23 अप्रैल, 2007

हिंदुत्व ख़तरनाक है, हिंदू होना नहीं

आप मुझ पर गड़े मुर्दे उखाड़ने का आरोप लगा सकते हैं लेकिन मुद्दे को छेड़ना ज़रूरी लग रहा है क्योंकि एक भटकी हुई बहस अधूरी रह गई है.

अब तक हुई सारी बहस में तीन बुनियादी ग़लतफ़हमियाँ रही हैं, पहला तो ये कि हिंदु और हिंदुत्व एक ही बात है. दूसरा, हिंदू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता में तुलना करने की कोशिश. इसे बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. तीसरा, इस पूरी बहस का धार्मिक भावनाओं से कोई संबंध नहीं है क्योंकि यह सिर्फ़ एक राजनीतिक मुद्दा है.

हिंदू होना हज़ारों साल से अनवरत चली आ रही सांस्कृतिक परंपरा का वारिस होना है जबकि हिंदुत्व उसके राजनीतिक इस्तेमाल की एक नासमझ कोशिश है. अगर कोई हिंदुत्व को कोस रहा है तो वह सांप्रदायिकता के रथ पर सवार सत्तालोलुप यात्राओं को कोस रहा है, न कि हिंदुओं को. हिंदू धर्म का सच्चा हितैषी वह नहीं हो सकता जो अपने धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल को अपने हित में चलाया जा रहा धर्मसम्मत राजसूय यज्ञ समझता हो. भारत में ऐसे करोड़ों हिंदू हैं जिन्हें सत्ता की राजनीति में अपनी आस्था को घसीटे जाने पर गंभीर आपत्ति है.

क्या कौव्वे को काला कहने से पहले भैंस, हाथी से लेकर दुनिया के हर काले जानवर का नाम लेना ज़रूरी है? जितनी आपत्तियाँ मैंने मुहल्लेवालों के लेखन पर पढीं उन सबमें एक बात ज़रूर थी कि केवल हिंदुओं को गाली दी जा रही है, मुसलमानों को क्यों नहीं? जो ग़लत है वह ग़लत है, उसे ग़लत कहने के लिए दूसरों के काले कारनामों की सूची पेश करने की बाध्यता ठीक नहीं है. सबके ग़लत होने से सब सही नहीं हो जाएँगे, जैसा कि भ्रष्टाचार के मामले में कुछ हद तक हो भी गया है.

हिंदुत्व की आलोचना सुनना कुछ भाइयों को कड़वा लग रहा है, वे कल्पना करें कि मुहल्ले के चिट्ठाकार मुसलमान होते तो क्या होता? अब तक दुनिया का पहला साइबर सांप्रदायिक दंगा शायद भड़क चुका होता. अब ज़रा सोचिए, आप हिंदुओं से कह रहे हैं मुसलमानों की सांप्रदायिकता के बारे में क्यों नहीं लिखते? किसी की नीयत पर कोई संदेह नहीं कर रहा हूँ लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि संवेदनशील रिश्तों में ऐसी आलोचना आप अपने लोगों से ही सुन सकते हैं दुसरों से तो क़तई नहीं. हिंदुओं के भीतर से सांप्रदायिकता पर गंभीर एतराज़ उठ रहे हैं तो उसका स्वागत करिए, मुसलमानों की तरफ़ से इस मुद्दे को उठाने की ज़िम्मेदारी मुसलमानों पर छोड़ दीजिए. अपने समाज को वही ठीक कर सकते हैं, बाहर से कोई नहीं कर सकता.

बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता और अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता में अधिक ख़तरनाक क्या है इसका जवाब बड़ा सीधा-सादा है. मुझे हवा का रुख़ पता है लेकिन सच के लिए उसके ख़िलाफ़ जाने का जोखिम उठाना होगा. जो सांप्रदायिक नहीं हैं उन्हें मेरी बातों का बुरा मानने की ज़रूरत नहीं है, और जो सांप्रदायिक हैं उनके बुरा मानने की परवाह भी क्यों की जाए. बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता निश्चित तौर पर ज़्यादा ख़तरनाक है. तादाद की ताक़त को किसी हाल में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लोकतंत्र में तो और भी नहीं. ज़रा सोचिए, संख्याबल की वजह से बहुसंख्यक समुदाय का सत्ता के ढाँचे पर नियंत्रण होना लाजिमी है, अगर वह सांप्रदायिकता की राह पर चले तो अल्पसंख्यकों के पास क्या विकल्प रह जाएँगे? लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों के हाथ में सत्ता की सांकेतिक हिस्सेदारी आ सकती है, वास्तविक सत्ता नहीं.

