमी जानता है कि वहाँ ऊपर चढ़ने के लिए क्या-क्या करतब करने पड़ते हैं. संत-महात्मा ऐसे करतब नहीं करते और जो करते हैं वे संत-महात्मा नहीं होते.
लालू के गाय दुहने और कर्पूरी बाबू के हजामत बनाने की तस्वीरें जो मीडिया में दिखीं थीं वो अनायास नहीं थीं. वाजपेयी का कवि एक योजना के तहत झाड़-पोंछकर ज़िंदा किया गया और राजा वीपी सिंह की चित्रकारी में नए रंग भरे गए. वाजपेयी और राजा दोनों ऐसी अदा दिखाते हैं कि हम तो कवि और चित्रकार थे, ग़लती से राजनीति में आ गए.
सबकी अपनी-अपनी छवि होती है, चंद्रशेखर की छवि जो विपक्ष के विद्रोही नेता की थी उसी के तौर पर उनका सम्मान था, और रहेगा. राजनीति के बाज़ार में इमेज का सबसे ज्यादा मोल होता है. चंद्रशेखर बागी, विद्रोही, बेलाग होने की छवि को खाद-पानी देते रहे लेकिन उन्होंने सत्ता में आने के लिए हर वो काम किया जो कोई दूसरे घाघ नेता करते हैं.
चंद्रशेखर बड़े नेता थे, खाँटी थे, ऑरिजनल थे, जुझारू थे, अपना अलग तेवर था, बाद के दौर में जब अकेले रह गए थे तो काफ़ी स्टेट्समैन की तरह हो गए थे. वे निश्चित तौर पर असाधारण नेता थे क्योंकि वे कोई ख़ानदानी नेता नहीं थे, न ही देवेगौड़ा की तरह भाग्यवान. उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि मगर...
इस असहमति के साथ कि वे कोई संत नहीं थे, समझदार सियासतदाँ ज़रूर थे. अंतिम बड़े नेता थे समाजवादी धारा के शायद इसलिए कुछ लोग अधिक भावुक हो रहे हैं. दुखी तो मैं भी हूँ.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
anamdas ka chitta,
blog,
blogger,
hindi
10 जुलाई, 2007
परत-दर-परत, चक्कर-पर-चक्कर
जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो परतदार न हो. जीवन की अपनी परतें हैं. अवस्था की परतें, दुरावस्था की परतें, व्यवस्था की परतें, चीज़ों के होने की परतें, उनके न होने की परतें.
इन सबसे बढ़कर इन परतों को लट्टू की तरह घुमाने वाला चक्र...लट्टू की रंग-बिरंगी धारियाँ जब घूमती हैं तो कुछ और होती हैं, जब रूकती हैं तो कुछ और. लट्टू के खेल में जीवन का आनंद लेने वाले भी हैं और उसकी गति को समझने में सिर खपाने वाले भी...यह फ़ितरत की बात है, इस फ़ितरत की भी परतें हैं. कुछ चीज़ों की परतें हमें दिखती हैं कुछ की नहीं दिखतीं, लेकिन होती ज़रूर हैं.
दुकानदार का लालच दिखता है, उसकी बिन-ब्याही बेटी दिखती है, उसकी जवानी दिखती है, उसका दहेज नहीं दिखता, उसके रिश्तेदारों के ताने नहीं दिखते...सब एक ही चीज़ की परतें हैं, कुछ दिखती हैं, कुछ नहीं दिखतीं, कुछ किसी को दिखती हैं तो कुछ किसी और को, सब कुछ सबके लिए अंधों का हाथी है.
ग्राहक की भी अपनी परतें हैं, उसकी भी बेटी है, उसके लिए सबसे बड़ा सवाल रोटी है..उसके लिए दुकानदार पापी है लेकिन उसके अपने पाप भी हैं, वह पीड़ित भी है लेकिन वह अपनी पत्नी का सामंत भी है मगर उन गायों का मालिक कोई और है जिन्हें वह चराता है...
...इच्छा हो तो गाय से घास तक की परतों पर जाइए. भूलिए मत कि बीच में दूध, मलाई, हलवाई, गोबर, गोचर, धर्म, संवेदना, सांप्रदायिकता, वगैरह भी परतों की शक्ल में मौजूद हैं, जिनकी अगली परतें हैं---दही, रोज़गार, गंदगी, गृहप्रवेश की रस्म, भूसा, चरवाहा, बाज़ार, पैसा, राजनीति और दुकान पर खड़ा गाँव से भागा लड़का वगैरह... हर चीज़ की तरह लड़के के जीवन की भी परतें हैं--गाँवों की बदहाली, शहरीकरण, अशिक्षा, बेरोज़गारी, माँ-बाप की लाचारी...चाहे-अनचाहे गाँव अमलाकोट से अटलांटिस तक सब परतें एक दूसरे जुड़ जाती हैं. और ध्यान रहे सब कुछ घूमता भी है.
बहरहाल, घास के नीचे मिट्टी है जिसके नीचे केंचुए हैं और उसके नीचे पानी और फिर खनिज-लवण, गाय के मालिक के ऊपर भी देखिए ज़रा-- बीडीओ-सीएम-पीएम-यूएस-यूएन...प्लैनेट अर्थ...उसका वायुमंडल, उपग्रह चाँद, सौरमंडल...उसके बाद...थोड़ा-थोड़ा पता है...उसके बाद कुछ पता नहीं...इन सबके आपस के रिश्ते और उन सबकी परतें और फिर उन परतों का घूमता लट्टू...
सपनों, भावनाओं, ज़रूरतों, मजबूरियों, बेचैनियों, उम्मीदों, आशाओं...की अपनी परतें हैं. ये सब परतें एक-दूसरे से लिपट जाती हैं और उसके बाद घूमती हैं...हम भी घूमते हैं उस लट्टू के रंगों को पढ़ने की कोशिश करते हुए.
हम से कुछ नहीं बन पड़ा, हमने डींगें बहुत हाँकी, न सबसे छोटा हमारे पल्ले पड़ा, न सबसे बड़ा. कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि परमाणु से छोटी कोई चीज़ नहीं, न ही पता कि ब्रह्मांड से बड़ा क्या है, कैसा है... है भी या नहीं...ब्रह्मांड का ही कहाँ पता है? ठहरिए, आप भूल गए कि कर्षण, गुरुत्वाकर्षण, चुंबकीय बल से घूम रहा है सब कुछ लट्टू की तरह. वाक़ई आश्चर्य होता है कि इतना कम जानते हुए अगर आदमी वाक़ई सफल है, तो इतना सफल कैसे है?
इस धरती से चार हज़ार गुना बड़ा पिंड जिसकी ब्रह्मांड के स्केल पर कोई औक़ात नहीं, गिर सकता है अचानक और कर सकता है सारी परतों को एक-बराबर, और माइक्रोस्कोप से भी न दिखने वाला अब तक अनजान रहा वायरस भी कर सकता है यही कारनामा.
हमारी सारी उछलकूछ बीच में कहीं है, जानने-समझने की होड़ लगी है--एक दूसरे से भी और अनंत से भी. हम हमेशा अपना दायरा खींचते हैं और उसके बीच सबसे अक्लमंद, दूसरे या तीसरे बड़े अक्लमंद होने की बात करते हैं लेकिन अगर हम सचमुच अक्लमंद होते हैं तो अपना दायरा भी जानते हैं कि वह पाँच सौ लोगों का है, पाँच हज़ार लोगों का.
अक्लमंद होने की निशानी यही है कि बेवकूफ़ होने का एहसास बना रहे ताकि जानने की प्यास बनी रहे, इसका ठीक उल्टा भी सही है कि अक्लमंद होने का एहसास बना रहे कि जानने की ज़रूरत न महसूस हो और हम वही बने रहें जो हमें पसंद है. वैसे जानने की प्यास बनी रहने में भी कोई खुश होने की बात नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी परतें हैं जो घूम रही हैं.
अब घूमती धरती का नक्शा बन सकता है तो इस धरती पर घूम रहे 'श्रेष्ठतम जीव' के ज्ञान का भी नक्शा बन सकता है, उसमें कुछ लोग लगे हैं... उनकी अपनी परतें हैं...लगे हैं ज्ञान का नक्शा बनाने में. सूचना, जानकारी, अनुभव, इन सबसे मिलकर बनता है ज्ञान, ज्ञान के परिमार्जन और विश्लेषण से बनती है बुद्धिमत्ता और उसके बाद यह आभास कि सारे ज्ञान तो पोले हैं.
अनामदास का सूत्र बस इतना है कि परत-दर-परत अनवरत और चक्कर-पर-चक्कर जब तक चक्कर न आ जाए, जिसने अपने-आपको समझदार समझा वह ज़रूर किसी परत पर ठहर गया है या किसी चक्कर पर चकरा गया है.
अब बनाइए नक्शा और इसकी सूचना फ़ौरन भेजिए मुझे या मेरे प्रिय प्रमोद सिंह जी को, बीच में परत या चक्कर मेरी जानकारी के मुताबिक़ कोई और नहीं है.
इन सबसे बढ़कर इन परतों को लट्टू की तरह घुमाने वाला चक्र...लट्टू की रंग-बिरंगी धारियाँ जब घूमती हैं तो कुछ और होती हैं, जब रूकती हैं तो कुछ और. लट्टू के खेल में जीवन का आनंद लेने वाले भी हैं और उसकी गति को समझने में सिर खपाने वाले भी...यह फ़ितरत की बात है, इस फ़ितरत की भी परतें हैं. कुछ चीज़ों की परतें हमें दिखती हैं कुछ की नहीं दिखतीं, लेकिन होती ज़रूर हैं.
दुकानदार का लालच दिखता है, उसकी बिन-ब्याही बेटी दिखती है, उसकी जवानी दिखती है, उसका दहेज नहीं दिखता, उसके रिश्तेदारों के ताने नहीं दिखते...सब एक ही चीज़ की परतें हैं, कुछ दिखती हैं, कुछ नहीं दिखतीं, कुछ किसी को दिखती हैं तो कुछ किसी और को, सब कुछ सबके लिए अंधों का हाथी है.
ग्राहक की भी अपनी परतें हैं, उसकी भी बेटी है, उसके लिए सबसे बड़ा सवाल रोटी है..उसके लिए दुकानदार पापी है लेकिन उसके अपने पाप भी हैं, वह पीड़ित भी है लेकिन वह अपनी पत्नी का सामंत भी है मगर उन गायों का मालिक कोई और है जिन्हें वह चराता है...
...इच्छा हो तो गाय से घास तक की परतों पर जाइए. भूलिए मत कि बीच में दूध, मलाई, हलवाई, गोबर, गोचर, धर्म, संवेदना, सांप्रदायिकता, वगैरह भी परतों की शक्ल में मौजूद हैं, जिनकी अगली परतें हैं---दही, रोज़गार, गंदगी, गृहप्रवेश की रस्म, भूसा, चरवाहा, बाज़ार, पैसा, राजनीति और दुकान पर खड़ा गाँव से भागा लड़का वगैरह... हर चीज़ की तरह लड़के के जीवन की भी परतें हैं--गाँवों की बदहाली, शहरीकरण, अशिक्षा, बेरोज़गारी, माँ-बाप की लाचारी...चाहे-अनचाहे गाँव अमलाकोट से अटलांटिस तक सब परतें एक दूसरे जुड़ जाती हैं. और ध्यान रहे सब कुछ घूमता भी है.
बहरहाल, घास के नीचे मिट्टी है जिसके नीचे केंचुए हैं और उसके नीचे पानी और फिर खनिज-लवण, गाय के मालिक के ऊपर भी देखिए ज़रा-- बीडीओ-सीएम-पीएम-यूएस-यूएन...प्लैनेट अर्थ...उसका वायुमंडल, उपग्रह चाँद, सौरमंडल...उसके बाद...थोड़ा-थोड़ा पता है...उसके बाद कुछ पता नहीं...इन सबके आपस के रिश्ते और उन सबकी परतें और फिर उन परतों का घूमता लट्टू...
सपनों, भावनाओं, ज़रूरतों, मजबूरियों, बेचैनियों, उम्मीदों, आशाओं...की अपनी परतें हैं. ये सब परतें एक-दूसरे से लिपट जाती हैं और उसके बाद घूमती हैं...हम भी घूमते हैं उस लट्टू के रंगों को पढ़ने की कोशिश करते हुए.
हम से कुछ नहीं बन पड़ा, हमने डींगें बहुत हाँकी, न सबसे छोटा हमारे पल्ले पड़ा, न सबसे बड़ा. कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि परमाणु से छोटी कोई चीज़ नहीं, न ही पता कि ब्रह्मांड से बड़ा क्या है, कैसा है... है भी या नहीं...ब्रह्मांड का ही कहाँ पता है? ठहरिए, आप भूल गए कि कर्षण, गुरुत्वाकर्षण, चुंबकीय बल से घूम रहा है सब कुछ लट्टू की तरह. वाक़ई आश्चर्य होता है कि इतना कम जानते हुए अगर आदमी वाक़ई सफल है, तो इतना सफल कैसे है?
इस धरती से चार हज़ार गुना बड़ा पिंड जिसकी ब्रह्मांड के स्केल पर कोई औक़ात नहीं, गिर सकता है अचानक और कर सकता है सारी परतों को एक-बराबर, और माइक्रोस्कोप से भी न दिखने वाला अब तक अनजान रहा वायरस भी कर सकता है यही कारनामा.
हमारी सारी उछलकूछ बीच में कहीं है, जानने-समझने की होड़ लगी है--एक दूसरे से भी और अनंत से भी. हम हमेशा अपना दायरा खींचते हैं और उसके बीच सबसे अक्लमंद, दूसरे या तीसरे बड़े अक्लमंद होने की बात करते हैं लेकिन अगर हम सचमुच अक्लमंद होते हैं तो अपना दायरा भी जानते हैं कि वह पाँच सौ लोगों का है, पाँच हज़ार लोगों का.
अक्लमंद होने की निशानी यही है कि बेवकूफ़ होने का एहसास बना रहे ताकि जानने की प्यास बनी रहे, इसका ठीक उल्टा भी सही है कि अक्लमंद होने का एहसास बना रहे कि जानने की ज़रूरत न महसूस हो और हम वही बने रहें जो हमें पसंद है. वैसे जानने की प्यास बनी रहने में भी कोई खुश होने की बात नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी परतें हैं जो घूम रही हैं.
अब घूमती धरती का नक्शा बन सकता है तो इस धरती पर घूम रहे 'श्रेष्ठतम जीव' के ज्ञान का भी नक्शा बन सकता है, उसमें कुछ लोग लगे हैं... उनकी अपनी परतें हैं...लगे हैं ज्ञान का नक्शा बनाने में. सूचना, जानकारी, अनुभव, इन सबसे मिलकर बनता है ज्ञान, ज्ञान के परिमार्जन और विश्लेषण से बनती है बुद्धिमत्ता और उसके बाद यह आभास कि सारे ज्ञान तो पोले हैं.
अनामदास का सूत्र बस इतना है कि परत-दर-परत अनवरत और चक्कर-पर-चक्कर जब तक चक्कर न आ जाए, जिसने अपने-आपको समझदार समझा वह ज़रूर किसी परत पर ठहर गया है या किसी चक्कर पर चकरा गया है.
अब बनाइए नक्शा और इसकी सूचना फ़ौरन भेजिए मुझे या मेरे प्रिय प्रमोद सिंह जी को, बीच में परत या चक्कर मेरी जानकारी के मुताबिक़ कोई और नहीं है.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
anamdas ka chitta,
blog,
blogger,
hindi
01 जुलाई, 2007
गालियों के बारे में सोचो #!$%^&*()+#
गालियाँ देना अँगरेज़ी बोलने की तरह है, अभ्यास होना बहुत ज़रूरी है. पूरा नेसफ़ील्ड ग्रामर रट जाने के बाद भी अँगरेज़ी नहीं बोल पाते हैं कुछ लोग. कितना भी ज़हर भरा हो कुछ लोग गालियाँ नहीं दे पाते.
मैं भी गालियाँ नहीं दे पाता, मगर मैं गालियाँ देने वाले को बुरा और गालियाँ न देने वाले संस्कारवान व्यक्ति मानने के लिए तैयार नहीं हूँ. इससे बुरा सामान्यीकरण शायद कोई दूसरा नहीं है.
सदियों से गालियाँ सर्वव्यापी हैं, मुंगेर से लेकर मैनहैटन तक कमोबेश एक जैसे भाव लिए हवा में तैरती हैं. सिर्फ़ आरामदेह सत्य का संधान करने की सभ्य समाज की आदत ने गालियों को हमेशा दायरे से बाहर रखा. गालियाँ सुनना किसी को अच्छा नहीं लगता इसलिए एक आम सहमति है कि कोई उनकी बात न करे. इसी आम सहमति के कारण गालियों की भूमिका और उनकी आवश्यकता स्थापित नहीं हो सकी, मगर देखिए कि उनका सहज प्रवाह भी किसी के रोके नहीं रुका.
