09 मई, 2007

अनामदास की पोलपट्टी सब सच्ची-सच्ची

हर आदमी पूछता है, आई कार्ड दिखाओ, बैज दिखाओ, किधर खड़े हो, जल्दी बताओ. किस खाँचे में फिट होते हो?

आज मैं सिर्फ़ अपनी बात करूँगा. एक-एक शब्द सच है. मुझे ख़ुद ही पता नहीं है, मैं कहाँ खड़ा हूँ, जो सही लगता है करता हूँ, अपना तर्क ख़ुद बुनता हूँ...उधेड़ता हूँ...बुनता हूँ.

हिंदू हूँ लेकिन बीफ़ बर्गर पसंद है.

थोड़ा वामपंथी हूँ लेकिन माओ-स्टालिन का निंदक हूँ.

थोड़ा साम्यवादी हूँ लेकिन पूंजी जुटा रहा हूँ.

थोड़ा गाँधीवादी हूँ लेकिन माँसाहारी और मदिराप्रेमी हूँ.

थोड़ा समाजवादी हूँ लेकिन लोहिया-जेपी के बाद लालू जँचे नहीं.

पूरा लोकतंत्रवादी हूँ लेकिन अमरीकी स्टाइल कबूल नहीं है.

पक्का अमरीका विरोधी हूँ लेकिन सद्दाम मंज़ूर नहीं था.

ईरान समर्थक हूँ लेकिन मुल्लों से चिढ़ है.

देशप्रेमी हूँ लेकिन विदेश में रहता हूँ.

राष्ट्रवाद का आलोचक हूँ लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन से डर लगता है.

आधुनिक हूँ लेकिन वेद-उपनिषद पढ़ना चाहता हूँ.

सवर्ण हूँ लेकिन आरक्षण को ग़लत नहीं मानता.

व्यवस्था विरोधी हूँ लेकिन नौकरी करता हूँ.

जान साहित्य-इतिहास में बसती है लेकिन रोज़गार समाचार है.

सृजनशील हूँ लेकिन अनुवाद करता हूँ.

सारे कर्म-उद्यम करता हूँ लेकिन नियति को मानता हूँ.

परिवर्तन चाहता हूँ लेकिन उससे डरता हूँ.

मानवतावादी हूँ लेकिन उसके लिए कुछ नहीं करता.

आप ही बताइए, कौन है जो मुझे अपनाएगा, मैंने सबको ठुकराया है. मैं ग़लत हूँ लेकिन सबसे ग़लत यही मानना है कि कोई भी, कुछ भी पूरी तरह सही है. बाक़ी निर्णय आप ख़ुद करें.

17 टिप्‍पणियां:

अभय तिवारी ने कहा…

बहुत सुन्दर मित्र.. ये हमारा भी घोषणा पत्र हो सकता था.. एक दो बिंदुओ के फेर बदल के साथ..गिटार विटार बजाते हैं आप?.. तो इसको गिटार पर बॉब डिलन की तरह लेट कर गाइये और देखिये एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधि गीत हो सकता है..

बेनामी ने कहा…

आपका चिट्ठा पढती हूं, लेकिन टिप्पणी नही करती!
आपका लेखन पसंद है, लेकिन कह नही पाती!
आज आपने बहुत ज्यादा अच्छा लिखा है, खासकर ये पन्क्तियां बहुत पसंद आईं-
//सृजनशील हूँ लेकिन अनुवाद करता हूँ.//
//परिवर्तन चाहता हूँ लेकिन उससे डरता हूँ.//

Jitendra Chaudhary ने कहा…

अनाम दास जी,
आपने तो दिल की बात कह दी। लाइन दर लाइन, शब्द दर शब्द। एकदम सच! खरा सच

एक बात हमेशा याद रखिएगा, क्रांति वाहक, सबसे अलग ही होते है। लोगों के बनाए रास्ते पर ना चलकर, अपना पथ खुद बनाते है।

और कोई साथ हो ना हो, मै आपके साथ हूँ।

Pratik Pandey ने कहा…

निरपेक्ष तथ्य ही सत्य है, लेकिन बहुत कम लोगों में उसका सामना करने का साहस होता है। इस साहस के लिए बधाई।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बढ़िया! बहुत सही, इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इतने लंबे को एक शब्द में लिखने कहा जाए तो मैं "भारतीय" शब्द का प्रयोग करूंगा

azdak ने कहा…

अच्‍छा परिचयात्‍मक चित्र है.. कोई राज़ की बात दबा रहें तो देर-सबेर उसका भी खुलासा कर डालियेगा.
हां, गीत वाला अभय का प्रस्‍ताव.. बिना गिटार के भी गीत बुनने का आइडिया बुरा नहीं.

eSwami ने कहा…

:)

Udan Tashtari ने कहा…

हमेशा प्रशंसक रहा हूँ, लेकिन कहा नहीं. :)
सोचा आप खुद ही समझ जायेंगे. :)

Arun Arora ने कहा…

कपया दूसरी किश्त भी जारी करे
ताकी एक ही बार टिपियाया जा सके

रवि रतलामी ने कहा…

दूसरे शब्दों में, ये तो बहुत कुछ रविरतलामी का परिचय है! :)

सुजाता ने कहा…

bahut sahi likhaa bandhu !
isake baad bhi koi profile jananaa chaahe to dakiyaanoosee hee hogaa |

debashish ने कहा…

आपने मानों एक आम भारतीय की चारित्रिक हिपोक्रिसी (शब्द सख़्त लगे तो विरोधाभास से बदल दें) ही का ही बखान कर दिया। बहुत खूब :)

Unknown ने कहा…

मैं क्या हूँ....क्या होना चाहती हूँ.....क्या हो सकती हूँ....यह तीनों mutually exclusive क्यों होते हैं.......?!!
शायद जब यह तीनों में सबसे ज्यादा ओवरलैपिंग होती है....तब अस्तित्व में सबसे निखार आता है....