हिंदुत्व के सहारे सत्ता पाने की कोशिश में लगे लोग दूसरों पर तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं जो ज़्यादातर मौक़ों पर सही भी होता है. सच है कि मुसलमानों का वोट पाने के लिए हर तरह के सांप्रदायिक हथकंडे आज़ाद भारत में लगातार इस्तेमाल किए जा रहे हैं जिनकी भरपूर निंदा की जानी चाहिए. तुष्टिकरण की राजनीति सरासर ग़लत है, सच्चे अर्थों में अल्पसंख्यकों का पुष्टिकरण होना चाहिए, उन्हें उतना ही सबल और सुदृढ़ बनाया जाना चाहिए जितना कि कोई और है, इस पर किसी को क्यों एतराज़ होना चाहिए. तुष्टिकरण इसलिए घृणित है क्योंकि वह अल्पसंख्यकों के ज़ख़्मों को भुनाने की राजनीति है जबकि हिंदुत्व नफ़रत और असुरक्षा फैलाने की राजनीति है.

पाकिस्तान या बांग्लादेश में इस्लाम की राजनीति उतनी ही ख़तरनाक है जितनी भारत में हिंदुत्व की राजनीति क्योंकि वहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं. इसे हिंदू-मुसलमान के संदर्भ में न देखकर सिर्फ़ अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के परिप्रेक्ष्य में देखिए. बांग्लादेश की नामी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने जब लज्जा में एक बांग्लादेशी हिंदू के उत्पीड़न की तस्वीर पेश की तो उसे भारत की हिंदुत्ववादी बिरादरी ने हाथों-हाथ लिया, एक हिंदुत्ववादी पत्रिका ने तो पूरा उपन्यास ही छाप दिया, इस टिप्पणी के साथ कि देखिए मुसलमान हिंदुओं पर कितना अत्याचार कर रहे हैं. यह नासमझी है, गुजरात के दंगों को जो पाकिस्तानी 'हिंदुओं के अत्याचार' के रूप में पेश करते हैं वह भी उतने ही नासमझ हैं. बहुसंख्यकों की सांप्रदायिक राजनीति के ख़तरे के रूप में ही लज्जा या गुजरात को समझा जाना चाहिए.

आप जहाँ कहीं भी बहुसंख्यक या मज़बूत हैं वहाँ अपनी ज़िम्मेदारी को समझिए, यह बात मुहल्ले से लेकर पूरे देश पर लागू होती. हो सकता है आप देश में अल्पसंख्यक हों लेकिन अपनी बस्ती में बहुसंख्यक, ऐसे में अपनी बस्ती में घिरे एक अल्पसंख्यक परिवार के डर को हिंदू या मुसलमान का डर न समझिए, वह एक अल्पसंख्यक का डर है. एक व्यक्ति अलग-अलग जगहों पर एक साथ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक हो सकता है. मिसाल के तौर कश्मीर का हिंदू पूरे देश के हिसाब से बहुसंख्यक है और राज्य में अल्पसंख्यक, कश्मीर के मुसलमानों की सांप्रदायिक राजनीति को उस सख़्ती से फटकारा जाना चाहिए जिस तरह बाक़ी भारत में हिंदुओं की सांप्रदायिक राजनीति को. जब आप कश्मीर के हिंदुओं के मामले में नरम रुख़ की उम्मीद करते हैं तो बाक़ी देश के मुसलमानों के बारे में क्यों नहीं?

जो अल्पसंख्यक नहीं हैं वे अल्पसंख्यक होने का दर्द आसानी से नहीं समझ सकते. मैं भारतीय सवर्ण हिंदू हूँ, अपने देश में जहाँ कहीं गया बहुसंख्यक ही रहा. ब्रिटेन आने के बाद पता चला कि अल्पसंख्यक होने की असुरक्षा क्या और कैसी होती है. पूरी सभ्य और लोकतांत्रिक दुनिया में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का आश्वासन दिलाने वाली व्यवस्थाएँ हैं जिसे कोई ग़लत नहीं मानता. सत्ता तक पहुँचने का सबसे आसाना शॉर्टकट है बहुसंख्यकों को असुरक्षित बताने की राजनीति, पूरी सभ्य दुनिया में इस शॉर्टकट की निंदा होती है.

ब्रिटेन में एक पार्टी है जो अपने-आपको गोरे ब्रितानी लोगों के हितों की रक्षक बताती है, उसका नाम है ब्रिटिश नेशनल पार्टी (बीएनपी). ब्रितानी मीडिया ने उसे सांप्रदायिक बताते हुए उसका पूरी तरह से बहिष्कार किया हुआ. ईसाइयों के देश में धर्म के नाम पर बने सैकड़ों हिंदू-मुस्लिम-सिख संगठन चल रहे हैं, इसी तरह ब्लैक सोशल वर्कर एसोसिएशन, ब्लैक जर्नलिस्ट एसोसिएशन भी हैं लेकिन व्हाइट इंग्लिश या ब्रिटिश संगठन कहीं नहीं है. उसकी एकदम साफ़ वजह है कि जिनकी तादाद 80 प्रतिशत से अधिक है उन्हें धर्म या नस्ल के आधार पर संगठित होने की क्या ज़रूरत हैं, उनके असुरक्षित होने का कोई तर्क ही नहीं है. अल्पसंख्यकों की असुरक्षा की भावना को समझना और उसका सम्मान करना किसी समाज के उदार और सभ्य होने की निशानी है और इसके ठीक विपरीत है बहुसंख्यकों में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा देना.