अच्छी-अच्छी किताबों और अच्छे घरों से झाड़-पोंछकर गालियों को निकाल दिया गया हो लेकिन म्युनिसापालिटी के नल पर गालियाँ देने से एक कनस्तर पानी ज्यादा मिलता है, फुटपाथ पर एक फुट जगह निकल आती है, नहर का पानी अपने खेत की ओर मोड़ा जा सकता है... अनंत रूप, गुण, आकार-प्रकार, उपयोग-दुरुपयोग हैं गालियों के. आपको नहीं लगता कि सोचने की ज़रूरत है उनके बारे में.
हम और आप सभ्य लोग हैं, हम चाहते हैं कि हमारे आसपास कोई गंदगी न हो लेकिन चाय की दुकान पर काम करने वाले लौंडे का पूरा जीवन ही गाली है. सभ्य लोग न तो उस लौंडे के बारे में बात करते हैं और न ही उन गालियों के बारे में जो उस पर अनवरत बरसती रहती हैं.
गालियाँ कौन दे रहा है, किसे दे रहा है, क्यों दे रहा है...इन सवालों पर गालियों का गाली होना छा जाता है. यहीं गाली देने वाला हार जाता है, अपना केस ख़राब कर बैठता है, भले मुद्दा कितना भी जायज़ क्यों न हो. होशमंद लोगों को क्या एक पल ठहरकर देश-काल-परिस्थिति पर विचार नहीं करना चाहिए? इस बारिश में कोई कारवाला किसी को कीचड़ से सराबोर करके चला जाए तो नहाने वाला क्या देगा?
दुरुपयोग धर्मग्रंथों का होता है तो गालियों का क्यों नहीं होगा, आख़िर उनमें दम है. जिस चीज़ में दम है उसका उपयोग-दुरुपयोग दोनों होता है. मार्क ट्वेन ने कहा था--'कई बार गालियाँ देकर आत्मा को जो सुकून मिलता है वह प्रार्थना से भी नहीं मिलता.' मैं गालियों के दुरुपयोग के उतना ही ख़िलाफ़ हूँ जितना धर्मग्रंथों के दुरुपयोग के. मैं न धर्मग्रंथों के ख़िलाफ़ हूँ, न गालियों के, सारा सवाल संदर्भ का है.
मध्यवर्गीय संस्कार कहते हैं गालियाँ हर हाल में बुरी हैं. ठीक वैसे ही जैसे कई बुरी चीज़ें हर हाल में अच्छी बताई जाती हैं.
जब एक तादाद में लोग एक गाली पर सहमत हो जाते हैं तो नारा बन जाता है. इस लिहाज से दुनिया में कोई परिवर्तन गालियों के बिना नहीं हुआ. किसी आदमी को कुत्ता कहना गाली है इसलिए नहीं कहना चाहिए, यह बात सभी बच्चों को बताई गई है. पाकिस्तान में आजकल एक बड़ा दिलचस्प नारा लग रहा है--'अमरीका ने कुत्ता पाला, वर्दी वाला, वर्दी वाला.' पाकिस्तान में बच्चा-बच्चा यह नारा लगा रहा है, कोई नहीं कह रहा कि 'बंद करो ये गाली है.'
गालियों का समर्थक नहीं हूँ लेकिन अंधविरोधी भी नहीं. जो गालियाँ खाने का हक़दार है, वह खाएगा और उसे बचाना शायद अधर्म हो.
एक गंभीर एतराज़ ज़रूर है, माँ-बहन की गालियों को लेकर. ग़ौर से देखिए तो समझ में आएगा कि ये गालियाँ महिलाओं को नहीं बल्कि सभी पुरूषों को दी जा रही हैं जिन्होंने महिलाओं को अपनी दौलत समझा और उनके शरीर को अपनी जायदाद. औरतों के नाम से दी जाने वाली सभी गालियाँ पुरुषवादी समाज पर पड़ रही हैं, एक ऐसे समाज पर जिसने महिलाओं का सम्मान नहीं किया बल्कि उसे अपने सम्मान का सामान बनाया. गाली देने वाले का उद्देश्य आपके सम्मान को ही तो आहत करना है तो वह किसे गाली देगा?
मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा करने वालों के ख़िलाफ़ न्यूनतम हिंसा है गालियाँ. गालियों में आह-कराह-हेठी-हिकारत-हिमाकत-साहस-दुस्साहस सब है. गालियों में टुच्चापन-लुच्चापन-बेहूदगी-बेहयाई-बदतमीज़ी भी है. गालियों के बारे में सोचिए, आप-हम नहीं रहेंगे लेकिन गालियाँ रहेंगी, तब तक जब तक दुनिया में दर्द, बेचैनी, अन्याय, शोषण, अनाचार, कदाचार, ग़ैरबराबरी...रहेगी.
कुछ ऐसे भी होते हैं जो कारक की तरह वाक्य को पूरा करने के लिए गालियाँ देते हैं, शहर, धूप साइकिल और बिल्डिंग से लेकर अपने आप तक को. ऐसे निर्गुन संतों की बात और है, आप संयोगवश उनकी ज़द मे आ जाते हैं तो बुरा न मानिए. उनकी गारी, गारी नहीं तरकारी होती है. भावशून्य गाली में धार कहाँ.
भूलिए मत, गालियाँ प्यार और अपनापे के इज़हार के लिए भी होती हैं, शादी के शुभ अवसर पर भी गाई जाती हैं. गालियाँ अच्छी-बुरी नहीं होंतीं, परिस्थिति और पात्र पर ग़ौर करके ही उचित-अनुचित का निर्णय संभव है.
(चौपटस्वामी और अफ़लातून जी के भड़काने पर दी गई हैं ये गालियाँ.)
मैं भी गालियाँ नहीं दे पाता, मगर मैं गालियाँ देने वाले को बुरा और गालियाँ न देने वाले संस्कारवान व्यक्ति मानने के लिए तैयार नहीं हूँ. इससे बुरा सामान्यीकरण शायद कोई दूसरा नहीं है.
सदियों से गालियाँ सर्वव्यापी हैं, मुंगेर से लेकर मैनहैटन तक कमोबेश एक जैसे भाव लिए हवा में तैरती हैं. सिर्फ़ आरामदेह सत्य का संधान करने की सभ्य समाज की आदत ने गालियों को हमेशा दायरे से बाहर रखा. गालियाँ सुनना किसी को अच्छा नहीं लगता इसलिए एक आम सहमति है कि कोई उनकी बात न करे. इसी आम सहमति के कारण गालियों की भूमिका और उनकी आवश्यकता स्थापित नहीं हो सकी, मगर देखिए कि उनका सहज प्रवाह भी किसी के रोके नहीं रुका.
अच्छी-अच्छी किताबों और अच्छे घरों से झाड़-पोंछकर गालियों को निकाल दिया गया हो लेकिन म्युनिसापालिटी के नल पर गालियाँ देने से एक कनस्तर पानी ज्यादा मिलता है, फुटपाथ पर एक फुट जगह निकल आती है, नहर का पानी अपने खेत की ओर मोड़ा जा सकता है... अनंत रूप, गुण, आकार-प्रकार, उपयोग-दुरुपयोग हैं गालियों के. आपको नहीं लगता कि सोचने की ज़रूरत है उनके बारे में.
हम और आप सभ्य लोग हैं, हम चाहते हैं कि हमारे आसपास कोई गंदगी न हो लेकिन चाय की दुकान पर काम करने वाले लौंडे का पूरा जीवन ही गाली है. सभ्य लोग न तो उस लौंडे के बारे में बात करते हैं और न ही उन गालियों के बारे में जो उस पर अनवरत बरसती रहती हैं.
गालियाँ कौन दे रहा है, किसे दे रहा है, क्यों दे रहा है...इन सवालों पर गालियों का गाली होना छा जाता है. यहीं गाली देने वाला हार जाता है, अपना केस ख़राब कर बैठता है, भले मुद्दा कितना भी जायज़ क्यों न हो. होशमंद लोगों को क्या एक पल ठहरकर देश-काल-परिस्थिति पर विचार नहीं करना चाहिए? इस बारिश में कोई कारवाला किसी को कीचड़ से सराबोर करके चला जाए तो नहाने वाला क्या देगा?
दुरुपयोग धर्मग्रंथों का होता है तो गालियों का क्यों नहीं होगा, आख़िर उनमें दम है. जिस चीज़ में दम है उसका उपयोग-दुरुपयोग दोनों होता है. मार्क ट्वेन ने कहा था--'कई बार गालियाँ देकर आत्मा को जो सुकून मिलता है वह प्रार्थना से भी नहीं मिलता.' मैं गालियों के दुरुपयोग के उतना ही ख़िलाफ़ हूँ जितना धर्मग्रंथों के दुरुपयोग के. मैं न धर्मग्रंथों के ख़िलाफ़ हूँ, न गालियों के, सारा सवाल संदर्भ का है.
मध्यवर्गीय संस्कार कहते हैं गालियाँ हर हाल में बुरी हैं. ठीक वैसे ही जैसे कई बुरी चीज़ें हर हाल में अच्छी बताई जाती हैं.
जब एक तादाद में लोग एक गाली पर सहमत हो जाते हैं तो नारा बन जाता है. इस लिहाज से दुनिया में कोई परिवर्तन गालियों के बिना नहीं हुआ. किसी आदमी को कुत्ता कहना गाली है इसलिए नहीं कहना चाहिए, यह बात सभी बच्चों को बताई गई है. पाकिस्तान में आजकल एक बड़ा दिलचस्प नारा लग रहा है--'अमरीका ने कुत्ता पाला, वर्दी वाला, वर्दी वाला.' पाकिस्तान में बच्चा-बच्चा यह नारा लगा रहा है, कोई नहीं कह रहा कि 'बंद करो ये गाली है.'
गालियों का समर्थक नहीं हूँ लेकिन अंधविरोधी भी नहीं. जो गालियाँ खाने का हक़दार है, वह खाएगा और उसे बचाना शायद अधर्म हो.
एक गंभीर एतराज़ ज़रूर है, माँ-बहन की गालियों को लेकर. ग़ौर से देखिए तो समझ में आएगा कि ये गालियाँ महिलाओं को नहीं बल्कि सभी पुरूषों को दी जा रही हैं जिन्होंने महिलाओं को अपनी दौलत समझा और उनके शरीर को अपनी जायदाद. औरतों के नाम से दी जाने वाली सभी गालियाँ पुरुषवादी समाज पर पड़ रही हैं, एक ऐसे समाज पर जिसने महिलाओं का सम्मान नहीं किया बल्कि उसे अपने सम्मान का सामान बनाया. गाली देने वाले का उद्देश्य आपके सम्मान को ही तो आहत करना है तो वह किसे गाली देगा?
मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा करने वालों के ख़िलाफ़ न्यूनतम हिंसा है गालियाँ. गालियों में आह-कराह-हेठी-हिकारत-हिमाकत-साहस-दुस्साहस सब है. गालियों में टुच्चापन-लुच्चापन-बेहूदगी-बेहयाई-बदतमीज़ी भी है. गालियों के बारे में सोचिए, आप-हम नहीं रहेंगे लेकिन गालियाँ रहेंगी, तब तक जब तक दुनिया में दर्द, बेचैनी, अन्याय, शोषण, अनाचार, कदाचार, ग़ैरबराबरी...रहेगी.
कुछ ऐसे भी होते हैं जो कारक की तरह वाक्य को पूरा करने के लिए गालियाँ देते हैं, शहर, धूप साइकिल और बिल्डिंग से लेकर अपने आप तक को. ऐसे निर्गुन संतों की बात और है, आप संयोगवश उनकी ज़द मे आ जाते हैं तो बुरा न मानिए. उनकी गारी, गारी नहीं तरकारी होती है. भावशून्य गाली में धार कहाँ.
भूलिए मत, गालियाँ प्यार और अपनापे के इज़हार के लिए भी होती हैं, शादी के शुभ अवसर पर भी गाई जाती हैं. गालियाँ अच्छी-बुरी नहीं होंतीं, परिस्थिति और पात्र पर ग़ौर करके ही उचित-अनुचित का निर्णय संभव है.
(चौपटस्वामी और अफ़लातून जी के भड़काने पर दी गई हैं ये गालियाँ.)
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉगर,
हिंदी,
anamdas ka chitta,
blog,
blogger,
hindi
22 जून, 2007
मुहल्ले, क़स्बे और महानगर में भटकता अनामदास
अचानक वो सब अच्छा लगने लगा है जो पीछे छूट गया, मैंने कुछ भी रौंदा नहीं मगर पीछे छूट गई चीज़ों को न उठा पाने का अफ़सोस सालता है. रेला आगे जा रहा है जहाँ छूट गई चीज़ को पलटकर उठाना मुमकिन नहीं है.
मैंने नहीं उठाया इसीलिए सब रौंदे गए, हाथ से गिरे गली, मुहल्ले, आँगन, कुएँ, आम-अमरूद, गिल्ली डंडे, लट्टू, पतंग, कंचे... वक़्त के क़दमों तले. अपराध बोध है जो जाता ही नहीं.
नॉस्टेलजिया एक रोमैंटिक चीज़ हुआ करती थी, आजकल स्क्रित्ज़ोफिनिया की तरह एक मनोविकार है, कम से कम बुढ़ा रहे आदमी का प्रलाप तो ज़रूर.
क़स्बे में निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार पैदा होकर पहले भारत और उसके बाद दुनिया के महानगरों को देखने वाले चालीस के करीब पहुँच रहे आदमी की त्रासदी बड़ी विचित्र है, न बताते बनती है, न छिपाते. वह पूरी तरह वस्तुहारा है, न इधर का न उधर का. उसकी प्यास कहीं नहीं बुझती, उसकी बेचैनी कभी नहीं मिटती.
सैटेलाइट टीवी के सैकड़ों चैनल मिलकर घुर्र-घुर्र करने वाले आकाशवाणी जैसा सुकून नहीं दे रहे, महँगे से महँगे रेस्तराँ नंदू की कचौड़ी-जिलेबी का सुख नहीं दे रहे, फ्रिज की आइसकोल्ड बियर से वह तरावट नहीं मिल रही जो सौंफ या बेल के शर्बत से मिलती थी...
गर्मी की दुपहरी में दाल-भात-सब्ज़ी के ऊपर से आम खाकर सफ़ेद गंजी-पजामा पहनकर छह नंबर पर पंखा चलाकर डेढ़ घंटे सोने का स्वर्गतुल्य सुख अब कहाँ है. उसके लिए वही घर चाहिए, अपने पेड़ का आम चाहिए और शायद वही उम्र चाहिए...और किसी तरह की नौकरी कतई नहीं चाहिए.
घर था, फ्लैट नहीं, आँगन था, बालकनी नहीं, मालती, हेना, गुलाब सब पसरे थे, आँगन में आम-अमरूद तो थे ही ओल (सूरन,जिमीकंद) न जाने कैसे अपने-आप ज़मीन के नीचे आ बैठता था. नालियों में छछूंदर रेंगते थे, दीवारों पर काई जमती थी, पूरी बारिश भुए रेंगते थे जो धूप निकलने पर भूरी-धूसर-काली तितलियाँ बनकर उड़ने लगते थे, चार-पाँच तरह के मेढ़क, पाँच-सात तरह के फतिंगे, दस-बीस तरह के कीड़े सब अपने-अपने चक्र के अनुरूप दर्शन देते. जिसे आजकल इकॉलॉजी कहा जाता है वह सब हमारे घर में था.
बारिश की बूंदे पूरी रात छप्पर से स्विस घड़ी की तरह सेंकेंड-दर-सेकेंड गिरती थीं, मुंडेर पर बिल्लियाँ और चौराहे पर कुत्ते लड़ते थे, चौकी के नीचे चूहे दौड़ लगाते थे और मोड़ पर शराबी एक-दूसरे को पहले गालियाँ देते और बाद मे गले मिलते थे. सुबह हम गन्ना चूसते थे, दोपहर में झेंगरी (हरा चना) और शाम को फुचका (गोलगप्पा). लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकता जिसमें शामिल थी अधगिरी छप्पर पर उगी तुरई की तरकारी.
यह गया वक़्त है जो लौटकर आ नहीं सकता. क़स्बे तो कुओं को पाट चुके हैं, आम-अमरूदों को काट चुके हैं, वे उन लड़कों की तरह हैं जो जवान होने की जल्दी में उगने से पहले ही दाढ़ी बनाने लगते हैं. मैं जिस क़स्बे को याद करके आँखें गीली करता हूँ आज का गाँव वहाँ आ पहुँचा होगा.
मैं सोचता हूँ मेरे पिता कितने निर्द्वंद्व थे कि ख़ानदानी घर है, बच्चे यहीं रहेंगे, सब कुछ ऐसा ही रहेगा आम-अमरूद, आँगन-कुआँ...जैसा उनकी जवानी में था लेकिन कुछ भी नहीं रहा. मैं सोचकर डरता हूँ और दावे से नहीं कह सकता कि मेरा बेटा चाँद पर नहीं रहेगा.