आपका परिचय अधूरा ही लगा.....शायद आपको स्वयं के बारे में इतनी ही जानकारी है...

वैसे आपका लिखा पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है...और पढ़ने के बाद ....उसपर सोचना....

Srijan Shilpi ने कहा…

अति सुन्दर। वैसे तो, हम दोनों को एक-दूसरे की सारी पोल-पट्टी काफी पहले से मालूम है, जिसे कुछ सीमाओं की वजह से सार्वजनिक तौर पर हमलोग व्यक्त करने से बचते रहे हैं। लेकिन आपका यह परिचय लाजवाब है। ग़ालिब के शब्दों को दोहराते हुए कहना चाहता हूं -

हैं और भी चिट्ठाकारी में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि अनामदास का है अंदाज-ए-बयां और


यदि मुझे आपके ही शब्दों में थोड़ा-बहुत हेर-फेर करने की इजाजत दी जाए तो मेरा परिचय कुछ इस तरह से व्यक्त हो सकता है-

हिंदू हूँ, बीफ़ बर्गर खाना पसंद नहीं, फिर भी खाने वालों का हिन्दूपन सहज स्वीकार्य है.

थोड़ा वामपंथी हूँ लेकिन माओ-स्टालिन का निंदक हूँ, किन्तु मार्क्स-लेनिन के बौद्धिक विचार क्रांतिकारी लगते हैं.

थोड़ा साम्यवादी हूँ लेकिन पूंजी जुटाने की कोशिश कर रहा हूँ.

थोड़ा गाँधीवादी हूँ और माँस-मदिरा से बचता भी हूँ, परंतु अहिंसावाद में अधिक भरोसा नहीं है.

थोड़ा समाजवादी हूँ, हालांकि लोहिया-जेपी के बाद लालू जँचे नहीं, परंतु समाजवाद की उम्मीद अब भी बची है.

पूरा लोकतंत्रवादी हूँ लेकिन अमरीकी स्टाइल कबूल नहीं है, लेकिन अमेरिकी सरकार की राष्ट्रपति-शासन प्रणाली का मॉडल भारतीय लोकतंत्र के लिए अधिक उपयुक्त लगता है.

पक्का अमरीका-विरोधी हूँ, सद्दाम भी मंज़ूर नहीं था, मगर उसे मौत की सजा दिए जाने का तरीका बहुत बुरा लगा.

ईरान-समर्थक हूँ लेकिन मुल्लों से चिढ़ है, किन्तु अमेरिका यदि ईरान पर हमला करे तो सहानुभूति उन मुल्लों के प्रति होगी.

देशप्रेमी हूँ और देश में ही रहता हूँ, परंतु सारी दुनिया जरूर घूमना चाहता हूं.

उग्र-राष्ट्रवाद का आलोचक हूँ लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन के दुष्प्रभावों का उग्र-आलोचक हूं.

आधुनिक हूँ लेकिन वेद-उपनिषद बचपन से पढ़ता रहा हूँ.

जन्म से अवर्ण माना जाता हूँ और आरक्षण को जरूरी संवैधानिक उपाय मानता हूं.

व्यवस्था-विरोधी हूँ, परंतु नौकरी करता हूँ, लेकिन इस्तीफा जेब में रखता हूं.

जान साहित्य-इतिहास-चिट्ठाकारी में बसती है लेकिन रोज़गार समाचार और क़ानून है.

सृजनशील हूँ लेकिन अनुवाद करता हूँ.

सारे कर्म-उद्यम करता हूँ और नियति को भी मानता हूँ लेकिन कर्म और नियति दोनों को खेल की तरह लेता हूं.

परिवर्तन चाहता हूँ और यह मानता हूं कि परिवर्तन अक्सर बेहतरी के लिए ही होता है, इसलिए उससे डर नहीं लगता.

मानवतावादी हूँ लेकिन अभी तक खुद ही सच्चा मानव नहीं बन सका हूं.



अभय जी ने सही कहा है कि आपका आत्म-परिचय एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधि गीत बन सकता है, यदि इसे गिटार के संगीत की लय में गाया जाए।

बेनामी ने कहा…

हम सब अपना चुके हैं ।

बेनामी ने कहा…

अरे भाई यह तो हमारी पूरी पीढी का परिचय गीत है . इसका तो सामूहिक गान होना चाहिए . यह देश के शिक्षित और संवेदनशील युवाओं के वैचारिक गणतंत्र का गद्य में रचा गया राष्ट्रगीत है . बेहद सच्चा और बेहद 'रिप्रेज़ेन्टेटिव' .

बावज़ूद इसके कि इसकी पहली ही वन-लाइनर अपने पर खरी नहीं उतरती, अपन इसके सच को कुबूल करते हैं और इसे अपनी पीढी का प्रतिनिधि 'गद्य गीत' मानते हैं.

v9y ने कहा…

सुंदर. विरोधाभासों के पुतले हैं हम. "या तो तुम हमारे साथ हो या हमारे ख़िलाफ़", वाली भाषा समझदार नहीं बोलते.