सांप्रदायिकता की सबसे दिलचस्प बात ये है कि जो लोग बाहर से एक दूसरे के दुश्मन दिखाई देते हैं वे ही अपने भाषणों और नारों से एक-दूसरे की विषवेल में खाद-पानी देते हैं. यही वजह है कि एक तरफ़ से सांप्रदायिकता बढ़ने पर दूसरी तरफ़ से भी अपने-आप बढ़ती है, ऐसे में यह बहस बेमानी हो जाती है कि शुरूआत किसने की, ज़्यादा या कम सांप्रदायिक कौन है. हर सूरत में सांप्रदायिकता एक ख़तरनाक राजनीतिक हथियार है जिसके इस्तेमाल पर शोर मचाना हर उस व्यक्ति का कर्तव्य है जो इंसान के चैन से जीने के हक़ का हिमायती है.

11 टिप्‍पणियां:

Srijan Shilpi ने कहा…

इस पूरी बहस में क़ायदे का हस्तक्षेप आपने ही किया है। सांप्रदायिकता का मुद्दा वास्तव में धर्म की राजनीति से उपजा है। राजनेता इस राजनीति से सत्ता की रोटी सेंकते आए हैं। अधिकांश दंगे राजनेताओं द्वारा सुनियोजित रूप से करवाए जाते हैं। सार्वजनिक रूप से ये राजनेता धर्म के आधार पर एक-दूसरे से लड़ते नजर आते हैं, लेकिन अंदर से ये मिले होते हैं और जनता को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।

सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के संबंध में स्वस्थ बौद्धिक विमर्श जनता को राजनीति के इस असली पैंतरे के प्रति जागरुक बनाने में सहायक हो सकता है। लेकिन हैरानी तब होती है जब मीडिया से जुड़े कुछ लोग भी राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से अपना एक खेमा चुनकर लड़ने के लिए दूसरा खेमा खोज लाते हैं और यदि ऐसा कोई खेमा नहीं मिलता तो दुष्प्रचार और आरोपबाजी का अभियान छेड़कर दूसरा खेमा तैयार कर लेते हैं। उन्हें इसमें मजा आता है, उन्हें अपने चारों ओर शांति, हंसी-खुशी पसंद नहीं आती।

भारत-पाकिस्तान का विभाजन धर्म के नाम पर हुआ। इस विभाजन के परिणामस्वरूप सत्ता जिनके हाथों में आई, उन्हें धर्म से कभी कोई सरोकार नहीं रहा। न तो नेहरु को और न ही जिन्ना को। लेकिन लाखों-करोड़ों लोग विभाजन के कारण हिंसा, वैमनस्य और सांप्रदायिकता की आग में जलकर स्वाहा हो गए।

सांप्रदायिकता विभिन्न समूहों के परस्पर विरोधी सोच के ध्रुवों पर कंडीशंड मानसिकता के टकराव से पैदा होती है। यह कोई वास्तविक ठोस मुद्दा नहीं है-- गरीबी, भूख, बेरोजगारी, मंहगाई, भूमंडलीकरण, साम्राज्यवाद, तानाशाही आदि की तरह। इसीलिए मैं अक्सर सांप्रदायिकता के बजाय दूसरे मुद्दों पर होने वाली बहसों को ज्यादा जरूरी मानकर उनमें भाग लेता रहा हूं। लेकिन पिछले दिनों स्टार न्यूज के दफ्तर पर एक नवोदित अतिवादी संगठन द्वारा किए गए हमले के तात्कालिक प्रसंग पर फहमीदा रियाज़ की कविता के बहाने मैंने एक पोस्ट की, जिसे धर्मनिरपेक्षता का ठेका ले चुके एक मित्र ने गलत संदर्भ से जोड़कर बहस को पटरी पर से उतार दिया। और उसके बाद वह रास्ता ऐसा भटका कि लगा जैसे संवाद का सूत्र ही खत्म हो गया हो।