ऐसे में कोई खवनई की बात करे, कोई आकाशवाणी ट्यून करे, कोई कोंहडौरी की याद दिलाए, कोई पेटकुनिए लेटने की मुद्रा बताए, कोई बिल्लू के बचपन का ज़िक्र छेड़ दे, कोई घर में पहली बार रखे गए दर्शनीय फ्रिज की तस्वीर पेश करे, कोई दरंभगा के माटसाब की तस्वीर खींचे, कोई बनारस के क़िस्से छेड़े दे (कई और हैं...) तो ऐसा लगता है कि किसी ने ज़ख़्मों पर नरम फाहा रख दिया हो.
हम बदलते वक़्त के शरणार्थी हैं. कश्मीरी पंडित से चिनार और गुश्ताबा की बात दिल्ली में करो या न्यूयॉर्क में, आहें भरने के अलावा उसके पास चारा क्या है. वह कश्मीर नहीं लौट सकता, हम भी प्री-ग्लोबलाइज़ेशन दौर में नहीं जा सकते, बस आहें भर सकते हैं.
एक नया भरम है, आभासी दुनिया में अपने जैसे लोगों की खोज में भटक सकते हैं. ऐसे लोग जिनका अतीत हो, जो उन्हें याद हो, और भविष्य के सुनहरे सपनों से उनकी मेमरी चिप फुल न हो गई हो. उनसे गले मिल लें, हँस लें, रो लें, झूठ-मूठ ही एक बार फिर उस दौर को जी लें.
मैंने नहीं उठाया इसीलिए सब रौंदे गए, हाथ से गिरे गली, मुहल्ले, आँगन, कुएँ, आम-अमरूद, गिल्ली डंडे, लट्टू, पतंग, कंचे... वक़्त के क़दमों तले. अपराध बोध है जो जाता ही नहीं.
नॉस्टेलजिया एक रोमैंटिक चीज़ हुआ करती थी, आजकल स्क्रित्ज़ोफिनिया की तरह एक मनोविकार है, कम से कम बुढ़ा रहे आदमी का प्रलाप तो ज़रूर.
क़स्बे में निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार पैदा होकर पहले भारत और उसके बाद दुनिया के महानगरों को देखने वाले चालीस के करीब पहुँच रहे आदमी की त्रासदी बड़ी विचित्र है, न बताते बनती है, न छिपाते. वह पूरी तरह वस्तुहारा है, न इधर का न उधर का. उसकी प्यास कहीं नहीं बुझती, उसकी बेचैनी कभी नहीं मिटती.
सैटेलाइट टीवी के सैकड़ों चैनल मिलकर घुर्र-घुर्र करने वाले आकाशवाणी जैसा सुकून नहीं दे रहे, महँगे से महँगे रेस्तराँ नंदू की कचौड़ी-जिलेबी का सुख नहीं दे रहे, फ्रिज की आइसकोल्ड बियर से वह तरावट नहीं मिल रही जो सौंफ या बेल के शर्बत से मिलती थी...
गर्मी की दुपहरी में दाल-भात-सब्ज़ी के ऊपर से आम खाकर सफ़ेद गंजी-पजामा पहनकर छह नंबर पर पंखा चलाकर डेढ़ घंटे सोने का स्वर्गतुल्य सुख अब कहाँ है. उसके लिए वही घर चाहिए, अपने पेड़ का आम चाहिए और शायद वही उम्र चाहिए...और किसी तरह की नौकरी कतई नहीं चाहिए.
घर था, फ्लैट नहीं, आँगन था, बालकनी नहीं, मालती, हेना, गुलाब सब पसरे थे, आँगन में आम-अमरूद तो थे ही ओल (सूरन,जिमीकंद) न जाने कैसे अपने-आप ज़मीन के नीचे आ बैठता था. नालियों में छछूंदर रेंगते थे, दीवारों पर काई जमती थी, पूरी बारिश भुए रेंगते थे जो धूप निकलने पर भूरी-धूसर-काली तितलियाँ बनकर उड़ने लगते थे, चार-पाँच तरह के मेढ़क, पाँच-सात तरह के फतिंगे, दस-बीस तरह के कीड़े सब अपने-अपने चक्र के अनुरूप दर्शन देते. जिसे आजकल इकॉलॉजी कहा जाता है वह सब हमारे घर में था.
बारिश की बूंदे पूरी रात छप्पर से स्विस घड़ी की तरह सेंकेंड-दर-सेकेंड गिरती थीं, मुंडेर पर बिल्लियाँ और चौराहे पर कुत्ते लड़ते थे, चौकी के नीचे चूहे दौड़ लगाते थे और मोड़ पर शराबी एक-दूसरे को पहले गालियाँ देते और बाद मे गले मिलते थे. सुबह हम गन्ना चूसते थे, दोपहर में झेंगरी (हरा चना) और शाम को फुचका (गोलगप्पा). लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकता जिसमें शामिल थी अधगिरी छप्पर पर उगी तुरई की तरकारी.
यह गया वक़्त है जो लौटकर आ नहीं सकता. क़स्बे तो कुओं को पाट चुके हैं, आम-अमरूदों को काट चुके हैं, वे उन लड़कों की तरह हैं जो जवान होने की जल्दी में उगने से पहले ही दाढ़ी बनाने लगते हैं. मैं जिस क़स्बे को याद करके आँखें गीली करता हूँ आज का गाँव वहाँ आ पहुँचा होगा.
मैं सोचता हूँ मेरे पिता कितने निर्द्वंद्व थे कि ख़ानदानी घर है, बच्चे यहीं रहेंगे, सब कुछ ऐसा ही रहेगा आम-अमरूद, आँगन-कुआँ...जैसा उनकी जवानी में था लेकिन कुछ भी नहीं रहा. मैं सोचकर डरता हूँ और दावे से नहीं कह सकता कि मेरा बेटा चाँद पर नहीं रहेगा.
ऐसे में कोई खवनई की बात करे, कोई आकाशवाणी ट्यून करे, कोई कोंहडौरी की याद दिलाए, कोई पेटकुनिए लेटने की मुद्रा बताए, कोई बिल्लू के बचपन का ज़िक्र छेड़ दे, कोई घर में पहली बार रखे गए दर्शनीय फ्रिज की तस्वीर पेश करे, कोई दरंभगा के माटसाब की तस्वीर खींचे, कोई बनारस के क़िस्से छेड़े दे (कई और हैं...) तो ऐसा लगता है कि किसी ने ज़ख़्मों पर नरम फाहा रख दिया हो.
हम बदलते वक़्त के शरणार्थी हैं. कश्मीरी पंडित से चिनार और गुश्ताबा की बात दिल्ली में करो या न्यूयॉर्क में, आहें भरने के अलावा उसके पास चारा क्या है. वह कश्मीर नहीं लौट सकता, हम भी प्री-ग्लोबलाइज़ेशन दौर में नहीं जा सकते, बस आहें भर सकते हैं.
एक नया भरम है, आभासी दुनिया में अपने जैसे लोगों की खोज में भटक सकते हैं. ऐसे लोग जिनका अतीत हो, जो उन्हें याद हो, और भविष्य के सुनहरे सपनों से उनकी मेमरी चिप फुल न हो गई हो. उनसे गले मिल लें, हँस लें, रो लें, झूठ-मूठ ही एक बार फिर उस दौर को जी लें.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
blog,
hindi
20 जून, 2007
जो न हो सका उसकी तलाश है मुझे
आभासी लोक में विचर रहे दो जीवों ( प्र1 प्र2) ने सवाल सामने रखा कि कोई यहाँ क्यों आया, क्या चाहता है. ठीक वैसे ही जैसे लोग पूछते हैं--'आपके जीवन का उद्देश्य क्या है?'
जवाब तो नहीं है, बस एक सवाल है, अरे भाई जब पैदा होने का उद्देश्य नहीं था, मरने का कोई उद्देश्य नहीं है तो वक़्फ़े का उद्देश्य क्यों होना चाहिए? अगर होगा तो वही जाने जिसने हमारी इच्छा के बिना हमें बनाया और हमारी इच्छा के बग़ैर मार डालेगा.
कुछ लोग दावा करते हैं कि उन्हें उनके जीवन का उद्देश्य मिल गया है--देशसेवा, गौसेवा, जनसेवा, हिंदीसेवा से लेकर कारसेवा और अब नेटसेवा तक. मुझे कोई उद्देश्य नहीं मिला है, जिस तरह जीता हूँ उसे उद्देश्य कहने का हौसला मुझमें नहीं है.
मुझे जीवन का उद्देश्य तो नहीं पता लेकिन जिसे आभासी दुनिया कहा जाता है वहाँ मैंने स्वेच्छा से जन्म लिया. स्वयंभू हूँ, हर्मोफ़र्डाइट हूँ--एककोशीय जीव, जो ख़ुद से टूटकर बना है.
आभासी दुनिया का उल्टा क्या हो सकता है, सोचता रहा मगर कोई ठीक शब्द नहीं मिला-स्पर्शी दुनिया? जीवन इहलोक है तो आप जिसे आभासी दुनिया कह रहे हैं वह शायद उहलोक. आभासी दुनिया में उतरने का सादा सा लेकिन बहुत बड़ा सा आकर्षण है, इहलोक में रहते हुए उहलोक में विचरण करना.
मैं वह सब कुछ चाहता हूँ जो इहलोक में नहीं मिल पाया, इहलोक में नौकरी है तो उहलोक में आज़ादी, इहलोक में सीमाएँ हैं तो उहलोक में स्वच्छंदता. उहलोक में जीने का आनंद उठाने के लिए सबसे ज़रूरी था नाम, काम, दाम आदि का त्याग इसलिए अनामदास का चोला पहना और निकल लिए ऐसा जीवन जीने जिसकी सीमाएँ नहीं मालूम, इहलोक वाले बंदे की सब सीमाएँ समय रहते मालूम हो गईं इसलिए चाकरी खोजी और लग गए नून तेल लकड़ी में.
जो उहलोक वाला था हमेशा से कसमसाता था, एक और जीवन जीने के लिए. उसके लिए एक और जन्म तक इंतज़ार करना पड़ता और इस जन्म को इतने बोरिंग तरीक़े से गुज़ारना पड़ता कि अगले जन्म में भी मनुष्य बनना नसीब हो. तभी अचानक 'सेंकेड लाइफ़' जैसा आइडिया आया, हमने कहा जो कुछ तनख़्वाह देने वाले ने नहीं ख़रीदा है वह उहलोक वाले के नाम. अनामदास गरियाता है कि साले ने कुछ नहीं दिया, एक-सवा घंटा देता है हफ़्ते में एकाध बार एहसान करके...
क्या-क्या बिक गया है ठीक-ठीक नहीं पता, क्या-क्या बचा है, नहीं मालूम. शायद यही पता लगाने की कोशिश है आभासी दुनिया की मटरगश्ती. जब तक यही पता न हो कि खींसे में क्या है तब कैसे पता चलेगा कि झोले में क्या आएगा. आभासी दुनिया में कई जीव भटकते हैं अपनी तरह के, दूसरी तरह के भी, वही बता पाएँगे कि मेरे पास कुछ खरा है या बाउंस होने वाला चेक लिए घूम रहा हूँ.
बात ये है कि इहलोक में रहते हुए उहलोक की रेकी कर रहे हैं, देख रहे हैं कि अगर इधर से निकलकर उधर गए तो कोई आसन-पाटी मिलेगी या लतिया दिए जाएँगे.
हर आदमी के अंदर कई-कई जीव रहते हैं, अभी तक दो का सस्ता-मद्दा इंतज़ाम हो पाया है, बाक़ियों को टरका दिया गया है.
समानांतर जीवन जीने की इस युक्ति से मुझे सचमुच निर्मल आनंद मिल रहा है लेकिन कई लोग हैं जो लगातार धमकाते रहते हैं कि पोल खोल देंगे. जो भाई इहलोक वाले को किसी भी तरह से जानते हैं उनसे अनुरोध है कि उहलोक वाले के असमय अवसान के पाप का भागी न बनें.
उहलोक में क्योंकर विचरण हो रहा है यह बताने की कोशिश की है, आगे सोचकर बताता हूँ कि धूप-छाँव, शहर-गाँव, ध्वनि-प्रतिध्वनि, आलाप-विलाप-प्रलाप क्या सुनना चाहता हूँ, क्या सुनकर मन खुश होता है और क्यों... फूड फॉर थॉट के लिए आप दोनों का आभार...
जवाब तो नहीं है, बस एक सवाल है, अरे भाई जब पैदा होने का उद्देश्य नहीं था, मरने का कोई उद्देश्य नहीं है तो वक़्फ़े का उद्देश्य क्यों होना चाहिए? अगर होगा तो वही जाने जिसने हमारी इच्छा के बिना हमें बनाया और हमारी इच्छा के बग़ैर मार डालेगा.
कुछ लोग दावा करते हैं कि उन्हें उनके जीवन का उद्देश्य मिल गया है--देशसेवा, गौसेवा, जनसेवा, हिंदीसेवा से लेकर कारसेवा और अब नेटसेवा तक. मुझे कोई उद्देश्य नहीं मिला है, जिस तरह जीता हूँ उसे उद्देश्य कहने का हौसला मुझमें नहीं है.
मुझे जीवन का उद्देश्य तो नहीं पता लेकिन जिसे आभासी दुनिया कहा जाता है वहाँ मैंने स्वेच्छा से जन्म लिया. स्वयंभू हूँ, हर्मोफ़र्डाइट हूँ--एककोशीय जीव, जो ख़ुद से टूटकर बना है.
आभासी दुनिया का उल्टा क्या हो सकता है, सोचता रहा मगर कोई ठीक शब्द नहीं मिला-स्पर्शी दुनिया? जीवन इहलोक है तो आप जिसे आभासी दुनिया कह रहे हैं वह शायद उहलोक. आभासी दुनिया में उतरने का सादा सा लेकिन बहुत बड़ा सा आकर्षण है, इहलोक में रहते हुए उहलोक में विचरण करना.
मैं वह सब कुछ चाहता हूँ जो इहलोक में नहीं मिल पाया, इहलोक में नौकरी है तो उहलोक में आज़ादी, इहलोक में सीमाएँ हैं तो उहलोक में स्वच्छंदता. उहलोक में जीने का आनंद उठाने के लिए सबसे ज़रूरी था नाम, काम, दाम आदि का त्याग इसलिए अनामदास का चोला पहना और निकल लिए ऐसा जीवन जीने जिसकी सीमाएँ नहीं मालूम, इहलोक वाले बंदे की सब सीमाएँ समय रहते मालूम हो गईं इसलिए चाकरी खोजी और लग गए नून तेल लकड़ी में.
जो उहलोक वाला था हमेशा से कसमसाता था, एक और जीवन जीने के लिए. उसके लिए एक और जन्म तक इंतज़ार करना पड़ता और इस जन्म को इतने बोरिंग तरीक़े से गुज़ारना पड़ता कि अगले जन्म में भी मनुष्य बनना नसीब हो. तभी अचानक 'सेंकेड लाइफ़' जैसा आइडिया आया, हमने कहा जो कुछ तनख़्वाह देने वाले ने नहीं ख़रीदा है वह उहलोक वाले के नाम. अनामदास गरियाता है कि साले ने कुछ नहीं दिया, एक-सवा घंटा देता है हफ़्ते में एकाध बार एहसान करके...
क्या-क्या बिक गया है ठीक-ठीक नहीं पता, क्या-क्या बचा है, नहीं मालूम. शायद यही पता लगाने की कोशिश है आभासी दुनिया की मटरगश्ती. जब तक यही पता न हो कि खींसे में क्या है तब कैसे पता चलेगा कि झोले में क्या आएगा. आभासी दुनिया में कई जीव भटकते हैं अपनी तरह के, दूसरी तरह के भी, वही बता पाएँगे कि मेरे पास कुछ खरा है या बाउंस होने वाला चेक लिए घूम रहा हूँ.
बात ये है कि इहलोक में रहते हुए उहलोक की रेकी कर रहे हैं, देख रहे हैं कि अगर इधर से निकलकर उधर गए तो कोई आसन-पाटी मिलेगी या लतिया दिए जाएँगे.
हर आदमी के अंदर कई-कई जीव रहते हैं, अभी तक दो का सस्ता-मद्दा इंतज़ाम हो पाया है, बाक़ियों को टरका दिया गया है.
समानांतर जीवन जीने की इस युक्ति से मुझे सचमुच निर्मल आनंद मिल रहा है लेकिन कई लोग हैं जो लगातार धमकाते रहते हैं कि पोल खोल देंगे. जो भाई इहलोक वाले को किसी भी तरह से जानते हैं उनसे अनुरोध है कि उहलोक वाले के असमय अवसान के पाप का भागी न बनें.
उहलोक में क्योंकर विचरण हो रहा है यह बताने की कोशिश की है, आगे सोचकर बताता हूँ कि धूप-छाँव, शहर-गाँव, ध्वनि-प्रतिध्वनि, आलाप-विलाप-प्रलाप क्या सुनना चाहता हूँ, क्या सुनकर मन खुश होता है और क्यों... फूड फॉर थॉट के लिए आप दोनों का आभार...
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
anamdas ka chitta,
blog,
blogger,
hindi
18 जून, 2007
नारद के सभी ईस्वामियों के समर्थन में
शीतल छाँव है, कलियाँ खिली हैं, खुशियाँ बिखरी हैं, भ्रमर गुंजन कर रहे हैं, गीत-संगीत का माहौल है, सब कुशल-मंगल है, शांति-शांति है, छेड़छाड़ थोड़ी-सी है जैसे शादियों में गालियाँ गाई जाती हैं. समधी मिलन जैसा समाँ है, सब एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं. अहा! कितना सुंदर आयोजन है, आप धन्य हैं, अरे आप भी धन्य हैं.
दिन भर के थके-हारे योद्धा यहाँ कहानियों, कविताओं और चुटकुलों के चंदोवे में विश्राम करते हैं. भोमियो, जावा, ड्रीमवीवर, विस्टा जैसे-जैसे अग्रगामी पात्र हैं जो पूरी दुनिया के दुख-दर्द मिटाकर आनंदवर्षा कर रहे हैं. पूरी दुनिया एक दूसरे से जुड़ी है, जो नहीं जुड़े हैं वे चूहड़े हैं, पहले भी थे आगे भी रहेंगे.
हम इस हरी-हरी वसुंधरा की स्वस्थ-समृद्ध संतानें हैं, हमने अपना भाग्य अपनी मेहनत से रचा है, जो नीचे से कराहते हैं उनकी बात करने के लिए नेता लोग हैं, टुटपुंजिए पत्रकार हैं.
यह हमारी दुनिया है, हमने बनाई है, यहाँ हमारी प्रगति की ललक है, यहाँ हमारी समझ की चमक है, यहाँ हमारी शक्ति की दमक है, हमारे पास इसका पासवर्ड है. यहाँ उन लोगों की बात क्यों करते हो जो किसी कैम्प-वैम्प में अपनी करनी का फल भोग रहे हैं.
हवाई बातों के पवनपुत्र हमारी इस अ-शोक वाटिका में उत्पात मचाने आ गए हैं, हँसते-खेलते सरल परिवार में गरल लेकर 'विषराज' आ गए हैं, लेकिन सुन लो अब कलियामर्दन के लिए बाल-गोपाल तैयार हैं. अधरों पर मीठी-मीठी वंशी है लेकिन सुदर्शन चक्र को न भूलो, वह भी है हमारे पास.
प्रगति हो रही है, शेयर बाज़ार आसमान छू रहा है, अमरीका-यूरोप लोहा मान रहे हैं, जीडीपी उठान पर है...यह सब आपके दलित-गलित, वामपंथी-दामपंथी विचारों की वजह से नहीं हो रहा है, यह हमारी प्रतिभा है, योग्यता है...विचारों से न कुछ हुआ है, न होगा, ज़रूरत है मेहनत, लगन और सबसे बढ़कर बहसबाज़ी में समय बर्बाद न करने की.
पसीना बहाकर, सॉफ्टवेयर उड़ाकर, लिंक लगाकर, रातों की नींद गँवाकर...हमने एक कुनबा बनाया जिसमें सब समानधर्मा लोग थे, सबको विश्वास था कि--लेकर हाथों में हाथ, हम चलेंगे साथ-साथ, हम होंगे कामयाब एक दिन...सबसे बड़ी पंगत-संगत-रंगत अपनी होगी, सब लोग एक क़तार में बैठकर भंडारा खाएँगे और जयकारे लगाएँगे.
हमने सपनों की कोमल दुनिया बसाई थी लेकिन यहाँ भी रुखे-सूखे-भूखे लोगों की बात करने वाले आ धमके. अकाल पीड़ित-बाढ़ पीड़ित और तो और दंगा पीड़ितों की बात करने वाले आ पहुँचे. इसके कहते हैं रंग में भंग करना.
जो गुजर चुका है वह गुजरात इनके लिए गुजरता ही नहीं है...चलता ही जा रहा है. गांधी के राज्य को जिस मोदी ने गौरव दिलाया उसे ये लोग रौरव बता रहे हैं, हद होती है नासमझी की. यहाँ आने से पहले तक इन्हें कोई पूछता न था और अब रंग देखिए कि एक बदज़बान आदमी की ज़बान काटे जाने पर छोड़कर जाने की धमकियाँ दे रहे हैं. जहाँ नौकरी करते हो वहाँ दो न ये धमकी, अगर हिम्मत है तो...
हम रात-दिन एक करते हैं, गैजेट्स, सॉफ़्टवेयर्स, एप्लिकेशंस के बारे में पढ़ते हैं ताकि देश का विकास हो, हिंदी फले-फूले...और लोग हैं कि चले आते हैं दो चार उलजलूल वाद-प्रतिवाद-संवाद-चर्चा-परिचर्चा वाली किताबें पढ़कर वही घिसापिटा राग लिए... लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक और साम्राज्यवाद का रोना लेकर, एक ही सॉफ्टवेयर है जिसका पिछले दो जेनरेशन से कोई अपग्रेड नहीं आया है.
राजनीति से हमारा क्या लेना-देना, हम तो शांतिप्रिय-प्रतिभाशाली लोग हैं जो देश, भाषा, संस्कृति और सबसे बढ़कर इंटरनेट क्रांति में योगदान दे रहे हैं. हाय! क्या वक़्त आ गया है, हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ कर रही है, एक बार कोड का एक कैरेक्टर बदल दिया तो जीवन भर एरर में गुज़रेगा.
(इसे कृपया व्यंग्य न समझें, यह पिछले कुछ दिनों में नारद पर लिखे गए सच्चे पोस्टों और टिप्पणियों पर आधारित है. यह एक शांतिप्रिय कुनबे का घोषणापत्र है इसे उसी तरह देखने में सबकी भलाई निहित है. नारद के सभी इलेक्ट्रॉनिक स्वामियों को सादर समर्पित. )
दिन भर के थके-हारे योद्धा यहाँ कहानियों, कविताओं और चुटकुलों के चंदोवे में विश्राम करते हैं. भोमियो, जावा, ड्रीमवीवर, विस्टा जैसे-जैसे अग्रगामी पात्र हैं जो पूरी दुनिया के दुख-दर्द मिटाकर आनंदवर्षा कर रहे हैं. पूरी दुनिया एक दूसरे से जुड़ी है, जो नहीं जुड़े हैं वे चूहड़े हैं, पहले भी थे आगे भी रहेंगे.
हम इस हरी-हरी वसुंधरा की स्वस्थ-समृद्ध संतानें हैं, हमने अपना भाग्य अपनी मेहनत से रचा है, जो नीचे से कराहते हैं उनकी बात करने के लिए नेता लोग हैं, टुटपुंजिए पत्रकार हैं.
यह हमारी दुनिया है, हमने बनाई है, यहाँ हमारी प्रगति की ललक है, यहाँ हमारी समझ की चमक है, यहाँ हमारी शक्ति की दमक है, हमारे पास इसका पासवर्ड है. यहाँ उन लोगों की बात क्यों करते हो जो किसी कैम्प-वैम्प में अपनी करनी का फल भोग रहे हैं.
हवाई बातों के पवनपुत्र हमारी इस अ-शोक वाटिका में उत्पात मचाने आ गए हैं, हँसते-खेलते सरल परिवार में गरल लेकर 'विषराज' आ गए हैं, लेकिन सुन लो अब कलियामर्दन के लिए बाल-गोपाल तैयार हैं. अधरों पर मीठी-मीठी वंशी है लेकिन सुदर्शन चक्र को न भूलो, वह भी है हमारे पास.
प्रगति हो रही है, शेयर बाज़ार आसमान छू रहा है, अमरीका-यूरोप लोहा मान रहे हैं, जीडीपी उठान पर है...यह सब आपके दलित-गलित, वामपंथी-दामपंथी विचारों की वजह से नहीं हो रहा है, यह हमारी प्रतिभा है, योग्यता है...विचारों से न कुछ हुआ है, न होगा, ज़रूरत है मेहनत, लगन और सबसे बढ़कर बहसबाज़ी में समय बर्बाद न करने की.
पसीना बहाकर, सॉफ्टवेयर उड़ाकर, लिंक लगाकर, रातों की नींद गँवाकर...हमने एक कुनबा बनाया जिसमें सब समानधर्मा लोग थे, सबको विश्वास था कि--लेकर हाथों में हाथ, हम चलेंगे साथ-साथ, हम होंगे कामयाब एक दिन...सबसे बड़ी पंगत-संगत-रंगत अपनी होगी, सब लोग एक क़तार में बैठकर भंडारा खाएँगे और जयकारे लगाएँगे.
हमने सपनों की कोमल दुनिया बसाई थी लेकिन यहाँ भी रुखे-सूखे-भूखे लोगों की बात करने वाले आ धमके. अकाल पीड़ित-बाढ़ पीड़ित और तो और दंगा पीड़ितों की बात करने वाले आ पहुँचे. इसके कहते हैं रंग में भंग करना.
जो गुजर चुका है वह गुजरात इनके लिए गुजरता ही नहीं है...चलता ही जा रहा है. गांधी के राज्य को जिस मोदी ने गौरव दिलाया उसे ये लोग रौरव बता रहे हैं, हद होती है नासमझी की. यहाँ आने से पहले तक इन्हें कोई पूछता न था और अब रंग देखिए कि एक बदज़बान आदमी की ज़बान काटे जाने पर छोड़कर जाने की धमकियाँ दे रहे हैं. जहाँ नौकरी करते हो वहाँ दो न ये धमकी, अगर हिम्मत है तो...
हम रात-दिन एक करते हैं, गैजेट्स, सॉफ़्टवेयर्स, एप्लिकेशंस के बारे में पढ़ते हैं ताकि देश का विकास हो, हिंदी फले-फूले...और लोग हैं कि चले आते हैं दो चार उलजलूल वाद-प्रतिवाद-संवाद-चर्चा-परिचर्चा वाली किताबें पढ़कर वही घिसापिटा राग लिए... लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक और साम्राज्यवाद का रोना लेकर, एक ही सॉफ्टवेयर है जिसका पिछले दो जेनरेशन से कोई अपग्रेड नहीं आया है.
राजनीति से हमारा क्या लेना-देना, हम तो शांतिप्रिय-प्रतिभाशाली लोग हैं जो देश, भाषा, संस्कृति और सबसे बढ़कर इंटरनेट क्रांति में योगदान दे रहे हैं. हाय! क्या वक़्त आ गया है, हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ कर रही है, एक बार कोड का एक कैरेक्टर बदल दिया तो जीवन भर एरर में गुज़रेगा.
(इसे कृपया व्यंग्य न समझें, यह पिछले कुछ दिनों में नारद पर लिखे गए सच्चे पोस्टों और टिप्पणियों पर आधारित है. यह एक शांतिप्रिय कुनबे का घोषणापत्र है इसे उसी तरह देखने में सबकी भलाई निहित है. नारद के सभी इलेक्ट्रॉनिक स्वामियों को सादर समर्पित. )
17 जून, 2007
नारद पर ज़बानदराज़ी चल सकती है ज़बानतराशी नहीं
मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब एक ग़लती को दूसरी बड़ी ग़लती से ठीक करने की कोशिश की जाती है.
जिस वाद-विवाद की वजह से बात यहाँ तक पहुँची उसकी क्रमबद्ध 'आपराधिक जाँच' (क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन) का कोई मतलब नहीं है क्योंकि मुद्दा अब वह नहीं रह गया है.
नारद के प्रबंधकों ने जो 'कड़ी कार्रवाई' की और उसके बाद जिस हर्षोल्लास के साथ उसका स्वागत किया गया उससे एक लकीर खिंच गई है. अब हर किसी पर यह बताने का दबाव-सा बन गया है कि वह लकीर के किस तरफ़ है.
ऐसी लकीरें हमेशा वही खींचते हैं जिनकी चर्चा-बहस-संवाद की परंपरा में कोई आस्था नहीं है, यह परंपरा सिर्फ़ लोकतांत्रिक नहीं बल्कि 'आर्गुमेंटेटिव इंडियन' वाली भारतीय परंपरा है. ख़ैर, जाने दीजिए...अनेक विवादों के संदर्भ में यह बात-बात कई बार कही जा चुकी है.
बहकता-चहकता पोस्ट 'शाबास नारद' आया जिसमें गिरिराज जोशी ने रणभेरी बजाते हुए कहा, "नारद से ऐसे सभी चिट्ठों को निकाल फैंको जो इसका विरोध करते हैं..."
इस हिसाब से मैं निकाले जाने का पात्र बन चुका हूँ. मैंने अपनी पात्रता का प्रमाणपत्र फ़ौरन ही गिरिराज जी को भेज दिया था. मुझे लगा कि अब चुप रहना ग़लत होगा, मैंने लिखा-- "आपके विचारों का विरोध न करना और उसे ग़लत न कहना अधर्म होगा, पाप होगा."
लकीर खींचने वाले साहब वही कर गुज़रे जो श्रीमान बुश ने किया था, "या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे ख़िलाफ़"..
मुझे बताना पड़ा कि मैं लकीर के दूसरी तरफ़ हूँ, उनकी तरफ़ नहीं. इसका ये मतलब क़तई नहीं है कि मैं ओसामा के साथ था, लेकिन लकीर खींचकर आपने मुझे दूसरी तरफ़ धकिया दिया है.
मुझे अगर बदज़बानी करने वाले और ज़बान काटने का फ़रमान सुनाने वाले में से एक को चुनना ही पड़ेगा तो मैं राजा के ख़िलाफ़ हूँ.
दुखद बात ये है कि नारद को अपने सक्रिय सहयोग से चलाने वाले भाई श्री संजय जी बेंगाणी को गिरिराज जोशी की पोस्ट का मतलब समझ में नहीं आया, उनकी प्रतिक्रिया थी-- "क्या लय में लिखा है, खुब. मुझे तो लगा था आज नारद केवल गालियाँ ही खाने वाला है. शाबास."
संजय जी और अन्य कई चिट्ठाकार दोस्त इस बात से परेशान रहते हैं कि सांप्रदायिकता, हिंदू-मुसलमान, आरक्षण, दलित आदि विषयों पर चर्चा करके कुछ लोग चिट्ठाकारों में फूट डाल रहे हैं. संजय जी की नज़र उस दरार पर नहीं गई जो गिरिराज जी और कुछ अन्य साथियों ने डाली है.
महाशक्ति जी की शक्तिशाली टिप्पणियाँ भी कम विचारणीय नहीं हैं जिनमें 'मक्कार पत्रकारों', 'हिन्दू विरोधी तालीबानी लेखों', 'दीमकों' और 'विषराजों' का फन कुचलने के साथ-साथ 'मुहल्ले को भी सर्वाजनिक रूप से निष्कासित एवं बहिष्कृत' करने की अनुशंसा की गई है.
अंत में एक निर्णायक उदघोष--"आज समय आ गया है कि इन सॉंपों की पूरी नस्ल को कुचल दिया जाना चाहिए." वाक़ई बहुत ज़हर है.
इस पर भी बेंगाणी जी की 'बहुत खुब' वाली टिप्पणी दर्ज है, ढेर सारे साथी हैं जिन्होंने महाशक्ति जी के विचारपरक लेखन का करतल ध्वनि से स्वागत किया है.
विचार, सरोकार, हिंदुत्व, इस्लाम, न्याय, उदारता, लोकतंत्र, सांप्रदायिकता, आरक्षण, गुजरात, मोदी... जैसे कुल दस-पंद्रह शब्द हैं जिनका ज़िक्र आते ही कुछ दोस्तों को सचमुच तकलीफ़ होने लगती है. ये शब्द मुझे भी बहुत तकलीफ़ देते हैं इसलिए उन पर चर्चा ज़रूरी लगती है वह चाहे मुहल्ले वाले अविनाश करें या समाजवादी जन परिषद वाले अफ़लातून जी.
बेंगाणी जी को गालियाँ देने वाले राहुल के कृत्य के ख़िलाफ़ कोई निंदा प्रस्ताव लाया जाता तो अफ़लातून, धुरविरोधी, मसिजीवी, अभय तिवारी, प्रमोद सिंह जैसे अनेक लोग उसका समर्थन करते जो आज नारद के फ़ैसले के विरोध में खड़े हैं. सीधी सी वजह है कि आपने लकीर खींच दी है.
'कड़ी कार्रवाई' और उसके बाद के जश्न में गाए गए विजयगान और प्रयाणगीत से स्पष्ट हो गया है कि अब भीष्म और द्रोण भी तटस्थ नहीं हो सकते, उन्हें बताना होगा कि वे किधर हैं.
यह पोस्ट व्यक्तियों के विरोध या समर्थन में नहीं बल्कि प्रवृत्तियों के बारे में है. विचारहीनता और असहिष्णुता भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है जिसका सम्मान करते हुए इससे ज़्यादा कुछ लिखना ठीक नहीं होगा.
जिस वाद-विवाद की वजह से बात यहाँ तक पहुँची उसकी क्रमबद्ध 'आपराधिक जाँच' (क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन) का कोई मतलब नहीं है क्योंकि मुद्दा अब वह नहीं रह गया है.
नारद के प्रबंधकों ने जो 'कड़ी कार्रवाई' की और उसके बाद जिस हर्षोल्लास के साथ उसका स्वागत किया गया उससे एक लकीर खिंच गई है. अब हर किसी पर यह बताने का दबाव-सा बन गया है कि वह लकीर के किस तरफ़ है.