रवीश जैसे समझदार पत्रकार तक, जो अन्य मुद्दों पर इतनी संवेदनशीलता और निर्द्वन्द्व भाव से बहस करते रहे हैं, सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहस करते समय भीषण रूप से कंडीशंड नज़र आते हैं। वह भी पहले से दूसरे की बातों को बगैर सुने-समझे एक धारणा बना लेते हैं और फिर उसपर टूट पड़ते हैं। फिर गुटबाजी शुरू होती है, शिकवे-शिकायत होते हैं, माफी-मनौवल का खेल चलता है....फिर पहले की तरह चलने लगता है। इस बीच असली मुद्दा दूर पीछे कहीं छूट चुका होता है।

ऐसे में जब आपको पढ़ता हूं तो लगता है कि बगैर मूल विषय से भटके मुद्दे की तह में जाकर कैसे बहस के बिखरे सूत्रों को खोजा जा सकता है और उसके सहारे समाधान की दिशा में कैसे विमर्श को आगे बढ़ाया जा सकता है। शुक्र है कि आपको अभी तक किसी खेमे में जबरदस्ती घसीटकर शामिल नहीं किया गया है और आप स्वस्थ बहस कर पा रहे हैं, चिट्ठों की राजनीति में बगैर उलझे हुए।

Kaul ने कहा…

बहुत ही सही और तर्कसंगत लेख है। काश अविनाश दास के लेखों (और इंट्रो) का तर्क भी अनामदास के लेखों जैसा होता। फिर शायद किसी को शिकायत नहीं होती।

Unknown ने कहा…

Ji haan isi tarah se Muslim hona khatarnak nahin, par Islam khatarnak hai. Aur yeh baat vahaan par to laagu hoti hi hai jahan Islam ki majority hai, par vahan par bhi laagu hota hai, jahan Islam minority me hai. Vishva bhar ke ghatnakram aur itihaas par ek nazar bhar daalne ke der hai. Hindu dharm ka structure hi kuchh aisa hai ki Hindu vishva bhar me vo nahin kar sakta jo ativaadi musalmaan kar sakta hai. Yadi aap yah antar jaan bujh kar nakaarnaa chaahte hain to koi kuchh nahin kar saktaa.
Kauve ko kaalaa kahne se pahle bhains to kaalaa kahna aavashyak nahi, par jo kauve ko kaalaa kahne se pahale bhains ko safed ya kauve se kamzor kahe, uski baat kaise gale se utregi.
- Asim Chaudhary

अभय तिवारी ने कहा…

बहुत बढि़या लेख..बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के फ़र्क को उसी सफ़ाई से रखा आपने जो अब आपकी पहचान सी बन गई है..

बेनामी ने कहा…

बिलकुल मुद्दे की बात लेकर आए है। अल्पसंख्यकों के संगठन और राजनीति-धर्म के गठजोड़ को बहुत अच्छे से समझाया है। इस विषय पर ज़रूर चर्चा होनी चाहिए। आखिर इसी दिशा को ही हम खोज रहे थे पर आपसी वाद विवाद में इसे भूल ही गए थे।

हरिराम ने कहा…

हिन्दू धर्म का मूल क्या है?

Unknown ने कहा…

अनामदास जी, जरा इस लिंक को पढियेगा, यह किसी हिन्दू सनकी ने नहीं लिखी है, बल्कि मुजफ़्फ़र हुसैन जी ने लिखी है, शायद आपकी आँखें खुलें...
http://www.panchjanya.com/dynamic/modules.php?name=Content&pa=showpage&pid=198&page=6

अनामदास ने कहा…

हरिराम भाई
हिंदू धर्म क्या है, यही नहीं पता तो उसके मूल में क्या है, कैसे पता चलेगा? लेकिन जैसा मैंने लिखा है कि पाँच हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा का वारिस है हिंदू होना जिसमें इतना कुछ समाहित है कि उसकी व्याख्या शायद कई पुस्तकों से भी नहीं हो सकेगी. हिंदू धर्म के बारे में कोई एक बात पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती,यह एकेश्वरवादी भी है अनेकश्वरवादी, मूर्तिपूजक भी है, और नहीं भी..यहाँ तक तक कि धर्म को न मानकर भी आप नास्तिक हिंदू रहते हैं...असीम..निस्सीम है, उसके मूल में क्या है अगर कोई बताता है तो वह अधूरा, झूठा और ग़लत ही होगा.

अनामदास ने कहा…

सुरेश जी
माफ़ी चाहता हूँ, पाञ्चजन्य का जो लिंक आपने भेजा था वह खुल नही रहा है इसलिए मेरी आँखें नहीं खुल सकीं. एक बात ज़रूर अर्ज़ करना चाहूँगा कि मैं जानकारी हासिल करने के लिए पाञ्चजन्य को प्रामाणिक स्रोत नहीं मानता, मुझे उनकी विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह है.
बहरहाल, सुझाव के लिए धन्यवाद.

बेनामी ने कहा…

लूट लिया मुशायरा.

सायमा रहमान ने कहा…

kya yahan koi mushayara chal raha tha.?