ऐसी लकीरें हमेशा वही खींचते हैं जिनकी चर्चा-बहस-संवाद की परंपरा में कोई आस्था नहीं है, यह परंपरा सिर्फ़ लोकतांत्रिक नहीं बल्कि 'आर्गुमेंटेटिव इंडियन' वाली भारतीय परंपरा है. ख़ैर, जाने दीजिए...अनेक विवादों के संदर्भ में यह बात-बात कई बार कही जा चुकी है.
बहकता-चहकता पोस्ट 'शाबास नारद' आया जिसमें गिरिराज जोशी ने रणभेरी बजाते हुए कहा, "नारद से ऐसे सभी चिट्ठों को निकाल फैंको जो इसका विरोध करते हैं..."
इस हिसाब से मैं निकाले जाने का पात्र बन चुका हूँ. मैंने अपनी पात्रता का प्रमाणपत्र फ़ौरन ही गिरिराज जी को भेज दिया था. मुझे लगा कि अब चुप रहना ग़लत होगा, मैंने लिखा-- "आपके विचारों का विरोध न करना और उसे ग़लत न कहना अधर्म होगा, पाप होगा."
लकीर खींचने वाले साहब वही कर गुज़रे जो श्रीमान बुश ने किया था, "या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे ख़िलाफ़"..
मुझे बताना पड़ा कि मैं लकीर के दूसरी तरफ़ हूँ, उनकी तरफ़ नहीं. इसका ये मतलब क़तई नहीं है कि मैं ओसामा के साथ था, लेकिन लकीर खींचकर आपने मुझे दूसरी तरफ़ धकिया दिया है.
मुझे अगर बदज़बानी करने वाले और ज़बान काटने का फ़रमान सुनाने वाले में से एक को चुनना ही पड़ेगा तो मैं राजा के ख़िलाफ़ हूँ.
दुखद बात ये है कि नारद को अपने सक्रिय सहयोग से चलाने वाले भाई श्री संजय जी बेंगाणी को गिरिराज जोशी की पोस्ट का मतलब समझ में नहीं आया, उनकी प्रतिक्रिया थी-- "क्या लय में लिखा है, खुब. मुझे तो लगा था आज नारद केवल गालियाँ ही खाने वाला है. शाबास."
संजय जी और अन्य कई चिट्ठाकार दोस्त इस बात से परेशान रहते हैं कि सांप्रदायिकता, हिंदू-मुसलमान, आरक्षण, दलित आदि विषयों पर चर्चा करके कुछ लोग चिट्ठाकारों में फूट डाल रहे हैं. संजय जी की नज़र उस दरार पर नहीं गई जो गिरिराज जी और कुछ अन्य साथियों ने डाली है.
महाशक्ति जी की शक्तिशाली टिप्पणियाँ भी कम विचारणीय नहीं हैं जिनमें 'मक्कार पत्रकारों', 'हिन्दू विरोधी तालीबानी लेखों', 'दीमकों' और 'विषराजों' का फन कुचलने के साथ-साथ 'मुहल्ले को भी सर्वाजनिक रूप से निष्कासित एवं बहिष्कृत' करने की अनुशंसा की गई है.
अंत में एक निर्णायक उदघोष--"आज समय आ गया है कि इन सॉंपों की पूरी नस्ल को कुचल दिया जाना चाहिए." वाक़ई बहुत ज़हर है.
इस पर भी बेंगाणी जी की 'बहुत खुब' वाली टिप्पणी दर्ज है, ढेर सारे साथी हैं जिन्होंने महाशक्ति जी के विचारपरक लेखन का करतल ध्वनि से स्वागत किया है.
विचार, सरोकार, हिंदुत्व, इस्लाम, न्याय, उदारता, लोकतंत्र, सांप्रदायिकता, आरक्षण, गुजरात, मोदी... जैसे कुल दस-पंद्रह शब्द हैं जिनका ज़िक्र आते ही कुछ दोस्तों को सचमुच तकलीफ़ होने लगती है. ये शब्द मुझे भी बहुत तकलीफ़ देते हैं इसलिए उन पर चर्चा ज़रूरी लगती है वह चाहे मुहल्ले वाले अविनाश करें या समाजवादी जन परिषद वाले अफ़लातून जी.
बेंगाणी जी को गालियाँ देने वाले राहुल के कृत्य के ख़िलाफ़ कोई निंदा प्रस्ताव लाया जाता तो अफ़लातून, धुरविरोधी, मसिजीवी, अभय तिवारी, प्रमोद सिंह जैसे अनेक लोग उसका समर्थन करते जो आज नारद के फ़ैसले के विरोध में खड़े हैं. सीधी सी वजह है कि आपने लकीर खींच दी है.
'कड़ी कार्रवाई' और उसके बाद के जश्न में गाए गए विजयगान और प्रयाणगीत से स्पष्ट हो गया है कि अब भीष्म और द्रोण भी तटस्थ नहीं हो सकते, उन्हें बताना होगा कि वे किधर हैं.
यह पोस्ट व्यक्तियों के विरोध या समर्थन में नहीं बल्कि प्रवृत्तियों के बारे में है. विचारहीनता और असहिष्णुता भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है जिसका सम्मान करते हुए इससे ज़्यादा कुछ लिखना ठीक नहीं होगा.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
anamdas ka chitta,
blog,
hindi
14 जून, 2007
मन का काम, मन ही जाने
अपने मन का काम, इससे बढ़कर कोई और माँग आप ख़ुद से नहीं कर सकते.
अपने मन का काम वही होता है जो आप इस समय नहीं कर रहे या करने की स्थिति में नहीं हैं. इससे ज़्यादा रूमानी ख़याल कोई और होता भी नहीं.
जब तक मौत की आहट सुनाई न देने लगे ज़्यादातर लोग ऐसे ही ख़यालों में जीते हैं, कुछ लोग पक्की कोशिश करते हैं और कुछ लोग कसमसा कर रह जाते हैं. अपना अभी तय होना है कि किस खाँचे में फिट होंगे.
अपनी नज़र में सफल आदमी वही है जो अपने मन की करता है. यह सफलता कई बार भगीरथ प्रयत्न से मिलती है और कई बार सहज प्रारब्ध से.
मेरी नज़र में जंगीलाल चौधरी सबसे सफल आदमी था जो हमारे मुहल्ले में कोयले की टाल चलाता था. सफ़ेद धोती और नीले कुर्ते में गद्दी पर बैठकर सौंफ-सुपारी खाता था, उसके आदिवासी मज़दूर कोयला तौलते थे, ग्राहक को दो-चार किलो ज़्यादा भी दे दें तो टन-मन के हिसाब में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था जंगीलाल को. उसने जीवन भर कोयला बेचने के अलावा कभी कुछ और करने की कुलबुलाहट नहीं पाली.
कोयला बेचकर या काग़ज़ काला करके, थोड़ा ऐसे या वैसे, घर सबका चलता है लेकिन ज़्यादातर लोग फेंस के उधर जाने के लिए छटपटाते हैं. जो पत्रकार नहीं हैं वे पत्रकार बनना चाहते हैं, जो पत्रकार हैं वे कार्यकर्ता बनना चाहते हैं या फिर लेखक, जो दुकानदार हैं वे कलमकार बनना चाहते हैं और कलमकार चाहते हैं कि दुकान चल निकले.
मेरे एक पुराने परिचित के पिता कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो में थे, बेटा बाप से बढ़कर निकला, माले का पर्ची काटने वाला कार्यकर्ता बन गया. जब मूँछे पकने लगीं तब घर बसाने का ख़याल आया तो पत्रकार बना, मगर संयोगवश एक संघी संपादक की अर्दल में. संपादक जी मकान मालिकों से तंग आए तो भाजपाई मुख्यमंत्री की कृपा से कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनी जिसके कोषाध्यक्ष बने माले वाले भाई. अपार्टमेंट बना और माले वाले भाई मालामाल हुए, उसके बाद पूरे प्रॉपर्टी डीलर बन गए.
माले वाले इस मालदार परिचित को मैं सचमुच सफल आदमी मानता हूँ क्योंकि उन्होंने हर दौर में अपने मन का काम किया, जब मन किया तब सर्वहारा के संगी बने और जब मन किया तो ज़ार के संगी बनकर चौथेपन में नवाबी आनंद लिया. जंगीलाग और माले वाले मालामाल, दोनों सफल हैं, एक प्रारब्ध से और दूसरा प्रयत्न से.
एक दोस्त हैं जो एम्स की नौकरी छोड़कर असम में ग़रीब लोगों का मुफ़्त इलाज कर रहे हैं, दूसरे हैं जो बिहार पुलिस की राह में बारूद बिछाने जैसा दिलेरी भरा काम बरसों करने के बाद अब पटना में पीसीओ चला रहे हैं. तरह-तरह के लोग हैं, सबकी अपनी-अपनी पिनक है, मेरी भी पिनक है लेकिन कई बार लगता है कि मन की करने के लिए जो मनमानी करनी पड़ती है उसके लायक़ कलेजा नहीं है अपने पास.
जब आप अपने मन की करते हैं तो बाक़ी लोगों के लिए मनमानी ही कर रहे होते हैं. ख़ानदानी नौकरीपेशा परिवार में पैदा हुए नाचीज़ ने जब ऐलान किया कि सरकारी नौकरी नहीं करूँगा तो घर में स्यापा पसर गया, ये नहीं कहा था कि नौकरी नहीं करूँगा. मन का काम तब यही था कि बाप जो कहें वह नहीं करना है. बस यहीं तक मन का काम किया.
मन करता है किताब लिख मारूँ जो मास्टरपीस हो जाए, मन करता है फ़िल्म बनाऊँ जो कुरोसावा और फेलिनी की श्रेणी में रखी जाए, मन करता है कोलंबस और कैप्टन कुक की तरह पूरी दुनिया छान मारूँ, मन करता है कि घूम-घूमकर दुनिया भर के जनसंघर्षों का गवाह बनूँ, मन करता है कि सिर्फ़ मन की करूँ. लेकिन करता क्या हूँ, सिर्फ़ नौकरी.
मकान की किस्त भरनी है, बुढ़ापा आरामदेह बनाना है, बच्चे की सही परवरिश करनी है. कई बार दिल में आया कि नौकरी छोड़ दूँ और करूँ अपने मन की. किसी तरह जुगाड़ हो जाएगा रोज़ी-रोटी का, सिर्फ़ नौकरी करना भी कोई जीवन है, ज़रा पढूँ-लिखूँ, दुनिया देखूँ. बीवी ने एक सादा सा सवाल पूछा, 'बेटे से जब स्कूल में लोग पूछेंगे कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो वह क्या जवाब देगा.'
मैं सोचता हूँ क्या वह यह नहीं कह सकता 'जो मन करता है, करते हैं.' क्या आपको मेरा यह परिचय स्वीकार्य है कि मैं वही करता हूँ जो मेरा मन कहता है.
माँ-बाप, बीवी-बच्चे, दफ़्तर-समाज, दीन-दुनिया के हिसाब से काम न करके अपने मन से चलूँगा तो क्या मुझे एक 'अच्छा आदमी' माना जाएगा? लेकिन अपने मन से नहीं चलूँगा तो क्या अपनी नज़र में सफल आदमी बन पाऊँगा? एक साथ 'अच्छा और सफल आदमी' बनने की उधेड़बुन है सारी ज़िंदगी.
कहिए उधेड़ूँ या बुनूँ?
(प्रमोद सिंह और अभय तिवारी के परस्पर संवाद की प्रेरणा से लिखे गए इस चिट्ठे पर अपनी राय देकर इसे सफल बनाएँ.)
अपने मन का काम वही होता है जो आप इस समय नहीं कर रहे या करने की स्थिति में नहीं हैं. इससे ज़्यादा रूमानी ख़याल कोई और होता भी नहीं.
जब तक मौत की आहट सुनाई न देने लगे ज़्यादातर लोग ऐसे ही ख़यालों में जीते हैं, कुछ लोग पक्की कोशिश करते हैं और कुछ लोग कसमसा कर रह जाते हैं. अपना अभी तय होना है कि किस खाँचे में फिट होंगे.
अपनी नज़र में सफल आदमी वही है जो अपने मन की करता है. यह सफलता कई बार भगीरथ प्रयत्न से मिलती है और कई बार सहज प्रारब्ध से.
मेरी नज़र में जंगीलाल चौधरी सबसे सफल आदमी था जो हमारे मुहल्ले में कोयले की टाल चलाता था. सफ़ेद धोती और नीले कुर्ते में गद्दी पर बैठकर सौंफ-सुपारी खाता था, उसके आदिवासी मज़दूर कोयला तौलते थे, ग्राहक को दो-चार किलो ज़्यादा भी दे दें तो टन-मन के हिसाब में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था जंगीलाल को. उसने जीवन भर कोयला बेचने के अलावा कभी कुछ और करने की कुलबुलाहट नहीं पाली.
कोयला बेचकर या काग़ज़ काला करके, थोड़ा ऐसे या वैसे, घर सबका चलता है लेकिन ज़्यादातर लोग फेंस के उधर जाने के लिए छटपटाते हैं. जो पत्रकार नहीं हैं वे पत्रकार बनना चाहते हैं, जो पत्रकार हैं वे कार्यकर्ता बनना चाहते हैं या फिर लेखक, जो दुकानदार हैं वे कलमकार बनना चाहते हैं और कलमकार चाहते हैं कि दुकान चल निकले.
मेरे एक पुराने परिचित के पिता कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो में थे, बेटा बाप से बढ़कर निकला, माले का पर्ची काटने वाला कार्यकर्ता बन गया. जब मूँछे पकने लगीं तब घर बसाने का ख़याल आया तो पत्रकार बना, मगर संयोगवश एक संघी संपादक की अर्दल में. संपादक जी मकान मालिकों से तंग आए तो भाजपाई मुख्यमंत्री की कृपा से कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनी जिसके कोषाध्यक्ष बने माले वाले भाई. अपार्टमेंट बना और माले वाले भाई मालामाल हुए, उसके बाद पूरे प्रॉपर्टी डीलर बन गए.
माले वाले इस मालदार परिचित को मैं सचमुच सफल आदमी मानता हूँ क्योंकि उन्होंने हर दौर में अपने मन का काम किया, जब मन किया तब सर्वहारा के संगी बने और जब मन किया तो ज़ार के संगी बनकर चौथेपन में नवाबी आनंद लिया. जंगीलाग और माले वाले मालामाल, दोनों सफल हैं, एक प्रारब्ध से और दूसरा प्रयत्न से.
एक दोस्त हैं जो एम्स की नौकरी छोड़कर असम में ग़रीब लोगों का मुफ़्त इलाज कर रहे हैं, दूसरे हैं जो बिहार पुलिस की राह में बारूद बिछाने जैसा दिलेरी भरा काम बरसों करने के बाद अब पटना में पीसीओ चला रहे हैं. तरह-तरह के लोग हैं, सबकी अपनी-अपनी पिनक है, मेरी भी पिनक है लेकिन कई बार लगता है कि मन की करने के लिए जो मनमानी करनी पड़ती है उसके लायक़ कलेजा नहीं है अपने पास.
जब आप अपने मन की करते हैं तो बाक़ी लोगों के लिए मनमानी ही कर रहे होते हैं. ख़ानदानी नौकरीपेशा परिवार में पैदा हुए नाचीज़ ने जब ऐलान किया कि सरकारी नौकरी नहीं करूँगा तो घर में स्यापा पसर गया, ये नहीं कहा था कि नौकरी नहीं करूँगा. मन का काम तब यही था कि बाप जो कहें वह नहीं करना है. बस यहीं तक मन का काम किया.
मन करता है किताब लिख मारूँ जो मास्टरपीस हो जाए, मन करता है फ़िल्म बनाऊँ जो कुरोसावा और फेलिनी की श्रेणी में रखी जाए, मन करता है कोलंबस और कैप्टन कुक की तरह पूरी दुनिया छान मारूँ, मन करता है कि घूम-घूमकर दुनिया भर के जनसंघर्षों का गवाह बनूँ, मन करता है कि सिर्फ़ मन की करूँ. लेकिन करता क्या हूँ, सिर्फ़ नौकरी.
मकान की किस्त भरनी है, बुढ़ापा आरामदेह बनाना है, बच्चे की सही परवरिश करनी है. कई बार दिल में आया कि नौकरी छोड़ दूँ और करूँ अपने मन की. किसी तरह जुगाड़ हो जाएगा रोज़ी-रोटी का, सिर्फ़ नौकरी करना भी कोई जीवन है, ज़रा पढूँ-लिखूँ, दुनिया देखूँ. बीवी ने एक सादा सा सवाल पूछा, 'बेटे से जब स्कूल में लोग पूछेंगे कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो वह क्या जवाब देगा.'
मैं सोचता हूँ क्या वह यह नहीं कह सकता 'जो मन करता है, करते हैं.' क्या आपको मेरा यह परिचय स्वीकार्य है कि मैं वही करता हूँ जो मेरा मन कहता है.
माँ-बाप, बीवी-बच्चे, दफ़्तर-समाज, दीन-दुनिया के हिसाब से काम न करके अपने मन से चलूँगा तो क्या मुझे एक 'अच्छा आदमी' माना जाएगा? लेकिन अपने मन से नहीं चलूँगा तो क्या अपनी नज़र में सफल आदमी बन पाऊँगा? एक साथ 'अच्छा और सफल आदमी' बनने की उधेड़बुन है सारी ज़िंदगी.
कहिए उधेड़ूँ या बुनूँ?
(प्रमोद सिंह और अभय तिवारी के परस्पर संवाद की प्रेरणा से लिखे गए इस चिट्ठे पर अपनी राय देकर इसे सफल बनाएँ.)
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
blog,
blogger,
hindi
07 जून, 2007
माले मॉल दिले बेरहम
जिनके पास माल है उनके लिए मॉल है, मॉल वो जगह है जहाँ सुख और सुविधा का एक साथ वास है.
ग़रीब पहले भी थे, आज भी हैं, वे पहले भी दुखी थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे. फिर इतना मॉल-विरोधी-माहौल क्यों बना रहे हैं कुछ लोग?
इस सवाल पर विचार करना उतना ही ज़रूरी है जितना मॉल से माल ख़रीदना. मॉल से सुख मिल रहा है लोगों को. ऐसे में उस पर सवाल उठाने को सुखी व्यक्ति को कठघरे में लाने जैसा माना जाता है. मगर मेरी राय में सुखी आदमी कठघरे में खड़ा किए जाने का पहला पात्र है, न कि सूखा आदमी.
नुक़्ते की बात ये है कि किसानों के खेत उजाड़कर उद्योगों के रमण के लिए सेज़ बिछाई जा रही है, अच्छा नाम दिया है सेज़ यानी एसईज़ेड (स्पेशल इकॉनॉमिक ज़ोन). मॉल भी सेज़ है, सोशल एक्सक्लूज़न ज़ोन यानी समाज के एक हिस्से को बाहर रखने वाला ज़ोन.
हर मॉल के बाहर वर्दी डाटकर कुछ गार्ड खड़े होते हैं जिन्हें पता होता है कि उन्हें ख़ुद से थोड़ा कमतर दिखने वाले आदमी से कैसे पेश आना है. कोई बेचारा अच्छी तेल-कंघी-इस्तरी की मदद से घुस भी गया तो ग़लत अँगरेज़ी बोलकर डराने वाले सेल्समैन मौजूद हैं. वह ज़्यादा से ज़्यादा रौनक़ देखकर लौट आता है. समझ जाता है कि यह जगह उसके लिए नहीं बनाई गई है.
ज़्यादातर लोग इतने भोले हैं कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्हें मॉल से शॉपिंग में अधिक आनंद क्यों आता है. इसलिए कि वहाँ सिर्फ़ उनके जैसे लोग शॉपिंग करते हैं या फिर वे जिनके जैसा बनने की वे तमन्ना रखते हैं. मॉल ने शॉपिंग को एक शानदार एक्सपिरियंस बनाने के लिए उन लोगों को पूरी तरह एलिमिनेट कर दिया है जो आपको देश की दशा की याद दिलाकर दुखी करते हैं.
बाज़ार में जाओ तो साला हर ऐरा-ग़ैरा चला आ रहा है, मैनर्स तो हैं ही नहीं. आप माल पसंद कर रहे हैं कि कोई भिखमंगा आ गया, क़ीमती सामान लेकर चले हैं कि किसी ने साँड़ की पूँछ उमेठ दी...नालियों-गड्ढों से तो किसी तरह बच जाएँगे लेकिन शोर-धूल-धुआँ वग़ैरह-वग़ैरह... यू नो शॉपिंग हैज़ टू बी फ़न.
आपके इस अँगरेज़ी के फ़न को रूपए में बदलने का उर्दू वाला फ़न जिनके पास है उन्हें और भी कई बातें पता हैं. वे घाटा उठाने की योजना बनाकर आपसे मोहब्बत साध रहे हैं, वे जानते हैं कि आपका प्यार अटूट है. 'बाई वन गेट वन फ्री' ज़रा गुप्ता जी से लेकर दिखाइए, रीजेंसी मॉल वाले देते हैं और वजह भी बताते हैं-....बीकॉज़ वी केयर फॉर यू.
गुड़गाँव के एक पाँच मंज़िला शॉपिंग सेंटर में घुसा तो लोगों के चीख़ने की आवाज़ आई, मैं घबराया, ऊपर नज़र गई तो नौजवान पाँचवी मंज़िल पर बने प्लेटफॉर्म से कमर में रस्सी बाँधकर बंजी जंपिग कर रहे थे, फुल सेफ़्टी किट और इंस्ट्रक्टर के साथ, मुफ़्त में. लाइव बैंड था और बच्चों के लिए घूमता-फिरता मिकी माउस भी. चाट-पकौड़ी की दुकानें और अमरीकन बेगल भी. अब शॉपिंग करने यहाँ नहीं आएँगे तो क्या दरीबा और चावड़ी बाज़ार जाएँगे.
ग्लोबलाइज़ेशन का सबसे सुंदर प्रतीक है मॉल, जब आप मॉल के अंदर जाते हैं तो बिना टिकट-पासपोर्ट-वीज़ा के फौरन फॉरेन पहुँच जाते हैं. जैसे ही घुसते हैं मैनहट्टन में मछरहट्टा बाहर रह जाता है, शॉपिंग न भी करनी हो तो बीच-बीच में फॉरेन टूर का आनंद लेते रहना चाहिए, ट्रेंड्स पता रहते हैं. नाली-गंदगी-झोड़पपट्टी-ग़रीबी-बीमारी-भिखारी सबसे दूर जो आपके जीवन को स्थायी तौर पर मैनहट्टन नहीं बनने दे रहे.
मॉल वाले इतना कुछ कर रहे हैं आपके लिए, मज़ा भी आ रहा है, फिर क्यों पूछना कि 'क्यों कर रहे हो', 'कैसे कर रहे हो', 'किसके ख़र्चे पर कर रहे हो', 'क्या ज़रूरी है यह सब करना'? सवाल तो तब करना चाहिए जब आपको कोई तकलीफ़ हो, आनंद में क्या सवाल करना?
अच्छे माहौल में, अच्छा माल, अच्छी क़ीमत पर मिल रहा है तो फिर बाक़ी बातें फिज़ूल हैं. ये सब कैसे हो रहा है, आगे कैसे होगा, ये किसकी क़ीमत पर हो रहा है, सबके लिए क्यों नहीं हो रहा, यह एक अकादमिक बहस है जिसका ग्राहक से कोई सरोकार नहीं है.
ग्राहक देखता है कि उसने कितने पैसे दिए, पैसे के अलावा क़ीमतें और भी चुकाई जाती हैं. वो दूसरे लोग हैं जो अपनी अलग करेंसी में यह क़ीमत चुकाते हैं, मॉल के माल को पैक करने वाले, चढ़ाने-उतारने वाले, उगाने-धोने वाले से लेकर न जाने कौन-कौन...चीन में बैठे मज़दूर तक...जो बेहद दयनीय हालत में जीते हैं अगर उनको ज्यादा पैसा मिलेगा तो आपको सस्ता माल मिल चुका, भूलिए मत- बीकॉज़ वी केयर फ़ॉर यू (नॉट फॉर देम.)
लोकतंत्र में ख़रीदने-बेचने पर कोई रोकटोक नहीं है, साथ ही, सोचने-समझने से रोकने की साज़िशों पर भी पाबंदी नहीं है. सोचने-विचारने की भी स्वतंत्रता है मगर मॉल जैसी सुविधाजनक चीज़ या ग़रीबी जैसी दुविधाजनक चीज़ के बारे क्या सोचना. लेकिन आप मेरी तरह अड़ियल हैं तो ईपीडब्ल्यू (इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली) में छपा यह शोधपत्र पढ़ सकते हैं, उसके बाद जब मॉल में जाएँ तो मेरी तरह आपके दिल में भी थोड़ा अपराध-बोध हो.
ग़रीब पहले भी थे, आज भी हैं, वे पहले भी दुखी थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे. फिर इतना मॉल-विरोधी-माहौल क्यों बना रहे हैं कुछ लोग?
इस सवाल पर विचार करना उतना ही ज़रूरी है जितना मॉल से माल ख़रीदना. मॉल से सुख मिल रहा है लोगों को. ऐसे में उस पर सवाल उठाने को सुखी व्यक्ति को कठघरे में लाने जैसा माना जाता है. मगर मेरी राय में सुखी आदमी कठघरे में खड़ा किए जाने का पहला पात्र है, न कि सूखा आदमी.
नुक़्ते की बात ये है कि किसानों के खेत उजाड़कर उद्योगों के रमण के लिए सेज़ बिछाई जा रही है, अच्छा नाम दिया है सेज़ यानी एसईज़ेड (स्पेशल इकॉनॉमिक ज़ोन). मॉल भी सेज़ है, सोशल एक्सक्लूज़न ज़ोन यानी समाज के एक हिस्से को बाहर रखने वाला ज़ोन.
हर मॉल के बाहर वर्दी डाटकर कुछ गार्ड खड़े होते हैं जिन्हें पता होता है कि उन्हें ख़ुद से थोड़ा कमतर दिखने वाले आदमी से कैसे पेश आना है. कोई बेचारा अच्छी तेल-कंघी-इस्तरी की मदद से घुस भी गया तो ग़लत अँगरेज़ी बोलकर डराने वाले सेल्समैन मौजूद हैं. वह ज़्यादा से ज़्यादा रौनक़ देखकर लौट आता है. समझ जाता है कि यह जगह उसके लिए नहीं बनाई गई है.
ज़्यादातर लोग इतने भोले हैं कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्हें मॉल से शॉपिंग में अधिक आनंद क्यों आता है. इसलिए कि वहाँ सिर्फ़ उनके जैसे लोग शॉपिंग करते हैं या फिर वे जिनके जैसा बनने की वे तमन्ना रखते हैं. मॉल ने शॉपिंग को एक शानदार एक्सपिरियंस बनाने के लिए उन लोगों को पूरी तरह एलिमिनेट कर दिया है जो आपको देश की दशा की याद दिलाकर दुखी करते हैं.
बाज़ार में जाओ तो साला हर ऐरा-ग़ैरा चला आ रहा है, मैनर्स तो हैं ही नहीं. आप माल पसंद कर रहे हैं कि कोई भिखमंगा आ गया, क़ीमती सामान लेकर चले हैं कि किसी ने साँड़ की पूँछ उमेठ दी...नालियों-गड्ढों से तो किसी तरह बच जाएँगे लेकिन शोर-धूल-धुआँ वग़ैरह-वग़ैरह... यू नो शॉपिंग हैज़ टू बी फ़न.
आपके इस अँगरेज़ी के फ़न को रूपए में बदलने का उर्दू वाला फ़न जिनके पास है उन्हें और भी कई बातें पता हैं. वे घाटा उठाने की योजना बनाकर आपसे मोहब्बत साध रहे हैं, वे जानते हैं कि आपका प्यार अटूट है. 'बाई वन गेट वन फ्री' ज़रा गुप्ता जी से लेकर दिखाइए, रीजेंसी मॉल वाले देते हैं और वजह भी बताते हैं-....बीकॉज़ वी केयर फॉर यू.
गुड़गाँव के एक पाँच मंज़िला शॉपिंग सेंटर में घुसा तो लोगों के चीख़ने की आवाज़ आई, मैं घबराया, ऊपर नज़र गई तो नौजवान पाँचवी मंज़िल पर बने प्लेटफॉर्म से कमर में रस्सी बाँधकर बंजी जंपिग कर रहे थे, फुल सेफ़्टी किट और इंस्ट्रक्टर के साथ, मुफ़्त में. लाइव बैंड था और बच्चों के लिए घूमता-फिरता मिकी माउस भी. चाट-पकौड़ी की दुकानें और अमरीकन बेगल भी. अब शॉपिंग करने यहाँ नहीं आएँगे तो क्या दरीबा और चावड़ी बाज़ार जाएँगे.
ग्लोबलाइज़ेशन का सबसे सुंदर प्रतीक है मॉल, जब आप मॉल के अंदर जाते हैं तो बिना टिकट-पासपोर्ट-वीज़ा के फौरन फॉरेन पहुँच जाते हैं. जैसे ही घुसते हैं मैनहट्टन में मछरहट्टा बाहर रह जाता है, शॉपिंग न भी करनी हो तो बीच-बीच में फॉरेन टूर का आनंद लेते रहना चाहिए, ट्रेंड्स पता रहते हैं. नाली-गंदगी-झोड़पपट्टी-ग़रीबी-बीमारी-भिखारी सबसे दूर जो आपके जीवन को स्थायी तौर पर मैनहट्टन नहीं बनने दे रहे.
मॉल वाले इतना कुछ कर रहे हैं आपके लिए, मज़ा भी आ रहा है, फिर क्यों पूछना कि 'क्यों कर रहे हो', 'कैसे कर रहे हो', 'किसके ख़र्चे पर कर रहे हो', 'क्या ज़रूरी है यह सब करना'? सवाल तो तब करना चाहिए जब आपको कोई तकलीफ़ हो, आनंद में क्या सवाल करना?
अच्छे माहौल में, अच्छा माल, अच्छी क़ीमत पर मिल रहा है तो फिर बाक़ी बातें फिज़ूल हैं. ये सब कैसे हो रहा है, आगे कैसे होगा, ये किसकी क़ीमत पर हो रहा है, सबके लिए क्यों नहीं हो रहा, यह एक अकादमिक बहस है जिसका ग्राहक से कोई सरोकार नहीं है.
ग्राहक देखता है कि उसने कितने पैसे दिए, पैसे के अलावा क़ीमतें और भी चुकाई जाती हैं. वो दूसरे लोग हैं जो अपनी अलग करेंसी में यह क़ीमत चुकाते हैं, मॉल के माल को पैक करने वाले, चढ़ाने-उतारने वाले, उगाने-धोने वाले से लेकर न जाने कौन-कौन...चीन में बैठे मज़दूर तक...जो बेहद दयनीय हालत में जीते हैं अगर उनको ज्यादा पैसा मिलेगा तो आपको सस्ता माल मिल चुका, भूलिए मत- बीकॉज़ वी केयर फ़ॉर यू (नॉट फॉर देम.)
लोकतंत्र में ख़रीदने-बेचने पर कोई रोकटोक नहीं है, साथ ही, सोचने-समझने से रोकने की साज़िशों पर भी पाबंदी नहीं है. सोचने-विचारने की भी स्वतंत्रता है मगर मॉल जैसी सुविधाजनक चीज़ या ग़रीबी जैसी दुविधाजनक चीज़ के बारे क्या सोचना. लेकिन आप मेरी तरह अड़ियल हैं तो ईपीडब्ल्यू (इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली) में छपा यह शोधपत्र पढ़ सकते हैं, उसके बाद जब मॉल में जाएँ तो मेरी तरह आपके दिल में भी थोड़ा अपराध-बोध हो.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
hindi
31 मई, 2007
लेखक हमेशा अकेला होता है, संघी नहीं
यह पक्की बात है कि लेखन खेलन नहीं है.
लेखन क्या है और लेखक कौन है यह एक अहम सवाल है, इसके बाद का सवाल ये है कि लेखक की भूमिका क्या है, लेखक का दायित्व क्या है, वह किसके प्रति उत्तरदायी है, वगैरह.
लेखन एक समानांतर सत्ता है. मेरे लेखक मेरे दिमाग़ पर राज करते हैं. रेणु, निराला, कबीर, मार्केज़, नेरूदा, कामू...
लेखक मालिक है विचारों-शब्दों-पात्रों-घटनाओं-स्थितियों का, शासक है, राजा है, सबसे बढ़कर स्वयंभू है, काफ़ी हद तक ईश्वर की तरह, अपना संसार रचता है. मानो तो देव, नहीं तो पत्थर.
छोटे-मोटे लेखक भी होते हैं जो कुछ-कुछ लिखते रहे हैं, बीच-बीच में मार्के की कोई बात कह देते हैं लेकिन जो लोग राज करते हैं वे दूसरे होते हैं, अपनी तरह से गुलशन नंदा भी हैं जिनकी सत्ता रही है लेकिन कमल कुमार, विमल कुमार, अनिल कुमार जैसे लोग जो अपने-आपको कवि-लेखक (आम काल्पनिक नाम हैं,कोई भाई बुरा न माने) समझते हैं वे भारी मुग़ालते में हैं.
मैं लिखता हूँ लेकिन ख़ुद को लेखक मानने की गुस्ताख़ी नहीं कर सकता, बात अगर शाब्दिक अर्थ की है तो जितने लोग साक्षर हैं सब लेखक हैं. मेरी नज़र में लेखक वह है जिसे लोग लेखक मानते हैं. नारद पर मैं लिखता हूँ और दूसरे लिखने वाले मुझे पढ़ते हैं इससे मैं लेखक नहीं बन जाता. बड़ा या छोटा लेकिन एक ऐसा वर्ग होना ज़रूरी है जो सचमुच आपके लिखे को पढ़ना चाहता हो, वैसे नहीं जैसे नारद पर हम एक-दूसरे को पढ़ते हैं और टिप्पणी करते हैं.
तरह-तरह के प्रगतिशील, अप्रगतिशील, तुक्कड़-मुक्कतड़, जनवादी-मनवादी आदि-आदि लेखक संघों का वर्चुअल कन्फ़ेडरेशन है नारद. इसके बाद आप कुछ रियल बना लीजिए, पर्चे छापिए, नए लोगों को प्रोत्साहन दीजिए, वाह-वाह करिए, बीस-तीस लोगों को आप लेखक कहिए, बीस-तीस लोग पढ़कर या बिना पढ़े आपको लेखक होने का सर्टिफ़िकेट दे देंगे, हो गया काम.
साम्राज्यवाद का मैं प्रबल विरोधी हूँ, साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चों में चीख़-चीख़कर नारा लगाऊँगा लेकिन एक आम आदमी के तौर पर. दो-चार परस्पर मित्र जिन्होंने पहले अपने-आपको लेखक घोषित करके 'साम्राज्यवाद विरोधी लेखक मोर्चा' बना लिया हो, उनके बारे सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि वे साम्राज्यवाद के विरोधी कम, अपने आपको लेखक साबित करने की मुहिम में ज़्यादा सक्रिय हैं.
जहाँ-जहाँ साम्राज्यवाद का विरोध हो रहा है वहाँ जाइए, नारे लगाइए. इसके लिए लेखक संघ की कोई ज़रूरत नहीं है, 'लेखक संघ' की सदस्यता से आपको तो लेखक का दर्जा मिलता है, सोचकर बताइए इससे साम्राज्यवाद का क्या बनता-बिगड़ता है.
पुरस्कार, सम्मान, प्रोत्साहन, सभा-गोष्ठी, सेमिनार-तकरार ये सब आयोजन हैं, लेखन नहीं. लेखक का काम लेखन है, आयोजन नहीं. यह निज- महिमामंडन है कि संघ बनाकर क्रांति ला देंगे, नए लेखकों को प्रोत्साहित करके मशाल में तेल डाल देंगे...इन लेखक संघों ने उनका नुक़सान किया है जो उनके सदस्य रहे हैं और उनका भी जो उनसे बाहर रहे हैं.
जो लिखता है और पढ़ा जाना चाहता है, वह साम्राज्यवाद का समर्थक और जनता का विरोधी हो ही नहीं सकता. मगर जो सचमुच का लेखक है वह अपने लेखन के ऊपर किसी संघ की सत्ता कैसे स्वीकार कर सकता है, कोई रचनाकार यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि चार लोगों की बैठक में तय हो कि वह क्या लिखेगा और क्या नहीं? एक जैसा सोचने वाले लोग स्वाभाविक तौर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं और विचार-विमर्श करते हैं लेकिन संघ बनाकर लेखन नहीं हो सकता, वह नितांत निजी और वैयक्तिक कार्य है जिसमें कोई दख़ल नहीं दे सकता.
जैसे ही आप संघ-वंघ बनाते हैं वह एक औपचारिक व्यवस्था होती है जिसके नियम-क़ानून होते हैं, नियम-क़ानून होंगे तो उनका पालन करना होगा, आपके न चाहते हुए भी एक सत्ता संरचना तैयार हो जाएगी, जैसा मैंने पहले कहा कि हर लेखक स्वयंभू होता है वह किसी और की सत्ता क्यों स्वीकार करेगा, और करेगा तो क्या ख़ाक लिखेगा?
इस मामले में सरकारी प्रश्रय वाली अकादमियों से जुड़े लेखकों की खिल्ली तो उड़ाई जाती है लेकिन पार्टी लाइन पर लिखने वालों की नहीं, यह कोई न्यायसंगत बात नहीं है.
मिसाल के तौर पर, कबीर 'मैं कूता राम का, मोतिया मेरो नाम...' और '...चक्की भली पीस खाए संसार' दोनों लिखते हैं. अगर वे किसी जनवादी लेखक संघ के सदस्य होते तो सगे कॉमरेड उन्हें 'कूता' बना देते और किसी भक्ति आंदोलन से जुड़े होते तो भगत उन्हें ही पीस खाते. यह उनकी लेखकीय स्वतंत्रता है कि धर्म और आडंबर की अपनी व्याख्या करते हैं.
सच बात तो ये है कि जिसने जो देखा, भोगा है, सीखा है, संजोया है, वही लिखेगा. कोई ग़रीब का दर्द लिखेगा, कोई अमीर का अभिमान लिखेगा, कोई दोनों का विरोधाभास लिखेगा...कोई महान लेखक तीसरी-चौथी-पाँचवी परत भी ढूँढ निकालेगा जो अब तक नहीं दिख रही...लेकिन यह कोई और तय नहीं करेगा.
पाठक अपने लेखक चुनता है और लेखक भी अपने पाठक. जैसे आप दोस्त, प्रेमिका और पत्नी को चुनते हैं वैसे ही आपको अपने लेखक को ख़ूबियों-ख़ामियों के साथ स्वीकार करना पड़ता है, वह पैकेज में आता है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप कहें कि टॉलस्टॉय का समता वाला पक्ष सही है लेकिन उनका संत वाला पक्ष हटा दो या फिर तुर्गनेव के सामंतवाद विरोधी विचार तो अच्छे हैं लेकिन इतना रंगीन मिजाज़ आदमी ठीक नहीं.
डीएच लॉरेंस, नोबोकोव को पढ़े बिना कोई जवान नहीं हो सकता (मस्तराम भी) और चेखव-तुर्गनेव को पढ़े बिना परिपक्व नहीं...देवकीनंदन खत्री और अगाथा क्रिस्टी से लेकर जेके रॉलिंग तक सबकी अपनी भूमिका है, उसी के हिसाब से उनकी जगह है. डैनियल स्टील और जॉन ग्रीशैम वह जगह नहीं पा सकते जो एन रैंड या मिलान कुंदेरा की है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे किस ख़ेमे में हैं.
ख़ेमे-वेमे के चक्कर में खुदरा लोग रहते हैं, ठीक से पढ़ने और ठीक से लिखने वालों को सार्थकता से सरोकार है. हर आदमी क्रांतियों का पोलापन और शोषण-दमन की पुख़्तगी को अच्छी तरह जानता है, उसके लिए लेखक नहीं चाहिए, और लेखक संघ तो बिल्कुल नहीं.
'अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है...' एक महान कविता है लेकिन इसलिए नहीं कि क्रांतिकारी कवि बाबा नागार्जुन ने लिखी है (वैसे इसमें क्रांति की कोई बात नहीं है), अगर इसे कांग्रेसी सांसद रहे श्रीकांत वर्मा ने भी लिखा होता तो ये महान कविता ही होती.
साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लेखकों की भूमिका पर चर्चा आगे फिर कभी.
लेखन क्या है और लेखक कौन है यह एक अहम सवाल है, इसके बाद का सवाल ये है कि लेखक की भूमिका क्या है, लेखक का दायित्व क्या है, वह किसके प्रति उत्तरदायी है, वगैरह.
लेखन एक समानांतर सत्ता है. मेरे लेखक मेरे दिमाग़ पर राज करते हैं. रेणु, निराला, कबीर, मार्केज़, नेरूदा, कामू...
लेखक मालिक है विचारों-शब्दों-पात्रों-घटनाओं-स्थितियों का, शासक है, राजा है, सबसे बढ़कर स्वयंभू है, काफ़ी हद तक ईश्वर की तरह, अपना संसार रचता है. मानो तो देव, नहीं तो पत्थर.
छोटे-मोटे लेखक भी होते हैं जो कुछ-कुछ लिखते रहे हैं, बीच-बीच में मार्के की कोई बात कह देते हैं लेकिन जो लोग राज करते हैं वे दूसरे होते हैं, अपनी तरह से गुलशन नंदा भी हैं जिनकी सत्ता रही है लेकिन कमल कुमार, विमल कुमार, अनिल कुमार जैसे लोग जो अपने-आपको कवि-लेखक (आम काल्पनिक नाम हैं,कोई भाई बुरा न माने) समझते हैं वे भारी मुग़ालते में हैं.
मैं लिखता हूँ लेकिन ख़ुद को लेखक मानने की गुस्ताख़ी नहीं कर सकता, बात अगर शाब्दिक अर्थ की है तो जितने लोग साक्षर हैं सब लेखक हैं. मेरी नज़र में लेखक वह है जिसे लोग लेखक मानते हैं. नारद पर मैं लिखता हूँ और दूसरे लिखने वाले मुझे पढ़ते हैं इससे मैं लेखक नहीं बन जाता. बड़ा या छोटा लेकिन एक ऐसा वर्ग होना ज़रूरी है जो सचमुच आपके लिखे को पढ़ना चाहता हो, वैसे नहीं जैसे नारद पर हम एक-दूसरे को पढ़ते हैं और टिप्पणी करते हैं.
तरह-तरह के प्रगतिशील, अप्रगतिशील, तुक्कड़-मुक्कतड़, जनवादी-मनवादी आदि-आदि लेखक संघों का वर्चुअल कन्फ़ेडरेशन है नारद. इसके बाद आप कुछ रियल बना लीजिए, पर्चे छापिए, नए लोगों को प्रोत्साहन दीजिए, वाह-वाह करिए, बीस-तीस लोगों को आप लेखक कहिए, बीस-तीस लोग पढ़कर या बिना पढ़े आपको लेखक होने का सर्टिफ़िकेट दे देंगे, हो गया काम.
साम्राज्यवाद का मैं प्रबल विरोधी हूँ, साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चों में चीख़-चीख़कर नारा लगाऊँगा लेकिन एक आम आदमी के तौर पर. दो-चार परस्पर मित्र जिन्होंने पहले अपने-आपको लेखक घोषित करके 'साम्राज्यवाद विरोधी लेखक मोर्चा' बना लिया हो, उनके बारे सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि वे साम्राज्यवाद के विरोधी कम, अपने आपको लेखक साबित करने की मुहिम में ज़्यादा सक्रिय हैं.
जहाँ-जहाँ साम्राज्यवाद का विरोध हो रहा है वहाँ जाइए, नारे लगाइए. इसके लिए लेखक संघ की कोई ज़रूरत नहीं है, 'लेखक संघ' की सदस्यता से आपको तो लेखक का दर्जा मिलता है, सोचकर बताइए इससे साम्राज्यवाद का क्या बनता-बिगड़ता है.
पुरस्कार, सम्मान, प्रोत्साहन, सभा-गोष्ठी, सेमिनार-तकरार ये सब आयोजन हैं, लेखन नहीं. लेखक का काम लेखन है, आयोजन नहीं. यह निज- महिमामंडन है कि संघ बनाकर क्रांति ला देंगे, नए लेखकों को प्रोत्साहित करके मशाल में तेल डाल देंगे...इन लेखक संघों ने उनका नुक़सान किया है जो उनके सदस्य रहे हैं और उनका भी जो उनसे बाहर रहे हैं.
जो लिखता है और पढ़ा जाना चाहता है, वह साम्राज्यवाद का समर्थक और जनता का विरोधी हो ही नहीं सकता. मगर जो सचमुच का लेखक है वह अपने लेखन के ऊपर किसी संघ की सत्ता कैसे स्वीकार कर सकता है, कोई रचनाकार यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि चार लोगों की बैठक में तय हो कि वह क्या लिखेगा और क्या नहीं? एक जैसा सोचने वाले लोग स्वाभाविक तौर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं और विचार-विमर्श करते हैं लेकिन संघ बनाकर लेखन नहीं हो सकता, वह नितांत निजी और वैयक्तिक कार्य है जिसमें कोई दख़ल नहीं दे सकता.
जैसे ही आप संघ-वंघ बनाते हैं वह एक औपचारिक व्यवस्था होती है जिसके नियम-क़ानून होते हैं, नियम-क़ानून होंगे तो उनका पालन करना होगा, आपके न चाहते हुए भी एक सत्ता संरचना तैयार हो जाएगी, जैसा मैंने पहले कहा कि हर लेखक स्वयंभू होता है वह किसी और की सत्ता क्यों स्वीकार करेगा, और करेगा तो क्या ख़ाक लिखेगा?
इस मामले में सरकारी प्रश्रय वाली अकादमियों से जुड़े लेखकों की खिल्ली तो उड़ाई जाती है लेकिन पार्टी लाइन पर लिखने वालों की नहीं, यह कोई न्यायसंगत बात नहीं है.
मिसाल के तौर पर, कबीर 'मैं कूता राम का, मोतिया मेरो नाम...' और '...चक्की भली पीस खाए संसार' दोनों लिखते हैं. अगर वे किसी जनवादी लेखक संघ के सदस्य होते तो सगे कॉमरेड उन्हें 'कूता' बना देते और किसी भक्ति आंदोलन से जुड़े होते तो भगत उन्हें ही पीस खाते. यह उनकी लेखकीय स्वतंत्रता है कि धर्म और आडंबर की अपनी व्याख्या करते हैं.
सच बात तो ये है कि जिसने जो देखा, भोगा है, सीखा है, संजोया है, वही लिखेगा. कोई ग़रीब का दर्द लिखेगा, कोई अमीर का अभिमान लिखेगा, कोई दोनों का विरोधाभास लिखेगा...कोई महान लेखक तीसरी-चौथी-पाँचवी परत भी ढूँढ निकालेगा जो अब तक नहीं दिख रही...लेकिन यह कोई और तय नहीं करेगा.
पाठक अपने लेखक चुनता है और लेखक भी अपने पाठक. जैसे आप दोस्त, प्रेमिका और पत्नी को चुनते हैं वैसे ही आपको अपने लेखक को ख़ूबियों-ख़ामियों के साथ स्वीकार करना पड़ता है, वह पैकेज में आता है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप कहें कि टॉलस्टॉय का समता वाला पक्ष सही है लेकिन उनका संत वाला पक्ष हटा दो या फिर तुर्गनेव के सामंतवाद विरोधी विचार तो अच्छे हैं लेकिन इतना रंगीन मिजाज़ आदमी ठीक नहीं.
डीएच लॉरेंस, नोबोकोव को पढ़े बिना कोई जवान नहीं हो सकता (मस्तराम भी) और चेखव-तुर्गनेव को पढ़े बिना परिपक्व नहीं...देवकीनंदन खत्री और अगाथा क्रिस्टी से लेकर जेके रॉलिंग तक सबकी अपनी भूमिका है, उसी के हिसाब से उनकी जगह है. डैनियल स्टील और जॉन ग्रीशैम वह जगह नहीं पा सकते जो एन रैंड या मिलान कुंदेरा की है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे किस ख़ेमे में हैं.
ख़ेमे-वेमे के चक्कर में खुदरा लोग रहते हैं, ठीक से पढ़ने और ठीक से लिखने वालों को सार्थकता से सरोकार है. हर आदमी क्रांतियों का पोलापन और शोषण-दमन की पुख़्तगी को अच्छी तरह जानता है, उसके लिए लेखक नहीं चाहिए, और लेखक संघ तो बिल्कुल नहीं.
'अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है...' एक महान कविता है लेकिन इसलिए नहीं कि क्रांतिकारी कवि बाबा नागार्जुन ने लिखी है (वैसे इसमें क्रांति की कोई बात नहीं है), अगर इसे कांग्रेसी सांसद रहे श्रीकांत वर्मा ने भी लिखा होता तो ये महान कविता ही होती.
साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लेखकों की भूमिका पर चर्चा आगे फिर कभी.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
anamdas ka chitta,
blog,
blogger,
hindi
28 मई, 2007
मायावती का हाथी और डोमटोली के सूअर
मेरे ख़ानदानी घर के संडास का मुँह जहाँ खुलता था वहाँ से एक बस्ती शुरू होती थी-डोमटोली. नाम यही था लेकिन वह बैनरों और तख़्तियों पर शोभता नहीं था इसलिए उसे हरिजन कॉलोनी या वाल्मीकि नगर लिखा जाता था. यह वैसा ही नाम था जैसे आजकल यौनकर्मी, जो सिर्फ़ लिखे हुए शब्दों में होता है, बोले हुए शब्दों में नहीं.
उस बस्ती के बोले हुए शब्द ऐसे थे जो लिखे नहीं जा सकते, जो लिखे हुए शब्द होते हैं उन्हें बोलने के लिए स्कूल जाना होता है. उस बस्ती के सौ में से पाँच लड़के स्कूल जाते थे जिन्हें 'अ' से अनार पढ़ाया जाता था जो उन्होंने कभी नहीं खाया, उनके लिए 'स' से सूअर होता था, हमारे लिए सरौता.
कोस-कोस पर पानी और बानी बदलने का मुहावरा ग़लत लगता है क्योंकि गज़ भर में मैंने उसे पूरी तरह बदलते देखा था. उनकी भाषा उन्हीं की तरह नंगी थी. उनका एक एक-एक शब्द हमारे घर में अछूत था. आज़ादलोक उनकी लड़ाइयों पर कुर्बान क्योंकि लिखे हुए शब्दों का सबसे अश्लील साहित्य उसके पासंग में नहीं. लेकिन उनकी गालियाँ उनके जीवन के मुक़ाबले बहुत शालीन थीं.
उनकी औरतें सबकी आँखों के सामने रगड़-रगड़कर नहाती थीं फिर भी उनसे गंदा कोई न था. वे किसी से बात नहीं करते थे लेकिन सबसे बदतमीज़ वही थे.
चंपक-बालभारती-मधुमुस्कान की उम्र में उनकी संतति को संतानोत्पत्ति की बारीकियाँ मालूम थीं लेकिन उन्हें किसी ने समझदार नहीं माना.
एक हज़ार लोगों के लिए कोई स्कूल और दवाख़ाना नहीं था लेकिन सरकार के दुलारे वही थे. भगवान की उन पर असीम कृपा थी इसलिए उन्होंने अपना एक अलग मंदिर बनाया था, उनका भगवान से सीधा नाता था क्योंकि वहाँ कोई पुजारी नहीं था.
सारे शहर की चोरियाँ वही करते थे क्योंकि हर दूसरे दिन डोमटोली में हवलदार आता था लेकिन चोरी कभी इतनी बड़ी नहीं होती थी कि थानेदार साहब आएँ.
उनमें से इक्का-दुक्का लोग बाइज़्ज़त सरकारी नौकरी करते थे, मुनसिपालटी की. सारे शहर की गंदगी के लिए वही ज़िम्मेदार थे क्योंकि झाड़ू लगाने के लिए उन्हें रिश्वत कोई नहीं देता था.
उनका अपना एक वोट था और एक नेता भी, जो हर चुनाव में वह खड़ा होता, नारे लगते, उसके पोस्टर सिर्फ़ डोमटोली में चिपकते और नामांकन वापस लेने के अंतिम दिन वह बैठ जाता ऐसे व्यक्ति के समर्थन में जो उन्हें उनका हक़ दिला देता, भुना सूअर और टंच ठर्रा.
दादी ने हमेशा माना कि इनरा गान्ही ने शह दी है वर्ना वे इतने बुरे नहीं थे. दादी अब नहीं हैं, डोमटोली वहीं है और मायावती लखनऊ में हैं. ताज़ा हाल देखने के लिए वहाँ जाना होगा, पता नहीं मायावती ने उन्हें और कितना बिगाड़ दिया होगा.
उस बस्ती के बोले हुए शब्द ऐसे थे जो लिखे नहीं जा सकते, जो लिखे हुए शब्द होते हैं उन्हें बोलने के लिए स्कूल जाना होता है. उस बस्ती के सौ में से पाँच लड़के स्कूल जाते थे जिन्हें 'अ' से अनार पढ़ाया जाता था जो उन्होंने कभी नहीं खाया, उनके लिए 'स' से सूअर होता था, हमारे लिए सरौता.
कोस-कोस पर पानी और बानी बदलने का मुहावरा ग़लत लगता है क्योंकि गज़ भर में मैंने उसे पूरी तरह बदलते देखा था. उनकी भाषा उन्हीं की तरह नंगी थी. उनका एक एक-एक शब्द हमारे घर में अछूत था. आज़ादलोक उनकी लड़ाइयों पर कुर्बान क्योंकि लिखे हुए शब्दों का सबसे अश्लील साहित्य उसके पासंग में नहीं. लेकिन उनकी गालियाँ उनके जीवन के मुक़ाबले बहुत शालीन थीं.
उनकी औरतें सबकी आँखों के सामने रगड़-रगड़कर नहाती थीं फिर भी उनसे गंदा कोई न था. वे किसी से बात नहीं करते थे लेकिन सबसे बदतमीज़ वही थे.
चंपक-बालभारती-मधुमुस्कान की उम्र में उनकी संतति को संतानोत्पत्ति की बारीकियाँ मालूम थीं लेकिन उन्हें किसी ने समझदार नहीं माना.
एक हज़ार लोगों के लिए कोई स्कूल और दवाख़ाना नहीं था लेकिन सरकार के दुलारे वही थे. भगवान की उन पर असीम कृपा थी इसलिए उन्होंने अपना एक अलग मंदिर बनाया था, उनका भगवान से सीधा नाता था क्योंकि वहाँ कोई पुजारी नहीं था.
सारे शहर की चोरियाँ वही करते थे क्योंकि हर दूसरे दिन डोमटोली में हवलदार आता था लेकिन चोरी कभी इतनी बड़ी नहीं होती थी कि थानेदार साहब आएँ.
उनमें से इक्का-दुक्का लोग बाइज़्ज़त सरकारी नौकरी करते थे, मुनसिपालटी की. सारे शहर की गंदगी के लिए वही ज़िम्मेदार थे क्योंकि झाड़ू लगाने के लिए उन्हें रिश्वत कोई नहीं देता था.
उनका अपना एक वोट था और एक नेता भी, जो हर चुनाव में वह खड़ा होता, नारे लगते, उसके पोस्टर सिर्फ़ डोमटोली में चिपकते और नामांकन वापस लेने के अंतिम दिन वह बैठ जाता ऐसे व्यक्ति के समर्थन में जो उन्हें उनका हक़ दिला देता, भुना सूअर और टंच ठर्रा.
दादी ने हमेशा माना कि इनरा गान्ही ने शह दी है वर्ना वे इतने बुरे नहीं थे. दादी अब नहीं हैं, डोमटोली वहीं है और मायावती लखनऊ में हैं. ताज़ा हाल देखने के लिए वहाँ जाना होगा, पता नहीं मायावती ने उन्हें और कितना बिगाड़ दिया होगा.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
blog,
hindi
22 मई, 2007
दुनिया के सबसे ताज़ा आम मैंने खाए हैं
आम की ख़ास यादें हैं. हमारे पुराने पुश्तैनी घर में आम के दो पेड़ थे एक मालदा और एक बीजू. मालदा बड़ा था और बीजू छोटा.
मालदा पकने पर भी हरा रहता था, बीजू को बाल्टी में डुबोकर रख दिया जाता था और शाम को चूसा जाता था. जिन्होंने बीजू का रस नहीं लिया है उन्हें बता दें कि वह मैंगो फ्रूटी से बेहतर होता है और बिना स्ट्रॉ के ही चूसा जाता है.
मैं उन चंद ख़ुशक़िस्मत लोगों में हूँ जिन्होंने दुनिया के सबसे ताज़ा आम खाए हैं, इस मामले में हमारा मुक़ाबले सिर्फ़ तोतों से होता था. हम स्कूल का बस्ता फेंककर सीधे पेड़ पर चढ़ते थे. आम को पेड़ की डाल से अलग किए बिना खाते थे, पूरी तरह से ऑर्गेनिक आम, धोने का सवाल कहाँ था?
आँधी में गिरे आमों को गुड़ के साथ पकाकर अम्मा गुड़म्बा बनाती थीं. पड़ोस के लोग भी टिकोले माँगने पहुँच जाते.
घर में आम का पेड़ होने की मुसीबत यह थी कि जिसके यहाँ पूजा होती थी वही पत्ते तोड़ने पहुँच जाता, कई दुकानदार तो दीवाली पर पूरी दुकान सजाने के लिए आम के पत्ते माँगते, हमें लगता इस तरह तो हमारा पेड़ नंगा हो जाएगा.
आम के पेड़ पर कौव्वों के घोंसले थे जो लोहे और अल्युमिनियम के मज़बूत तारों से बने थे, जिनमें चम्मच, जीभी और साइकल के स्पोक भी शामिल थे. कौव्वे पेड़ को अपने बाप का समझते थे, जब उनके घोंसलों में अंडे होते थे तो हमारा पेड़ पर चढ़ना असंभव कर देते थे.पेड़ को अपने बाप का समझकर वे कोई ग़लती नहीं करते थे क्योंकि उस पेड़ पर उनकी कई पुश्तें रहती थीं.
कभी-कभार ऐसे आम भी मिलते थे जो न कच्चे होते, न ही पके हुए. उनमें एक दरार सी पड़ जाती थी और वे सख़्त लेकिन काफ़ी मीठे होते थे, बड़े लोगों ने बताया कि उन्हें कोयलपादा आम कहा जाता है क्योंकि गाते-गाते हर बार आवाज़ कोयल की चोंच से ही नहीं निकलती.
हमारी दादी घर के सामने ठेला लगाने वाले को बचे हुए आम बेचने के लिए दे देती थीं. अपने घर के आमों को सड़क बिकते देखना अजीब अनुभव था, कई बार लगता कि हम क़ितने ख़ुशक़िस्मत हैं और कई बार लगता कि हमारे आम कोई और क्यों खाए.
घर में आम के दो पेड़ हों, दोनों पर मीठे फल लगते हों, ऐसे में किसो को भला क्या शिकायत हो सकती थी? हमारी बुआ को थी, कहती थीं दोनों पेड़ बेकार हैं, ख़ामख्वाह मीठे फल लगते हैं, अचार नहीं बन सकते, उसके लिए बाज़ार से आम लाना पड़ता है.
हम आम खाकर गुठलियाँ लापरवाही से आँगन में फेंक देते थे, मानसून के आने पर पूरे आँगन में 'आम की फ़सल' लहलहाने लगती क्योंकि गुठलियों से अंखुए फूट आते, एक दिन उन सबको बेरहमी से उखाड़कर फेंक दिया जाता, एक आँगन में आम के कितने पेड़ हो सकते थे?
जो कच्चे आम टपक जाते थे उन्हें टपका कहा जाता, उन्हें भूसे में लपेटकर बोरियों की कई तहों के नीचे रख दिया जाता, इस तरह गर्मी से आम दो-तीन दिन में पक जाते थे. यह इंतज़ाम अक्सर दादी की खटिया के नीचे होता था, जब दोपहर में वे सो रही होती थीं तो हम कच्चे-पक्के आम निकालकर आधा खाते-आधा फेंकते. पाँच-सात दिन में जब वे बोरियाँ खुलवातीं तो उन्हें पके हुए लेकिन चंद बचे हुए आम ही मिलते.
शहर के बीचो-बीच मकान और उसके अहाते में आम के दो पेड़, यह ऐसा कॉम्बिनेशन है जो ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता था. कई दशक तक चला. वह जितने दिन रहा सरकार की लापरवाही से. सड़क चौड़ी करने के मास्टर प्लान की चपेट में आम जनता भी आई और आम के पेड़ भी लेकिन मास्टर प्लान की घोषणा होने के तीस वर्ष बाद.
आम के एक फलदार पेड़ का मुआवज़ा मिला दो सौ रूपया जिसमें उसे कटवाने की मजदूरी भी शामिल थी. हमारे आँखों के सामने आम के पेड़ को ढेर कर दिया गया, जब उन्हें काटा गया बस उन पर मंजर लगने ही वाले थे. बात 16 साल पुरानी है लेकिन आज भी आँखें भर आती हैं.
कटे हुए आम के पेड़ से हरे पत्तों के बीच से कौव्वों के पाँच घोंसले निकाले गए, किसी चतुरसुजान ने कहा कि इसे कबाड़ी के यहाँ बेच दो, ख़ालिस लोहा है, हमने कौव्वों की बरसों की चोरी और अनूठे शिल्प को 23 रुपए में बेच दिया. उस पैसे से हमने मद्रास कॉफ़ी हाउस में डोसा खाया.
पेड़ कटने के बाद से ख़रीदकर आम खाने का मन कभी नहीं हुआ, जब कहीं मालदा दिखता है अपना दर्द हरा हो जाता है.
मालदा पकने पर भी हरा रहता था, बीजू को बाल्टी में डुबोकर रख दिया जाता था और शाम को चूसा जाता था. जिन्होंने बीजू का रस नहीं लिया है उन्हें बता दें कि वह मैंगो फ्रूटी से बेहतर होता है और बिना स्ट्रॉ के ही चूसा जाता है.
मैं उन चंद ख़ुशक़िस्मत लोगों में हूँ जिन्होंने दुनिया के सबसे ताज़ा आम खाए हैं, इस मामले में हमारा मुक़ाबले सिर्फ़ तोतों से होता था. हम स्कूल का बस्ता फेंककर सीधे पेड़ पर चढ़ते थे. आम को पेड़ की डाल से अलग किए बिना खाते थे, पूरी तरह से ऑर्गेनिक आम, धोने का सवाल कहाँ था?
आँधी में गिरे आमों को गुड़ के साथ पकाकर अम्मा गुड़म्बा बनाती थीं. पड़ोस के लोग भी टिकोले माँगने पहुँच जाते.
घर में आम का पेड़ होने की मुसीबत यह थी कि जिसके यहाँ पूजा होती थी वही पत्ते तोड़ने पहुँच जाता, कई दुकानदार तो दीवाली पर पूरी दुकान सजाने के लिए आम के पत्ते माँगते, हमें लगता इस तरह तो हमारा पेड़ नंगा हो जाएगा.
आम के पेड़ पर कौव्वों के घोंसले थे जो लोहे और अल्युमिनियम के मज़बूत तारों से बने थे, जिनमें चम्मच, जीभी और साइकल के स्पोक भी शामिल थे. कौव्वे पेड़ को अपने बाप का समझते थे, जब उनके घोंसलों में अंडे होते थे तो हमारा पेड़ पर चढ़ना असंभव कर देते थे.पेड़ को अपने बाप का समझकर वे कोई ग़लती नहीं करते थे क्योंकि उस पेड़ पर उनकी कई पुश्तें रहती थीं.
कभी-कभार ऐसे आम भी मिलते थे जो न कच्चे होते, न ही पके हुए. उनमें एक दरार सी पड़ जाती थी और वे सख़्त लेकिन काफ़ी मीठे होते थे, बड़े लोगों ने बताया कि उन्हें कोयलपादा आम कहा जाता है क्योंकि गाते-गाते हर बार आवाज़ कोयल की चोंच से ही नहीं निकलती.
हमारी दादी घर के सामने ठेला लगाने वाले को बचे हुए आम बेचने के लिए दे देती थीं. अपने घर के आमों को सड़क बिकते देखना अजीब अनुभव था, कई बार लगता कि हम क़ितने ख़ुशक़िस्मत हैं और कई बार लगता कि हमारे आम कोई और क्यों खाए.
घर में आम के दो पेड़ हों, दोनों पर मीठे फल लगते हों, ऐसे में किसो को भला क्या शिकायत हो सकती थी? हमारी बुआ को थी, कहती थीं दोनों पेड़ बेकार हैं, ख़ामख्वाह मीठे फल लगते हैं, अचार नहीं बन सकते, उसके लिए बाज़ार से आम लाना पड़ता है.
हम आम खाकर गुठलियाँ लापरवाही से आँगन में फेंक देते थे, मानसून के आने पर पूरे आँगन में 'आम की फ़सल' लहलहाने लगती क्योंकि गुठलियों से अंखुए फूट आते, एक दिन उन सबको बेरहमी से उखाड़कर फेंक दिया जाता, एक आँगन में आम के कितने पेड़ हो सकते थे?
जो कच्चे आम टपक जाते थे उन्हें टपका कहा जाता, उन्हें भूसे में लपेटकर बोरियों की कई तहों के नीचे रख दिया जाता, इस तरह गर्मी से आम दो-तीन दिन में पक जाते थे. यह इंतज़ाम अक्सर दादी की खटिया के नीचे होता था, जब दोपहर में वे सो रही होती थीं तो हम कच्चे-पक्के आम निकालकर आधा खाते-आधा फेंकते. पाँच-सात दिन में जब वे बोरियाँ खुलवातीं तो उन्हें पके हुए लेकिन चंद बचे हुए आम ही मिलते.
शहर के बीचो-बीच मकान और उसके अहाते में आम के दो पेड़, यह ऐसा कॉम्बिनेशन है जो ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता था. कई दशक तक चला. वह जितने दिन रहा सरकार की लापरवाही से. सड़क चौड़ी करने के मास्टर प्लान की चपेट में आम जनता भी आई और आम के पेड़ भी लेकिन मास्टर प्लान की घोषणा होने के तीस वर्ष बाद.
आम के एक फलदार पेड़ का मुआवज़ा मिला दो सौ रूपया जिसमें उसे कटवाने की मजदूरी भी शामिल थी. हमारे आँखों के सामने आम के पेड़ को ढेर कर दिया गया, जब उन्हें काटा गया बस उन पर मंजर लगने ही वाले थे. बात 16 साल पुरानी है लेकिन आज भी आँखें भर आती हैं.
कटे हुए आम के पेड़ से हरे पत्तों के बीच से कौव्वों के पाँच घोंसले निकाले गए, किसी चतुरसुजान ने कहा कि इसे कबाड़ी के यहाँ बेच दो, ख़ालिस लोहा है, हमने कौव्वों की बरसों की चोरी और अनूठे शिल्प को 23 रुपए में बेच दिया. उस पैसे से हमने मद्रास कॉफ़ी हाउस में डोसा खाया.
पेड़ कटने के बाद से ख़रीदकर आम खाने का मन कभी नहीं हुआ, जब कहीं मालदा दिखता है अपना दर्द हरा हो जाता है.
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
आम,
ब्लाग,
ब्लॉग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
blogger,
hindi
सदस्यता लें
संदेश (Atom)